श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
दशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कुन्तीको दुर्वासासे मन्त्रकी प्राप्ति, सूर्यदेवका आवाहन तथा उनके संयोगसे कर्णका जन्म एवं कर्णके द्वारा इन्द्रको कवच और कुण्डलोंका दान
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूरो नाम यदुश्रेष्ठो वसुदेवपिताभवत्।
तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि ॥ १ ॥
मूलम्
शूरो नाम यदुश्रेष्ठो वसुदेवपिताभवत्।
तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यदुवंशियोंमें श्रेष्ठ शूरसेन हो गये हैं, जो वसुदेवजीके पिता थे। उन्हें एक कन्या हुई, जिसका नाम पृथा रखा गया। इस भूमण्डलमें उसके रूपकी तुलनामें दूसरी कोई स्त्री नहीं थी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृष्वस्रीयाय स तामनपत्याय भारत।
अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय स्वस्यापत्यं स सत्यवाक् ॥ २ ॥
मूलम्
पितृष्वस्रीयाय स तामनपत्याय भारत।
अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय स्वस्यापत्यं स सत्यवाक् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सत्यवादी शूरसेनने अपने फुफेरे भाई संतानहीन कुन्तिभोजसे पहले ही यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मैं तुम्हें अपनी पहली संतान भेंट कर दूँगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्रजामथ तां कन्यां शूरोऽनुग्रहकाङ्क्षिणे।
प्रददौ कुन्तिभोजाय सखा सख्ये महात्मने ॥ ३ ॥
मूलम्
अग्रजामथ तां कन्यां शूरोऽनुग्रहकाङ्क्षिणे।
प्रददौ कुन्तिभोजाय सखा सख्ये महात्मने ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें पहले कन्या ही उत्पन्न हुई। अतः कृपाकांक्षी महात्मा सखा राजा कुन्तिभोजको उनके मित्र शूरसेनने वह कन्या दे दी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा नियुक्ता पितुर्गेहे देवताऽतिथिपूजने।
उग्रं पर्यचरत् तत्र ब्राह्मणं संशितव्रतम् ॥ ४ ॥
निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदुः।
तमुग्रं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयत् ॥ ५ ॥
मूलम्
सा नियुक्ता पितुर्गेहे देवताऽतिथिपूजने।
उग्रं पर्यचरत् तत्र ब्राह्मणं संशितव्रतम् ॥ ४ ॥
निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदुः।
तमुग्रं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिता कुन्तिभोजके घरपर पृथाको देवताओंके पूजन और अतिथियोंके सत्कारका कार्य सौंपा गया था। एक समय वहाँ कठोर व्रतका पालन करनेवाले तथा धर्मके विषयमें अपने निश्चयको सदा गुप्त रखनेवाले एक ब्राह्मण महर्षि आये, जिन्हें लोग दुर्वासाके नामसे जानते हैं। पृथा उनकी सेवा करने लगी। वे बड़े उग्र स्वभावके थे। उनका हृदय बड़ा कठोर था; फिर भी राजकुमारी पृथाने सब प्रकारके यत्नोंसे उन्हें पूर्ण संतुष्ट कर लिया॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यै स प्रददौ मन्त्रमापद्धर्मान्ववेक्षया।
अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीच्चैव तां मुनिः ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्यै स प्रददौ मन्त्रमापद्धर्मान्ववेक्षया।
अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीच्चैव तां मुनिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजीने पृथापर आनेवाले भावी संकटका विचार करके उनके धर्मकी रक्षाके लिये उसे एक वशीकरणमन्त्र दिया और उसके प्रयोगकी विधि भी बता दी। तत्पश्चात् वे मुनि उससे बोले—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि।
तस्य तस्य प्रसादेन पुत्रस्तव भविष्यति ॥ ७ ॥
मूलम्
यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि।
