११८ दुर्वासो-मन्त्र-सूचना

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डुका अनुताप, संन्यास लेनेका निश्चय तथा पत्नियोंके अनुरोधसे वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं व्यतीतमतिक्रम्य राजा स्वमिव बान्धवम्।
सभार्यः शोकदुःखार्तः पर्यदेवयदातुरः ॥ १ ॥

मूलम्

तं व्यतीतमतिक्रम्य राजा स्वमिव बान्धवम्।
सभार्यः शोकदुःखार्तः पर्यदेवयदातुरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उन मृगरूपधारी मुनिको मरा हुआ छोड़कर राजा पाण्डु जब आगे बढ़े, तब पत्नीसहित शोक और दुःखसे आतुर हो अपने सगे भाई-बन्धुकी भाँति उनके लिये विलाप करने लगे तथा अपनी भूलपर पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे॥१॥

मूलम् (वचनम्)

पाण्डुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतामपि कुले जाताः कर्मणा बत दुर्गतिम्।
प्राप्नुवन्त्यकृतात्मानः कामजालविमोहिताः ॥ २ ॥

मूलम्

सतामपि कुले जाताः कर्मणा बत दुर्गतिम्।
प्राप्नुवन्त्यकृतात्मानः कामजालविमोहिताः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डु बोले— खेदकी बात है कि श्रेष्ठ पुरुषोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न मनुष्य भी अपने अन्तःकरणपर वश न होनेके कारण कामके फंदेमें फँसकर विवेक खो बैठते हैं और अनुचित कर्म करके उसके द्वारा भारी दुर्गतिमें पड़ जाते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शश्वद्धर्मात्मना जातो बाल एव पिता मम।
जीवितान्तमनुप्राप्तः कामात्मैवेति नः श्रुतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

शश्वद्धर्मात्मना जातो बाल एव पिता मम।
जीवितान्तमनुप्राप्तः कामात्मैवेति नः श्रुतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने सुना है, सदा धर्ममें मन लगाये रहनेवाले महाराज शन्तनुसे जिनका जन्म हुआ था, वे मेरे पिता विचित्रवीर्य भी कामभोगमें आसक्तचित्त होनेके कारण ही छोटी अवस्थामें ही मृत्युको प्राप्त हुए थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कामात्मनः क्षेत्रे राज्ञः संयतवागृषिः।
कृष्णद्वैपायनः साक्षाद् भगवान् मामजीजनत् ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्य कामात्मनः क्षेत्रे राज्ञः संयतवागृषिः।
कृष्णद्वैपायनः साक्षाद् भगवान् मामजीजनत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं कामासक्त नरेशकी पत्नीसे वाणीपर संयम रखनेवाले ऋषिप्रवर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनने मुझे उत्पन्न किया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याद्य व्यसने बुद्धिः संजातेयं ममाधमा।
त्यक्तस्य देवैरनयान्मृगयां परिधावतः ॥ ५ ॥

मूलम्

तस्याद्य व्यसने बुद्धिः संजातेयं ममाधमा।
त्यक्तस्य देवैरनयान्मृगयां परिधावतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं शिकारके पीछे दौड़ता रहता हूँ; मेरी इसी अनीतिके कारण जान पड़ता है देवताओंने मुझे त्याग दिया है। इसीलिये तो ऐसे विशुद्ध वंशमें उत्पन्न होनेपर भी आज व्यसनमें फँसकर मेरी यह बुद्धि इतनी नीच हो गयी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षमेव व्यवस्यामि बन्धो हि व्यसनं महत्।
सुवृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

मोक्षमेव व्यवस्यामि बन्धो हि व्यसनं महत्।
सुवृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अब मैं इस निश्चयपर पहुँच रहा हूँ कि मोक्षके मार्गपर चलनेसे ही अपना कल्याण है। स्त्री-पुत्र आदिका बन्धन ही सबसे महान् दुःख है। आजसे मैं अपने पिता वेदव्यासजीकी उस उत्तम वृत्तिका आश्रय लूँगा, जिससे पुण्यका कभी नाश नहीं होता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव तपसाऽऽत्मानं योजयिष्याम्यसंशयम् ।
तस्मादेकोऽहमेकाकी एकैकस्मिन् वनस्पतौ ॥ ७ ॥
चरन् भैक्ष्यं मुनिर्मुण्डश्चरिष्याम्याश्रमानिमान् ।
पांसुना समवच्छन्नः शून्यागारकृतालयः ॥ ८ ॥

