११३ पाण्डु-शापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा पाण्डुका पत्नियोंसहित वनमें निवास तथा विदुरका विवाह

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातः स्वबाहुविजितं धनम् ।
भीष्माय सत्यवत्यै च मात्रे चोपजहार सः ॥ १ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातः स्वबाहुविजितं धनम् ।
भीष्माय सत्यवत्यै च मात्रे चोपजहार सः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! बड़े भाई धृतराष्ट्रकी आज्ञा लेकर राजा पाण्डुने अपने बाहुबलसे जीते हुए धनको भीष्म, सत्यवती तथा माता अम्बिका और अम्बालिकाको भेंट किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुराय च वै पाण्डुः प्रेषयामास तद् धनम्।
सुहृदश्चापि धर्मात्मा धनेन समतर्पयत् ॥ २ ॥

मूलम्

विदुराय च वै पाण्डुः प्रेषयामास तद् धनम्।
सुहृदश्चापि धर्मात्मा धनेन समतर्पयत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने विदुरजीके लिये भी वह धन भेजा। धर्मात्मा पाण्डुने अन्य सुहृदोंको भी उस धनसे तृप्त किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सत्यवती भीष्मं कौसल्यां च यशस्विनीम्।
शुभैः पाण्डुजितैरर्थैस्तोषयामास भारत ॥ ३ ॥
ननन्द माता कौसल्या तमप्रतिमतेजसम्।
जयन्तमिव पौलोमी परिष्वज्य नरर्षभम् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः सत्यवती भीष्मं कौसल्यां च यशस्विनीम्।
शुभैः पाण्डुजितैरर्थैस्तोषयामास भारत ॥ ३ ॥
ननन्द माता कौसल्या तमप्रतिमतेजसम्।
जयन्तमिव पौलोमी परिष्वज्य नरर्षभम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तत्पश्चात् सत्यवतीने पाण्डुद्वारा जीतकर लाये हुए शुभ धनके द्वारा भीष्म और यशस्विनी कौसल्याको भी संतुष्ट किया। माता कौसल्याने अनुपम तेजस्वी नरश्रेष्ठ पाण्डुकी उसी प्रकार हृदयसे लगाकर उनका अभिनन्दन किया, जैसे शची अपने पुत्र जयन्तका अभिनन्दन करती हैं॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वीरस्य विक्रान्तैः सहस्रशतदक्षिणैः।
अश्वमेधशतैरीजे धृतराष्ट्रो महामखैः ॥ ५ ॥

मूलम्

तस्य वीरस्य विक्रान्तैः सहस्रशतदक्षिणैः।
अश्वमेधशतैरीजे धृतराष्ट्रो महामखैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरवर पाण्डुके पराक्रमसे धृतराष्ट्रने बड़े-बड़े सौ अश्वमेध यज्ञ किये तथा प्रत्येक यज्ञमें एक-एक लाख स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणा दी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रयुक्तस्तु कुन्त्या च माद्र्या च भरतर्षभ।
जिततन्द्रीस्तदा पाण्डुर्बभूव वनगोचरः ॥ ६ ॥
हित्वा प्रासादनिलयं शुभानि शयनानि च।
अरण्यनित्यः सततं बभूव मृगयापरः ॥ ७ ॥

मूलम्

सम्प्रयुक्तस्तु कुन्त्या च माद्र्या च भरतर्षभ।
जिततन्द्रीस्तदा पाण्डुर्बभूव वनगोचरः ॥ ६ ॥
हित्वा प्रासादनिलयं शुभानि शयनानि च।
अरण्यनित्यः सततं बभूव मृगयापरः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! राजा पाण्डुने आलस्यको जीत लिया था। वे कुन्ती और माद्रीकी प्रेरणासे राजमहलोंका निवास और सुन्दर शय्याएँ छोड़कर वनमें रहने लगे। पाण्डु सदा वनमें रहकर शिकार खेला करते थे॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चरन् दक्षिणं पार्श्वं रम्यं हिमवतो गिरेः।
उवास गिरिपृष्ठेषु महाशालवनेषु च ॥ ८ ॥

