१२० दुःशला-जननम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुन्तीका पाण्डुको व्युषिताश्वके मृत शरीरसे उसकी पतिव्रता पत्नी भद्राके द्वारा पुत्र-प्राप्तिका कथन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता महाराज कुन्ती पाण्डुमभाषत।
कुरूणामृषभं वीरं तदा भूमिपतिं पतिम् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्ता महाराज कुन्ती पाण्डुमभाषत।
कुरूणामृषभं वीरं तदा भूमिपतिं पतिम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज जनमेजय! इस प्रकार कहे जानेपर कुन्ती अपने पति कुरुश्रेष्ठ वीरवर राजा पाण्डुसे इस प्रकार बोली—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मामर्हसि धर्मज्ञ वक्तुमेवं कथंचन।
धर्मपत्नीमभिरतां त्वयि राजीवलोचने ॥ २ ॥

मूलम्

न मामर्हसि धर्मज्ञ वक्तुमेवं कथंचन।
धर्मपत्नीमभिरतां त्वयि राजीवलोचने ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मज्ञ! आप मुझसे किसी तरह ऐसी बात न कहें; मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ और कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले आपमें ही अनुराग रखती हूँ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव तु महाबाहो मय्यपत्यानि भारत।
वीर वीर्योपपन्नानि धर्मतो जनयिष्यसि ॥ ३ ॥

मूलम्

त्वमेव तु महाबाहो मय्यपत्यानि भारत।
वीर वीर्योपपन्नानि धर्मतो जनयिष्यसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु वीर भारत! आप ही मेरे गर्भसे धर्मपूर्वक अनेक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करेंगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गं मनुजशार्दूल गच्छेयं सहिता त्वया।
अपत्याय च मां गच्छ त्वमेव कुरुनन्दन ॥ ४ ॥

मूलम्

स्वर्गं मनुजशार्दूल गच्छेयं सहिता त्वया।
अपत्याय च मां गच्छ त्वमेव कुरुनन्दन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! मैं आपके साथ ही स्वर्गलोकमें चलूँगी। कुरुनन्दन! पुत्रकी उत्पत्तिके लिये आप ही मेरे साथ समागम कीजिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यहं मनसाप्यन्यं गच्छेयं त्वदृते नरम्।
त्वत्तः प्रतिविशिष्टश्च कोऽन्योऽस्ति भुवि मानवः ॥ ५ ॥

मूलम्

न ह्यहं मनसाप्यन्यं गच्छेयं त्वदृते नरम्।
त्वत्तः प्रतिविशिष्टश्च कोऽन्योऽस्ति भुवि मानवः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं आपके सिवा किसी दूसरे पुरुषसे समागम करनेकी बात मनमें भी नहीं ला सकती। फिर इस पृथ्वीपर आपसे श्रेष्ठ दूसरा मनुष्य है भी कौन॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां च तावद् धर्मात्मन् पौराणीं शृणु मे कथाम्।
परिश्रुतां विशालाक्ष कीर्तयिष्यामि यामहम् ॥ ६ ॥

मूलम्

इमां च तावद् धर्मात्मन् पौराणीं शृणु मे कथाम्।
परिश्रुतां विशालाक्ष कीर्तयिष्यामि यामहम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मात्मन्! पहले आप मेरे मुँहसे यह पौराणिक कथा सुन लीजिये। विशालाक्ष! यह जो कथा मैं कहने जा रही हूँ, सर्वत्र विख्यात है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः।
पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ॥ ७ ॥

मूलम्

व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः।
पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहते हैं, पूर्वकालमें एक परम धर्मात्मा राजा हो गये हैं। उनका नाम था व्युषिताश्व। वे पूरुवंशकी वृद्धि करनेवाले थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महाभुजे।
उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्रा देवर्षिभिः सह ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महाभुजे।
उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्रा देवर्षिभिः सह ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक समय वे महाबाहु धर्मात्मा नरेश जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्द्र आदि देवता देवर्षियोंके साथ उस यज्ञमें पधारे थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः ॥ ९ ॥
देवा ब्रह्मर्षयश्चैव चक्रुः कर्म स्वयं तदा।
व्युषिताश्वस्ततो राजन्नति मर्त्यान् व्यरोचत ॥ १० ॥