मूलम्

अतीव तपसाऽऽत्मानं योजयिष्याम्यसंशयम् ।
तस्मादेकोऽहमेकाकी एकैकस्मिन् वनस्पतौ ॥ ७ ॥
चरन् भैक्ष्यं मुनिर्मुण्डश्चरिष्याम्याश्रमानिमान् ।
पांसुना समवच्छन्नः शून्यागारकृतालयः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने शरीर और मनको निःसंदेह अत्यन्त कठोर तपस्यामें लगाऊँगा। इसलिये अब अकेला (स्त्रीरहित) और एकाकी (सेवक आदिसे भी अलग) रहकर एक-एक वृक्षके नीचे फलकी भिक्षा माँगूँगा। सिर मुँड़ाकर मौनी संन्यासी हो इन वानप्रस्थियोंके आश्रमोंमें विचरूँगा। उस समय मेरा शरीर धूलसे भरा होगा और निर्जन एकान्त स्थानमें मेरा निवास होगा॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः ।
न शोचन् न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ ९ ॥

मूलम्

वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः ।
न शोचन् न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा वृक्षोंका तल ही मेरा निवासगृह होगा। मैं प्रिय एवं अप्रिय सब प्रकारकी वस्तुओंको त्याग दूँगा। न मुझे किसीके वियोगका शोक होगा और न किसीकी प्राप्ति या संयोगसे हर्ष ही होगा। निन्दा और स्तुति दोनों मेरे लिये समान होंगी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निराशीर्निर्नमस्कारो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ।
न चाप्यवहसन् कच्चिन्न कुर्वन् भ्रुकुटीं क्वचित् ॥ १० ॥

मूलम्

निराशीर्निर्नमस्कारो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ।
न चाप्यवहसन् कच्चिन्न कुर्वन् भ्रुकुटीं क्वचित् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

न मुझे आशीर्वादकी इच्छा होगी न नमस्कारकी। मैं सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित और संग्रह-परिग्रहसे दूर रहूँगा। न तो किसीकी हँसी उड़ाऊँगा और न क्रोधसे किसीपर भौंहें टेढ़ी करूँगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वभूतहिते रतः।
जङ्गमाजङ्गमं सर्वमविहिंसंश्चतुर्विधम् ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वभूतहिते रतः।
जङ्गमाजङ्गमं सर्वमविहिंसंश्चतुर्विधम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मुखपर प्रसन्नता छायी रहेगी तथा सदा सब भूतोंके हितसाधनमें संलग्न रहूँगा। (स्वेदज, उद्भिज्ज, अण्डज, जरायुज—) चार प्रकारके जो चराचर प्राणी हैं, उनमेंसे किसीकी भी मैं हिंसा नहीं करूँगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वासु प्रजास्विव सदा समः प्राणभृतां प्रति।
एककालं चरन् भैक्ष्यं कुलानि दश पञ्च वा ॥ १२ ॥

मूलम्

स्वासु प्रजास्विव सदा समः प्राणभृतां प्रति।
एककालं चरन् भैक्ष्यं कुलानि दश पञ्च वा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पिता अपनी अनेक संतानोंमें सर्वदा समभाव रखता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंके प्रति मेरा सदा समानभाव होगा। (पहले कहे अनुसार) मैं केवल एक समय वृक्षोंसे भिक्षा माँगूँगा अथवा यह सम्भव न हुआ तो दस-पाँच घरोंमें घूमकर (थोड़ी-थोड़ी) भिक्षा ले लूँगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भवे वा भैक्ष्यस्य चरन्ननशनान्यपि।
अल्पमल्पं च भुञ्जानः पूर्वालाभे न जातुचित् ॥ १३ ॥
अन्यान्यपि चरल्ँलोभादलाभे सप्त पूरयन्।
अलाभे यदि वा लाभे समदर्शी महातपाः ॥ १४ ॥

