१११ कुन्ती-विवाहः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकादशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुन्तीद्वारा स्वयंवरमें पाण्डुका वरण और उनके साथ विवाह

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वरूपगुणोपेता धर्मारामा महाव्रता ।
दुहिता कुन्तिभोजस्य पृथा पृथुललोचना ॥ १ ॥

मूलम्

सत्त्वरूपगुणोपेता धर्मारामा महाव्रता ।
दुहिता कुन्तिभोजस्य पृथा पृथुललोचना ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा कुन्तिभोजकी पुत्री विशाल नेत्रोंवाली पृथा धर्म, सुन्दर रूप तथा उत्तम गुणोंसे सम्पन्न थी। वह एकमात्र धर्ममें ही रत रहनेवाली और महान् व्रतोंका पालन करनेवाली थी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां तु तेजस्विनीं कन्यां रूपयौवनशालिनीम्।
व्यवृण्वन् पार्थिवाः केचिदतीव स्त्रीगुणैर्युताम् ॥ २ ॥

मूलम्

तां तु तेजस्विनीं कन्यां रूपयौवनशालिनीम्।
व्यवृण्वन् पार्थिवाः केचिदतीव स्त्रीगुणैर्युताम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रीजनोचित सर्वोत्तम गुण अधिक मात्रामें प्रकट होकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। मनोहर रूप तथा युवावस्थासे सुशोभित उस तेजस्विनी राजकन्याके लिये कई राजाओंने महाराज कुन्तिभोजसे याचना की॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा कुन्तिभोजेन राज्ञाऽऽहूय नराधिपान्।
पित्रा स्वयंवरे दत्ता दुहिता राजसत्तम ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः सा कुन्तिभोजेन राज्ञाऽऽहूय नराधिपान्।
पित्रा स्वयंवरे दत्ता दुहिता राजसत्तम ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तब कन्याके पिता राजा कुन्तिभोजने उन सब राजाओंको बुलाकर अपनी पुत्री पृथाको स्वयंवरमें उपस्थित किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा रङ्गमध्यस्थं तेषां राज्ञां मनस्विनी।
ददर्श राजशार्दूलं पाण्डु भरतसत्तमम् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः सा रङ्गमध्यस्थं तेषां राज्ञां मनस्विनी।
ददर्श राजशार्दूलं पाण्डु भरतसत्तमम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनस्विनी कुन्तीने सब राजाओंके बीच रंगमंचपर बैठे हुए भरतवंशशिरोमणि नृपश्रेष्ठ पाएको देखा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहदर्पं महोरस्कं वृषभाक्षं महाबलम्।
आदित्यमिव सर्वेषां राज्ञां प्रच्छाद्य वै प्रभाः ॥ ५ ॥

मूलम्

सिंहदर्पं महोरस्कं वृषभाक्षं महाबलम्।
आदित्यमिव सर्वेषां राज्ञां प्रच्छाद्य वै प्रभाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें सिंहके समान अभिमान जाग रहा था। उनकी छाती बहुत चौड़ी थी। उनके नेत्र बैलकी आँखोंके समान बड़े-बड़े थे। उनका बल महान् था। वे सब राजाओंकी प्रभाको अपने तेजसे आच्छादित करके भगवान् सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठन्तं राजसमितौ पुरन्दरमिवापरम् ।
तं दृष्टवा सानवद्याङ्गी कुन्तिभोजसुता शुभा ॥ ६ ॥
पाण्डुं नरवरं रङ्गे हृदयेनाकुलाभवत्।
ततः कामपरीताङ्गी सकृत् प्रचलमानसा ॥ ७ ॥