मूलम्

अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः ॥ ९ ॥
देवा ब्रह्मर्षयश्चैव चक्रुः कर्म स्वयं तदा।
व्युषिताश्वस्ततो राजन्नति मर्त्यान् व्यरोचत ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसमें देवराज इन्द्र सोमपान करके उन्मत्त हो उठे थे तथा ब्राह्मणलोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्षसे फूल उठे थे। महामना राजर्षि व्युषिताश्वके यज्ञमें उस समय देवता और ब्रह्मर्षि स्वयं सब कार्य कर रहे थे। राजन्! इससे व्युषिताश्व सब मनुष्योंसे ऊँची स्थितिमें पहुँचकर बड़ी शोभा पा रहे थे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतान् प्रति यथा तपनः शिशिरात्यये।
स विजित्य गृहीत्वा च नृपतीन् राजसत्तमः ॥ ११ ॥
प्राच्यानुदीच्यान् पाश्चात्त्यान् दाक्षिणात्यानकालयत् ।
अश्वमेधे महायज्ञे व्युषिताश्वः प्रतापवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

सर्वभूतान् प्रति यथा तपनः शिशिरात्यये।
स विजित्य गृहीत्वा च नृपतीन् राजसत्तमः ॥ ११ ॥
प्राच्यानुदीच्यान् पाश्चात्त्यान् दाक्षिणात्यानकालयत् ।
अश्वमेधे महायज्ञे व्युषिताश्वः प्रतापवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा व्युषिताश्व समस्त भूतोंके प्रीतिपात्र थे। राजाओंमें श्रेष्ठ प्रतापी व्युषिताश्वने अश्वमेध नामक महान् यज्ञमें पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण—चारों दिशाओंके राजाओंको जीतकर अपने वशमें कर लिया—ठीक जिस प्रकार शिशिरकालके अन्तमें भगवान् सूर्य-देव सभी प्राणियोंपर विजय कर लेते हैं—सबको तपाने लगते हैं॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूव स हि राजेन्द्रो दशनागबलान्वितः।
अप्यत्र गाथां गायन्ति ये पुराणविदो जनाः ॥ १३ ॥
व्युषिताश्वे यशोवृद्धे मनुष्येन्द्रे कुरूत्तम।
व्युषिताश्वः समुद्रान्तां विजित्येमां वसुंधराम् ॥ १४ ॥
अपालयत् सर्ववर्णान् पिता पुत्रानिवौरसान्।
यजमानो महायज्ञैर्ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ ॥ १५ ॥

मूलम्

बभूव स हि राजेन्द्रो दशनागबलान्वितः।
अप्यत्र गाथां गायन्ति ये पुराणविदो जनाः ॥ १३ ॥
व्युषिताश्वे यशोवृद्धे मनुष्येन्द्रे कुरूत्तम।
व्युषिताश्वः समुद्रान्तां विजित्येमां वसुंधराम् ॥ १४ ॥
अपालयत् सर्ववर्णान् पिता पुत्रानिवौरसान्।
यजमानो महायज्ञैर्ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन महाराजमें दस हाथियोंका बल था। कुरुश्रेष्ठ! पुराणवेत्ता विद्वान् यशमें बढ़े-चढ़े हुए नरेन्द्र व्युषिताश्वके विषयमें यह यशोगाथा गाते हैं—‘राजा व्युषिताश्व समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथ्वीको जीतकर जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंका पालन करता है, उसी प्रकार सभी वर्णके लोगोंका पालन करते थे। उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणोंको बहुत धन दिया॥१३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तरत्नान्यादाय स जहार महाक्रतून्।
सुषाव च बहून् सोमान् सोमसंस्थास्ततान च ॥ १६ ॥

मूलम्

अनन्तरत्नान्यादाय स जहार महाक्रतून्।
सुषाव च बहून् सोमान् सोमसंस्थास्ततान च ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनन्त रत्नोंकी भेंट लेकर उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये। अनेक सोमयागोंका आयोजन करके उनमें बहुत-सा सोमरस संग्रह करके अग्निष्टोम-अत्यग्निष्टोम आदि सात प्रकारकी सोमयाग-संस्थाओंका भी अनुष्ठान किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् काक्षीवती चास्य भार्या परमसम्मता।
भद्रा नाम मनुष्येन्द्र रूपेणासदृशी भुवि ॥ १७ ॥

