११५ पाण्डु-पुत्र-सूचना

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुःशलाके जन्मकी कथा

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामादितः कथितं त्वया।
ऋषेः प्रसादात् तु शतं न च कन्या प्रकीर्तिता॥१॥

मूलम्

धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामादितः कथितं त्वया।
ऋषेः प्रसादात् तु शतं न च कन्या प्रकीर्तिता॥१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! महर्षि व्यासके प्रसादसे धृतराष्ट्रके सौ पुत्र हुए, यह बात आपने मुझे पहले ही बता दी थी। परंतु उस समय यह नहीं कहा था कि उन्हें एक कन्या भी हुई॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च कन्या चैका शताधिका।
गान्धारराजदुहिता शतपुत्रेति चानघ ॥ २ ॥
उक्ता महर्षिणा तेन व्यासेनामिततेजसा।
कथं त्विदानीं भगवन् कन्यां त्वं तु ब्रवीषि मे॥३॥

मूलम्

वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च कन्या चैका शताधिका।
गान्धारराजदुहिता शतपुत्रेति चानघ ॥ २ ॥
उक्ता महर्षिणा तेन व्यासेनामिततेजसा।
कथं त्विदानीं भगवन् कन्यां त्वं तु ब्रवीषि मे॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनघ! इस समय आपने वैश्यापुत्र युयुत्सु तथा सौ पुत्रोंके अतिरिक्त एक कन्याकी भी चर्चा की है। अमिततेजस्वी महर्षि व्यासने गान्धारराजकुमारीको सौ पुत्र होनेका ही वरदान दिया था। भगवन्! फिर आप मुझसे यह कैसे कहते हैं कि एक कन्या भी हुई॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि भागशतं पेशी कृता तेन महर्षिणा।
न प्रजास्यति चेद् भूयः सौबलेयी कथंचन ॥ ४ ॥
कथं तु सम्भवस्तस्या दुःशलाया वदस्व मे।
यथावदिह विप्रर्षे परं मेऽत्र कुतूहलम् ॥ ५ ॥

मूलम्

यदि भागशतं पेशी कृता तेन महर्षिणा।
न प्रजास्यति चेद् भूयः सौबलेयी कथंचन ॥ ४ ॥
कथं तु सम्भवस्तस्या दुःशलाया वदस्व मे।
यथावदिह विप्रर्षे परं मेऽत्र कुतूहलम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि महर्षिने उक्त मांसपिण्डके सौ भाग किये और यदि सुबलपुत्री गान्धारीने किसी प्रकार फिर गर्भ धारण या प्रसव नहीं किया, तो उस दुःशला नामवाली कन्याका जन्म किस प्रकार हुआ? ब्रह्मर्षे! यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताइये। मुझे इस विषयमें कौतूहल हो रहा है॥४-५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्वयं प्रश्न उद्दिष्टः पाण्डवेय ब्रवीमि ते।
तां मांसपेशीं भगवान् स्वयमेव महातपाः ॥ ६ ॥
शीताभिरद्भिरासिच्य भागं भागमकल्पयत् ।
यो यथा कल्पितो भागस्तं तं धात्र्या तथा नृप॥७॥
घृतपूर्णेषु कुण्डेषु एकैकं प्राक्षिपत् तदा।
एतस्मिन्नन्तरे साध्वी गान्धारी सुदृढव्रता ॥ ८ ॥
दुहितुः स्नेहसंयोगमनुध्याय वराङ्गना ।
मनसाचिन्तयद् देवी एतत् पुत्रशतं मम ॥ ९ ॥
भविष्यति न संदेहो न ब्रवीत्यन्यथा मुनिः।
ममेयं परमा तुष्टिर्दुहिता मे भवेद् यदि ॥ १० ॥

मूलम्

साध्वयं प्रश्न उद्दिष्टः पाण्डवेय ब्रवीमि ते।
तां मांसपेशीं भगवान् स्वयमेव महातपाः ॥ ६ ॥
शीताभिरद्भिरासिच्य भागं भागमकल्पयत् ।
यो यथा कल्पितो भागस्तं तं धात्र्या तथा नृप॥७॥
घृतपूर्णेषु कुण्डेषु एकैकं प्राक्षिपत् तदा।
एतस्मिन्नन्तरे साध्वी गान्धारी सुदृढव्रता ॥ ८ ॥
दुहितुः स्नेहसंयोगमनुध्याय वराङ्गना ।
मनसाचिन्तयद् देवी एतत् पुत्रशतं मम ॥ ९ ॥
भविष्यति न संदेहो न ब्रवीत्यन्यथा मुनिः।
ममेयं परमा तुष्टिर्दुहिता मे भवेद् यदि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— पाण्डवनन्दन! तुमने यह बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। मैं तुम्हें इसका उत्तर देता हूँ। महातपस्वी भगवान् व्यासने स्वयं ही उस मांसपिण्डको शीतल जलसे सींचकर उसके सौ भाग किये। राजन्! उस समय जो भाग जैसा बना, उसे धायद्वारा वे एक-एक करके घीसे भरे हुए कुण्डोंमें डलवाते गये। इसी बीचमें पूर्ण दृढ़तासे सतीव्रतका पालन करनेवाली साध्वी एवं सुन्दरी गान्धारी कन्याके स्नेह-सम्बन्धका विचार करके मन-ही-मन सोचने लगी—इसमें संदेह नहीं कि इस मांसपिण्डसे मेरे सौ पुत्र उत्पन्न होंगे; क्योंकि व्यासमुनि कभी झूठ नहीं बोलते; परंतु मुझे अधिक संतोष तो तब होता, यदि एक पुत्री भी हो जाती॥६—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एका शताधिका बाला भविष्यति कनीयसी।
ततो दौहित्रजाल्लोकादबाह्योऽसौ पतिर्मम ॥ ११ ॥

