११४ पाण्डु-तपस्या

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके गान्धारीसे एक सौ पुत्र तथा एक कन्याकी तथा सेवा करनेवाली वैश्यजातीय युवतीसे युयुत्सु नामक एक पुत्रकी उत्पत्ति

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां जनमेजय।
धृतराष्ट्रस्य वैश्यायामेकश्चापि शतात् परः ॥ १ ॥

मूलम्

ततः पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां जनमेजय।
धृतराष्ट्रस्य वैश्यायामेकश्चापि शतात् परः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर धृतराष्ट्रके उनकी पत्नी गान्धारीके गर्भसे एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्रकी एक दूसरी पत्नी वैश्यजातिकी कन्या थी। उससे भी एक पुत्रका जन्म हुआ। यह पूर्वोक्त सौ पुत्रोंसे भिन्न था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डोः कुन्त्यां च माद्र्यां च पुत्राः पञ्च महारथाः।
देवेभ्यः समपद्यन्त संतानाय कुलस्य वै ॥ २ ॥

मूलम्

पाण्डोः कुन्त्यां च माद्र्यां च पुत्राः पञ्च महारथाः।
देवेभ्यः समपद्यन्त संतानाय कुलस्य वै ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुके कुन्ती और माद्रीके गर्भसे पाँच महारथी पुत्र उत्पन्न हुए। वे सब कुरुकुलकी संतानपरम्पराकी रक्षाके लिये देवताओंके अंशसे प्रकट हुए थे॥२॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां द्विजसत्तम।
कियता चैव कालेन तेषामायुश्च किं परम् ॥ ३ ॥

मूलम्

कथं पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां द्विजसत्तम।
कियता चैव कालेन तेषामायुश्च किं परम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— द्विजश्रेष्ठ! गान्धारीसे सौ पुत्र किस प्रकार और कितने समयमें उत्पन्न हुए? और उन सबकी पूरी आयु कितनी थी?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं चैकः स वैश्यायां धृतराष्ट्रसुतोऽभवत्।
कथं च सदृशीं भार्यां गान्धारीं धर्मचारिणीम् ॥ ४ ॥
आनुकूल्ये वर्तमानां धृतराष्ट्रोऽभ्यवर्तत ।
कथं च शप्तस्य सतः पाण्डोस्तेन महात्मना ॥ ५ ॥
समुत्पन्ना दैवतेभ्यः पुत्राः पञ्च महारथाः।
एतद् विद्वन् यथान्यायं विस्तरेण तपोधन ॥ ६ ॥
कथयस्व न मे तृप्तिः कथ्यमानेषु बन्धुषु।

मूलम्

कथं चैकः स वैश्यायां धृतराष्ट्रसुतोऽभवत्।
कथं च सदृशीं भार्यां गान्धारीं धर्मचारिणीम् ॥ ४ ॥
आनुकूल्ये वर्तमानां धृतराष्ट्रोऽभ्यवर्तत ।
कथं च शप्तस्य सतः पाण्डोस्तेन महात्मना ॥ ५ ॥
समुत्पन्ना दैवतेभ्यः पुत्राः पञ्च महारथाः।
एतद् विद्वन् यथान्यायं विस्तरेण तपोधन ॥ ६ ॥
कथयस्व न मे तृप्तिः कथ्यमानेषु बन्धुषु।

अनुवाद (हिन्दी)

वैश्यजातीय स्त्रीके गर्भसे धृतराष्ट्रका वह एक पुत्र किस प्रकार उत्पन्न हुआ? राजा धृतराष्ट्र सदा अपने अनुकूल चलनेवाली योग्य पत्नी धर्मपरायणा गान्धारीके साथ कैसा बर्ताव करते थे? महात्मा मुनि-द्वारा शापको प्राप्त हुए राजा पाण्डुके वे पाँचों महारथी पुत्र देवताओंके अंशसे कैसे उत्पन्न हुए? विद्वान् तपोधन! ये सब बातें यथोचित रूपसे विस्तारपूर्वक कहिये। अपने बन्धुजनोंकी यह चर्चा सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती॥४-६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुच्छ्रमाभिपरिग्लानं द्वैपायनमुपस्थितम् ॥ ७ ॥
तोषयामास गान्धारी व्यासस्तस्यै वरं ददौ।
सा वव्रे सदृशं भर्तुः पुत्राणां शतमात्मनः ॥ ८ ॥

