१२३ माद्री-पुत्र-जननम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नकुल और सहदेवकी उत्पत्ति तथा पाण्डु-पुत्रोंके नामकरण-संस्कार

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्तीपुत्रेषु जातेषु धृतराष्ट्रात्मजेषु च।
मद्रराजसुता पाण्डुं रहो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

कुन्तीपुत्रेषु जातेषु धृतराष्ट्रात्मजेषु च।
मद्रराजसुता पाण्डुं रहो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब कुन्तीके तीन पुत्र उत्पन्न हो गये और धृतराष्ट्रके भी सौ पुत्र हो गये, तब माद्रीने पाण्डुसे एकान्तमें कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मेऽस्ति त्वयि संतापो विगुणेऽपि परंतप।
नावरत्वे वरार्हायाः स्थित्वा चानघ नित्यदा ॥ २ ॥
गान्धार्याश्चैव नृपते जातं पुत्रशतं तथा।
श्रुत्वा न मे तथा दुःखमभवत् कुरुनन्दन ॥ ३ ॥

मूलम्

न मेऽस्ति त्वयि संतापो विगुणेऽपि परंतप।
नावरत्वे वरार्हायाः स्थित्वा चानघ नित्यदा ॥ २ ॥
गान्धार्याश्चैव नृपते जातं पुत्रशतं तथा।
श्रुत्वा न मे तथा दुःखमभवत् कुरुनन्दन ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले निष्पाप कुरुनन्दन! आप संतान उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहित हो गये, आपकी इस न्यूनता या दुर्बलताको लेकर मेरे मनमें कोई संताप नहीं है। यद्यपि मैं सदा कुन्तीदेवीकी अपेक्षा श्रेष्ठ होनेके कारण पटरानीके पदपर बैठनेकी अधिकारिणी थी, तो भी जो सदा मुझे छोटी बनकर रहना पड़ता है, इसके लिये भी मुझे कोई दुःख नहीं है। राजन्! गान्धारी तथा राजा धृतराष्ट्रके जो सौ पुत्र हुए हैं, वह समाचार सुनकर भी मुझे वैसा दुःख नहीं हुआ था॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु मे महद् दुःखं तुल्यतायामपुत्रता।
दिष्ट्या त्विदानीं भर्तुर्मे कुन्त्यामप्यस्ति संततिः ॥ ४ ॥

मूलम्

इदं तु मे महद् दुःखं तुल्यतायामपुत्रता।
दिष्ट्या त्विदानीं भर्तुर्मे कुन्त्यामप्यस्ति संततिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु इस बातका मेरे मनमें बहुत दुःख है कि मैं और कुन्तीदेवी दोनों समानरूपसे आपकी पत्नियाँ हैं, तो भी उन्हें तो पुत्र हुआ और मैं संतानहीन ही रह गयी। यह सौभाग्यकी बात है कि इस समय मेरे प्राणनाथको कुन्तीके गर्भसे पुत्रकी प्राप्ति हो गयी है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वपत्यसंतानं कुन्तिराजसुता मयि।
कुर्यादनुग्रहो मे स्यात् तव चापि हितं भवेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

यदि त्वपत्यसंतानं कुन्तिराजसुता मयि।
कुर्यादनुग्रहो मे स्यात् तव चापि हितं भवेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि कुन्तिराजकुमारी मेरे गर्भसे भी कोई संतान उत्पन्न करा सकें, तो यह उनका मेरे ऊपर महान् अनुग्रह होगा और इससे आपका भी हित हो सकता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संरम्भो हि सपत्नीत्वाद् वक्तुं कुन्तिसुतां प्रति।
यदि तु त्वं प्रसन्नो मे स्वयमेनां प्रचोदय ॥ ६ ॥

मूलम्

संरम्भो हि सपत्नीत्वाद् वक्तुं कुन्तिसुतां प्रति।
यदि तु त्वं प्रसन्नो मे स्वयमेनां प्रचोदय ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौत होनेके कारण मेरे मनमें एक अभिमान है, जो कुन्तीदेवीसे कुछ निवेदन करनेमें बाधक हो रहा है; अतः यदि आप मुझपर प्रसन्न हों तो आप स्वयं ही मेरे लिये कुन्तीदेवीको प्रेरित कीजिये’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

