श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनकी उत्पत्ति
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरधृते गर्भे गान्धार्या जनमेजय।
आह्वयामास वै कुन्ती गर्भार्थे धर्ममच्युतम् ॥ १ ॥
मूलम्
संवत्सरधृते गर्भे गान्धार्या जनमेजय।
आह्वयामास वै कुन्ती गर्भार्थे धर्ममच्युतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब गान्धारीको गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत गया, उस समय कुन्तीने गर्भ धारण करनेके लिये अच्युतस्वरूप भगवान् धर्मका आवाहन किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा बलिं त्वरिता देवी धर्मायोपजहार ह।
जजाप विधिवज्जप्यं दत्तं दुर्वाससा पुरा ॥ २ ॥
मूलम्
सा बलिं त्वरिता देवी धर्मायोपजहार ह।
जजाप विधिवज्जप्यं दत्तं दुर्वाससा पुरा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवी कुन्तीने बड़ी उतावलीके साथ धर्मदेवताके लिये पूजाके उपहार अर्पित किये। तत्पश्चात् पूर्वकालमें महर्षि दुर्वासाने जो मन्त्र दिया था, उसका विधिपूर्वक जप किया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजगाम ततो देवो धर्मो मन्त्रबलात् ततः।
विमाने सूर्यसंकाशे कुन्ती यत्र जपस्थिता ॥ ३ ॥
मूलम्
आजगाम ततो देवो धर्मो मन्त्रबलात् ततः।
विमाने सूर्यसंकाशे कुन्ती यत्र जपस्थिता ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मन्त्रबलसे आकृष्ट हो भगवान् धर्म सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर बैठकर उस स्थानपर आये, जहाँ कुन्तीदेवी जपमें लगी हुई थीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विहस्य तां ततो ब्रूयाः कुन्ति किं ते ददाम्यहम्।
सा तं विहस्यमानापि पुत्रं देह्यब्रवीदिदम् ॥ ४ ॥
मूलम्
विहस्य तां ततो ब्रूयाः कुन्ति किं ते ददाम्यहम्।
सा तं विहस्यमानापि पुत्रं देह्यब्रवीदिदम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धर्मने हँसकर कहा—‘कुन्ती! बोलो, तुम्हें क्या दूँ?’ धर्मके द्वारा हास्यपूर्वक इस प्रकार पूछनेपर कुन्ती बोली—‘मुझे पुत्र दीजिये’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संयुक्ता सा हि धर्मेण योगमूर्तिधरेण ह।
लेभे पुत्रं वरारोहा सर्वप्राणभृतां हितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
संयुक्ता सा हि धर्मेण योगमूर्तिधरेण ह।
लेभे पुत्रं वरारोहा सर्वप्राणभृतां हितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्मके साथ समागम करके सुन्दरांगी कुन्तीने एक ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्त प्राणियोंका हित करनेवाला था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐन्द्रे चन्द्रसमायुक्ते मुहूर्तेऽभिजितेऽष्टमे ।
दिवामध्यगते सूर्ये तिथौ पूर्णेऽतिपूजिते ॥ ६ ॥
समृद्धयशसं कुन्ती सुषाव प्रवरं सुतम्।
जातमात्रे सुते तस्मिन् वागुवाचाशरीरिणी ॥ ७ ॥
मूलम्
ऐन्द्रे चन्द्रसमायुक्ते मुहूर्तेऽभिजितेऽष्टमे ।
दिवामध्यगते सूर्ये तिथौ पूर्णेऽतिपूजिते ॥ ६ ॥
समृद्धयशसं कुन्ती सुषाव प्रवरं सुतम्।
जातमात्रे सुते तस्मिन् वागुवाचाशरीरिणी ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्रपर थे, सूर्य तुला राशिपर विराजमान थे, शुक्ल पक्षकी ‘पूर्णा’ नामवाली पञ्चमी तिथि थी और अत्यन्त श्रेष्ठ अभिजित् नामक आठवाँ मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीदेवीने एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जो महान् यशस्वी था। उस पुत्रके जन्म लेते ही आकाशवाणी हुई—॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष धर्मभृतां श्रेष्ठो भविष्यति नरोत्तमः।
विक्रान्तः सत्यवाक् त्वेव राजा पृथ्व्यां भविष्यति ॥ ८ ॥
युधिष्ठिर इति ख्यातः पाण्डोः प्रथमजः सुतः।
भविता प्रथितो राजा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ ९ ॥
यशसा तेजसा चैव वृत्तेन च समन्वितः।
मूलम्
एष धर्मभृतां श्रेष्ठो भविष्यति नरोत्तमः।
विक्रान्तः सत्यवाक् त्वेव राजा पृथ्व्यां भविष्यति ॥ ८ ॥
युधिष्ठिर इति ख्यातः पाण्डोः प्रथमजः सुतः।
भविता प्रथितो राजा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ ९ ॥
यशसा तेजसा चैव वृत्तेन च समन्वितः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओंमें अग्रगण्य होगा और इस पृथ्वीपर पराक्रमी एवं सत्यवादी राजा होगा। पाण्डुका यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नामसे विख्यात हो तीनों लोकोंमें प्रसिद्धि एवं ख्याति प्राप्त करेगा; यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा’॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्मिकं तं सुतं लब्ध्वा पाण्डुस्तां पुनरब्रवीत् ॥ १० ॥
मूलम्
धार्मिकं तं सुतं लब्ध्वा पाण्डुस्तां पुनरब्रवीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस धर्मात्मा पुत्रको पाकर राजा पाण्डुने पुनः (आग्रहपूर्वक) कुन्तीसे कहा—॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राहुः क्षत्रं बलज्येष्ठं बलज्येष्ठं सुतं वृणु।
(अश्वमेधः क्रतुश्रेष्ठो ज्योतिश्श्रेष्ठो दिवाकरः।
ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो बलश्रेष्ठस्तु मारुतः॥
मारुतं मरुतां श्रेष्ठं सर्वप्राणिभिरीडितम्।
आवाहय त्वं नियमात् पुत्रार्थं वरवर्णिनि॥
स नो यं दास्यति सुतं स प्राणबलवान् नृषु।)
ततस्तथोक्ता भर्त्रा तु वायुमेवाजुहाव सा ॥ ११ ॥
मूलम्
प्राहुः क्षत्रं बलज्येष्ठं बलज्येष्ठं सुतं वृणु।
(अश्वमेधः क्रतुश्रेष्ठो ज्योतिश्श्रेष्ठो दिवाकरः।
ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो बलश्रेष्ठस्तु मारुतः॥
मारुतं मरुतां श्रेष्ठं सर्वप्राणिभिरीडितम्।
आवाहय त्वं नियमात् पुत्रार्थं वरवर्णिनि॥
स नो यं दास्यति सुतं स प्राणबलवान् नृषु।)
ततस्तथोक्ता भर्त्रा तु वायुमेवाजुहाव सा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिये! क्षत्रियको बलसे ही बड़ा कहा गया है। अतः एक ऐसे पुत्रका वरण करो, जो बलमें सबसे श्रेष्ठ हो। जैसे अश्वमेध सब यज्ञोंमें श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूर्ण प्रकाश करनेवालोंमें प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्योंमें श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वायुदेव बलमें सबसे बढ़-चढ़कर हैं। अतः सुन्दरी! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्तिके उद्देश्यसे समस्त प्राणियोंद्वारा प्रशंसित देवश्रेष्ठ वायुका विधिपूर्वक आवाहन करो। वे हमलोगोंके लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्योंमें सबसे अधिक प्राणशक्तिसे सम्पन्न और बलवान् होगा।’
स्वामीके इस प्रकार कहनेपर कुन्तीने तब वायुदेवका ही आवाहन किया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तामागतो वायुर्मृगारूढो महाबलः ।
किं ते कुन्ति ददाम्यद्य ब्रूहि यत् ते हृदि स्थितम्॥१२॥
मूलम्
ततस्तामागतो वायुर्मृगारूढो महाबलः ।
किं ते कुन्ति ददाम्यद्य ब्रूहि यत् ते हृदि स्थितम्॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबली वायु मृगपर आरूढ़ हो कुन्तीके पास आये और यों बोले—‘कुन्ती! तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हें क्या दूँ?’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा सलज्जा विहस्याह पुत्रं देहि सुरोत्तम।
बलवन्तं महाकायं सर्वदर्पप्रभञ्जनम् ॥ १३ ॥
मूलम्
सा सलज्जा विहस्याह पुत्रं देहि सुरोत्तम।
बलवन्तं महाकायं सर्वदर्पप्रभञ्जनम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीने लज्जित होकर मुसकराते हुए कहा—‘सुरश्रेष्ठ! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो महाबली और विशालकाय होनेके साथ ही सबके घमंडको चूर करनेवाला हो’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माज्जज्ञे महाबाहुर्भीमो भीमपराक्रमः ।
तमप्यतिबलं जातं वागुवाचाशरीरिणी ॥ १४ ॥
सर्वेषां बलिनां श्रेष्ठो जातोऽयमिति भारत।
इदमत्यद्भुतं चासीज्जातमात्रे वृकोदरे ॥ १५ ॥
यदङ्कात् पतितो मातुः शिलां गात्रैर्व्यचूर्णयत्।
(कुन्ती तु सह पुत्रेण यात्वा सुरुचिरं सरः।
स्नात्वा तु सुतमादाय दशमेऽहनि यादवी॥
दैवतान्यर्चयिष्यन्ती निर्जगामाश्रमात् पृथा ।
शैलाभ्याशेन गच्छन्त्यास्तदा भरतसत्तम ॥
निश्चक्राम महान् व्याघ्रो जिघांसन् गिरिगह्वरात्॥
तमापतन्तं शार्दूलं विकृष्याथ कुरूत्तमः।
निर्बिभेद शरैः पाण्डुस्त्रिभिस्त्रिदशविक्रमः ॥
नादेन महता तां तु पूरयन्तं गिरेर्गुहाम्।)
कुन्ती व्याघ्रभयोद्विग्ना सहसोत्पतिता किल ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्माज्जज्ञे महाबाहुर्भीमो भीमपराक्रमः ।
तमप्यतिबलं जातं वागुवाचाशरीरिणी ॥ १४ ॥
सर्वेषां बलिनां श्रेष्ठो जातोऽयमिति भारत।
इदमत्यद्भुतं चासीज्जातमात्रे वृकोदरे ॥ १५ ॥
यदङ्कात् पतितो मातुः शिलां गात्रैर्व्यचूर्णयत्।
(कुन्ती तु सह पुत्रेण यात्वा सुरुचिरं सरः।
स्नात्वा तु सुतमादाय दशमेऽहनि यादवी॥
दैवतान्यर्चयिष्यन्ती निर्जगामाश्रमात् पृथा ।
शैलाभ्याशेन गच्छन्त्यास्तदा भरतसत्तम ॥
निश्चक्राम महान् व्याघ्रो जिघांसन् गिरिगह्वरात्॥
तमापतन्तं शार्दूलं विकृष्याथ कुरूत्तमः।
निर्बिभेद शरैः पाण्डुस्त्रिभिस्त्रिदशविक्रमः ॥
नादेन महता तां तु पूरयन्तं गिरेर्गुहाम्।)
कुन्ती व्याघ्रभयोद्विग्ना सहसोत्पतिता किल ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुदेवसे भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीमका जन्म हुआ। जनमेजय! उस महाबली पुत्रको लक्ष्य करके आकाशवाणीने कहा—‘यह कुमार समस्त बलवानोंमें श्रेष्ठ है।’ भीमसेनके जन्म लेते ही एक अद्भुत घटना यह हुई कि अपनी माताकी गोदसे गिरनेपर उन्होंने अपने अंगोंसे एक पर्वतकी चट्टानको चूर-चूर कर दिया। बात यह थी कि यदुकुलनन्दिनी कुन्ती प्रसवके दसवें दिन पुत्रको गोदमें लिये उसके साथ एक सुन्दर सरोवरके निकट गयी और स्नान करके लौटकर देवताओंकी पूजा करनेके लिये कुटियासे बाहर निकली। भरतनन्दन! वह पर्वतके समीप होकर जा रही थी कि इतनेमें ही उसको मार डालनेकी इच्छासे एक बहुत बड़ा व्याघ्र उस पर्वतकी कन्दरासे बाहर निकल आया। देवताओंके समान पराक्रमी कुरुश्रेष्ठ पाण्डुने उस व्याघ्रको दौड़कर आते देख धनुष खींच लिया और तीन बाणोंसे मारकर उसे विदीर्ण कर दिया। उस समय वह अपनी विकट गर्जनासे पर्वतकी सारी गुफाको प्रतिध्वनित कर रहा था। कुन्ती बाघके भयसे सहसा उछल पड़ी॥१४—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्वबुध्यत संसुप्तमुत्सङ्गे स्वे वृकोदरम्।