मूलम्

असम्भवे वा भैक्ष्यस्य चरन्ननशनान्यपि।
अल्पमल्पं च भुञ्जानः पूर्वालाभे न जातुचित् ॥ १३ ॥
अन्यान्यपि चरल्ँलोभादलाभे सप्त पूरयन्।
अलाभे यदि वा लाभे समदर्शी महातपाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि भिक्षा मिलनी असम्भव हो जाय, तो कई दिनतक उपवास ही करता चलूँगा। (भिक्षा मिल जानेपर भी) भोजन थोड़ा-थोड़ा ही करूँगा। ऊपर बताये हुए एक प्रकारसे भिक्षा न मिलनेपर ही दूसरे प्रकारका आश्रय लूँगा। ऐसा तो कभी न होगा कि लोभवश दूसरे-दूसरे बहुत-से घरोंमें जाकर भिक्षा लूँ। यदि कहीं कुछ न मिला तो भिक्षाकी पूर्तिके लिये सात घरोंपर फेरी लगा लूँगा। यदि मिला तो और न मिला तो, दोनों ही दशाओंमें समान दृष्टि रखते हुए भारी तपस्यामें लगा रहूँगा॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः।
नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः ॥ १५ ॥
न जिजीविषुवत् किंचिन्न मुमूर्षुवदाचरन्।
जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन् न च द्विषन् ॥ १६ ॥

मूलम्

वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः।
नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः ॥ १५ ॥
न जिजीविषुवत् किंचिन्न मुमूर्षुवदाचरन्।
जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन् न च द्विषन् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक आदमी बसूलेसे मेरी एक बाँह काटता हो और दूसरा मेरी दूसरी बाँहपर चन्दन छिड़कता हो तो उन दोनोंमेंसे एकके अकल्याणका और दूसरेके कल्याणका चिन्तन नहीं करूँगा। जीने अथवा मरनेकी इच्छावाले मनुष्य जैसी चेष्टाएँ करते हैं, वैसी कोई चेष्टा मैं नहीं करूँगा। न जीवनका अभिनन्दन करूँगा, न मृत्युसे द्वेष॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः।
ताः सर्वाः समतिक्रम्य निमेषादिव्यवस्थिताः ॥ १७ ॥
तासु चाप्यनवस्थासु त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः ।
सम्परित्यक्तधर्मार्थः सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः ॥ १८ ॥

मूलम्

याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः।
ताः सर्वाः समतिक्रम्य निमेषादिव्यवस्थिताः ॥ १७ ॥
तासु चाप्यनवस्थासु त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः ।
सम्परित्यक्तधर्मार्थः सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवित पुरुषोंद्वारा अपने अभ्युदयके लिये जो-जो कर्म किये जा सकते हैं, उन समस्त सकाम कर्मोंको मैं त्याग दूँगा; क्योंकि वे सब कालसे सीमित हैं। अनित्य फल देनेवाली क्रियाओंके लिये जो सम्पूर्ण इन्द्रियोंद्वारा चेष्टा की जाती है, उस चेष्टाको भी मैं सर्वथा त्याग दूँगा; धर्मके फलको भी छोड़ दूँगा। अपने अन्तःकरणके मलको सर्वथा धोकर शुद्ध हो जाऊँगा॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः।
न वशे कस्यचित् तिष्ठन् सधर्मा मातरिश्वनः ॥ १९ ॥

मूलम्

निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः।
न वशे कस्यचित् तिष्ठन् सधर्मा मातरिश्वनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सब पापोंसे सर्वथा मुक्त हो अविद्याजनित समस्त बन्धनोंको लाँघ जाऊँगा। किसीके वशमें न रहकर वायुके समान सर्वत्र विचरूँगा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतया सततं धृत्या चरन्नेवंप्रकारया।
देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः ॥ २० ॥

मूलम्

एतया सततं धृत्या चरन्नेवंप्रकारया।
देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा इस प्रकारकी धृति (धारणा)-द्वारा उक्त रूपसे व्यवहार करता हुआ भयरहित मोक्षमार्गमें स्थित होकर इस देहका विसर्जन करूँगा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं सुकृपणे मार्ग स्ववीर्यक्षयशोचिते।
स्वधर्मात् सततापेते चरेयं वीर्यवर्जितः ॥ २१ ॥