पाण्डुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममाप्येष सदा माद्रि हृद्यर्थः परिवर्तते।
न तु त्वां प्रसहे वक्तुमिष्टानिष्टविवक्षया ॥ ७ ॥

मूलम्

ममाप्येष सदा माद्रि हृद्यर्थः परिवर्तते।
न तु त्वां प्रसहे वक्तुमिष्टानिष्टविवक्षया ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डु बोले— माद्री! यह बात मेरे मनमें भी निरन्तर घूमती रहती है, किंतु इस विषयमें तुमसे कुछ कहनेका साहस नहीं होता था; क्योंकि पता नहीं, तुम यह प्रस्ताव सुनकर प्रसन्न होओगी या बुरा मान जाओगी। यह संदेह बराबर बना रहता था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव त्विदं मतं मत्वा प्रयतिष्याम्यतः परम्।
मन्ये ध्रुवं मयोक्ता सा वचनं प्रतिपत्स्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

तव त्विदं मतं मत्वा प्रयतिष्याम्यतः परम्।
मन्ये ध्रुवं मयोक्ता सा वचनं प्रतिपत्स्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु आज इस विषयमें तुम्हारी सम्मति जानकर अब मैं इसके लिये प्रयत्न करूँगा। मुझे विश्वास है, मेरे कहनेपर कुन्तीदेवी निश्चय ही मेरी बात मान लेंगी॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुन्तीं पुनः पाण्डुर्विविक्त इदमब्रवीत्।
कुलस्य मम संतानं लोकस्य च कुरु प्रियम् ॥ ९ ॥
मम चापिण्डनाशाय पूर्वेषामपि चात्मनः।
मत्प्रियार्थं च कल्याणि कुरु कल्याणमुत्तमम् ॥ १० ॥

मूलम्

ततः कुन्तीं पुनः पाण्डुर्विविक्त इदमब्रवीत्।
कुलस्य मम संतानं लोकस्य च कुरु प्रियम् ॥ ९ ॥
मम चापिण्डनाशाय पूर्वेषामपि चात्मनः।
मत्प्रियार्थं च कल्याणि कुरु कल्याणमुत्तमम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब राजा पाण्डुने एकान्तमें कुन्तीसे यह बात कही—‘कल्याणि! मेरी कुलपरम्पराका विच्छेद न हो और सम्पूर्ण जगत्‌का प्रिय हो, ऐसा कार्य करो। मेरे तथा अपने पूर्वजोंके लिये पिण्डका अभाव न हो और मेरा भी प्रिय हो, इसके लिये तुम परम उत्तम कल्याणमय कार्य करो॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशसोऽर्थाय चैव त्वं कुरु कर्म सुदुष्करम्।
प्राप्याधिपत्यमिन्द्रेण यज्ञैरिष्टं यशोऽर्थिना ॥ ११ ॥

मूलम्

यशसोऽर्थाय चैव त्वं कुरु कर्म सुदुष्करम्।
प्राप्याधिपत्यमिन्द्रेण यज्ञैरिष्टं यशोऽर्थिना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने यशका विस्तार करनेके लिये तुम अत्यन्त दुष्कर कर्म करो, जैसे इन्द्रने स्वर्गका साम्राज्य प्राप्त कर लेनेके बाद भी केवल यशकी कामनासे अनेकानेक यज्ञोंका अनुष्ठान किया था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा मन्त्रविदो विप्रास्तपस्तप्त्वा सुदुष्करम्।
गुरूनभ्युपगच्छन्ति यशसोऽर्थाय भाविनि ॥ १२ ॥