तस्य तस्य प्रसादेन पुत्रस्तव भविष्यति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! तुम इस मन्त्रद्वारा जिस-जिस देवताका आवाहन करोगी, उसी-उसीके अनुग्रहसे तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथोक्ता सा तु विप्रेण कुन्ती कौतूहलान्विता।
कन्या सती देवमर्कमाजुहाव यशस्विनी ॥ ८ ॥
मूलम्
तथोक्ता सा तु विप्रेण कुन्ती कौतूहलान्विता।
कन्या सती देवमर्कमाजुहाव यशस्विनी ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षि दुर्वासाके यों कहनेपर कुन्तीके मनमें बड़ा कौतूहल हुआ। वह यशस्विनी राजकन्या यद्यपि अभी कुमारी थी, तो भी उसने मन्त्रकी परीक्षाके लिये सूर्यदेवका आवाहन किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा ददर्श तमायान्तं भास्करं लोकभावनम्।
विस्मिता चानवद्याङ्गी दृष्ट्वा तन्महद्भुतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
सा ददर्श तमायान्तं भास्करं लोकभावनम्।
विस्मिता चानवद्याङ्गी दृष्ट्वा तन्महद्भुतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आवाहन करते ही उसने देखा, सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति और पालन करनेवाले भगवान् भास्कर आ रहे हैं। यह महान् आश्चर्यकी बात देखकर निर्दोष अंगोंवाली कुन्ती चकित हो उठी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां समासाद्य देवस्तु विवस्वानिदमब्रवीत्।
अयमस्म्यसितापाङ्गि ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ १० ॥
मूलम्
तां समासाद्य देवस्तु विवस्वानिदमब्रवीत्।
अयमस्म्यसितापाङ्गि ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर भगवान् सूर्य उसके पास आकर इस प्रकार बोले—‘श्याम नेत्रोंवाली कुन्ती! यह मैं आ गया। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(आहूतोपस्थितं भद्रे ऋषिमन्त्रेण चोदितम्।
विद्धि मां पुत्रलाभाय देवमर्कं शुचिस्मिते॥)
मूलम्
(आहूतोपस्थितं भद्रे ऋषिमन्त्रेण चोदितम्।
विद्धि मां पुत्रलाभाय देवमर्कं शुचिस्मिते॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! मैं दुर्वासा ऋषिके दिये हुए मन्त्रसे प्रेरित हो तुम्हारे बुलाते ही तुम्हें पुत्रकी प्राप्ति करानेके लिये उपस्थित हुआ हूँ। पवित्र मुसकानवाली कुन्ती! तुम मुझे सूर्यदेव समझो।’
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चिन्मे ब्राह्मणः प्रादाद् वरं विद्यां च शत्रुहन्।
तद्विजिज्ञासयाऽऽह्वानं कृतवत्यस्मि ते विभो ॥ ११ ॥
मूलम्
कश्चिन्मे ब्राह्मणः प्रादाद् वरं विद्यां च शत्रुहन्।
तद्विजिज्ञासयाऽऽह्वानं कृतवत्यस्मि ते विभो ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीने कहा— शत्रुओंका नाश करनेवाले प्रभो! एक ब्राह्मणने मुझे वरदानके रूपमें देवताओंके आवाहनका मन्त्र प्रदान किया है। उसीकी परीक्षाके लिये मैंने आपका आवाहन किया था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नपराधे त्वां शिरसाहं प्रसादये।
योषितो हि सदा रक्ष्याः स्वापराद्धापि नित्यशः ॥ १२ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नपराधे त्वां शिरसाहं प्रसादये।
योषितो हि सदा रक्ष्याः स्वापराद्धापि नित्यशः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि मुझसे यह अपराध हुआ है, तो भी इसके लिये आपके चरणोंमें मस्तक रखकर मैं यह प्रार्थना करती हूँ कि आप क्षमापूर्वक प्रसन्न हो जाइये। स्त्रियोंसे अपना अपराध हो जाय, तो भी श्रेष्ठ पुरुषोंको सदा उनकी रक्षा ही करनी चाहिये॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
सूर्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहं सर्वमेवैतद् यद् दुर्वासा वरं ददौ।
संत्यज्य भयमेवेह क्रियतां संगमो मम ॥ १३ ॥
मूलम्
वेदाहं सर्वमेवैतद् यद् दुर्वासा वरं ददौ।