ततः स वज्रसंघातः कुमारो न्यपतद् गिरौ ॥ १७ ॥
मूलम्
नान्वबुध्यत संसुप्तमुत्सङ्गे स्वे वृकोदरम्।
ततः स वज्रसंघातः कुमारो न्यपतद् गिरौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उसे इस बातका ध्यान नहीं रहा कि मेरी गोदमें भीमसेन सोया हुआ है। उतावलीमें वह वज्रके समान शरीरवाला कुमार पर्वतके शिखरपर गिर पड़ा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतता तेन शतधा शिला गात्रैर्विचूर्णिता।
तां शिलां चूर्णितां दृष्ट्वा पाण्डुर्विस्मयमागतः ॥ १८ ॥
मूलम्
पतता तेन शतधा शिला गात्रैर्विचूर्णिता।
तां शिलां चूर्णितां दृष्ट्वा पाण्डुर्विस्मयमागतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गिरते समय उसने अपने अंगोंसे उस पर्वतकी शिलाको चूर्ण-विचूर्ण कर दिया। पत्थरकी चट्टानको चूर-चूर हुआ देख महाराज पाण्डु बड़े आश्चर्यमें पड़ गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(मघे चन्द्रमसा युक्ते सिंहे चाभ्युदिते गुरौ।
दिवामध्यगते सूर्ये तिथौ पुण्ये त्रयोदशे॥
मैत्रे मुहूर्ते सा कुन्ती सुषुवे भीममच्युतम्॥)
यस्मिन्नहनि भीमस्तु जज्ञे भरतसत्तम।
दुर्योधनोऽपि तत्रैव प्रजज्ञे वसुधाधिप ॥ १९ ॥
मूलम्
(मघे चन्द्रमसा युक्ते सिंहे चाभ्युदिते गुरौ।
दिवामध्यगते सूर्ये तिथौ पुण्ये त्रयोदशे॥
मैत्रे मुहूर्ते सा कुन्ती सुषुवे भीममच्युतम्॥)
यस्मिन्नहनि भीमस्तु जज्ञे भरतसत्तम।
दुर्योधनोऽपि तत्रैव प्रजज्ञे वसुधाधिप ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब चन्द्रमा मघा नक्षत्रपर विराजमान थे, बृहस्पति सिंह लग्नमें सुशोभित थे, सूर्यदेव दोपहरके समय आकाशके मध्यभागमें तप रहे थे, उस समय पुण्यमयी त्रयोदशी तिथिको मैत्र मुहूर्तमें कुन्तीदेवीने अविचल शक्तिवाले भीमसेनको जन्म दिया था। भरतश्रेष्ठ भूपाल! जिस दिन भीमसेनका जन्म हुआ था, उसी दिन हस्तिनापुरमें दुर्योधनकी भी उत्पत्ति हुई॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाते वृकोदरे पाण्डुरिदं भूयोऽन्वचिन्तयत्।
कथं नु मे वरः पुत्रो लोकश्रेष्ठो भवेदिति ॥ २० ॥
मूलम्
जाते वृकोदरे पाण्डुरिदं भूयोऽन्वचिन्तयत्।
कथं नु मे वरः पुत्रो लोकश्रेष्ठो भवेदिति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनके जन्म लेनेपर पाण्डुने फिर इस प्रकार विचार किया कि मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मुझे सब लोगोंसे श्रेष्ठ उत्तम पुत्र प्राप्त हो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवे पुरुषकारे च लोकोऽयं सम्प्रतिष्ठितः।
तत्र दैवं तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
दैवे पुरुषकारे च लोकोऽयं सम्प्रतिष्ठितः।
तत्र दैवं तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह संसार दैव तथा पुरुषार्थपर अवलम्बित है। इनमें दैव तभी सुलभ (सफल) होता है, जब समयपर उद्योग किया जाय॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रो हि राजा देवानां प्रधान इति नः श्रुतम्।
अप्रमेयबलोत्साहो वीर्यवानमितद्युतिः ॥ २२ ॥
तं तोषयित्वा तपसा पुत्रं लप्स्ये महाबलम्।
यं दास्यति स मे पुत्रं स वरीयान् भविष्यति॥२३॥
अमानुषान् मानुषांश्च संग्रामे स हनिष्यति।
कर्मणा मनसा वाचा तस्मात् तप्स्ये महत् तपः ॥ २४ ॥
मूलम्
इन्द्रो हि राजा देवानां प्रधान इति नः श्रुतम्।
अप्रमेयबलोत्साहो वीर्यवानमितद्युतिः ॥ २२ ॥
तं तोषयित्वा तपसा पुत्रं लप्स्ये महाबलम्।
यं दास्यति स मे पुत्रं स वरीयान् भविष्यति॥२३॥
अमानुषान् मानुषांश्च संग्रामे स हनिष्यति।
कर्मणा मनसा वाचा तस्मात् तप्स्ये महत् तपः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सुना है कि देवराज इन्द्र ही सब देवताओंमें प्रधान हैं, उनमें अथाह बल और उत्साह है। वे बड़े पराक्रमी एवं अपार तेजस्वी हैं। मैं तपस्याद्वारा उन्हींको संतुष्ट करके महाबली पुत्र प्राप्त करूँगा। वे मुझे जो पुत्र देंगे, वह निश्चय ही सबसे श्रेष्ठ होगा तथा संग्राममें अपना सामना करनेवाले मनुष्यों तथा मनुष्येतर प्राणियों (दैत्य-दानव आदि)-को भी मारनेमें समर्थ होगा। अतः मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा बड़ी भारी तपस्या करूँगा॥२२—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पाण्डुर्महाराजो मन्त्रयित्वा महर्षिभिः।
दिदेश कुन्त्याः कौरव्यो व्रतं सांवत्सरं शुभम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततः पाण्डुर्महाराजो मन्त्रयित्वा महर्षिभिः।
दिदेश कुन्त्याः कौरव्यो व्रतं सांवत्सरं शुभम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय करके कुरुनन्दन महाराज पाण्डुने महर्षियोंसे सलाह लेकर कुन्तीको शुभदायक सांवत्सर व्रतका उपदेश दिया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मना च महाबाहुरेकपादस्थितोऽभवत् ।