मूलम्

स चरन् दक्षिणं पार्श्वं रम्यं हिमवतो गिरेः।
उवास गिरिपृष्ठेषु महाशालवनेषु च ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे हिमालयके दक्षिण भागकी रमणीय भूमिमें विचरते हुए पर्वतके शिखरोंपर तथा ऊँचे शालवृक्षोंसे सुशोभित वनोंमें निवास करते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रराज कुन्त्या माद्र्या च पाण्डुः सह वने चरन्।
करेण्वोरिव मध्यस्थः श्रीमान् पौरंदरो गजः ॥ ९ ॥

मूलम्

रराज कुन्त्या माद्र्या च पाण्डुः सह वने चरन्।
करेण्वोरिव मध्यस्थः श्रीमान् पौरंदरो गजः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्ती और माद्रीके साथ वनमें विचरते हुए महाराज पाण्डु दो हथिनियोंके बीचमें स्थित ऐरावत हाथीकी भाँति शोभा पाते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारतं सह भार्याभ्यां खड्‌गबाणधनुर्धरम्।
विचित्रकवचं वीरं परमास्त्रविदं नृपम्।
देवोऽयमित्यमन्यन्त चरन्तं वनवासिनः ॥ १० ॥

मूलम्

भारतं सह भार्याभ्यां खड्‌गबाणधनुर्धरम्।
विचित्रकवचं वीरं परमास्त्रविदं नृपम्।
देवोऽयमित्यमन्यन्त चरन्तं वनवासिनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तलवार, बाण, धनुष और विचित्र कवच धारण करके अपनी दोनों पत्नियोंके साथ भ्रमण करनेवाले महान् अस्त्रवेत्ता भरतवंशी राजा पाण्डुको देखकर वनवासी मनुष्य यह समझते थे कि ये कोई देवता हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कामांश्च भोगांश्च नरा नित्यमतन्द्रिताः।
उपाजह्रुर्वनान्तेषु धृतराष्ट्रेण चोदिताः ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्य कामांश्च भोगांश्च नरा नित्यमतन्द्रिताः।
उपाजह्रुर्वनान्तेषु धृतराष्ट्रेण चोदिताः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रकी आज्ञासे प्रेरित हो बहुत-से मनुष्य आलस्य छोड़कर वनमें महाराज पाण्डुके लिये इच्छानुसार भोगसामग्री पहुँचाया करते थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पारशवीं कन्यां देवकस्य महीपतेः।
रूपयौवनसम्पन्नां स शुश्रावापगासुतः ॥ १२ ॥

मूलम्

अथ पारशवीं कन्यां देवकस्य महीपतेः।
रूपयौवनसम्पन्नां स शुश्रावापगासुतः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय गंगानन्दन भीष्मजीने सुना कि राजा देवकके यहाँ एक कन्या है, जो शूद्रजातीय स्त्रीके गर्भसे ब्राह्मणद्वारा उत्पन्न की गयी है। वह सुन्दर रूप और युवावस्थासे सम्पन्न है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु वरयित्वा तामानीय भरतर्षभः।
विवाहं कारयामास विदुरस्य महामतेः ॥ १३ ॥

मूलम्

ततस्तु वरयित्वा तामानीय भरतर्षभः।
विवाहं कारयामास विदुरस्य महामतेः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन भरतश्रेष्ठने उसका वरण किया और उसे अपने यहाँ ले आकर उसके साथ परम बुद्धिमान् विदुरजीका विवाह कर दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां चोत्पादयामास विदुरः कुरुनन्दनः।
पुत्रान् विनयसम्पन्नानात्मनः सदृशान् गुणैः ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्यां चोत्पादयामास विदुरः कुरुनन्दनः।
पुत्रान् विनयसम्पन्नानात्मनः सदृशान् गुणैः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन विदुरने उसके गर्भसे अपने ही समान गुणवान् और विनयशील अनेक पुत्र उत्पन्न किये॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि विदुरपरिणये त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें विदुरविवाहविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११३॥