संत्यज्य भयमेवेह क्रियतां संगमो मम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यदेव बोले— शुभे! मैं यह सब जानता हूँ कि दुर्वासाने तुम्हें वर दिया है। तुम भय छोड़कर यहाँ मेरे साथ समागम करो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोघं दर्शनं मह्यमाहूतश्चास्मि ते शुभे।
वृथाह्वानेऽपि ते भीरु दोषः स्वान्नात्र संशयः ॥ १४ ॥
मूलम्
अमोघं दर्शनं मह्यमाहूतश्चास्मि ते शुभे।
वृथाह्वानेऽपि ते भीरु दोषः स्वान्नात्र संशयः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभे! मेरा दर्शन अमोघ है और तुमने मेरा आवाहन किया है। भीरु! यदि यह आवाहन व्यर्थ हुआ, तो भी निःसंदेह तुम्हें बड़ा दोष लगेगा॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता बहुविधं सान्त्वपूर्वं विवस्वता।
सा तु नैच्छद् वरारोहा कन्याहमिति भारत ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमुक्ता बहुविधं सान्त्वपूर्वं विवस्वता।
सा तु नैच्छद् वरारोहा कन्याहमिति भारत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! भगवान् सूर्यने कुन्तीको समझाते हुए इस तरहकी बहुत-सी बातें कहीं; किंतु मैं अभी कुमारी कन्या हूँ, यह सोचकर सुन्दरी कुन्तीने उनसे समागमकी इच्छा नहीं की॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुपक्षभयाद् भीता लज्जया च यशस्विनी।
तामर्कः पुनरेवेदमब्रवीद् भरतर्षभ ॥ १६ ॥
मूलम्
बन्धुपक्षभयाद् भीता लज्जया च यशस्विनी।
तामर्कः पुनरेवेदमब्रवीद् भरतर्षभ ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशस्विनी कुन्ती भाई-बन्धुओंमें बदनामी फैलनेके डरसे भी डरी हुई थी और नारीसुलभ लज्जासे भी वह विवश थी। भरतश्रेष्ठ! उस समय सूर्यदेवने पुनः उससे कहा—॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पुत्रस्ते निर्मितः सुभ्रु शृणु यादृक्छुभानने॥
आदित्ये कुण्डले बिभ्रत् कवचं चैव मामकम्।
शस्त्रास्त्राणामभेद्यं च भविष्यति शुचिस्मिते॥
न न किंचन देयं तु ब्राह्मणेभ्यो भविष्यति।
चोद्यमानो मया चापि नाक्षमं चिन्तयिष्यति।
दास्यत्येव हि विप्रेभ्यो मानी चैव भविष्यति॥)
मूलम्
(पुत्रस्ते निर्मितः सुभ्रु शृणु यादृक्छुभानने॥
आदित्ये कुण्डले बिभ्रत् कवचं चैव मामकम्।
शस्त्रास्त्राणामभेद्यं च भविष्यति शुचिस्मिते॥
न न किंचन देयं तु ब्राह्मणेभ्यो भविष्यति।
चोद्यमानो मया चापि नाक्षमं चिन्तयिष्यति।
दास्यत्येव हि विप्रेभ्यो मानी चैव भविष्यति॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दर मुख एवं सुन्दर भौंहोंवाली राजकुमारी! तुम्हारे लिये जैसे पुत्रका निर्माण होगा, वह सुनो—शुचिस्मिते! वह माता अदितिके दिये हुए दिव्य कुण्डलों और मेरे कवचको धारण किये हुए उत्पन्न होगा। उसका वह कवच किन्हीं अस्त्र-शस्त्रोंसे टूट न सकेगा। उसके पास कोई भी वस्तु ब्राह्मणोंके लिये अदेय न होगी। मेरे कहनेपर भी वह कभी अयोग्य कार्य या विचारको अपने मनमें स्थान न देगा। ब्राह्मणोंके याचना करनेपर वह उन्हें सब प्रकारकी वस्तुएँ देगा ही। साथ ही वह बड़ा स्वाभिमानी होगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्प्रसादान्न ते राज्ञि भविता दोष इत्युत।
एवमुक्त्वा स भगवान् कुन्तिराजसुतां तदा ॥ १७ ॥
प्रकाशकर्ता तपनः सम्बभूव तया सह।
तत्र वीरः समभवत् सर्वशस्त्रभृतां वरः।
आमुक्तकवचः श्रीमान् देवगर्भः श्रियान्वितः ॥ १८ ॥
मूलम्
मत्प्रसादान्न ते राज्ञि भविता दोष इत्युत।
एवमुक्त्वा स भगवान् कुन्तिराजसुतां तदा ॥ १७ ॥
प्रकाशकर्ता तपनः सम्बभूव तया सह।
तत्र वीरः समभवत् सर्वशस्त्रभृतां वरः।
आमुक्तकवचः श्रीमान् देवगर्भः श्रियान्वितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रानी! मेरी कृपासे तुम्हें दोष भी नहीं लगेगा।’ कुन्तिराजकुमारी कुन्तीसे यों कहकर प्रकाश और गरमी उत्पन्न करनेवाले भगवान् सूर्यने उसके साथ समागम किया। इससे उसी समय एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ था। उसने जन्मसे ही कवच पहन रखा था और वह देवकुमारके समान तेजस्वी तथा शोभासम्पन्न था॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजं कवचं बिभ्रत् कुण्डलो द्योतिताननः।