मूलम्

क्षुच्छ्रमाभिपरिग्लानं द्वैपायनमुपस्थितम् ॥ ७ ॥
तोषयामास गान्धारी व्यासस्तस्यै वरं ददौ।
सा वव्रे सदृशं भर्तुः पुत्राणां शतमात्मनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! एक समयकी बात है, महर्षि व्यास भूख और परिश्रमसे खिन्न होकर धृतराष्ट्रके यहाँ आये। उस समय गान्धारीने भोजन और विश्रामकी व्यवस्थाद्वारा उन्हें संतुष्ट किया। तब व्यासजीने गान्धारीको वर देनेकी इच्छा प्रकट की। गान्धारीने अपने पतिके समान ही सौ पुत्र माँगे॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कालेन सा गर्भं धृतराष्ट्रादथाग्रहीत्।
संवत्सरद्वयं तं तु गान्धारी गर्भमाहितम् ॥ ९ ॥
अप्रजा धारयामास ततस्तां दुःखमाविशत्।
श्रुत्वा कुन्तीसुतं जातं बालार्कसमतेजसम् ॥ १० ॥

मूलम्

ततः कालेन सा गर्भं धृतराष्ट्रादथाग्रहीत्।
संवत्सरद्वयं तं तु गान्धारी गर्भमाहितम् ॥ ९ ॥
अप्रजा धारयामास ततस्तां दुःखमाविशत्।
श्रुत्वा कुन्तीसुतं जातं बालार्कसमतेजसम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर समयानुसार गान्धारीने धृतराष्ट्रसे गर्भ धारण किया। दो वर्ष व्यतीत हो गये, तबतक गान्धारी उस गर्भको धारण किये रही। फिर भी प्रसव नहीं हुआ। इसी बीचमें गान्धारीने जब यह सुना कि कुन्तीके गर्भसे प्रातःकालीन सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ है, तब उसे बड़ा दुःख हुआ॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदरस्यात्मनः स्थैर्यमुपलभ्यान्वचिन्तयत् ।
अज्ञातं धृतराष्ट्रस्य यत्नेन महता ततः ॥ ११ ॥
सोदरं घातयामास गान्धारी दुःखमूर्च्छिता।
ततो जज्ञे मांसपेशी लोहाष्ठीलेव संहता ॥ १२ ॥

मूलम्

उदरस्यात्मनः स्थैर्यमुपलभ्यान्वचिन्तयत् ।
अज्ञातं धृतराष्ट्रस्य यत्नेन महता ततः ॥ ११ ॥
सोदरं घातयामास गान्धारी दुःखमूर्च्छिता।
ततो जज्ञे मांसपेशी लोहाष्ठीलेव संहता ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे अपने उदरकी स्थिरतापर बड़ी चिन्ता हुई। गान्धारी दुःखसे मूर्च्छित हो रही थी। उसने धृतराष्ट्रकी अनजानमें ही महान् प्रयत्न करके अपने उदरपर आघात किया। तब उसके गर्भसे एक मांसका पिण्ड प्रकट हुआ, जो लोहेके पिण्डके समान कड़ा था॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विवर्षसम्भृता कुक्षौ तामुत्स्रष्टुं प्रचक्रमे।
अथ द्वैपायनो ज्ञात्वा त्वरितः समुपागमत् ॥ १३ ॥

मूलम्

द्विवर्षसम्भृता कुक्षौ तामुत्स्रष्टुं प्रचक्रमे।
अथ द्वैपायनो ज्ञात्वा त्वरितः समुपागमत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने दो वर्षोंतक उसे पेटमें धारण किया था, तो भी उसने उसे इतना कड़ा देखकर फेंक देनेका विचार किया। इधर यह बात महर्षि व्यासको मालूम हुई। तब वे बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां स मांसमयीं पेशीं ददर्श जपतां वरः।
ततोऽब्रवीत् सौबलेयीं किमिदं ते चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥

मूलम्

तां स मांसमयीं पेशीं ददर्श जपतां वरः।
ततोऽब्रवीत् सौबलेयीं किमिदं ते चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ व्यासजीने उस मांसपिण्डको देखा और गान्धारीसे पूछा—‘तुम इसका क्या करना चाहती थीं?’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा चात्मनो मतं सत्यं शशंस परमर्षये।

मूलम्

सा चात्मनो मतं सत्यं शशंस परमर्षये।

अनुवाद (हिन्दी)