मूलम्

आसीत् काक्षीवती चास्य भार्या परमसम्मता।
भद्रा नाम मनुष्येन्द्र रूपेणासदृशी भुवि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेन्द्र! राजा कक्षीवान्‌की पुत्री भद्रा उनकी अत्यन्त प्यारी पत्नी थी। उन दिनों इस पृथ्वीपर उसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री न थी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामयामासतुस्तौ च परस्परमिति श्रुतम्।
स तस्यां कामसम्पन्नो यक्ष्मणा समपद्यत ॥ १८ ॥

मूलम्

कामयामासतुस्तौ च परस्परमिति श्रुतम्।
स तस्यां कामसम्पन्नो यक्ष्मणा समपद्यत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने सुना है, वे दोनों पति-पत्नी एक-दूसरेको बहुत चाहते थे। पत्नीके प्रति अत्यन्त कामासक्त होनेके कारण राजा व्युषिताश्व राजयक्ष्माके शिकार हो गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाचिरेण कालेन जगामास्तमिवांशुमान् ।
तस्मिन् प्रेते मनुष्येन्द्रे भार्यास्य भृशदुःखिता ॥ १९ ॥

मूलम्

तेनाचिरेण कालेन जगामास्तमिवांशुमान् ।
तस्मिन् प्रेते मनुष्येन्द्रे भार्यास्य भृशदुःखिता ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस कारण वे थोड़े ही समयमें सूर्यकी भाँति अस्त हो गये। उन महाराजके परलोकवासी हो जानेपर उनकी पत्नीको बड़ा दुःख हुआ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुत्रा पुरुषव्याघ्र विललापेति नः श्रुतम्।
भद्रा परमदुःखार्ता तन्निबोध जनाधिप ॥ २० ॥

मूलम्

अपुत्रा पुरुषव्याघ्र विललापेति नः श्रुतम्।
भद्रा परमदुःखार्ता तन्निबोध जनाधिप ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरव्याघ्र जनेश्वर! हमने सुना है कि भद्राके तबतक कोई पुत्र नहीं हुआ था। इस कारण वह अत्यन्त दुःखसे आतुर होकर विलाप करने लगी; वह विलाप सुनिये’॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

भद्रोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारी परमधर्मज्ञ सर्वा भर्तृविनाकृता।
पतिं विना जीवति या न सा जीवति दुःखिता॥२१॥

मूलम्

नारी परमधर्मज्ञ सर्वा भर्तृविनाकृता।
पतिं विना जीवति या न सा जीवति दुःखिता॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भद्रा बोली— परमधर्मज्ञ महाराज! जो कोई भी विधवा स्त्री पतिके बिना जीवन धारण करती है, वह निरन्तर दुःखमें डूबी रहनेके कारण वास्तवमें जीती नहीं, अपितु मृततुल्या है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिं विना मृतं श्रेयो नार्याः क्षत्रियपुङ्गव।
त्वद्‌गतिं गन्तुमिच्छामि प्रसीदस्व नयस्व माम् ॥ २२ ॥
त्वया हीना क्षणमपि नाहं जीवितुमुत्सहे।
प्रसादं कुरु मे राजन्नितस्तूर्णं नयस्व माम् ॥ २३ ॥

मूलम्

पतिं विना मृतं श्रेयो नार्याः क्षत्रियपुङ्गव।
त्वद्‌गतिं गन्तुमिच्छामि प्रसीदस्व नयस्व माम् ॥ २२ ॥
त्वया हीना क्षणमपि नाहं जीवितुमुत्सहे।
प्रसादं कुरु मे राजन्नितस्तूर्णं नयस्व माम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियशिरोमणे! पतिके न रहनेपर नारीकी मृत्यु हो जाय, इसीमें उसका कल्याण है। अतः मैं भी आपके ही मार्गपर चलना चाहती हूँ, प्रसन्न होइये और मुझे अपने साथ ले चलिये। आपके बिना एक क्षण भी जीवित रहनेका मुझमें उत्साह नहीं है। राजन्! कृपा कीजिये और यहाँसे शीघ्र मुझे ले चलिये॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि समेषु विषमेषु च।
त्वामहं नरशार्दूल गच्छन्तमनिवर्तितुम् ॥ २४ ॥