मूलम्

तथा मन्त्रविदो विप्रास्तपस्तप्त्वा सुदुष्करम्।
गुरूनभ्युपगच्छन्ति यशसोऽर्थाय भाविनि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भामिनि! मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण अत्यन्त कठोर तपस्या करके भी यशके लिये गुरुजनोंकी शरण ग्रहण करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणाश्च तपोधनाः।
चक्रुरुच्चावचं कर्म यशसोऽर्थाय दुष्करम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तथा राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणाश्च तपोधनाः।
चक्रुरुच्चावचं कर्म यशसोऽर्थाय दुष्करम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सम्पूर्ण राजर्षियों तथा तपस्वी ब्राह्मणोंने भी यशके लिये छोटे-बड़े कठिन कर्म किये हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा त्वं माद्रीं प्लवेनैव तारयैनामनिन्दिते।
अपत्यसंविभागेन परां कीर्तिमवाप्नुहि ॥ १४ ॥

मूलम्

सा त्वं माद्रीं प्लवेनैव तारयैनामनिन्दिते।
अपत्यसंविभागेन परां कीर्तिमवाप्नुहि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनिन्दिते! इसी प्रकार तुम भी इस माद्रीको नौकापर बिठाकर पार लगा दो; इसे भी संतति देकर उत्तम यश प्राप्त करो’॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वाब्रवीन्माद्रीं सकृच्चिन्तय दैवतम् ।
तस्मात् ते भवितापत्यमनुरूपमसंशयम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वाब्रवीन्माद्रीं सकृच्चिन्तय दैवतम् ।
तस्मात् ते भवितापत्यमनुरूपमसंशयम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महाराज पाण्डुके यों कहनेपर कुन्तीने माद्रीसे कहा—‘तुम एक बार किसी देवताका चिन्तन करो, उससे तुम्हें योग्य संतानकी प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो माद्री विचार्यैवं जगाम मनसाश्विनौ।
तावागम्य सुतौ तस्यां जनयामासतुर्यमौ ॥ १६ ॥

मूलम्

ततो माद्री विचार्यैवं जगाम मनसाश्विनौ।
तावागम्य सुतौ तस्यां जनयामासतुर्यमौ ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब माद्रीने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारोंका स्मरण किया। तब उन दोनोंने आकर माद्रीके गर्भसे दो जुड़वें पुत्र उत्पन्न किये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलं सहदेवं च रूपेणाप्रतिमौ भुवि।
तथैव तावपि यमौ वागुवाचाशरीरिणी ॥ १७ ॥

मूलम्

नकुलं सहदेवं च रूपेणाप्रतिमौ भुवि।
तथैव तावपि यमौ वागुवाचाशरीरिणी ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे एकका नाम नकुल था और दूसरेका सहदेव। पृथ्वीपर सुन्दर रूपमें उन दोनोंकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं था। पहलेकी तरह उन दोनों यमल संतानोंके विषयमें भी आकाशवाणीने कहा—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वरूपगुणोपेतौ भवतोऽत्यश्विनाविति ।
भासतस्तेजसात्यर्थं रूपद्रविणसम्पदा ॥ १८ ॥

मूलम्

सत्त्वरूपगुणोपेतौ भवतोऽत्यश्विनाविति ।
भासतस्तेजसात्यर्थं रूपद्रविणसम्पदा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये दोनों बालक अश्विनीकुमारोंसे भी बढ़कर बुद्धि, रूप और गुणोंसे सम्पन्न होंगे। अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप-सम्पत्तिके द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामानि चक्रिरे तेषां शतशृङ्गनिवासिनः।
भक्त्या च कर्मणा चैव तथाशीर्भिर्विशाम्पते ॥ १९ ॥

मूलम्

नामानि चक्रिरे तेषां शतशृङ्गनिवासिनः।
भक्त्या च कर्मणा चैव तथाशीर्भिर्विशाम्पते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शतशृंगनिवासी ऋषियोंने उन सबके नामकरण-संस्कार किये। उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्मके अनुसार उनके नाम रखे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठं युधिष्ठिरेत्येवं भीमसेनेति मध्यमम्।
अर्जुनेति तृतीयं च कुन्तीपुत्रानकल्पयन् ॥ २० ॥