और उसने महर्षिको अपने मनकी बात सच-सच बता दी।

मूलम् (वचनम्)

गान्धार्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठं कुन्तीसुतं जातं श्रुत्वा रविसमप्रभम् ॥ १५ ॥
दुःखेन परमेणेदमुदरं घातितं मया।
शतं च किल पुत्राणां वितीर्णं मे त्वया पुरा॥१६॥
इयं च मे मांसपेशी जाता पुत्रशताय वै।

मूलम्

ज्येष्ठं कुन्तीसुतं जातं श्रुत्वा रविसमप्रभम् ॥ १५ ॥
दुःखेन परमेणेदमुदरं घातितं मया।
शतं च किल पुत्राणां वितीर्णं मे त्वया पुरा॥१६॥
इयं च मे मांसपेशी जाता पुत्रशताय वै।

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारीने कहा— मुने! मैंने सुना है, कुन्तीके एक ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ है, जो सूर्यके समान तेजस्वी है। यह समाचार सुनकर अत्यन्त दुःखके कारण मैंने अपने उदरपर आघात करके गर्भ गिराया है। आपने पहले मुझे ही सौ पुत्र होनेका वरदान दिया था; परंतु आज इतने दिनों बाद मेरे गर्भसे सौ पुत्रोंकी जगह यह मांसपिण्ड पैदा हुआ है॥१५-१६॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् सौबलेयि नैतज्जात्वन्यथा भवेत् ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमेतत् सौबलेयि नैतज्जात्वन्यथा भवेत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— सुबलकुमारी! यह सब मेरे वरदानके अनुसार ही हो रहा है; वह कभी अन्यथा नहीं हो सकता॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वितथं नोक्तपूर्वं मे स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।
घृतपूर्णं कुण्डशतं क्षिप्रमेव विधीयताम् ॥ १८ ॥

मूलम्

वितथं नोक्तपूर्वं मे स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।
घृतपूर्णं कुण्डशतं क्षिप्रमेव विधीयताम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने कभी हास-परिहासके समय भी झूठी बात मुँहसे नहीं निकाली है। फिर वरदान आदि अन्य अवसरोंपर कही हुई मेरी बात झूठी कैसे हो सकती है। तुम शीघ्र ही सौ मटके (कुण्ड) तैयार कराओ और उन्हें घीसे भरवा दो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुगुप्तेषु च देशेषु रक्षा चैव विधीयताम्।
शीताभिरद्भिरष्ठीलामिमां च परिषेचय ॥ १९ ॥

मूलम्

सुगुप्तेषु च देशेषु रक्षा चैव विधीयताम्।
शीताभिरद्भिरष्ठीलामिमां च परिषेचय ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर अत्यन्त गुप्त स्थानोंमें रखकर उनकी रक्षा की भी पूरी व्यवस्था करो। इस मांसपिण्डको ठंडे जलसे सींचो॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा सिच्यमाना त्वष्ठीला बभूव शतधा तदा।
अङ्‌गुष्ठपर्वमात्राणां गर्भाणां पृथगेव तु ॥ २० ॥

मूलम्

सा सिच्यमाना त्वष्ठीला बभूव शतधा तदा।
अङ्‌गुष्ठपर्वमात्राणां गर्भाणां पृथगेव तु ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय सींचे जानेपर उस मांसपिण्डके सौ टुकड़े हो गये। वे अलग-अलग अँगूठेके पोरुवे बराबर सौ गर्भोंके रूपमें परिणत हो गये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकाधिकशतं पूर्णं यथायोगं विशाम्पते।
मांसपेश्यास्तदा राजन् क्रमशः कालपर्ययात् ॥ २१ ॥

मूलम्

एकाधिकशतं पूर्णं यथायोगं विशाम्पते।
मांसपेश्यास्तदा राजन् क्रमशः कालपर्ययात् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कालके परिवर्तनसे क्रमशः उस मांसपिण्डके यथायोग्य पूरे एक सौ एक भाग हुए॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तांस्तेषु कुण्डेषु गर्भानवदधे तदा।
स्वनुगुप्तेषु देशेषु रक्षां वै व्यदधात् ततः ॥ २२ ॥

