श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा पाण्डुके द्वारा मृगरूपधारी मुनिका वध तथा उनसे शापकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथितो धार्तराष्ट्राणामार्षः सम्भव उत्तमः।
अमनुष्यो मनुष्याणां भवता ब्रह्मवादिना ॥ १ ॥
मूलम्
कथितो धार्तराष्ट्राणामार्षः सम्भव उत्तमः।
अमनुष्यो मनुष्याणां भवता ब्रह्मवादिना ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने कहा— भगवन्! आपने धृतराष्ट्रके पुत्रोंके जन्मका उत्तम प्रसंग सुनाया है, जो महर्षि व्यासकी कृपासे सम्भव हुआ था। आप ब्रह्मवादी हैं। आपने यद्यपि यह मनुष्योंके जन्मका वृतान्त बताया है, तथापि यह दूसरे मनुष्योंमें कभी नहीं देखा गया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामधेयानि चाप्येषां कथ्यमानानि भागशः।
त्वत्तः श्रुतानि मे ब्रह्मन् पाण्डवानां च कीर्तय ॥ २ ॥
मूलम्
नामधेयानि चाप्येषां कथ्यमानानि भागशः।
त्वत्तः श्रुतानि मे ब्रह्मन् पाण्डवानां च कीर्तय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! इन धृतराष्ट्रपुत्रोंके पृथक्-पृथक् नाम भी जो आपने कहे हैं, वे मैंने अच्छी तरह सुन लिये। अब पाण्डवोंके जन्मका वर्णन कीजिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते हि सर्वे महात्मानो देवराजपराक्रमाः।
त्वयैवांशावतरणे देवभागाः प्रकीर्तिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
ते हि सर्वे महात्मानो देवराजपराक्रमाः।
त्वयैवांशावतरणे देवभागाः प्रकीर्तिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब महात्मा पाण्डव देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी थे। आपने ही अंशावतरणके प्रसंगमें उन्हें देवताओंका अंश बताया था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुमतिमानुषकर्मणाम् ।
तेषामाजननं सर्वं वैशम्पायन कीर्तय ॥ ४ ॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुमतिमानुषकर्मणाम् ।
तेषामाजननं सर्वं वैशम्पायन कीर्तय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी! वे ऐसे पराक्रम कर दिखाते थे, जो मनुष्योंकी शक्तिके परे हैं; अतः मैं उनके जन्म-सम्बन्धी वृत्तान्तको सम्पूर्णतासे सुनना चाहता हूँ; कृपा करके कहिये॥४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा पाण्डुर्महारण्ये मृगव्यालनिषेविते ।
चरन् मैथुनधर्मस्थं ददर्श मृगयूथपम् ॥ ५ ॥
मूलम्
राजा पाण्डुर्महारण्ये मृगव्यालनिषेविते ।
चरन् मैथुनधर्मस्थं ददर्श मृगयूथपम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी बोले— जनमेजय! एक समय राजा पाण्डु मृगों और सर्पोंसे सेवित विशाल वनमें विचर रहे थे। उन्होंने मृगोंके एक यूथपतिको देखा, जो मृगीके साथ मैथुन कर रहा था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तां च मृगीं तं च रुक्मपुङ्खैः सुपत्रिभिः।
निर्बिभेद शरैस्तीक्ष्णैः पाण्डुः पञ्चभिराशुगैः ॥ ६ ॥
मूलम्
ततस्तां च मृगीं तं च रुक्मपुङ्खैः सुपत्रिभिः।
निर्बिभेद शरैस्तीक्ष्णैः पाण्डुः पञ्चभिराशुगैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखते ही राजा पाण्डुने पाँच सुन्दर एवं सुनहरे पंखोंसे युक्त तीखे तथा शीघ्रगामी बाणोंद्वारा, उस मृगी और मृगको भी बींध डाला॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च राजन् महातेजा ऋषिपुत्रस्तपोधनः।
भार्यया सह तेजस्वी मृगरूपेण संगतः ॥ ७ ॥
मूलम्
स च राजन् महातेजा ऋषिपुत्रस्तपोधनः।