उग्रं स तप आस्थाय परमेण समाधिना ॥ २६ ॥
आरिराधयिषुर्देवं त्रिदशानां तमीश्वरम् ।
सूर्येण सह धर्मात्मा पर्यतप्यत भारत ॥ २७ ॥
तं तु कालेन महता वासवः प्रत्यपद्यत।
मूलम्
आत्मना च महाबाहुरेकपादस्थितोऽभवत् ।
उग्रं स तप आस्थाय परमेण समाधिना ॥ २६ ॥
आरिराधयिषुर्देवं त्रिदशानां तमीश्वरम् ।
सूर्येण सह धर्मात्मा पर्यतप्यत भारत ॥ २७ ॥
तं तु कालेन महता वासवः प्रत्यपद्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
और भारत! वे महाबाहु धर्मात्मा पाण्डु स्वयं देवताओंके ईश्वर इन्द्रदेवकी आराधना करनेके लिये चित्तवृत्तियोंको अत्यन्त एकाग्र करके एक पैरसे खड़े हो सूर्यके साथ-साथ उग्र तप करने लगे अर्थात् सूर्योदय होनेके समय एक पैरसे खड़े होते और सूर्यास्ततक उसी रूपमें खड़े रहते।
इस तरह दीर्घकाल व्यतीत हो जानेपर इन्द्रदेव उनपर प्रसन्न हो उनके समीप आये और इस प्रकार बोले—॥२६-२७॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रं तव प्रदास्यामि त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ २८ ॥
मूलम्
पुत्रं तव प्रदास्यामि त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— राजन्! मैं तुम्हें ऐसा पुत्र दूँगा, जो तीनों लोकोंमें विख्यात होगा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां गवां चैव सुहृदां चार्थसाधकम्।
दुर्हृदां शोकजननं सर्वबान्धवनन्दनम् ॥ २९ ॥
सुतं तेऽग्र्यं प्रदास्यामि सर्वामित्रविनाशनम्।
मूलम्
ब्राह्मणानां गवां चैव सुहृदां चार्थसाधकम्।
दुर्हृदां शोकजननं सर्वबान्धवनन्दनम् ॥ २९ ॥
सुतं तेऽग्र्यं प्रदास्यामि सर्वामित्रविनाशनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वह ब्राह्मणों, गौओं तथा सुहृदोंके अभीष्ट मनोरथकी पूर्ति करनेवाला, शत्रुओंको शोक देनेवाला और समस्त बन्धु-बान्धवोंको आनन्दित करनेवाला होगा, मैं तुम्हें सम्पूर्ण शत्रुओंका विनाश करनेवाला सर्वश्रेष्ठ पुत्र प्रदान करूँगा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः कौरवो राजा वासवेन महात्मना ॥ ३० ॥
उवाच कुन्तीं धर्मात्मा देवराजवचः स्मरन्।
उदर्कस्तव कल्याणि तुष्टो देवगणेश्वरः ॥ ३१ ॥
दातुमिच्छति ते पुत्रं यथा संकल्पितं त्वया।
अतिमानुषकर्माणं यशस्विनमरिंदमम् ॥ ३२ ॥
नीतिमन्तं महात्मानमादित्यसमतेजसम् ।
दुराधर्षं क्रियावन्तमतीवाद्भुतदर्शनम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
इत्युक्तः कौरवो राजा वासवेन महात्मना ॥ ३० ॥
उवाच कुन्तीं धर्मात्मा देवराजवचः स्मरन्।
उदर्कस्तव कल्याणि तुष्टो देवगणेश्वरः ॥ ३१ ॥
दातुमिच्छति ते पुत्रं यथा संकल्पितं त्वया।
अतिमानुषकर्माणं यशस्विनमरिंदमम् ॥ ३२ ॥
नीतिमन्तं महात्मानमादित्यसमतेजसम् ।
दुराधर्षं क्रियावन्तमतीवाद्भुतदर्शनम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा इन्द्रके यों कहनेपर धर्मात्मा कुरुनन्दन महाराज पाण्डु बड़े प्रसन्न हुए और देवराजके वचनोंका स्मरण करते हुए कुन्तीदेवीसे बोले—‘कल्याणि! तुम्हारे व्रतका भावी परिणाम मंगलमय है। देवताओंके स्वामी इन्द्र हमलोगोंपर संतुष्ट हैं और तुम्हें तुम्हारे संकल्पके अनुसार श्रेष्ठ पुत्र देना चाहते हैं। वह अलौकिक कर्म करनेवाला, यशस्वी, शत्रुदमन, नीतिज्ञ, महामना, सूर्यके समान तेजस्वी, दुर्धर्ष, कर्मठ तथा देखनेमें अत्यन्त अद्भुत होगा॥३०—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रं जनय सुश्रोणि धाम क्षत्रियतेजसाम्।
लब्धः प्रसादो देवेन्द्रात् तमाह्वय शुचिस्मिते ॥ ३४ ॥
मूलम्
पुत्रं जनय सुश्रोणि धाम क्षत्रियतेजसाम्।
लब्धः प्रसादो देवेन्द्रात् तमाह्वय शुचिस्मिते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुश्रोणि! अब ऐसे पुत्रको जन्म दो, जो क्षत्रियोचित तेजका भंडार हो। पवित्र मुसकानवाली कुन्ती! मैंने देवेन्द्रकी कृपा प्राप्त कर ली है। अब तुम उन्हींका आवाहन करो’॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता ततः शक्रमाजुहाव यशस्विनी।
अथाजगाम देवेन्द्रो जनयामास चार्जुनम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
एवमुक्ता ततः शक्रमाजुहाव यशस्विनी।
अथाजगाम देवेन्द्रो जनयामास चार्जुनम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज पाण्डुके यों कहने-पर यशस्विनी कुन्तीने इन्द्रका आवाहन किया। तदनन्तर देवराज इन्द्र आये और उन्होंने अर्जुनको जन्म दिया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(उत्तराभ्यां तु पूर्वाभ्यां फल्गुनीभ्यां ततो दिवा।
जातस्तु फाल्गुने मासि तेनासौ फाल्गुनः स्मृतः॥)
मूलम्
(उत्तराभ्यां तु पूर्वाभ्यां फल्गुनीभ्यां ततो दिवा।
जातस्तु फाल्गुने मासि तेनासौ फाल्गुनः स्मृतः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वह फाल्गुन मासमें दिनके समय पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रोंके संधिकालमें उत्पन्न हुआ। फाल्गुनमास और फाल्गुनी नक्षत्रमें जन्म लेनेके कारण उस बालकका नाम ‘फाल्गुन’ हुआ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातमात्रे कुमारे तु वागुवाचाशरीरिणी।
महागम्भीरनिर्घोषा नभो नादयती तदा ॥ ३६ ॥