अजायत सुतः कर्णः सर्वलोकेषु विश्रुतः ॥ १९ ॥
मूलम्
सहजं कवचं बिभ्रत् कुण्डलो द्योतिताननः।
अजायत सुतः कर्णः सर्वलोकेषु विश्रुतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्मके साथ ही कवच धारण किये उस बालकका मुख जन्मजात कुण्डलोंसे प्रकाशित हो रहा था। इस प्रकार कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सब लोकोंमें विख्यात है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रादाच्च तस्यै कन्यात्वं पुनः स परमद्युतिः।
दत्त्वा च तपतां श्रेष्ठो दिवमाचक्रमे ततः ॥ २० ॥
मूलम्
प्रादाच्च तस्यै कन्यात्वं पुनः स परमद्युतिः।
दत्त्वा च तपतां श्रेष्ठो दिवमाचक्रमे ततः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम प्रकाशवाले भगवान् सूर्यने कुलीको पुनः कन्यात्व प्रदान किया। तत्पश्चात् तपनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् सूर्य देवलोकमें चले गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा कुमारं जातं सा वार्ष्णेयी दीनमानसा।
एकाग्रं चिन्तयामास किं कृत्वा सुकृतं भवेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा कुमारं जातं सा वार्ष्णेयी दीनमानसा।
एकाग्रं चिन्तयामास किं कृत्वा सुकृतं भवेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस नवजात कुमारको देखकर वृष्णिवंशकी कन्या कुलीके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ। उसने एकाग्रचितसे विचार किया कि अब क्या करनेसे अच्छा परिणाम निकलेगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गूहमानापचारं सा बन्धुपक्षभयात् तदा।
उत्ससर्ज कुमारं तं जले कुन्ती महाबलम् ॥ २२ ॥
मूलम्
गूहमानापचारं सा बन्धुपक्षभयात् तदा।
उत्ससर्ज कुमारं तं जले कुन्ती महाबलम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुटुम्बीजनोंके भयसे अपने उस अनुचित कृत्यको छिपाती हुई कुन्तीने महाबली कुमार कर्णको जलमें छोड़ दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्सृष्टं जले गर्भ राधाभर्ता महायशाः।
पुत्रत्वे कल्पयामास सभार्यः सूतनन्दनः ॥ २३ ॥
मूलम्
तमुत्सृष्टं जले गर्भ राधाभर्ता महायशाः।
पुत्रत्वे कल्पयामास सभार्यः सूतनन्दनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलमें छोड़े हुए उस नवजात शिशुको महायशस्वी सूतपुत्र अधिरथने, जिसकी पत्नीका नाम राधा था, ले लिया। उसने और उसकी पत्नीने उस बालकको अपना पुत्र बना लिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामधेयं च चक्राते तस्य बालस्य तायुभौ।
वसुना सह जातोऽयं वसुषेणो भवत्विति ॥ २४ ॥
मूलम्
नामधेयं च चक्राते तस्य बालस्य तायुभौ।
वसुना सह जातोऽयं वसुषेणो भवत्विति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दम्पतिने उस बालकका नामकरण इस प्रकार किया; यह वसु (कवच-कुण्डलादि धन)-के साथ उत्पन्न हुआ है, इसलिये वसुषेण नामसे प्रसिद्ध हो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वर्धमानो बलवान् सर्वास्त्रेपूद्यतोऽभवत्।
आ पृष्ठतापादादित्यमुपातिष्ठत वीर्यवान् ॥ २५ ॥
मूलम्
स वर्धमानो बलवान् सर्वास्त्रेपूद्यतोऽभवत्।
आ पृष्ठतापादादित्यमुपातिष्ठत वीर्यवान् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बलवान् बालक बड़े होनेके साथ ही सब प्रकारकी अस्त्रविद्यामें निपुण हुआ। पराक्रमी कर्ण प्रातःकालसे लेकर जबतक सूर्य पृष्ठभागकी ओर न चले जाते, सूर्योपस्थान करता रहता था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् काले तु जपतस्तस्य वीरस्य धीमतः।
नादेयं ब्राह्मणेष्वासीत् किंचिद् वसु महीतले ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्मिन् काले तु जपतस्तस्य वीरस्य धीमतः।