भार्यया सह तेजस्वी मृगरूपेण संगतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस मृगके रूपमें एक महातेजस्वी तपोधन ऋषिपुत्र थे, जो अपनी मृगीरूपधारिणी पत्नीके साथ तेजस्वी मृग बनकर समागम कर रहे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसक्तश्च तया मृग्या मानुषीमीरयन् गिरम्।
क्षणेन पतितो भूमौ विललापाकुलेन्द्रियः ॥ ८ ॥
मूलम्
संसक्तश्च तया मृग्या मानुषीमीरयन् गिरम्।
क्षणेन पतितो भूमौ विललापाकुलेन्द्रियः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उस मृगीसे सटे हुए ही मनुष्योंकी-सी बोली बोलते हुए क्षणभरमें पृथ्वीपर गिर पड़े। उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं और वे विलाप करने लगे॥८॥
मूलम् (वचनम्)
मृग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
काममन्युपरीता हि बुद्ध्या विरहिता अपि।
वर्जयन्ति नृशंसानि पापेष्वपि रता नराः ॥ ९ ॥
न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु ग्रसते विधिः।
विधिपर्यागतानर्थान् प्राज्ञो न प्रतिपद्यते ॥ १० ॥
मूलम्
काममन्युपरीता हि बुद्ध्या विरहिता अपि।
वर्जयन्ति नृशंसानि पापेष्वपि रता नराः ॥ ९ ॥
न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु ग्रसते विधिः।
विधिपर्यागतानर्थान् प्राज्ञो न प्रतिपद्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगने कहा— राजन्! जो मनुष्य काम और क्रोधसे घिरे हुए, बुद्धिशून्य तथा पापोंमें संलग्न रहनेवाले हैं, वे भी ऐसे क्रूरतापूर्ण कर्मको त्याग देते हैं। बुद्धि प्रारब्धको नहीं ग्रसती (नहीं लाँघ सकती) प्रारब्ध ही बुद्धिको अपना ग्रास बना लेता है (भ्रष्ट कर देता है)। प्रारब्धसे प्राप्त होनेवाले पदार्थोंको बुद्धिमान् पुरुष भी नहीं जान पाता॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शश्वद्धर्मात्मनां मुख्ये कुले जातस्य भारत।
कामलोभाभिभूतस्य कथं ते चलिता मतिः ॥ ११ ॥
मूलम्
शश्वद्धर्मात्मनां मुख्ये कुले जातस्य भारत।
कामलोभाभिभूतस्य कथं ते चलिता मतिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सदा धर्ममें मन लगानेवाले क्षत्रियोंके प्रधान कुलमें तुम्हारा जन्म हुआ है, तो भी काम और लोभके वशीभूत होकर तुम्हारी बुद्धि धर्मसे कैसे विचलित हुई?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
पाण्डुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रूणां या वधे वृत्तिः सा मृगाणां वधे स्मृता।
राज्ञां मृग न मां मोहात् त्वं गर्हयितुमर्हसि ॥ १२ ॥
मूलम्
शत्रूणां या वधे वृत्तिः सा मृगाणां वधे स्मृता।
राज्ञां मृग न मां मोहात् त्वं गर्हयितुमर्हसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डु बोले— शत्रुओंके वधमें राजाओंकी जैसी वृत्ति बतायी गयी है, वैसी ही मृगोंके वधमें भी मानी गयी है; अतः मृग! तुम्हें मोहवश मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अच्छद्मना मायया च मृगाणां वध इष्यते।
स एव धर्मो राज्ञां तु तद्धि त्वं किं नु गर्हसे॥१३॥
मूलम्
अच्छद्मना मायया च मृगाणां वध इष्यते।
स एव धर्मो राज्ञां तु तद्धि त्वं किं नु गर्हसे॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकट या अप्रकट रूपसे मृगोंका वध हमारे लिये अभीष्ट है। वह राजाओंके लिये धर्म है, फिर तुम उसकी निन्दा कैसे करते हो?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगस्त्यः सत्रमासीनश्चकार मृगयामृषिः ।
आरण्यान् सर्वदेवेभ्यो मृगान् प्रेषन् महावने ॥ १४ ॥
प्रमाणदृष्टधर्मेण कथमस्मान् विगर्हसे ।
अगस्त्यस्याभिचारेण युष्माकं विहितो वधः ॥ १५ ॥
मूलम्
अगस्त्यः सत्रमासीनश्चकार मृगयामृषिः ।
आरण्यान् सर्वदेवेभ्यो मृगान् प्रेषन् महावने ॥ १४ ॥