शृण्वतां सर्वभूतानां तेषां चाश्रमवासिनाम्।
कुन्तीमाभाष्य विस्पष्टमुवाचेदं शुचिस्मिताम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
जातमात्रे कुमारे तु वागुवाचाशरीरिणी।
महागम्भीरनिर्घोषा नभो नादयती तदा ॥ ३६ ॥
शृण्वतां सर्वभूतानां तेषां चाश्रमवासिनाम्।
कुन्तीमाभाष्य विस्पष्टमुवाचेदं शुचिस्मिताम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुमार अर्जुनके जन्म लेते ही अत्यन्त गम्भीर नादसे समूचे आकाशको गुँजाती हुई आकाशवाणीने पवित्र मुसकानवाली कुन्तीदेवीको सम्बोधित करके समस्त प्राणियों और आश्रमवासियोंके सुनते हुए अत्यन्त स्पष्ट भाषामें इस प्रकार कहा—॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्तवीर्यसमः कुन्ति शिवतुल्यपराक्रमः ।
एष शक्र इवाजय्यो यशस्ते प्रथयिष्यति ॥ ३८ ॥
अदित्या विष्णुना प्रीतिर्यथाभूदभिवर्धिता ।
तथा विष्णुसमः प्रीतिं वर्धयिष्यति तेऽर्जुनः ॥ ३९ ॥
मूलम्
कार्तवीर्यसमः कुन्ति शिवतुल्यपराक्रमः ।
एष शक्र इवाजय्यो यशस्ते प्रथयिष्यति ॥ ३८ ॥
अदित्या विष्णुना प्रीतिर्यथाभूदभिवर्धिता ।
तथा विष्णुसमः प्रीतिं वर्धयिष्यति तेऽर्जुनः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तिभोजकुमारी! यह बालक कार्तवीर्य अर्जुनके समान तेजस्वी, भगवान् शिवके समान पराक्रमी और देवराज इन्द्रके समान अजेय होकर तुम्हारे यशका विस्तार करेगा। जैसे भगवान् विष्णुने वामनरूपमें प्रकट होकर देवमाता अदितिके हर्षको बढ़ाया था, उसी प्रकार यह विष्णुतुल्य अर्जुन तुम्हारी प्रसन्नताको बढ़ायेगा॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मद्रान् वशे कृत्वा कुरूंश्च सह सोमकैः।
चेदिकाशिकरूषांश्च कुरुलक्ष्मीं वहिष्यति ॥ ४० ॥
मूलम्
एष मद्रान् वशे कृत्वा कुरूंश्च सह सोमकैः।
चेदिकाशिकरूषांश्च कुरुलक्ष्मीं वहिष्यति ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारा यह वीर पुत्र मद्र, कुरु, सोमक, चेदि, काशि तथा करूष नामक देशोंको वशमें करके कुरुवंशकी लक्ष्मीका पालन करेगा॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(गत्वोत्तरदिशं वीरो विजित्य युधि पार्थिवान्।
धनरत्नौघममितमानयिष्यति पाण्डवः ॥)
एतस्य भुजवीर्येण खाण्डवे हव्यवाहनः।
मेदसा सर्वभूतानां तृप्तिं यास्यति वै पराम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
(गत्वोत्तरदिशं वीरो विजित्य युधि पार्थिवान्।
धनरत्नौघममितमानयिष्यति पाण्डवः ॥)
एतस्य भुजवीर्येण खाण्डवे हव्यवाहनः।
मेदसा सर्वभूतानां तृप्तिं यास्यति वै पराम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर अर्जुन उत्तर दिशामें जाकर वहाँके राजाओंको युद्धमें जीतकर असंख्य धन-रत्नोंकी राशि ले आयेगा। इसके बाहुबलसे खाण्डववनमें अग्निदेव समस्त प्राणियोंके मेदका आस्वादन करके पूर्ण तृप्ति लाभ करेंगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रामणीश्च महीपालानेष जित्वा महाबलः।
भ्रातृभिः सहितो वीरस्त्रीन् मेधानाहरिष्यति ॥ ४२ ॥
मूलम्
ग्रामणीश्च महीपालानेष जित्वा महाबलः।
भ्रातृभिः सहितो वीरस्त्रीन् मेधानाहरिष्यति ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह महाबली श्रेष्ठ वीर बालक समस्त क्षत्रियसमूहका नायक होगा और युद्धमें भूमिपालोंको जीतकर भाइयोंके साथ तीन अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करेगा॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जामदग्न्यसमः कुन्ति विष्णुतुल्यपराक्रमः ।
एष वीर्यवतां श्रेष्ठो भविष्यति महायशाः ॥ ४३ ॥
मूलम्
जामदग्न्यसमः कुन्ति विष्णुतुल्यपराक्रमः ।
एष वीर्यवतां श्रेष्ठो भविष्यति महायशाः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्ती! यह परशुरामके समान वीर योद्धा, भगवान् विष्णुके समान पराक्रमी, बलवानोंमें श्रेष्ठ और महान् यशस्वी होगा॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष युद्धे महादेवं तोषयिष्यति शंकरम्।
अस्त्रं पाशुपतं नाम तस्मात् तुष्टादवाप्स्यति ॥ ४४ ॥
निवातकवचा नाम दैत्या विबुधविद्विषः।
शक्राज्ञया महाबाहुस्तान् वधिष्यति ते सुतः ॥ ४५ ॥
मूलम्
एष युद्धे महादेवं तोषयिष्यति शंकरम्।
अस्त्रं पाशुपतं नाम तस्मात् तुष्टादवाप्स्यति ॥ ४४ ॥
निवातकवचा नाम दैत्या विबुधविद्विषः।
शक्राज्ञया महाबाहुस्तान् वधिष्यति ते सुतः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह युद्धमें देवाधिदेव भगवान् शंकरको संतुष्ट करेगा और संतुष्ट हुए उन महेश्वरसे पाशुपत नामक अस्त्र प्राप्त करेगा। निवातकवच नामक दैत्य देवताओंसे सदा द्वेष रखते हैं। तुम्हारा यह महाबाहु पुत्र इन्द्रकी आज्ञासे उन सब दैत्योंका संहार कर डालेगा॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा दिव्यानि चास्त्राणि निखिलेनाहरिष्यति।
विप्रणष्टां श्रियं चायमाहर्ता पुरुषर्षभः ॥ ४६ ॥
मूलम्
तथा दिव्यानि चास्त्राणि निखिलेनाहरिष्यति।
विप्रणष्टां श्रियं चायमाहर्ता पुरुषर्षभः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ यह अर्जुन सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंका पूर्ण रूपसे ज्ञान प्राप्त करेगा और अपनी खोयी हुई सम्पत्तिको पुनः वापस ले आयेगा’॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतामत्यद्भुतां वाचं कुन्ती शुश्राव सूतके।