मूलम्

ततस्तांस्तेषु कुण्डेषु गर्भानवदधे तदा।
स्वनुगुप्तेषु देशेषु रक्षां वै व्यदधात् ततः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् गान्धारीने उन सभी गर्भोंको उन पूर्वोक्त कुण्डोंमें रखा। वे सभी कुण्ड अत्यन्त गुप्त स्थानोंमें रखे हुए थे। उनकी रक्षाकी ठीक-ठीक व्यवस्था कर दी गयी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशंस चैव भगवान् कालेनैतावता पुनः।
उद्‌घाटनीयान्येतानि कुण्डानीति च सौबलीम् ॥ २३ ॥

मूलम्

शशंस चैव भगवान् कालेनैतावता पुनः।
उद्‌घाटनीयान्येतानि कुण्डानीति च सौबलीम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् व्यासने गान्धारीसे कहा—‘इतने ही दिन अर्थात् पूरे दो वर्षोंतक प्रतीक्षा करनेके बाद इन कुण्डोंका ढक्कन खोल देना चाहिये’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा भगवान् व्यासस्तथा प्रतिनिधाय च।
जगाम तपसे धीमान् हिमवन्तं शिलोच्चयम् ॥ २४ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा भगवान् व्यासस्तथा प्रतिनिधाय च।
जगाम तपसे धीमान् हिमवन्तं शिलोच्चयम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों कहकर और पूर्वोक्त प्रकारसे रक्षाकी व्यवस्था कराकर परम बुद्धिमान् भगवान् व्यास हिमालय पर्वतपर तपस्याके लिये चले गये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जज्ञे क्रमेण चैतेन तेषां दुर्योधनो नृपः।
जन्मतस्तु प्रमाणेन ज्येष्ठो राजा युधिष्ठिरः ॥ २५ ॥

मूलम्

जज्ञे क्रमेण चैतेन तेषां दुर्योधनो नृपः।
जन्मतस्तु प्रमाणेन ज्येष्ठो राजा युधिष्ठिरः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दो वर्ष बीतनेपर जिस क्रमसे वे गर्भ उन कुण्डोंमें स्थापित किये गये थे, उसी क्रमसे उनमें सबसे पहले राजा दुर्योधन उत्पन्न हुआ। जन्मकालके प्रमाणसे राजा युधिष्ठिर उससे भी ज्येष्ठ थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदाख्यातं तु भीष्माय विदुराय च धीमते।
यस्मिन्नहनि दुर्धर्षो जज्ञे दुर्योधनस्तदा ॥ २६ ॥
तस्मिन्नेव महाबाहुर्जज्ञे भीमोऽपि वीर्यवान्।
स जातमात्र एवाथ धृतराष्ट्रसुतो नृप ॥ २७ ॥
रासभारावसदृशं रुराव च ननाद च।
तं खराः प्रत्यभाषन्त गृध्रगोमायुवायसाः ॥ २८ ॥

मूलम्

तदाख्यातं तु भीष्माय विदुराय च धीमते।
यस्मिन्नहनि दुर्धर्षो जज्ञे दुर्योधनस्तदा ॥ २६ ॥
तस्मिन्नेव महाबाहुर्जज्ञे भीमोऽपि वीर्यवान्।
स जातमात्र एवाथ धृतराष्ट्रसुतो नृप ॥ २७ ॥
रासभारावसदृशं रुराव च ननाद च।
तं खराः प्रत्यभाषन्त गृध्रगोमायुवायसाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके जन्मका समाचार परम बुद्धिमान् भीष्म तथा विदुरजीको बताया गया। जिस दिन दुर्धर्ष वीर दुर्योधनका जन्म हुआ, उसी दिन परम पराक्रमी महाबाहु भीमसेन भी उत्पन्न हुए। राजन्! धृतराष्ट्रका वह पुत्र जन्म लेते ही गदहेके रेंकनेकी-सी आवाजमें रोने-चिल्लाने लगा। उसकी आवाज सुनकर बदलेमें दूसरे गदहे भी रेंकने लगे। गीध, गीदड़ और कौए भी कोलाहल करने लगे॥२६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाताश्च प्रववुश्चापि दिग्दाहश्चाभवत् तदा।
ततस्तु भीतवद् राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ २९ ॥
समानीय बहून् विप्रान् भीष्मं विदुरमेव च।
अन्यांश्च सुहृदो राजन् कुरून् सर्वांस्तथैव च ॥ ३० ॥