प्रमाणदृष्टधर्मेण कथमस्मान् विगर्हसे ।
अगस्त्यस्याभिचारेण युष्माकं विहितो वधः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि अगस्त्य एक सत्रमें दीक्षित थे, तब उन्होंने भी मृगया की थी। सभी देवताओंके हितके लिये उन्होंने सत्रमें विघ्न करनेवाले पशुओंको महान् वनमें खदेड़ दिया था। अगस्त्य ऋषिके उक्त हिंसाकर्मके अनुसार (मुझ क्षत्रियके लिये तो) तुम्हारा वध करना ही उचित है। मैं प्रमाणसिद्ध धर्मके अनुकूल बर्ताव करता हूँ, तो भी तुम क्यों मेरी निन्दा करते हो?॥१४-१५॥
मूलम् (वचनम्)
मृग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न रिपून् वै समुद्दिश्य विमुञ्चन्ति नराः शरान्।
रन्ध्र एषां विशेषेण वधः काले प्रशस्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
न रिपून् वै समुद्दिश्य विमुञ्चन्ति नराः शरान्।
रन्ध्र एषां विशेषेण वधः काले प्रशस्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगने कहा— मनुष्य अपने शत्रुओंपर भी, विशेषतः जब वे संकटकालमें हों, बाण नहीं छोड़ते। उपयुक्त अवसर (संग्राम आदि)-में ही शत्रुओंके वधकी प्रशंसा की जाती है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
पाण्डुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमत्तमप्रमत्तं वा विवृत्तं घ्नन्ति चौजसा।
उपायैर्विविधैस्तीक्ष्णैः कस्मान्मृग विगर्हसे ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रमत्तमप्रमत्तं वा विवृत्तं घ्नन्ति चौजसा।
उपायैर्विविधैस्तीक्ष्णैः कस्मान्मृग विगर्हसे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डु बोले— मृग! राजालोग नाना प्रकारके तीक्ष्ण उपायोंद्वारा बलपूर्वक खुले-आम मृगका वध करते हैं; चाहे वह सावधान हो या असावधान। फिर तुम मेरी निन्दा क्यों करते हो?॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
मृग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं घ्नन्तं मृगान् राजन् विगर्हे चात्मकारणात्।
मैथुनं तु प्रतीक्ष्यं मे त्वयेहाद्यानृशंस्यतः ॥ १८ ॥
मूलम्
नाहं घ्नन्तं मृगान् राजन् विगर्हे चात्मकारणात्।
मैथुनं तु प्रतीक्ष्यं मे त्वयेहाद्यानृशंस्यतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगने कहा— राजन्! मैं अपने मारे जानेके कारण इस बातके लिये तुम्हारी निन्दा नहीं करता कि तुम मृगोंको मारते हो। मुझे तो इतना ही कहना है कि तुम्हें दयाभावका आश्रय लेकर मेरे मैथुनकर्मसे निवृत्त होनेतक प्रतीक्षा करनी चाहिये थी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतहिते काले सर्वभूतेप्सिते तथा।
को हि विद्वान् मृगं हन्याच्चरन्तं मैथुनं वने ॥ १९ ॥
मूलम्
सर्वभूतहिते काले सर्वभूतेप्सिते तथा।
को हि विद्वान् मृगं हन्याच्चरन्तं मैथुनं वने ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण भूतोंके लिये हितकर और अभीष्ट है, उस समयमें वनके भीतर मैथुन करनेवाले किसी मृगको कौन विवेकशील पुरुष मार सकता है?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यां मृग्यां च राजेन्द्र हर्षान्मैथुनमाचरम्।
पुरुषार्थफलं कर्तुं तत् त्वया विफलीकृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
अस्यां मृग्यां च राजेन्द्र हर्षान्मैथुनमाचरम्।
पुरुषार्थफलं कर्तुं तत् त्वया विफलीकृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! मैं बड़े हर्ष और उल्लासके साथ अपने कामरूपी पुरुषार्थको सफल करनेके लिये इस मृगीके साथ मैथुन कर रहा था; किंतु तुमने उसे निष्फल कर दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरवाणां महाराज तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ।