मूलम्

पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि समेषु विषमेषु च।
त्वामहं नरशार्दूल गच्छन्तमनिवर्तितुम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! आप जहाँ कभी न लौटनेके लिये गये हैं, वहाँका मार्ग समतल हो या विषम, मैं आपके पीछे-पीछे अवश्य चली चलूँगी॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छायेवानुगता राजन् सततं वशवर्तिनी।
भविष्यामि नरव्याघ्र नित्यं प्रियहिते रता ॥ २५ ॥

मूलम्

छायेवानुगता राजन् सततं वशवर्तिनी।
भविष्यामि नरव्याघ्र नित्यं प्रियहिते रता ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं छायाकी भाँति आपके पीछे लगी रहूँगी एवं सदा आपकी आज्ञाके अधीन रहूँगी। नरव्याघ्र! मैं सदा आपके प्रिय और हितमें लगी रहूँगी॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यप्रभृति मां राजन् कष्टा हृदयशोषणाः।
आधयोऽभिभविष्यन्ति त्वामृते पुष्करेक्षण ॥ २६ ॥

मूलम्

अद्यप्रभृति मां राजन् कष्टा हृदयशोषणाः।
आधयोऽभिभविष्यन्ति त्वामृते पुष्करेक्षण ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलके समान नेत्रोंवाले महाराज! आपके बिना आजसे हृदयको सुखा देनेवाले कष्ट और मानसिक चिन्ताएँ मुझे सताती रहेंगी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभाग्यया मया नूनं वियुक्ताः सहचारिणः।
तेन मे विप्रयोगोऽयमुपपन्नस्त्वया सह ॥ २७ ॥

मूलम्

अभाग्यया मया नूनं वियुक्ताः सहचारिणः।
तेन मे विप्रयोगोऽयमुपपन्नस्त्वया सह ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझ अभागिनीने निश्चय ही कितने ही जीवनसंगियों (स्त्री-पुरुषों)-में विछोह कराया होगा। इसीलिये आज आपके साथ मेरा वियोग घटित हुआ है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रयुक्ता तु या पत्या मुहूर्तमपि जीवति।
दुःखं जीवति सा पापा नरकस्थेव पार्थिव ॥ २८ ॥

मूलम्

विप्रयुक्ता तु या पत्या मुहूर्तमपि जीवति।
दुःखं जीवति सा पापा नरकस्थेव पार्थिव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जो स्त्री पतिसे बिछुड़ जानेपर दो घड़ी भी जीवन धारण करती है, वह पापिनी नरकमें पड़ी हुई-सी दुःखमय जीवन बिताती है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयुक्ता विप्रयुक्ताश्च पूर्वदेहे कृता मया।
तदिदं कर्मभिः पापैः पूर्वदेहेषु संचितम् ॥ २९ ॥
दुःखं मामनुसम्प्राप्तं राजंस्त्वद्विप्रयोगजम् ।
अद्यप्रभृत्यहं राजन् कुशसंस्तरशायिनी ।
भविष्याम्यसुखाविष्टा त्वद्दर्शनपरायणा ॥ ३० ॥

मूलम्

संयुक्ता विप्रयुक्ताश्च पूर्वदेहे कृता मया।
तदिदं कर्मभिः पापैः पूर्वदेहेषु संचितम् ॥ २९ ॥
दुःखं मामनुसम्प्राप्तं राजंस्त्वद्विप्रयोगजम् ।
अद्यप्रभृत्यहं राजन् कुशसंस्तरशायिनी ।
भविष्याम्यसुखाविष्टा त्वद्दर्शनपरायणा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पूर्वजन्मके शरीरमें स्थित रहकर मैंने एक साथ रहनेवाले कुछ स्त्री-पुरुषोंमें अवश्य वियोग कराया है। उन्हीं पापकर्मोंद्वारा मेरे पूर्वशरीरोंमें जो बीजरूपसे संचित हो रहा था, वही यह आपके वियोगका दुःख आज मुझे प्राप्त हुआ है। महाराज! मैं दुःखमें डूबी हुई हूँ, अतः आजसे आपके दर्शनकी इच्छा रखकर मैं कुशके बिछौनेपर सोऊँगी॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शयस्व नरव्याघ्र शाधि मामसुखान्विताम्।
कृपणां चाथ करुणं विलपन्तीं नरेश्वर ॥ ३१ ॥