नादेयं ब्राह्मणेष्वासीत् किंचिद् वसु महीतले ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मन्त्र-जपमें लगे हुए बुद्धिमान-वीर कर्णके लिये इस पृथ्वीपर कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणोंके माँगनेपर न दे सके॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ततः काले तु कस्मिंश्चिचत् स्वप्नान्ते कर्णमब्रवीत्।
आदित्यो ब्राह्मणो भूत्वा शृणु वीर वचो मम॥
प्रभातायां रजन्यां त्वामागमिष्यति वासवः।
न तस्य भिक्षा दातव्या विप्ररूपी भविष्यति॥
निश्चयोऽस्यापहर्तुं ते कवचं कुण्डले तथा।
अतस्त्वां बोधयाम्येष स्मर्तासि वचनं मम॥
मूलम्
(ततः काले तु कस्मिंश्चिचत् स्वप्नान्ते कर्णमब्रवीत्।
आदित्यो ब्राह्मणो भूत्वा शृणु वीर वचो मम॥
प्रभातायां रजन्यां त्वामागमिष्यति वासवः।
न तस्य भिक्षा दातव्या विप्ररूपी भविष्यति॥
निश्चयोऽस्यापहर्तुं ते कवचं कुण्डले तथा।
अतस्त्वां बोधयाम्येष स्मर्तासि वचनं मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी समयकी बात है, सूर्यदेवने ब्राह्मणका रूप धारण करके कर्णको स्वप्नमें दर्शन दिया और इस प्रकार कहा—‘वीर! मेरी बात सुनो—आजकी रात बीत जानेपर सबेरा होते ही इन्द्र तुम्हारे पास आयेंगे। उस समय वे ब्राह्मण-वेषमें होंगे। यहाँ आकर इन्द्र यदि तुमसे भिक्षा माँगें तो उन्हें देना मत। उन्होंने तुम्हारे कवच और कुण्डलोंका अपहरण करनेका निश्चय किया है। अतः मैं तुम्हें सचेत किये देता हूँ। तुम मेरी बात याद रखना।’
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रो मां विप्ररूपेण यदि वै याचते द्विज।
कथं चास्मै न दास्यामि यथा चास्म्यवबोधितः॥
विप्राः पूज्यास्तु देवानां सततं प्रियमिच्छताम्।
तं देवदेवं जानन् वै न शक्नोम्यवमन्त्रणे॥
मूलम्
शक्रो मां विप्ररूपेण यदि वै याचते द्विज।
कथं चास्मै न दास्यामि यथा चास्म्यवबोधितः॥
विप्राः पूज्यास्तु देवानां सततं प्रियमिच्छताम्।
तं देवदेवं जानन् वै न शक्नोम्यवमन्त्रणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— ब्रह्मन्! इन्द्र यदि ब्राह्मणका रूप धारण करके सचमुच मुझसे याचना करेंगे, तो मैं आपकी चेतावनीके अनुसार कैसे उन्हें वह वस्तु नहीं दूँगा। ब्राह्मण तो सदा अपना प्रिय चाहनेवाले देवताओंके लिये भी पूजनीय हैं। देवाधिदेव इन्द्र ही ब्राह्मणरूपमें आये हैं, यह जान लेनेपर भी मैं उनकी अवहेलना नहीं कर सकूँगा।
मूलम् (वचनम्)
सूर्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येवं शृणु मे वीर वरं ते सोऽपि दास्यति।
शक्तिं त्वमपि याचेथाः सर्वशस्त्रविबाधिनीम्॥
मूलम्
यद्येवं शृणु मे वीर वरं ते सोऽपि दास्यति।
शक्तिं त्वमपि याचेथाः सर्वशस्त्रविबाधिनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य बोले— वीर! यदि ऐसी बात है तो सुनो, बदलेमें इन्द्र भी तुम्हें वर देंगे। उस समय तुम उनसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका निराकरण करनेवाली बरछी माँग लेना।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा द्विजः स्वप्ते तत्रैवान्तरधीयत।
कर्णः प्रबुद्धस्तं स्वप्नं चिन्तयानोऽभवत् तदा॥)
मूलम्
एवमुक्त्वा द्विजः स्वप्ते तत्रैवान्तरधीयत।
कर्णः प्रबुद्धस्तं स्वप्नं चिन्तयानोऽभवत् तदा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— स्वप्नमें यों कहकर ब्राह्मण-वेषधारी सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। तब कर्ण जाग गया और स्वप्नकी बातोंका चिन्तन करने लगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा भिक्षार्थी समुपागमत्।
कुण्डले प्रार्थयामास कवचं च महाद्युतिः ॥ २७ ॥
मूलम्
तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा भिक्षार्थी समुपागमत्।