मूलम्

नाहं सुकृपणे मार्ग स्ववीर्यक्षयशोचिते।
स्वधर्मात् सततापेते चरेयं वीर्यवर्जितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं संतानोत्पादनकी शक्तिसे रहित हो गया हूँ। मेरा गृहस्थाश्रम संतानोत्पादन आदि धर्मसे सर्वथा शून्य है और मेरे लिये अपने वीर्यक्षयके कारण सर्वथा शोचनीय हो रहा है; अतः इस अत्यन्त दीनतापूर्ण मार्गपर अब मैं नहीं चल सकता॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृतोऽसत्कृतो वापि योऽन्यं कृपणचक्षुषा।
उपैति वृत्तिं कामात्मा स शुनां वर्तते पथि ॥ २२ ॥

मूलम्

सत्कृतोऽसत्कृतो वापि योऽन्यं कृपणचक्षुषा।
उपैति वृत्तिं कामात्मा स शुनां वर्तते पथि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सत्कार या तिरस्कार पाकर दीनतापूर्ण दृष्टिसे देखता हुआ किसी दूसरे पुरुषके पास जीविकाकी आशासे जाता है, वह कामात्मा मनुष्य तो कुत्तोंके मार्गपर चलता है॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निःश्वासपरमो नृपः।
अवेक्षमाणः कुन्तीं च माद्रीं च समभाषत ॥ २३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निःश्वासपरमो नृपः।
अवेक्षमाणः कुन्तीं च माद्रीं च समभाषत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यों कहकर राजा पाण्डु अत्यन्त दुःखसे आतुर हो लंबी साँस खींचते और कुन्ती-माद्रीकी ओर देखते हुए उन दोनोंसे इस प्रकार बोले—॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौसल्या विदुरः क्षत्ता राजा च सह बन्धुभिः।
आर्या सत्यवती भीष्मस्ते च राजपुरोहिताः ॥ २४ ॥
ब्राह्मणाश्च महात्मानः सोमपाः संशितव्रताः।
पौरवृद्धाश्च ये तत्र निवसन्त्यस्मदाश्रयाः।
प्रसाद्य सर्वे वक्तव्याः पाण्डुः प्रव्रजितो वनम् ॥ २५ ॥

मूलम्

कौसल्या विदुरः क्षत्ता राजा च सह बन्धुभिः।
आर्या सत्यवती भीष्मस्ते च राजपुरोहिताः ॥ २४ ॥
ब्राह्मणाश्च महात्मानः सोमपाः संशितव्रताः।
पौरवृद्धाश्च ये तत्र निवसन्त्यस्मदाश्रयाः।
प्रसाद्य सर्वे वक्तव्याः पाण्डुः प्रव्रजितो वनम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(देवियो! तुम दोनों हस्तिनापुरको लौट जाओ और) माता अम्बिका, अम्बालिका, भाई विदुर, संजय, बन्धुओंसहित राजा धृतराष्ट्र, दादी सत्यवती, चाचा भीष्मजी, राजपुरोहितगण, कठोरव्रतका पालन तथा सोमपान करनेवाले महात्मा ब्राह्मण तथा वृद्ध पुरवासीजन आदि जो लोग वहाँ हमलोगोंके आश्रित होकर निवास करते हैं, उन सबको प्रसन्न करके कहना, ‘राजा पाण्डु संन्यासी होकर वनमें चले गये’॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशम्य वचनं भर्तुर्वनवासे धृतात्मनः।
तत्समं वचनं कुन्ती माद्री च समभाषताम् ॥ २६ ॥

मूलम्

निशम्य वचनं भर्तुर्वनवासे धृतात्मनः।
तत्समं वचनं कुन्ती माद्री च समभाषताम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनवासके लिये दृढ़ निश्चय करनेवाले पतिदेवका यह वचन सुनकर कुन्ती और माद्रीने उनके योग्य बात कही—॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्येऽपि ह्याश्रमाः सन्ति ये शक्या भरतर्षभ।
आवाभ्यां धर्मपत्नीभ्यां सह तप्तुं तपो महत् ॥ २७ ॥

मूलम्

अन्येऽपि ह्याश्रमाः सन्ति ये शक्या भरतर्षभ।
आवाभ्यां धर्मपत्नीभ्यां सह तप्तुं तपो महत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! संन्यासके सिवा और भी तो आश्रम हैं, जिनमें आप हम धर्मपत्नियोंके साथ रहकर भारी तपस्या कर सकते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरस्यापि मोक्षाय स्वर्ग्यं प्राप्य महाफलम्।
त्वमेव भविता भर्ता स्वर्गस्यापि न संशयः ॥ २८ ॥