मूलम्

दर्शयस्व नरव्याघ्र शाधि मामसुखान्विताम्।
कृपणां चाथ करुणं विलपन्तीं नरेश्वर ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ नरेश्वर! करुण विलाप करती हुई मुझ दीन-दुःखिया अबलाको आज अपना दर्शन और कर्तव्यका आदेश दीजिये॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधं तस्यां विलपन्त्यां पुनः पुनः।
तं शवं सम्परिष्वज्य वाक् किलान्तर्हिताब्रवीत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवं बहुविधं तस्यां विलपन्त्यां पुनः पुनः।
तं शवं सम्परिष्वज्य वाक् किलान्तर्हिताब्रवीत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने कहा— महाराज! इस प्रकार जब राजाके शवका आलिंगन करके वह बार-बार अनेक प्रकारसे विलाप करने लगी, तब आकाशवाणी बोली—॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ भद्रे गच्छ त्वं ददानीह वरं तव।
जनयिष्याम्यपत्यानि त्वय्यहं चारुहासिनि ॥ ३३ ॥

मूलम्

उत्तिष्ठ भद्रे गच्छ त्वं ददानीह वरं तव।
जनयिष्याम्यपत्यानि त्वय्यहं चारुहासिनि ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भद्रे! उठो और जाओ, इस समय मैं तुम्हें वर देता हूँ। चारुहासिनि! मैं तुम्हारे गर्भसे कई पुत्रोंको जन्म दूँगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मकीये वरारोहे शयनीये चतुर्दशीम्।
अष्टमीं वा ऋतुस्नाता संविशेथा मया सह ॥ ३४ ॥

मूलम्

आत्मकीये वरारोहे शयनीये चतुर्दशीम्।
अष्टमीं वा ऋतुस्नाता संविशेथा मया सह ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरारोहे! तुम ऋतुस्नाता होनेपर चतुर्दशी या अष्टमीकी रातमें अपनी शय्यापर मेरे इस शवके साथ सो जाना’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु सा देवी तथा चक्रे पतिव्रता।
यथोक्तमेव तद्वाक्यं भद्रा पुत्रार्थिनी तदा ॥ ३५ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तु सा देवी तथा चक्रे पतिव्रता।
यथोक्तमेव तद्वाक्यं भद्रा पुत्रार्थिनी तदा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशवाणीके यों कहनेपर पुत्रकी इच्छा रखनेवाली पतिव्रता भद्रादेवीने पतिकी पूर्वोक्त आज्ञाका अक्षरशः पालन किया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तेन सुषुवे देवी शवेन भरतर्षभ।
त्रीन् शाल्वांश्चतुरो मद्रान् सुतान् भरतसत्तम ॥ ३६ ॥

मूलम्

सा तेन सुषुवे देवी शवेन भरतर्षभ।
त्रीन् शाल्वांश्चतुरो मद्रान् सुतान् भरतसत्तम ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! रानी भद्राने उस शवके द्वारा सात पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें तीन शाल्वदेशके और चार मद्रदेशके शासक हुए॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा त्वमपि मय्येवं मनसा भरतर्षभ।
शक्तो जनयितुं पुत्रांस्तपोयोगबलान्वितः ॥ ३७ ॥

मूलम्

तथा त्वमपि मय्येवं मनसा भरतर्षभ।
शक्तो जनयितुं पुत्रांस्तपोयोगबलान्वितः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! इसी प्रकार आप भी मेरे गर्भसे मानसिक संकल्पद्वारा अनेक पुत्र उत्पन्न कर सकते हैं; क्योंकि आप तपस्या और योगबलसे सम्पन्न हैं॥३७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि व्युषिताश्वोपाख्याने विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें व्युषिताश्वोपाख्यानविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२०॥