मूलम्

वाताश्च प्रववुश्चापि दिग्दाहश्चाभवत् तदा।
ततस्तु भीतवद् राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ २९ ॥
समानीय बहून् विप्रान् भीष्मं विदुरमेव च।
अन्यांश्च सुहृदो राजन् कुरून् सर्वांस्तथैव च ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े जोरकी आँधी चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाओंमें दाह-सा होने लगा। राजन्! तब राजा धृतराष्ट्र भयभीत-से हो उठे और बहुत-से ब्राह्मणोंको, भीष्मजी और विदुरजीको, दूसरे-दूसरे सुहृदों तथा समस्त कुरुवंशियोंको अपने समीप बुलवाकर उनसे इस प्रकार बोले—॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरो राजपुत्रो ज्येष्ठो नः कुलवर्धनः।
प्राप्तः स्वगुणतो राज्यं न तस्मिन् वाच्यमस्ति नः ॥ ३१ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरो राजपुत्रो ज्येष्ठो नः कुलवर्धनः।
प्राप्तः स्वगुणतो राज्यं न तस्मिन् वाच्यमस्ति नः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आदरणीय गुरुजनो! हमारे कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले राजकुमार युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ हैं। वे अपने गुणोंसे राज्यको पानेके अधिकारी हो चुके हैं। उनके विषयमें हमें कुछ नहीं कहना है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं त्वनन्तरस्तस्मादपि राजा भविष्यति।
एतद् विब्रूत मे तथ्यं यदत्र भविता ध्रुवम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अयं त्वनन्तरस्तस्मादपि राजा भविष्यति।
एतद् विब्रूत मे तथ्यं यदत्र भविता ध्रुवम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु उनके बाद मेरा यह पुत्र ही ज्येष्ठ है। क्या यह भी राजा बन सकेगा? इस बातपर विचार करके आपलोग ठीक-ठीक बतायें। जो बात अवश्य होनेवाली है, उसे स्पष्ट कहें’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्यस्यैतस्य निधने दिक्षु सर्वासु भारत।
क्रव्यादाः प्राणदन् घोराः शिवाश्चाशिवशंसिनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

वाक्यस्यैतस्य निधने दिक्षु सर्वासु भारत।
क्रव्यादाः प्राणदन् घोराः शिवाश्चाशिवशंसिनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! धृतराष्ट्रकी यह बात समाप्त होते ही चारों दिशाओंमें भयंकर मांसाहारी जीव गर्जना करने लगे। गीदड़ अमंगलसूचक बोली बोलने लगे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षयित्वा निमित्तानि तानि घोराणि सर्वशः।
तेऽब्रुवन् ब्राह्मणा राजन् विदुरश्च महामतिः ॥ ३४ ॥
यथेमानि निमित्तानि घोराणि मनुजाधिप।
उत्थितानि सुते जाते ज्येष्ठे ते पुरुषर्षभ ॥ ३५ ॥
व्यक्तं कुलान्तकरणो भवितैष सुतस्तव।
तस्य शान्तिः परित्यागे गुप्तावपनयो महान् ॥ ३६ ॥

मूलम्

लक्षयित्वा निमित्तानि तानि घोराणि सर्वशः।
तेऽब्रुवन् ब्राह्मणा राजन् विदुरश्च महामतिः ॥ ३४ ॥
यथेमानि निमित्तानि घोराणि मनुजाधिप।
उत्थितानि सुते जाते ज्येष्ठे ते पुरुषर्षभ ॥ ३५ ॥
व्यक्तं कुलान्तकरणो भवितैष सुतस्तव।
तस्य शान्तिः परित्यागे गुप्तावपनयो महान् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सब ओर होनेवाले उन भयानक अप-शकुनोंको लक्ष्य करके ब्राह्मणलोग तथा परम बुद्धिमान् विदुरजी इस प्रकार बोले—‘नरश्रेष्ठ नरेश्वर! आपके ज्येष्ठ पुत्रके जन्म लेनेपर जिस प्रकार ये भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे स्पष्ट जान पड़ता है कि आपका यह पुत्र समूचे कुलका संहार करनेवाला होगा। यदि इसका त्याग कर दिया जाय तो सब विघ्नोंकी शान्ति हो जायगी और यदि इसकी रक्षा की गयी तो आगे चलकर बड़ा भारी उपद्रव खड़ा होगा॥३४—३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतमेकोनमप्यस्तु पुत्राणां ते महीपते।
त्यजैनमेकं शान्तिं चेत् कुलस्येच्छसि भारत ॥ ३७ ॥