मूलम्

ज्येष्ठं युधिष्ठिरेत्येवं भीमसेनेति मध्यमम्।
अर्जुनेति तृतीयं च कुन्तीपुत्रानकल्पयन् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके ज्येष्ठ पुत्रका नाम युधिष्ठिर, मझलेका नाम भीमसेन और तीसरेका नाम अर्जुन रखा गया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वजं नकुलेत्येवं सहदेवेति चापरम्।
माद्रीपुत्रावकथयंस्ते विप्राः प्रीतमानसाः ॥ २१ ॥

मूलम्

पूर्वजं नकुलेत्येवं सहदेवेति चापरम्।
माद्रीपुत्रावकथयंस्ते विप्राः प्रीतमानसाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणोंने माद्रीपुत्रोंमेंसे जो पहले उत्पन्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरेका सहदेव निश्चित किया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुसंवत्सरं जाता अपि ते कुरुसत्तमाः।
पाण्डुपुत्रा व्यराजन्त पञ्च संवत्सरा इव ॥ २२ ॥

मूलम्

अनुसंवत्सरं जाता अपि ते कुरुसत्तमाः।
पाण्डुपुत्रा व्यराजन्त पञ्च संवत्सरा इव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कुरुश्रेष्ठ पाण्डवगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्पन्न हुए थे, तो भी देवस्वरूप होनेके कारण पाँच संवत्सरोंकी भाँति एक-से सुशोभित हो रहे थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महासत्त्वा महावीर्या महाबलपराक्रमाः ।
पाण्डुर्दृष्ट्‌वा सुतांस्तांस्तु देवरूपान् महौजसः ॥ २३ ॥
मुदं परमिकां लेभे ननन्द च नराधिपः।
ऋषीणामपि सर्वेषां शतशृङ्गनिवासिनाम् ॥ २४ ॥
प्रिया बभूवुस्तासां च तथैव मुनियोषिताम्।
कुन्तीमथ पुनः पाण्डुर्माद्र्यर्थे समचोदयत् ॥ २५ ॥

मूलम्

महासत्त्वा महावीर्या महाबलपराक्रमाः ।
पाण्डुर्दृष्ट्‌वा सुतांस्तांस्तु देवरूपान् महौजसः ॥ २३ ॥
मुदं परमिकां लेभे ननन्द च नराधिपः।
ऋषीणामपि सर्वेषां शतशृङ्गनिवासिनाम् ॥ २४ ॥
प्रिया बभूवुस्तासां च तथैव मुनियोषिताम्।
कुन्तीमथ पुनः पाण्डुर्माद्र्यर्थे समचोदयत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान्, महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्वरूप महान् तेजस्वी पुत्रोंको देखकर महाराज पाण्डुको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दमें मग्न हो गये। वे सभी बालक शतशृंगनिवासी समस्त मुनियों और मुनिपत्नियोंके प्रिय थे। तदनन्तर पाण्डुने माद्रीसे संतानकी उत्पत्ति करानेके लिये कुन्तीको पुनः प्रेरित किया॥२३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच पृथा राजन् रहस्युक्ता तदा सती।
उक्ता सकृद् द्वन्द्वमेषा लेभे तेनास्मि वञ्चिता ॥ २६ ॥

मूलम्

तमुवाच पृथा राजन् रहस्युक्ता तदा सती।
उक्ता सकृद् द्वन्द्वमेषा लेभे तेनास्मि वञ्चिता ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब एकान्तमें पाण्डुने कुन्तीसे वह बात कही, तब सती कुन्ती पाण्डुसे इस प्रकार बोली—‘महाराज! मैंने इसे एक पुत्रके लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभेम्यस्याः परिभवात् कुस्त्रीणां गतिरीदृशी।
नाज्ञासिषमहं मूढा द्वन्द्वाह्वाने फलद्वयम् ॥ २७ ॥
तस्मान्नाहं नियोक्तव्या त्वयैषोऽस्तु वरो मम।
एवं पाण्डोः सुताः पञ्च देवदत्ता महाबलाः ॥ २८ ॥
सम्भूताः कीर्तिमन्तश्च कुरुवंशविवर्धनाः ।
शुभलक्षणसम्पन्नाः सोमवत् प्रियदर्शनाः ॥ २९ ॥