मूलम्

तिष्ठन्तं राजसमितौ पुरन्दरमिवापरम् ।
तं दृष्टवा सानवद्याङ्गी कुन्तिभोजसुता शुभा ॥ ६ ॥
पाण्डुं नरवरं रङ्गे हृदयेनाकुलाभवत्।
ततः कामपरीताङ्गी सकृत् प्रचलमानसा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राजसमाजमें वे द्वितीय इन्द्रके समान विराजमान थे। निर्दोष अंगोंवाली कुन्तिभोजकुमारी शुभलक्षणा कुन्ती स्वयंवरकी रंगभूमिमें नरश्रेष्ठ पाण्डुको देखकर मन-ही-मन उन्हें पानेके लिये व्याकुल हो उठी। उसके सब अंग कामसे व्याप्त हो गये और चित्त एकबारगी चंचल हो उठा॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रीडमाना स्रजं कुन्ती राज्ञः स्कन्धे समासजत्।
तं निशम्य वृतं पाण्डुं कुन्त्या सर्वे नराधिपाः ॥ ८ ॥
यथागतं समाजग्मुर्गजैरश्वै रथैस्तथा ।
ततस्तस्याः पिता राजन् विवाहमकरोत् प्रभुः ॥ ९ ॥

मूलम्

व्रीडमाना स्रजं कुन्ती राज्ञः स्कन्धे समासजत्।
तं निशम्य वृतं पाण्डुं कुन्त्या सर्वे नराधिपाः ॥ ८ ॥
यथागतं समाजग्मुर्गजैरश्वै रथैस्तथा ।
ततस्तस्याः पिता राजन् विवाहमकरोत् प्रभुः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने लजाते-लजाते राजा पाण्डुके गलेमें जयमाला डाल दी। सब राजाओंने जब सुना कि कुन्तीने महाराज पाण्डुका वरण कर लिया, तब वे हाथी, घोड़े एवं रथों आदि वाहनोंद्वारा जैसे आये थे, वैसे ही अपने अपने स्थानको लौट गये। राजन! तब उसके पिताने (पाण्डुके साथ शास्त्रविधिके अनुसार) कुन्तीका विवाह कर दिया॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तया कुन्तिभोजस्य दुहित्रा कुरुनन्दनः।
युयुजेऽमितसौभाग्यः पौलोम्या मघवानिव ॥ १० ॥

मूलम्

स तया कुन्तिभोजस्य दुहित्रा कुरुनन्दनः।
युयुजेऽमितसौभाग्यः पौलोम्या मघवानिव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनन्त सौभाग्यशाली कुरुनन्दन पाए कुन्तिभोज-कुमारी कुन्तीसे संयुक्त हो शचीके साथ इन्द्रकी भाँति सुशोभित हुए॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्त्याः पाण्डोश्च राजेन्द्र कुन्तिभोजो महीपतिः।
कृत्वोद्वाहं तदा तं तु नानावसुभिरर्चितम्।
स्वपुरं प्रेषयामास स राजा कुरुसत्तम ॥ ११ ॥
ततो बलेन महता नानाध्वजपताकिना।
स्तूयमानः स चाशीर्भिर्ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः ॥ १२ ॥
सम्प्राप्य नगर राजा पाण्डुः कौरवनन्दनः।
न्यवेशयत तां भार्यां कुन्तीं स्वभवने प्रभुः ॥ १३ ॥

मूलम्

कुन्त्याः पाण्डोश्च राजेन्द्र कुन्तिभोजो महीपतिः।
कृत्वोद्वाहं तदा तं तु नानावसुभिरर्चितम्।
स्वपुरं प्रेषयामास स राजा कुरुसत्तम ॥ ११ ॥
ततो बलेन महता नानाध्वजपताकिना।
स्तूयमानः स चाशीर्भिर्ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः ॥ १२ ॥
सम्प्राप्य नगर राजा पाण्डुः कौरवनन्दनः।
न्यवेशयत तां भार्यां कुन्तीं स्वभवने प्रभुः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! महाराज कुन्तिभोजने कुन्ती और पाण्डुका विवाहसंस्कार सम्पन्न करके उस समय उन्हें नाना प्रकारके धन और रत्नोंद्वारा सम्मानित किया। तत्पश्चात् पाण्डुको उनकी राजधानीमें भेज दिया। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! तब कौरवनन्दन राजा पाण्डु नाना प्रकारकी ध्वजापताकाओंसे सुशोभित विशाल सेनाके साथ चले। उस समय बहुत-से ब्राह्मण एवं महर्षि आशीर्वाद देते हुए उनकी स्तुति करवाते थे। हस्तिनापुरमें आकर उन शक्तिशाली नरेशने अपनी प्यारी पत्नी कुन्तीको राजमहलमें पहुँचा दिया॥११-१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कुन्तीविवाहे एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १११ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कुन्तीविवाहविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१११॥