मूलम्

शरीरस्यापि मोक्षाय स्वर्ग्यं प्राप्य महाफलम्।
त्वमेव भविता भर्ता स्वर्गस्यापि न संशयः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपकी वह तपस्या स्वर्गदायक महान् फलकी प्राप्ति कराकर इस शरीरसे भी मुक्ति दिलानेमें समर्थ हो सकती है। इसमें संदेह नहीं कि उस तपके प्रभावसे आप ही स्वर्गलोकके स्वामी इन्द्र भी हो सकते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणिधायेन्द्रियग्रामं भर्तृलोकपरायणे ।
त्यक्तकामसुखे ह्यावां तप्स्यावो विपुलं तपः ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रणिधायेन्द्रियग्रामं भर्तृलोकपरायणे ।
त्यक्तकामसुखे ह्यावां तप्स्यावो विपुलं तपः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम दोनों कामसुखका परित्याग करके पतिलोककी प्राप्तिका ही परम लक्ष्य लेकर अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको संयममें रखती हुई भारी तपस्या करेंगी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि चावां महाप्राज्ञ त्यक्ष्यसि त्वं विशाम्पते।
अद्यैवावां प्रहास्यावो जीवितं नात्र संशयः ॥ ३० ॥

मूलम्

यदि चावां महाप्राज्ञ त्यक्ष्यसि त्वं विशाम्पते।
अद्यैवावां प्रहास्यावो जीवितं नात्र संशयः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाप्राज्ञ नरेश्वर! यदि आप हम दोनोंको त्याग देंगे तो आज ही हम अपने प्राणोंका परित्याग कर देंगी, इसमें संशय नहीं है’॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

पाण्डुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि व्यवसितं ह्येतद् युवयोर्धर्मसंहितम्।
स्ववृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

यदि व्यवसितं ह्येतद् युवयोर्धर्मसंहितम्।
स्ववृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुने कहा— देवियो! यदि तुम दोनोंका यही धर्मयुक्त निश्चय है तो (ठीक है, मैं संन्यास न लेकर वानप्रस्थाश्रममें ही रहूँगा तथा) आजसे अपने पिता वेदव्यासजीकी अक्षय फलवाली जीवनचर्याका अनुसरण करूँगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा ग्राम्यसुखाहारं तप्यमानो महत् तपः।
वल्कली फलमूलाशी चरिष्यामि महावने ॥ ३२ ॥

मूलम्

त्यक्त्वा ग्राम्यसुखाहारं तप्यमानो महत् तपः।
वल्कली फलमूलाशी चरिष्यामि महावने ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोगियोंके सुख और आहारका परित्याग करके भारी तपस्यामें लग जाऊँगा। वल्कल पहनकर फल-मूलका भोजन करते हुए महान् वनमें विचरूँगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नौ जुह्वन्नुभौ कालावुभौ कालावुपस्पृशन्।
कृशः परिमिताहारश्चीरचर्मजटाधरः ॥ ३३ ॥

मूलम्

अग्नौ जुह्वन्नुभौ कालावुभौ कालावुपस्पृशन्।
कृशः परिमिताहारश्चीरचर्मजटाधरः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों समय स्नान-संध्या और अग्निहोत्र करूँगा। चिथड़े, मृगचर्म और जटा धारण करूँगा। बहुत थोड़ा आहार ग्रहण करके शरीरसे दुर्बल हो जाऊँगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासानवेक्षकः ।
तपसा दुश्चरेणेदं शरीरमुपशोषयन् ॥ ३४ ॥
एकान्तशीली विमृशन् पक्वापक्वेन वर्तयन्।
पितॄत् देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् ॥ ३५ ॥