मूलम्

बिभेम्यस्याः परिभवात् कुस्त्रीणां गतिरीदृशी।
नाज्ञासिषमहं मूढा द्वन्द्वाह्वाने फलद्वयम् ॥ २७ ॥
तस्मान्नाहं नियोक्तव्या त्वयैषोऽस्तु वरो मम।
एवं पाण्डोः सुताः पञ्च देवदत्ता महाबलाः ॥ २८ ॥
सम्भूताः कीर्तिमन्तश्च कुरुवंशविवर्धनाः ।
शुभलक्षणसम्पन्नाः सोमवत् प्रियदर्शनाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्कार न हो जाय, इस बातके लिये डरती हूँ। खोटी स्त्रियोंकी ऐसी ही गति होती है। मैं ऐसी मूर्खा हूँ कि मेरी समझमें यह बात नहीं आयी कि दो देवताओंके आवाहनसे दो पुत्ररूप फलकी प्राप्ति होती है। अतः राजन्! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्यमें नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर माँगती हूँ।’ इस प्रकार पाण्डुके देवताओंके दिये हुए पाँच महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो यशस्वी होनेके साथ ही कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाले और उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थे। चन्द्रमाकी भाँति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था॥२७—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहदर्पा महेष्वासाः सिंहविक्रान्तगामिनः ।
सिंहग्रीवा मनुष्येन्द्रा ववृधुर्देवविक्रमाः ॥ ३० ॥
विवर्धमानास्ते तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ।
विस्मयं जनयामासुर्महर्षीणां समेयुषाम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

सिंहदर्पा महेष्वासाः सिंहविक्रान्तगामिनः ।
सिंहग्रीवा मनुष्येन्द्रा ववृधुर्देवविक्रमाः ॥ ३० ॥
विवर्धमानास्ते तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ।
विस्मयं जनयामासुर्महर्षीणां समेयुषाम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका अभिमान सिंहके समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढाल भी सिंहके ही समान थी। देवताओंके समान पराक्रमी तथा सिंहकी-सी गर्दनवाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्यमय हिमालयके शिखरपर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्डुपुत्र वहाँ एकत्र होनेवाले महर्षियोंको आश्चर्यचकित कर देते थे॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(जातमात्रानुपादाय शतशृङ्गनिवासिनः ।
पाण्डोः पुत्रानमन्यन्त तापसाः स्वानिवात्मजान्॥
ततस्तु वृष्णयः सर्वे वसुदेवपुरोगमाः।
पाण्डुः शापभयाद् भीतः शतशृङ्गमुपेयिवान्।
तत्रैव मुनिभिः सार्धं तापसोऽभूत् तपश्चरन्॥
शाकमूलफलाहारस्तपस्वी नियतेन्द्रियः ।
ध्यानयोगपरो राजा बभूवेति च वादकाः॥
प्रब्रुवन्ति स्म बहवस्तच्छ्रुत्वा शोककर्शिताः।
पाण्डोः प्रीतिसमायुक्ताः कदा श्रोष्याम सत्कथाः॥
इत्येवं कथयन्तस्ते वृष्णयः सह बान्धवैः।
पाण्डोः पुत्रागमं श्रुत्वा सर्वे हर्षसमन्विताः॥
सभाजयन्तस्तेऽन्योन्यं वसुदेवं वचोऽब्रुवन् ।

मूलम्

(जातमात्रानुपादाय शतशृङ्गनिवासिनः ।
पाण्डोः पुत्रानमन्यन्त तापसाः स्वानिवात्मजान्॥
ततस्तु वृष्णयः सर्वे वसुदेवपुरोगमाः।
पाण्डुः शापभयाद् भीतः शतशृङ्गमुपेयिवान्।
तत्रैव मुनिभिः सार्धं तापसोऽभूत् तपश्चरन्॥
शाकमूलफलाहारस्तपस्वी नियतेन्द्रियः ।
ध्यानयोगपरो राजा बभूवेति च वादकाः॥
प्रब्रुवन्ति स्म बहवस्तच्छ्रुत्वा शोककर्शिताः।
पाण्डोः प्रीतिसमायुक्ताः कदा श्रोष्याम सत्कथाः॥
इत्येवं कथयन्तस्ते वृष्णयः सह बान्धवैः।
पाण्डोः पुत्रागमं श्रुत्वा सर्वे हर्षसमन्विताः॥
सभाजयन्तस्तेऽन्योन्यं वसुदेवं वचोऽब्रुवन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