वाचमुच्चारितामुच्चैस्तां निशम्य तपस्विनाम् ॥ ४७ ॥
बभूव परमो हर्षः शतशृङ्गनिवासिनाम्।
तथा देवनिकायानां सेन्द्राणां च दिवौकसाम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
एतामत्यद्भुतां वाचं कुन्ती शुश्राव सूतके।
वाचमुच्चारितामुच्चैस्तां निशम्य तपस्विनाम् ॥ ४७ ॥
बभूव परमो हर्षः शतशृङ्गनिवासिनाम्।
तथा देवनिकायानां सेन्द्राणां च दिवौकसाम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीने सौरीमेंसे ही यह अत्यन्त अद्भुत बात सुनी। उच्चस्वरमें उच्चारित वह आकाशवाणी सुनकर शतशृंगनिवासी तपस्वी मुनियों तथा विमानोंपर स्थित इन्द्र आदि देवसमूहोंको बड़ा हर्ष हुआ॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशे दुन्दुभीनां च बभूव तुमुलः स्वनः।
उदतिष्ठन्महाघोषः पुष्पवृष्टिभिरावृतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
आकाशे दुन्दुभीनां च बभूव तुमुलः स्वनः।
उदतिष्ठन्महाघोषः पुष्पवृष्टिभिरावृतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आकाशमें फूलोंकी वर्षाके साथ देव-दुन्दुभियोंका तुमुल नाद बड़े जोरसे गूँज उठा॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समवेत्य च देवानां गणाः पार्थमपूजयन्।
काद्रवेया वैनतेया गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
प्रजानां पतयः सर्वे सप्त चैव महर्षयः ॥ ५० ॥
भरद्वाजः कश्यपो गौतमश्च
विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठः ।
यश्चोदितो भास्करेऽभूत् प्रणष्टे
सोऽप्यत्रात्रिर्भगवानाजगाम ॥ ५१ ॥
मूलम्
समवेत्य च देवानां गणाः पार्थमपूजयन्।
काद्रवेया वैनतेया गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
प्रजानां पतयः सर्वे सप्त चैव महर्षयः ॥ ५० ॥
भरद्वाजः कश्यपो गौतमश्च
विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठः ।
यश्चोदितो भास्करेऽभूत् प्रणष्टे
सोऽप्यत्रात्रिर्भगवानाजगाम ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर झुंड-के-झुंड देवता वहाँ एकत्र होकर अर्जुनकी प्रशंसा करने लगे। कद्रूके पुत्र (नाग), विनताके पुत्र (गरुड पक्षी), गन्धर्व, अप्सराएँ, प्रजापति, सप्तर्षिगण—भरद्वाज, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ तथा जो नक्षत्रके रूपमें सूर्यास्त होनेके पश्चात् उदित होते हैं, वे भगवान् अत्रि भी वहाँ आये॥५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरीचिरङ्गिराश्चैव पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
दक्षः प्रजापतिश्चैव गन्धर्वाप्सरसस्तथा ॥ ५२ ॥
मूलम्
मरीचिरङ्गिराश्चैव पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
दक्षः प्रजापतिश्चैव गन्धर्वाप्सरसस्तथा ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मरीचि और अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं प्रजापति दक्ष, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी आयीं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यमाल्याम्बरधराः सर्वालंकारभूषिताः ।
उपगायन्ति बीभत्सुं नृत्यन्तेऽप्सरसां गणाः ॥ ५३ ॥
मूलम्
दिव्यमाल्याम्बरधराः सर्वालंकारभूषिताः ।
उपगायन्ति बीभत्सुं नृत्यन्तेऽप्सरसां गणाः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबने दिव्य हार और दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे। वे सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थे। अप्सराओंका पूरा दल वहाँ जुट गया था। वे सभी अर्जुनके गुण गाने और नृत्य करने लगीं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा महर्षयश्चापि जेपुस्तत्र समन्ततः।
गन्धर्वैः सहितः श्रीमान् प्रागायत च तुम्बुरुः ॥ ५४ ॥
मूलम्
तथा महर्षयश्चापि जेपुस्तत्र समन्ततः।
गन्धर्वैः सहितः श्रीमान् प्रागायत च तुम्बुरुः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि भी वहाँ सब ओर खड़े होकर मांगलिक मन्त्रोंका जप करने लगे। गन्धर्वोंके साथ श्रीमान् तुम्बुरुने मधुर स्वरसे गीत गाना प्रारम्भ किया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनोग्रसेनौ च ऊर्णायुरनघस्तथा ।
गोपतिर्धृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चास्तथाष्टमः ॥ ५५ ॥
युगपस्तृणपः कार्ष्णिर्नन्दिश्चित्ररथस्तथा ।
त्रयोदशः शालिशिराः पर्जन्यश्च चतुर्दशः ॥ ५६ ॥
कलिः पञ्चदशश्चैव नारदश्चात्र षोडशः।
ऋत्वा बृहत्त्वा बृहकः करालश्च महामनाः ॥ ५७ ॥
ब्रह्मचारी बहुगुणः सुवर्णश्चेति विश्रुतः।
विश्वावसुर्भुमन्युश्च सुचन्द्रश्च शरुस्तथा ॥ ५८ ॥
गीतमाधुर्यसम्पन्नौ विख्यातौ च हहाहुहू।
इत्येते देवगन्धर्वा जग्मुस्तत्र नराधिप ॥ ५९ ॥
मूलम्
भीमसेनोग्रसेनौ च ऊर्णायुरनघस्तथा ।
गोपतिर्धृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चास्तथाष्टमः ॥ ५५ ॥
युगपस्तृणपः कार्ष्णिर्नन्दिश्चित्ररथस्तथा ।
त्रयोदशः शालिशिराः पर्जन्यश्च चतुर्दशः ॥ ५६ ॥