मूलम्

शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासानवेक्षकः ।
तपसा दुश्चरेणेदं शरीरमुपशोषयन् ॥ ३४ ॥
एकान्तशीली विमृशन् पक्वापक्वेन वर्तयन्।
पितॄत् देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्दी, गरमी और आँधीका वेग सहूँगा। भूख-प्यासकी परवा नहीं करूँगा तथा दुष्कर तपस्या करके इस शरीरको सुखा डालूँगा। एकान्तमें रहकर आत्म-चिन्तन करूँगा। कच्चे (कन्द-मूल आदि) और पके (फल आदि)-से जीवन-निर्वाह करूँगा। देवताओं और पितरोंको जंगली फल-मूल, जल तथा मन्त्रपाठ-द्वारा तृप्त करूँगा॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनाम् ।
नाप्रियाण्याचरिष्यामि किं पुनर्ग्रामवासिनाम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनाम् ।
नाप्रियाण्याचरिष्यामि किं पुनर्ग्रामवासिनाम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं वानप्रस्थ आश्रममें रहनेवालोंका तथा कुटुम्बी-जनोंका भी दर्शन और अप्रिय नहीं करूँगा; फिर ग्रामवासियोंकी तो बात ही क्या है?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम् ।
काङ्क्षमाणोऽहमास्थास्ये देहस्यास्या समापनात् ॥ ३७ ॥

मूलम्

एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम् ।
काङ्क्षमाणोऽहमास्थास्ये देहस्यास्या समापनात् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मैं वानप्रस्थ-आश्रमसम्बन्धी शास्त्रोंकी कठोर-से-कठोर विधियोंके पालनकी आकांक्षा करता हुआ तबतक वानप्रस्थ-आश्रममें स्थित रहूँगा जबतक कि शरीरका अन्त न हो जाय॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा भार्ये ते राजा कौरवनन्दनः।
ततश्चूडामणिं निष्कमङ्गदे कुण्डलानि च ॥ ३८ ॥
वासांसि च महार्हाणि स्त्रीणामाभरणानि च।
प्रदाय सर्वं विप्रेभ्यः पाण्डुः पुनरभाषत ॥ ३९ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा भार्ये ते राजा कौरवनन्दनः।
ततश्चूडामणिं निष्कमङ्गदे कुण्डलानि च ॥ ३८ ॥
वासांसि च महार्हाणि स्त्रीणामाभरणानि च।
प्रदाय सर्वं विप्रेभ्यः पाण्डुः पुनरभाषत ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले राजा पाण्डुने अपनी दोनों पत्नियोंसे यों कहकर अपने सिरपेंच, निष्क (वक्षःस्थलके आभूषण), बाजूबंद, कुण्डल और बहुमूल्य वस्त्र तथा माद्री और कुन्तीके भी शरीरके गहने उतारकर सब ब्राह्मणोंको दे दिये। फिर सेवकोंसे इस प्रकार कहा—॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा नागपुरं वाच्यं पाण्डुः प्रव्रजितो वनम्।
अर्थं कामं सुखं चैव रतिं च परमात्मिकाम् ॥ ४० ॥
प्रतस्थे सर्वमुत्सृज्य सभार्यः कुरुनन्दनः।

मूलम्

गत्वा नागपुरं वाच्यं पाण्डुः प्रव्रजितो वनम्।
अर्थं कामं सुखं चैव रतिं च परमात्मिकाम् ॥ ४० ॥
प्रतस्थे सर्वमुत्सृज्य सभार्यः कुरुनन्दनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमलोग हस्तिनापुरमें जाकर कह देना कि कुरुनन्दन राजा पाण्डु अर्थ, काम, विषयसुख और स्त्रीविषयक रति आदि सब कुछ छोड़कर अपनी पत्नियोंके साथ वानप्रस्थ हो गये हैं’॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्यानुयातारस्ते चैव परिचारकाः ॥ ४१ ॥
श्रुत्वा भरतसिंहस्य विविधाः करुणा गिरः।
भीममार्तस्वरं कृत्वा हाहेति परिचुक्रुशुः ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततस्तस्यानुयातारस्ते चैव परिचारकाः ॥ ४१ ॥
श्रुत्वा भरतसिंहस्य विविधाः करुणा गिरः।
भीममार्तस्वरं कृत्वा हाहेति परिचुक्रुशुः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतसिंह पाण्डुकी यह करुणायुक्त चित्र-विचित्र वाणी सुनकर उनके अनुचर और सेवक सभी हाय-हाय करके भयंकर आर्तनाद करने लगे॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्णमश्रु विमुञ्चन्तस्तं विहाय महीपतिम्।
ययुर्नागपुरं तूर्णं सर्वमादाय तद् धनम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