कुण्डले प्रार्थयामास कवचं च महाद्युतिः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् एक दिन महातेजस्वी देवराज इन्द्र ब्राह्मण बनकर भिक्षाके लिये कर्णके पास आये और उससे उन्होंने कवच और कुण्डलोंको माँगा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वशरीरात् समुत्कृत्य कवचं स्वं निसर्गजम्।
कर्णस्तु कुण्डले छित्त्वा प्रायच्छत् कृताञ्जलिः ॥ २८ ॥
मूलम्
स्वशरीरात् समुत्कृत्य कवचं स्वं निसर्गजम्।
कर्णस्तु कुण्डले छित्त्वा प्रायच्छत् कृताञ्जलिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कर्णने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्रको अपने शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए कवचको शरीरसे उधेड़कर एवं दोनों कुण्डलोंको भी काटकर दे दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिग्रह तु देवेशस्तुष्टस्तेनास्य कर्मणा।
(अहो साहसमित्येवं मनसा वासवो हसन्।
देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ॥
न तं पश्यामि को ह्येतत् कर्म कर्ता भविष्यति।
प्रीतोऽस्मि कर्मणा तेन वरं वृणु यमिच्छसि॥
मूलम्
प्रतिग्रह तु देवेशस्तुष्टस्तेनास्य कर्मणा।
(अहो साहसमित्येवं मनसा वासवो हसन्।
देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ॥
न तं पश्यामि को ह्येतत् कर्म कर्ता भविष्यति।
प्रीतोऽस्मि कर्मणा तेन वरं वृणु यमिच्छसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
कवच और कुण्डलोंको लेकर उसके इस कर्मसे संतुष्ट हो इन्द्रने मन-ही-मन हँसते हुए कहा—‘अहो! यह तो बड़े साहसका काम है। देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस—इनमेंसे किसीको भी मैं ऐसा साहसी नहीं देखता। भला, कौन ऐसा कार्य कर सकता है।’ यों कहकर वे स्पष्ट वाणीमें बोले—‘वीर! मैं तुम्हारे इस कर्मसे प्रसन्न हूँ, इसलिये तुम जो चाहो, वही वर मुझसे माँग लो।’
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छामि भगवहत्तां शक्तिं शत्रुनिबर्हणीम्।)
मूलम्
इच्छामि भगवहत्तां शक्तिं शत्रुनिबर्हणीम्।)
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— भगवन्! मैं आपकी दी हुई वह अमोघ बरछी चाहता हूँ, जो शत्रुओंका संहार करनेवाली है।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददौ शक्तिं सुरपतिर्वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ २९ ॥
मूलम्
ददौ शक्तिं सुरपतिर्वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— तब देवराज इन्द्रने बदलेमें उसे अपनी ओरसे एक बरछी प्रदान की और कहा—॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।
यमेकं जेतुमिच्छेथाः सोऽनया न भविष्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।
यमेकं जेतुमिच्छेथाः सोऽनया न भविष्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरवर! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग तथा राक्षसोंमेंसे जिस एकको जीतना चाहोगे, वही इस शक्तिके प्रहारसे नष्ट हो जायगा’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राङ् नाम तस्य कथितं वसुषेण इति क्षितौ।
कर्णो वैकर्तनश्चैव कर्मणा तेन सोऽभवत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्राङ् नाम तस्य कथितं वसुषेण इति क्षितौ।
कर्णो वैकर्तनश्चैव कर्मणा तेन सोऽभवत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले इस पृथ्वीपर उसका नाम वसुषेण कहा जाता था। तत्पश्चात् अपने शरीरसे कवचको कतर डालनेके कारण वह कर्ण और वैकर्तन नामसे भी प्रसिद्ध हुआ॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कर्णसम्भवे दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कर्णकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११०॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १३ श्लोक मिलाकर कुल ४४ श्लोक हैं)