कलिः पञ्चदशश्चैव नारदश्चात्र षोडशः।
ऋत्वा बृहत्त्वा बृहकः करालश्च महामनाः ॥ ५७ ॥
ब्रह्मचारी बहुगुणः सुवर्णश्चेति विश्रुतः।
विश्वावसुर्भुमन्युश्च सुचन्द्रश्च शरुस्तथा ॥ ५८ ॥
गीतमाधुर्यसम्पन्नौ विख्यातौ च हहाहुहू।
इत्येते देवगन्धर्वा जग्मुस्तत्र नराधिप ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन तथा उग्रसेन, ऊर्णायु और अनघ, गोपति एवं धृतराष्ट्र, सूर्यवर्चा तथा आठवें युगप, तृणप, कार्ष्णि, नन्दि एवं चित्ररथ, तेरहवें शालिशिरा और चौदहवें पर्जन्य, पंद्रहवें कलि और सोलहवें नारद, ऋत्वा और बृहत्त्वा, बृहक एवं महामना कराल, ब्रह्मचारी तथा विख्यात गुणवान् सुवर्ण, विश्वावसु एवं भुमन्यु, सुचन्द्र और शरु तथा गीतमाधुर्यसे सम्पन्न सुविख्यात हाहा और हूहू—राजन्! ये सब देवगन्धर्व वहाँ पधारे थे॥५५—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवाप्सरसो हृष्टाः सर्वालंकारभूषिताः ।
ननृतुर्वै महाभागा जगुश्चायतलोचनाः ॥ ६० ॥
मूलम्
तथैवाप्सरसो हृष्टाः सर्वालंकारभूषिताः ।
ननृतुर्वै महाभागा जगुश्चायतलोचनाः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार समस्त आभूषणोंसे विभूषित बड़े-बड़े नेत्रोंवाली परम सौभाग्यशालिनी अप्सराएँ भी हर्षोल्लासमें भरकर वहाँ नृत्य करने लगीं॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनूचानानवद्या च गुणमुख्या गुणावरा।
अद्रिका च तथा सोमा मिश्रकेशी त्वलम्बुषा ॥ ६१ ॥
मरीचिः शुचिका चैव विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा।
अम्बिका लक्षणा क्षेमा देवी रम्भा मनोरमा ॥ ६२ ॥
असिता च सुबाहुश्च सुप्रिया च वपुस्तथा।
पुण्डरीका सुगन्धा च सुरसा च प्रमाथिनी ॥ ६३ ॥
काम्या शारद्वती चैव ननृतुस्तत्र सङ्घशः।
मेनका सहजन्या च कर्णिका पुञ्जिकस्थला ॥ ६४ ॥
ऋतुस्थला घृताची च विश्वाची पूर्वचित्त्यपि।
उम्लोचेति च विख्याता प्रम्लोचेति च ता दश ॥ ६५ ॥
मूलम्
अनूचानानवद्या च गुणमुख्या गुणावरा।
अद्रिका च तथा सोमा मिश्रकेशी त्वलम्बुषा ॥ ६१ ॥
मरीचिः शुचिका चैव विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा।
अम्बिका लक्षणा क्षेमा देवी रम्भा मनोरमा ॥ ६२ ॥
असिता च सुबाहुश्च सुप्रिया च वपुस्तथा।
पुण्डरीका सुगन्धा च सुरसा च प्रमाथिनी ॥ ६३ ॥
काम्या शारद्वती चैव ननृतुस्तत्र सङ्घशः।
मेनका सहजन्या च कर्णिका पुञ्जिकस्थला ॥ ६४ ॥
ऋतुस्थला घृताची च विश्वाची पूर्वचित्त्यपि।
उम्लोचेति च विख्याता प्रम्लोचेति च ता दश ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम इस प्रकार हैं—अनूचाना और अनवद्या, गुणमुख्या एवं गुणावरा, अद्रिका तथा सोमा, मिश्रकेशी और अलम्बुषा, मरीचि और शुचिका, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अम्बिका, लक्षणा, क्षेमा, देवी, रम्भा, मनोरमा, असिता और सुबाहु, सुप्रिया एवं वपु, पुण्डरीका एवं सुगन्धा, सुरसा और प्रमाथिनी, काम्या तथा शारद्वती आदि। ये झुंड-की-झुंड अप्सराएँ नाचने लगीं। इनमें मेनका, सहजन्या, कर्णिका और पुंजिकस्थला, ऋतुस्थला एवं घृताची, विश्वाची और पूर्वचित्ति, उम्लोचा और प्रम्लोचा—ये दस विख्यात हैं॥६१—६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर्वश्येकादशी तासां जगुश्चायतलोचनाः ।
धातार्यमा च मित्रश्च वरुणोंऽशो भगस्तथा ॥ ६६ ॥
इन्द्रो विवस्वान् पूषा च त्वष्टा च सविता तथा।
पर्जन्यश्चैव विष्णुश्च आदित्या द्वादश स्मृताः।
महिमानं पाण्डवस्य वर्धयन्तोऽम्बरे स्थिताः ॥ ६७ ॥
मूलम्
उर्वश्येकादशी तासां जगुश्चायतलोचनाः ।
धातार्यमा च मित्रश्च वरुणोंऽशो भगस्तथा ॥ ६६ ॥
इन्द्रो विवस्वान् पूषा च त्वष्टा च सविता तथा।
पर्जन्यश्चैव विष्णुश्च आदित्या द्वादश स्मृताः।
महिमानं पाण्डवस्य वर्धयन्तोऽम्बरे स्थिताः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हीं प्रधान अप्सराओंकी श्रेणीमें ग्यारहवीं उर्वशी है। ये सभी विशाल नेत्रोंवाली सुन्दरियाँ वहाँ गीत गाने लगीं। धाता और अर्यमा, मित्र और वरुण, अंश एवं भग, इन्द्र, विवस्वान् और पूषा, त्वष्टा एवं सविता, पर्जन्य तथा विष्णु—ये बारह आदित्य1 माने गये हैं। ये सभी पाण्डुनन्दन अर्जुनका महत्त्व बढ़ाते हुए आकाशमें खड़े थे॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगव्याधश्च सर्पश्च निर्ऋतिश्च महायशाः।
अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी च परंतप ॥ ६८ ॥
दहनोऽथेश्वरश्चैव कपाली च विशाम्पते।
स्थाणुर्भगश्च भगवान् रुद्रास्तत्रावतस्थिरे ॥ ६९ ॥
मूलम्
मृगव्याधश्च सर्पश्च निर्ऋतिश्च महायशाः।
अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी च परंतप ॥ ६८ ॥
दहनोऽथेश्वरश्चैव कपाली च विशाम्पते।
स्थाणुर्भगश्च भगवान् रुद्रास्तत्रावतस्थिरे ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन महाराज! मृगव्याध और सर्प, महा-यशस्वी निर्ऋति एवं अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य और पिनाकी, दहन तथा ईश्वर, कपाली एवं स्थाणु तथा भगवान् भग—ये ग्यारह रुद्र भी वहाँ आकाशमें आकर खड़े थे॥६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्विनौ वसवश्चाष्टौ मरुतश्च महाबलाः।