शतशृंगनिवासी तपस्वी मुनि पाण्डुके पुत्रोंको जन्मकालसे ही संरक्षणमें लेकर अपने औरस पुत्रोंकी भाँति उनका लाड़-प्यार करते थे। उधर द्वारकामें वसुदेव आदि सब वृष्णिवंशी राजा पाण्डुके विषयमें इस प्रकार विचार कर रहे थे—‘अहो! राजा पाण्डु किंदम मुनिके शापसे भयभीत हो शतशृंग पर्वतपर चले गये हैं और वहीं ऋषि-मुनियोंके साथ तपस्यामें तत्पर हो पूरे तपस्वी बन गये हैं। वे शाक, मूल और फल भोजन करते हैं, तपमें लगे रहते हैं, इन्द्रियोंको काबूमें रखते हैं और सदा ध्यानयोगका ही साधन करते हैं। ये बातें बहुत-से संदेशवाहक मनुष्य बता रहे थे।’ यह समाचार सुनकर प्रायः सभी यदुवंशी उनके प्रेमी होनेके नाते शोकमग्न रहते थे। वे सोचते थे—‘कब हमें महाराज पाण्डुका शुभ संवाद सुननेको मिलेगा।’ एक दिन अपने भाई-बन्धुओंके साथ बैठकर सब वृष्णिवंशी जब इस प्रकार पाण्डुके विषयमें कुछ बातें कर रहे थे, उसी समय उन्होंने पाण्डुके पुत्र होनेका समाचार सुना। सुनते ही सब-के-सब हर्षविभोर हो उठे और परस्पर सद्भाव प्रकट करते हुए वसुदेवजीसे इस प्रकार बोले—

मूलम् (वचनम्)

वृष्णय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भवेरन् क्रियाहीनाः पाण्डोः पुत्रा महायशः।
पाण्डोः प्रियहितान्वेषी प्रेषय त्वं पुरोहितम्॥

मूलम्

न भवेरन् क्रियाहीनाः पाण्डोः पुत्रा महायशः।
पाण्डोः प्रियहितान्वेषी प्रेषय त्वं पुरोहितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णियोंने कहा— महायशस्वी वसुदेवजी! हम चाहते हैं कि राजा पाण्डुके पुत्र संस्कारहीन न हों; अतः आप पाण्डुके प्रिय और हितकी इच्छा रखकर उनके पास किसी पुरोहितको भेजिये।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवस्तथेत्युक्त्वा विससर्ज पुरोहितम् ।
युक्तानि च कुमाराणां पारिबर्हाण्यनेकशः॥
कुन्तीं माद्रीं च संदिश्य दासीदासपरिच्छदम्।
गाश्च रौप्यं हिरण्यं च प्रेषयामास भारत॥

मूलम्

वसुदेवस्तथेत्युक्त्वा विससर्ज पुरोहितम् ।
युक्तानि च कुमाराणां पारिबर्हाण्यनेकशः॥
कुन्तीं माद्रीं च संदिश्य दासीदासपरिच्छदम्।
गाश्च रौप्यं हिरण्यं च प्रेषयामास भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर वसुदेवजीने पुरोहितको भेजा; साथ ही उन कुमारोंके लिये उपयोगी अनेक प्रकारकी वस्त्राभूषण-सामग्री भी भेजी। कुन्ती और माद्रीके लिये भी दासी, दास, वस्त्राभूषण आदि आवश्यक सामान, गौएँ, चाँदी और सुवर्ण भिजवाये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि सर्वाणि संगृह्य प्रययौ स पुरोहितः।
तमागतं द्विजश्रेष्ठं काश्यपं वै पुरोहितम्॥
पूजयामास विधिवत् पाण्डुः परपुरञ्जयः।
पृथा माद्री च संहृष्टे वसुदेवं प्रशंसताम्॥