मूलम्

शतमेकोनमप्यस्तु पुत्राणां ते महीपते।
त्यजैनमेकं शान्तिं चेत् कुलस्येच्छसि भारत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महीपते! आपके निन्यानबे पुत्र ही रहें; भारत! यदि आप अपने कुलकी शान्ति चाहते हैं तो इस एक पुत्रको त्याग दें॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेन कुरु वै क्षेमं कुलस्य जगतस्तथा।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ॥ ३८ ॥
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।
स तथा विदुरेणोक्तस्तैश्च सर्वैर्द्विजोत्तमैः ॥ ३९ ॥
न चकार तथा राजा पुत्रस्नेहसमन्वितः।
ततः पुत्रशतं पूर्णं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव ॥ ४० ॥

मूलम्

एकेन कुरु वै क्षेमं कुलस्य जगतस्तथा।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ॥ ३८ ॥
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।
स तथा विदुरेणोक्तस्तैश्च सर्वैर्द्विजोत्तमैः ॥ ३९ ॥
न चकार तथा राजा पुत्रस्नेहसमन्वितः।
ततः पुत्रशतं पूर्णं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘केवल एक पुत्रके त्यागद्वारा इस सम्पूर्ण कुलका तथा समस्त जगत्‌का कल्याण कीजिये। नीति कहती है कि समूचे कुलके हितके लिये एक व्यक्तिको त्याग दे, गाँवके हितके लिये एक कुलको छोड़ दे, देशके हितके लिये एक गाँवका परित्याग कर दे और आत्माके कल्याणके लिये सारे भूमण्डलको त्याग दे।’ विदुर तथा उन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके यों कहनेपर भी पुत्रस्नेहके बन्धनमें बँधे हुए राजा धृतराष्ट्रने वैसा नहीं किया। जनमेजय! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रके पूरे सौ पुत्र हुए॥३८—४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासमात्रेण संजज्ञे कन्या चैका शताधिका।
गान्धार्यां क्लिश्यमानायामुदरेण विवर्धता ॥ ४१ ॥
धृतराष्ट्रं महाराजं वैश्या पर्यचरत् किल।
तस्मिन् संवत्सरे राजन् धृतराष्ट्रान्महायशाः ॥ ४२ ॥
जज्ञे धीमांस्ततस्तस्यां युयुत्सुः करणो नृप।
एवं पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ ४३ ॥
महारथानां वीराणां कन्या चैका शताधिका।
युयुत्सुश्च महातेजा वैश्यापुत्रः प्रतापवान् ॥ ४४ ॥

मूलम्

मासमात्रेण संजज्ञे कन्या चैका शताधिका।
गान्धार्यां क्लिश्यमानायामुदरेण विवर्धता ॥ ४१ ॥
धृतराष्ट्रं महाराजं वैश्या पर्यचरत् किल।
तस्मिन् संवत्सरे राजन् धृतराष्ट्रान्महायशाः ॥ ४२ ॥
जज्ञे धीमांस्ततस्तस्यां युयुत्सुः करणो नृप।
एवं पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ ४३ ॥
महारथानां वीराणां कन्या चैका शताधिका।
युयुत्सुश्च महातेजा वैश्यापुत्रः प्रतापवान् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर एक ही मासमें गान्धारीसे एक कन्या उत्पन्न हुई, जो सौ पुत्रोंके अतिरिक्त थी। जिन दिनों गर्भ धारण करनेके कारण गान्धारीका पेट बढ़ गया था और वह क्लेशमें पड़ी रहती थी, उन दिनों महाराज धृतराष्ट्रकी सेवामें एक वैश्यजातीय स्त्री रहती थी। राजन्! उस वर्ष धृतराष्ट्रके अंशसे उस वैश्यजातीय भार्याके द्वारा महायशस्वी बुद्धिमान् युयुत्सुका जन्म हुआ। जनमेजय! युयुत्सु करण कहे जाते थे। इस प्रकार बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रके एक सौ वीर महारथी पुत्र हुए। तत्पश्चात् एक कन्या हुई, जो सौ पुत्रोंके अतिरिक्त थी। इन सबके सिवा महातेजस्वी परम प्रतापी वैश्यापुत्र युयुत्सु भी थे॥४१—४४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि गान्धारीपुत्रोत्पत्तौ चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें गान्धारीपुत्रोत्पत्तिविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११४॥