वंशे जातस्य कौरव्य नानुरूपमिदं तव ॥ २१ ॥
मूलम्
पौरवाणां महाराज तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ।
वंशे जातस्य कौरव्य नानुरूपमिदं तव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! क्लेशरहित कर्म करनेवाले कुरुवंशियोंके कुलमें जन्म लेकर तुमने जो यह कार्य किया है, यह तुम्हारे अनुरूप नहीं है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृशंसं कर्म सुमहत् सर्वलोकविगर्हितम्।
अस्वर्ग्यमयशस्यं चाप्यधर्मिष्ठं च भारत ॥ २२ ॥
मूलम्
नृशंसं कर्म सुमहत् सर्वलोकविगर्हितम्।
अस्वर्ग्यमयशस्यं चाप्यधर्मिष्ठं च भारत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अत्यन्त कठोरतापूर्ण कर्म सम्पूर्ण लोकोंमें निन्दित है। वह स्वर्ग और यशको हानि पहुँचानेवाला है। इसके सिवा वह महान् पापकृत्य है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीभोगानां विशेषज्ञः शास्त्रधर्मार्थतत्त्ववित् ।
नार्हस्त्वं सुरसंकाश कर्तुमस्वर्ग्यमीदृशम् ॥ २३ ॥
मूलम्
स्त्रीभोगानां विशेषज्ञः शास्त्रधर्मार्थतत्त्ववित् ।
नार्हस्त्वं सुरसंकाश कर्तुमस्वर्ग्यमीदृशम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवतुल्य महाराज! तुम स्त्री-भोगोंके विशेषज्ञ तथा शास्त्रीय धर्म एवं अर्थके तत्त्वको जाननेवाले हो। तुम्हें ऐसा नरकप्रद पापकार्य नहीं करना चाहिये था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया नृशंसकर्तारः पापाचाराश्च मानवाः।
निग्राह्याः पार्थिवश्रेष्ठ त्रिवर्गपरिवर्जिताः ॥ २४ ॥
मूलम्
त्वया नृशंसकर्तारः पापाचाराश्च मानवाः।
निग्राह्याः पार्थिवश्रेष्ठ त्रिवर्गपरिवर्जिताः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपशिरोमणे! तुम्हारा कर्तव्य तो यह है कि धर्म, अर्थ और कामसे हीन जो पापाचारी मनुष्य कठोरतापूर्ण कर्म करनेवाले हों, उन्हें दण्ड दो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कृतं ते नरश्रेष्ठ मामिहानागसं घ्नता।
मुनिं मूलफलाहारं मृगवेषधरं नृप ॥ २५ ॥
वसमानमरण्येषु नित्यं शमपरायणम् ।
त्वयाहं हिंसितो यस्मात् तस्मात् त्वामप्यहं शपे ॥ २६ ॥
मूलम्
किं कृतं ते नरश्रेष्ठ मामिहानागसं घ्नता।
मुनिं मूलफलाहारं मृगवेषधरं नृप ॥ २५ ॥
वसमानमरण्येषु नित्यं शमपरायणम् ।
त्वयाहं हिंसितो यस्मात् तस्मात् त्वामप्यहं शपे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! मैं तो फल-मूलका आहार करनेवाला एक मुनि हूँ और मृगका रूप धारण करके शम-दमके पालनमें तत्पर हो सदा जंगलोंमें ही निवास करता हूँ। मुझ निरपराधको मारकर यहाँ तुमने क्या लाभ उठाया? तुमने मेरी हत्या की है, इसलिये बदलेमें मैं भी तुम्हें शाप देता हूँ॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वयोर्नृशंसकर्तारमवशं काममोहितम् ।
जीवितान्तकरो भाव एवमेवागमिष्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
द्वयोर्नृशंसकर्तारमवशं काममोहितम् ।
जीवितान्तकरो भाव एवमेवागमिष्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने मैथुन-धर्ममें आसक्त दो स्त्री-पुरुषोंका निष्ठुरता-पूर्वक वध किया है। तुम अजितेन्द्रिय एवं कामसे मोहित हो; अतः इसी प्रकार मैथुनमें आसक्त होनेपर जीवनका अन्त करनेवाली मृत्यु निश्चय ही तुमपर आक्रमण करेगी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि किंदमो नाम तपसा भावितो मुनिः।
व्यपत्रपन्मनुष्याणां मृग्यां मैथुनमाचरम् ॥ २८ ॥
मृगो भूत्वा मृगैः सार्धं चरामि गहने वने।
न तु ते ब्रह्महत्येयं भविष्यत्यविजानतः ॥ २९ ॥
मूलम्