उष्णमश्रु विमुञ्चन्तस्तं विहाय महीपतिम्।
ययुर्नागपुरं तूर्णं सर्वमादाय तद् धनम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय नेत्रोंसे गरम-गरम आँसुओंकी धारा बहाते हुए वे सेवक राजा पाण्डुको छोड़कर और बचा हुआ सारा धन लेकर तुरंत हस्तिनापुरको चले गये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते गत्वा नगरं राज्ञो यथावृत्तं महात्मनः।
कथयाञ्चक्रिरे राज्ञस्तद् धनं विविधं ददुः ॥ ४४ ॥

मूलम्

ते गत्वा नगरं राज्ञो यथावृत्तं महात्मनः।
कथयाञ्चक्रिरे राज्ञस्तद् धनं विविधं ददुः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने हस्तिनापुरमें जाकर महात्मा राजा पाण्डुका सारा समाचार राजा धृतराष्ट्रसे ज्यों-का-त्यों कह सुनाया और वह नाना प्रकारका धन धृतराष्ट्रको ही सौंप दिया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तेभ्यस्ततः सर्वं यथावृत्तं महावने।
धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठः पाण्डुमेवान्वशोचत ॥ ४५ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तेभ्यस्ततः सर्वं यथावृत्तं महावने।
धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठः पाण्डुमेवान्वशोचत ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन सेवकोंसे उस महान् वनमें पाण्डुके साथ घटित हुई सारी घटनाओंको यथावत् सुनकर नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र सदा पाण्डुकी ही चिन्तामें दुःखी रहने लगे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कर्हिचित्।
भ्रातृशोकसमाविष्टस्तमेवार्थं विचिन्तयन् ॥ ४६ ॥

मूलम्

न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कर्हिचित्।
भ्रातृशोकसमाविष्टस्तमेवार्थं विचिन्तयन् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शय्या, आसन और नाना प्रकारके भोगोंमें कभी उनकी रुचि नहीं होती थी। वे भाईके शोकमें मग्न हो सदा उन्हींकी बात सोचते रहते थे॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपुत्रस्तु कौरव्य पाण्डुर्मूलफलाशनः ।
जगाम सह पत्नीभ्यां ततो नागशतं गिरिम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

राजपुत्रस्तु कौरव्य पाण्डुर्मूलफलाशनः ।
जगाम सह पत्नीभ्यां ततो नागशतं गिरिम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! राजकुमार पाण्डु फल-मूलका आहार करते हुए अपनी दोनों पत्नियोंके साथ वहाँसे नागशत नामक पर्वतपर चले गये॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चैत्ररथमासाद्य कालकूटमतीत्य च।
हिमवन्तमतिक्रम्य प्रययौ गन्धमादनम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

स चैत्ररथमासाद्य कालकूटमतीत्य च।
हिमवन्तमतिक्रम्य प्रययौ गन्धमादनम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् चैत्ररथ नामक वनमें जाकर कालकूट और हिमालय पर्वतको लाँघते हुए वे गन्धमादनपर चले गये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्ष्यमाणो महाभूतैः सिद्धैश्च परमर्षिभिः।
उवास स महाराज समेषु विषमेषु च ॥ ४९ ॥
इन्द्रद्युम्नसरः प्राप्य हंसकूटमतीत्य च।
शतशृङ्गे महाराज तापसः समतप्यत ॥ ५० ॥

मूलम्

रक्ष्यमाणो महाभूतैः सिद्धैश्च परमर्षिभिः।
उवास स महाराज समेषु विषमेषु च ॥ ४९ ॥
इन्द्रद्युम्नसरः प्राप्य हंसकूटमतीत्य च।
शतशृङ्गे महाराज तापसः समतप्यत ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय महाभूत, सिद्ध और महर्षिगण उनकी रक्षा करते थे। वे ऊँची-नीची जमीनपर सो लेते थे। इन्द्रद्युम्न सरोवरपर पहुँचकर तथा उसके बाद हंसकूटको लाँघते हुए वे शतशृंग पर्वतपर जा पहुँचे। जनमेजय! वहाँ वे तपस्वी-जीवन बिताते हुए भारी तपस्यामें संलग्न हो गये॥४९-५०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुचरितेऽष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुचरितविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११८॥