विश्वेदेवास्तथा साध्यास्तत्रासन् परितः स्थिताः ॥ ७० ॥
मूलम्
अश्विनौ वसवश्चाष्टौ मरुतश्च महाबलाः।
विश्वेदेवास्तथा साध्यास्तत्रासन् परितः स्थिताः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों अश्विनीकुमार तथा आठों वसु, महाबली मरुद्गण एवं विश्वेदेवगण तथा साध्यगण वहाँ सब ओर विद्यमान थे॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्कोटकोऽथ सर्पश्च वासुकिश्च भुजङ्गमः।
कश्यपश्चाथ कुण्डश्च तक्षकश्च महोरगः ॥ ७१ ॥
आययुस्तपसा युक्ता महाक्रोधा महाबलाः।
एते चान्ये च बहवस्तत्र नागा व्यवस्थिताः ॥ ७२ ॥
मूलम्
कर्कोटकोऽथ सर्पश्च वासुकिश्च भुजङ्गमः।
कश्यपश्चाथ कुण्डश्च तक्षकश्च महोरगः ॥ ७१ ॥
आययुस्तपसा युक्ता महाक्रोधा महाबलाः।
एते चान्ये च बहवस्तत्र नागा व्यवस्थिताः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्कोटक सर्प तथा वासुकि नाग, कश्यप और कुण्ड, महानाग और तक्षक—ये तथा और भी बहुत-से महाबली, महाक्रोधी और तपस्वी नाग वहाँ आकर खड़े थे॥७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च गरुडश्चासितध्वजः ।
अरुणश्चारुणिश्चैव वैनतेया व्यवस्थिताः ॥ ७३ ॥
मूलम्
तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च गरुडश्चासितध्वजः ।
अरुणश्चारुणिश्चैव वैनतेया व्यवस्थिताः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तार्क्ष्य और अरिष्टनेमि, गरुड एवं असितध्वज, अरुण तथा आरुणि—विनताके ये पुत्र भी उस उत्सवमें उपस्थित थे॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांश्च देवगणान् सर्वांस्तपःसिद्धा महर्षयः।
विमानगिर्यग्रगतान् ददृशुर्नेतरे जनाः ॥ ७४ ॥
मूलम्
तांश्च देवगणान् सर्वांस्तपःसिद्धा महर्षयः।
विमानगिर्यग्रगतान् ददृशुर्नेतरे जनाः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब देवगण विमान और पर्वतके शिखरपर खड़े थे। उन्हें तपःसिद्ध महर्षि ही देख पाते थे, दूसरे लोग नहीं॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं विस्मिता मुनिसत्तमाः।
अधिकां स्म ततो वृत्तिमवर्तन् पाण्डवान् प्रति ॥ ७५ ॥
मूलम्
तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं विस्मिता मुनिसत्तमाः।
अधिकां स्म ततो वृत्तिमवर्तन् पाण्डवान् प्रति ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह महान् आश्चर्य देखकर वे श्रेष्ठ मुनिगण बड़े विस्मयमें पड़े। तबसे पाण्डवोंके प्रति उनमें अधिक प्रेम और आदरका भाव पैदा हो गया॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डुस्तु पुनरेवैनां पुत्रलोभान्महायशाः ।
वक्तुमैच्छद् धर्मपत्नीं कुन्ती त्वेनमथाब्रवीत् ॥ ७६ ॥
मूलम्
पाण्डुस्तु पुनरेवैनां पुत्रलोभान्महायशाः ।
वक्तुमैच्छद् धर्मपत्नीं कुन्ती त्वेनमथाब्रवीत् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महायशस्वी राजा पाण्डु पुत्र-लोभसे आकृष्ट हो अपनी धर्मपत्नी कुन्तीसे फिर कुछ कहना चाहते थे, किंतु कुन्ती उन्हें रोकती हुई बोली—॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातश्चतुर्थं प्रसवमापत्स्वपि वदन्त्युत ।
अतः परं स्वैरिणी स्याद् बन्धकी पञ्चमे भवेत् ॥ ७७ ॥
मूलम्
नातश्चतुर्थं प्रसवमापत्स्वपि वदन्त्युत ।
अतः परं स्वैरिणी स्याद् बन्धकी पञ्चमे भवेत् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्यपुत्र! आपत्तिकालमें भी तीनसे अधिक चौथी संतान उत्पन्न करनेकी आज्ञा शास्त्रोंने नहीं दी है। इस विधिके द्वारा तीनसे अधिक चौथी संतान चाहनेवाली स्त्री स्वैरिणी होती है और पाँचवें पुत्रके उत्पन्न होनेपर तो वह कुलटा समझी जाती है॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं विद्वन् धर्ममिममधिगम्य कथं नु माम्।
अपत्यार्थं समुत्क्रम्य प्रमादादिव भाषसे ॥ ७८ ॥
मूलम्
स त्वं विद्वन् धर्ममिममधिगम्य कथं नु माम्।
अपत्यार्थं समुत्क्रम्य प्रमादादिव भाषसे ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विद्वन्! आप धर्मको जानते हुए भी प्रमादसे कहनेवालेके समान धर्मका लोप करके अब फिर मुझे संतानोत्पत्तिके लिये क्यों प्रेरित कर रहे हैं’॥७८॥
मूलम् (वचनम्)
(पाण्डुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतद् धर्मशास्त्रं यथा वदसि तत् तथा।)
मूलम्
एवमेतद् धर्मशास्त्रं यथा वदसि तत् तथा।)
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुने कहा— प्रिये! वास्तवमें धर्मशास्त्रका ऐसा ही मत है। तुम जो कुछ कहती हो, वह ठीक है।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डवोत्पत्तौ द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डवोंकी उत्पत्तिविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १० श्लोक मिलाकर कुल ८८ श्लोक हैं)
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यहाँ आदित्योंके तेरह नाम हैं। जान पड़ता है, बारह महीनोंके बारह आदित्य और अधिमास या मलमासके प्रकाशक तेरहवें विष्णु हैं। इसीलिये उसे पुरुषोत्तममास कहते हैं। अधिमासकी पृथक् गणना न होनेसे बारह मासोंके प्रकाशक आदित्य बारह ही कहे गये हैं। ↩︎