मूलम्

तानि सर्वाणि संगृह्य प्रययौ स पुरोहितः।
तमागतं द्विजश्रेष्ठं काश्यपं वै पुरोहितम्॥
पूजयामास विधिवत् पाण्डुः परपुरञ्जयः।
पृथा माद्री च संहृष्टे वसुदेवं प्रशंसताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सब सामग्रियोंको एकत्र करके अपने साथ ले पुरोहितने वनको प्रस्थान किया। शत्रुओंकी नगरीपर विजय पानेवाले राजा पाण्डुने पुरोहित द्विजश्रेष्ठ काश्यपके आनेपर उनका विधिपूर्वक पूजन किया। कुन्ती और माद्रीने प्रसन्न होकर वसुदेवजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पाण्डुः क्रियाः सर्वाः पाण्डवानामकारयत्।
गर्भाधानादिकृत्यानि चौलोपनयनानि च ॥
काश्यपः कृतवान् सर्वमुपाकर्म च भारत।
चौलोपनयनादूर्ध्वमृषभाक्षा यशस्विनः ॥
वैदिकाध्ययने सर्वे समपद्यन्त पारगाः।

मूलम्

ततः पाण्डुः क्रियाः सर्वाः पाण्डवानामकारयत्।
गर्भाधानादिकृत्यानि चौलोपनयनानि च ॥
काश्यपः कृतवान् सर्वमुपाकर्म च भारत।
चौलोपनयनादूर्ध्वमृषभाक्षा यशस्विनः ॥
वैदिकाध्ययने सर्वे समपद्यन्त पारगाः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डुने अपने पुत्रोंके गर्भाधानसे लेकर चूडाकरण और उपनयनतक सभी संस्कार-कर्म करवाये। भारत! पुरोहित काश्यपने उनके सब संस्कार सम्पन्न किये। बैलोंके समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाले वे यशस्वी पाण्डव चूडाकरण और उपनयनके पश्चात् उपाकर्म करके वेदाध्ययनमें लगे और उसमें पारंगत हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शर्यातेः पृषतः पुत्रः शुको नाम परंतपः॥
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
अश्वमेधशतैरिष्ट्वा स महात्मा महामखैः॥
आराध्य देवताः सर्वाः पितॄनपि महामतिः।
शतशृङ्गे तपस्तेपे शाकमूलफलाशनः ॥
तेनोपकरणश्रेष्ठैः शिक्षया चोपबृंहिताः ।
तत्प्रसादाद् धनुर्वेदे समपद्यन्त पारगाः॥

मूलम्

शर्यातेः पृषतः पुत्रः शुको नाम परंतपः॥
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
अश्वमेधशतैरिष्ट्वा स महात्मा महामखैः॥
आराध्य देवताः सर्वाः पितॄनपि महामतिः।
शतशृङ्गे तपस्तेपे शाकमूलफलाशनः ॥
तेनोपकरणश्रेष्ठैः शिक्षया चोपबृंहिताः ।
तत्प्रसादाद् धनुर्वेदे समपद्यन्त पारगाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! शर्यातिवंशजके एक पुत्र पृषत् थे, जिनका नाम था शुक। वे अपने पराक्रमसे शत्रुओंको संतप्त करनेवाले थे। उन शुकने किसी समय अपने धनुषके बलसे जीतकर समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीपर अधिकार कर लिया था। अश्वमेध-जैसे सौ बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान एवं सम्पूर्ण देवताओं तथा पितरोंकी आराधना करके परम बुद्धिमान् महात्मा राजा शुक शतशृंग पर्वतपर आकर शाक और फल-मूलका आहार करते हुए तपस्या करने लगे। उन्हीं तपस्वी नरेशने श्रेष्ठ उपकरणों और शिक्षाके द्वारा पाण्डवोंकी योग्यता बढ़ायी। राजर्षि शुकके कृपा-प्रसादसे सभी पाण्डव धनुर्वेदमें पारंगत हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदायां पारगो भीमस्तोमरेषु युधिष्ठिरः।
असिचर्मणि निष्णातौ यमौ सत्त्ववतां वरौ॥
धनुर्वेदे गतः पारं सव्यसाची परंतपः।
शुकेन समनुज्ञातो मत्समोऽयमिति प्रभो।
अनुज्ञाय ततो राजा शक्तिं खड्गं तथा शरान्॥
धनुश्च ददतां श्रेष्ठस्तालमात्रं महाप्रभम्।
विपाठक्षुरनाराचान् गृध्रपत्रानलंकृतान् ॥
ददौ पार्थाय संहृष्टो महोरगसमप्रभान्।
अवाप्य सर्वशस्त्राणि मुदितो वासवात्मजः॥
मेने सर्वान् महीपालान् अपर्याप्तान् स्वतेजसः।