अहं हि किंदमो नाम तपसा भावितो मुनिः।
व्यपत्रपन्मनुष्याणां मृग्यां मैथुनमाचरम् ॥ २८ ॥
मृगो भूत्वा मृगैः सार्धं चरामि गहने वने।
न तु ते ब्रह्महत्येयं भविष्यत्यविजानतः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा नाम किंदम है। मैं तपस्यामें संलग्न रहनेवाला मुनि हूँ, अतः मनुष्योंमें—मानव-शरीरसे यह काम करनेमें मुझे लज्जाका अनुभव हो रहा था। इसीलिये मृग बनकर अपनी मृगीके साथ मैथुन कर रहा था। मैं प्रायः इसी रूपमें मृगोंके साथ घने वनमें विचरता रहता हूँ। तुम्हें मुझे मारनेसे ब्रह्महत्या तो नहीं लगेगी; क्योंकि तुम यह बात नहीं जानते थे (कि यह मुनि है)॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगरूपधरं हत्वा मामेवं काममोहितम्।
अस्य तु त्वं फलं मूढ प्राप्स्यसीदृशमेव हि ॥ ३० ॥
मूलम्
मृगरूपधरं हत्वा मामेवं काममोहितम्।
अस्य तु त्वं फलं मूढ प्राप्स्यसीदृशमेव हि ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जब मैं मृगरूप धारण करके कामसे मोहित था, उस अवस्थामें तुमने अत्यन्त क्रूरताके साथ मुझे मारा है; अतः मूढ़! तुम्हें अपने इस कर्मका ऐसा ही फल अवश्य मिलेगा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियया सह संवासं प्राप्य कामविमोहितः।
त्वमप्यस्यामवस्थायां प्रेतलोकं गमिष्यसि ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रियया सह संवासं प्राप्य कामविमोहितः।
त्वमप्यस्यामवस्थायां प्रेतलोकं गमिष्यसि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम भी जब कामसे सर्वथा मोहित होकर अपनी प्यारी पत्नीके साथ समागम करने लगोगे, तब इस—मेरी अवस्थामें ही यमलोक सिधारोगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तकाले हि संवासं यया गन्तासि कान्तया।
प्रेतराजपुरं प्राप्तं सर्वभूतदुरत्ययम् ।
भक्त्या मतिमतां श्रेष्ठ सैव त्वानुगमिष्यति ॥ ३२ ॥
मूलम्
अन्तकाले हि संवासं यया गन्तासि कान्तया।
प्रेतराजपुरं प्राप्तं सर्वभूतदुरत्ययम् ।
भक्त्या मतिमतां श्रेष्ठ सैव त्वानुगमिष्यति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ महाराज! अन्तकाल आनेपर तुम जिस प्यारी पत्नीके साथ समागम करोगे, वही समस्त प्राणियोंके लिये दुर्गम यमलोकमें जानेपर भक्तिभावसे तुम्हारा अनुसरण करेगी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमानः सुखे दुःखं यथाहं प्रापितस्त्वया।
तथा त्वां च सुखं प्राप्तं दुःखमभ्यागमिष्यति ॥ ३३ ॥
मूलम्
वर्तमानः सुखे दुःखं यथाहं प्रापितस्त्वया।
तथा त्वां च सुखं प्राप्तं दुःखमभ्यागमिष्यति ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सुखमें मग्न था, तथापि तुमने जिस प्रकार मुझे दुःखमें डाल दिया, उसी प्रकार तुम भी जब प्रेयसी पत्नीके संयोग-सुखका अनुभव करोगे, उसी समय तुम्हारे ऊपर दुःख टूट पड़ेगा॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो जीवितात् स व्यमुच्यत।
मृगः पाण्डुश्च दुःखार्तः क्षणेन समपद्यत ॥ ३४ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो जीवितात् स व्यमुच्यत।
मृगः पाण्डुश्च दुःखार्तः क्षणेन समपद्यत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— यों कहकर वे मृगरूप-धारी मुनि अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो गये और उनका देहान्त हो गया तथा राजा पाण्डु भी क्षणभरमें दुःखसे आतुर हो उठे॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुमृगशापे सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुको मृगका शाप नामक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११७॥