मूलम्

एका शताधिका बाला भविष्यति कनीयसी।
ततो दौहित्रजाल्लोकादबाह्योऽसौ पतिर्मम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि सौ पुत्रोंके अतिरिक्त एक छोटी कन्या हो जायगी तो मेरे ये पति दौहित्रके पुण्यसे प्राप्त होनेवाले उत्तम लोकोंसे भी वंचित नहीं रहेंगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिका किल नारीणां प्रीतिर्जामातृजा भवेत्।
यदि नाम ममापि स्याद् दुहितैका शताधिका ॥ १२ ॥
कृतकृत्या भवेयं वै पुत्रदौहित्रसंवृता।
यदि सत्यं तपस्तप्तं दत्तं वाप्यथवा हुतम् ॥ १३ ॥
गुरवस्तोषिता वापि तथास्तु दुहिता मम।
एतस्मिन्नेव काले तु कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ १४ ॥
व्यभजत् स तदा पेशीं भगवानृषिसत्तमः।
गणयित्वा शतं पूर्णमंशानामाह सौबलीम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अधिका किल नारीणां प्रीतिर्जामातृजा भवेत्।
यदि नाम ममापि स्याद् दुहितैका शताधिका ॥ १२ ॥
कृतकृत्या भवेयं वै पुत्रदौहित्रसंवृता।
यदि सत्यं तपस्तप्तं दत्तं वाप्यथवा हुतम् ॥ १३ ॥
गुरवस्तोषिता वापि तथास्तु दुहिता मम।
एतस्मिन्नेव काले तु कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ १४ ॥
व्यभजत् स तदा पेशीं भगवानृषिसत्तमः।
गणयित्वा शतं पूर्णमंशानामाह सौबलीम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं, स्त्रियोंका दामादमें पुत्रसे भी अधिक स्नेह होता है। यदि मुझे भी सौ पुत्रोंके अतिरिक्त एक पुत्री प्राप्त हो जाय तो मैं पुत्र और दौहित्र दोनोंसे घिरी रहकर कृतकृत्य हो जाऊँ। यदि मैंने सचमुच तप, दान अथवा होम किया हो तथा गुरुजनोंको सेवाद्वारा प्रसन्न कर लिया हो, तो मुझे पुत्री अवश्य प्राप्त हो। इसी बीचमें मुनिश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यासने स्वयं ही उस मांसपिण्डके विभाग कर दिये और पूरे सौ अंशोंकी गणना करके गान्धारीसे कहा॥१२—१५॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णं पुत्रशतं त्वेतन्न मिथ्या वागुदाहृता।
दौहित्रयोगाय भाग एकः शिष्टः शतात् परः।
एषा ते सुभगा कन्या भविष्यति यथेप्सिता ॥ १६ ॥

मूलम्

पूर्णं पुत्रशतं त्वेतन्न मिथ्या वागुदाहृता।
दौहित्रयोगाय भाग एकः शिष्टः शतात् परः।
एषा ते सुभगा कन्या भविष्यति यथेप्सिता ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— गान्धारी! मैंने झूठी बात नहीं कही थी; ये पूरे सौ पुत्र हैं। सौके अतिरिक्त एक भाग और बचा है, जिससे दौहित्रका योग होगा। इस अंशसे तुम्हें अपने मनके अनुरूप एक सौभाग्यशालिनी कन्या प्राप्त होगी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्यं घृतकुम्भं च समानाय्य महातपाः।
तं चापि प्राक्षिपत् तत्र कन्याभागं तपोधनः ॥ १७ ॥
एतत् ते कथितं राजन् दुःशलाजन्म भारत।
ब्रूहि राजेन्द्र किं भूयो वर्तयिष्यामि तेऽनघ ॥ १८ ॥

मूलम्

ततोऽन्यं घृतकुम्भं च समानाय्य महातपाः।
तं चापि प्राक्षिपत् तत्र कन्याभागं तपोधनः ॥ १७ ॥
एतत् ते कथितं राजन् दुःशलाजन्म भारत।
ब्रूहि राजेन्द्र किं भूयो वर्तयिष्यामि तेऽनघ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों कहकर महातपस्वी व्यासजीने घीसे भरा हुआ एक और घड़ा मँगाया और उन तपोधन मुनिने उस कन्याभागको उसीमें डाल दिया। भरतवंशी नरेश! इस प्रकार मैंने तुम्हें दुःशलाके जन्मका प्रसंग सुना दिया। अनघ! बोलो, अब पुनः और क्या कहूँ॥१७-१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि दुःशलोत्पत्तौ पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें दुःशलाकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११५॥