मूलम्

गदायां पारगो भीमस्तोमरेषु युधिष्ठिरः।
असिचर्मणि निष्णातौ यमौ सत्त्ववतां वरौ॥
धनुर्वेदे गतः पारं सव्यसाची परंतपः।
शुकेन समनुज्ञातो मत्समोऽयमिति प्रभो।
अनुज्ञाय ततो राजा शक्तिं खड्गं तथा शरान्॥
धनुश्च ददतां श्रेष्ठस्तालमात्रं महाप्रभम्।
विपाठक्षुरनाराचान् गृध्रपत्रानलंकृतान् ॥
ददौ पार्थाय संहृष्टो महोरगसमप्रभान्।
अवाप्य सर्वशस्त्राणि मुदितो वासवात्मजः॥
मेने सर्वान् महीपालान् अपर्याप्तान् स्वतेजसः।

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन गदा-संचालनमें पारंगत हुए और युधिष्ठिर तोमर फेंकनेमें। धैर्यवान् और शक्तिशाली पुरुषोंमें श्रेष्ठ दोनों माद्रीपुत्र ढाल-तलवार चलानेकी कलामें निपुण हुए। परंतप सव्यसाची अर्जुन धनुर्वेदके पारगामी विद्वान् हुए। राजन्! जब दाताओंमें श्रेष्ठ शुकने जान लिया कि अर्जुन मेरे समान धनुर्वेदके ज्ञाता हो गये, तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर शक्ति, खड्ग, बाण, ताड़के समान विशाल अत्यन्त चमकीला धनुष तथा विपाठ, क्षुर एवं नाराच अर्जुनको दिये। विपाठ आदि सभी प्रकारके बाण गीधकी पाँखोंसे युक्त तथा अलंकृत थे। वे देखनेमें बड़े-बड़े सर्पोंके समान जान पड़ते थे। इन सब अस्त्र-शस्त्रोंको पाकर इन्द्रपुत्र अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यह अनुभव करने लगे कि भूमण्डलके कोई भी नरेश तेजमें मेरी समानता नहीं कर सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एकवर्षान्तरास्त्वेवं परस्परमरिंदमाः ।
अन्ववर्धन्त पार्थाश्च माद्रीपुत्रौ तथैव च॥)

मूलम्

(एकवर्षान्तरास्त्वेवं परस्परमरिंदमाः ।
अन्ववर्धन्त पार्थाश्च माद्रीपुत्रौ तथैव च॥)

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन पाण्डवोंकी आयुमें परस्पर एक-एक वर्षका अन्तर था। कुन्ती और माद्री दोनों देवियोंके पुत्र दिन-दिन बढ़ने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते च पञ्च शतं चैव कुरुवंशविवर्धनाः।
सर्वे ववृधुरल्पेन कालेनाप्स्विव नीरजाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ते च पञ्च शतं चैव कुरुवंशविवर्धनाः।
सर्वे ववृधुरल्पेन कालेनाप्स्विव नीरजाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो जैसे जलमें कमल बढ़ता है, उसी प्रकार कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले जो एक सौ पाँच बालक हुए थे, वे सब थोड़े ही समयमें बढ़कर सयाने हो गये॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डवोत्पत्तौ त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डवोंकी उत्पत्तिविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २३ श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं)