श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्र आदिके जन्म तथा भीष्मजीके धर्मपूर्ण शासनसे कुरुदेशकी सर्वांगीण उन्नतिका दिग्दर्शन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(धृतराष्ट्रे च पाण्डौ च विदुरे च महात्मनि।)
तेषु त्रिषु कुमारेषु जातेषु कुरुजाङ्गलम्।
कुरवोऽथ कुरुक्षेत्रं त्रयमेतदवर्धत ॥ १ ॥
मूलम्
(धृतराष्ट्रे च पाण्डौ च विदुरे च महात्मनि।)
तेषु त्रिषु कुमारेषु जातेषु कुरुजाङ्गलम्।
कुरवोऽथ कुरुक्षेत्रं त्रयमेतदवर्धत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धृतराष्ट्र, पाण्डु और महात्मा विदुर—इन तीनों कुमारोंके जन्मसे कुरुवंश, कुरुजांगल देश और कुरुक्षेत्र—इन तीनोंकी बड़ी उन्नति हुई॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वसस्याभवद् भूमिः सस्यानि रसवन्ति च।
यथर्तुवर्षी पर्जन्यो बहुपुष्पफला द्रुमाः ॥ २ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वसस्याभवद् भूमिः सस्यानि रसवन्ति च।
यथर्तुवर्षी पर्जन्यो बहुपुष्पफला द्रुमाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपर खेतीकी उपज बहुत बढ़ गयी, सभी अन्न सरस होने लगे, बादल ठीक समयपर वर्षा करते थे, वृक्षोंमें बहुत-से फल और फूल लगने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहनानि प्रहृष्टानि मुदिता मृगपक्षिणः।
गन्धवन्ति च माल्यानि रसवन्ति फलानि च ॥ ३ ॥
मूलम्
वाहनानि प्रहृष्टानि मुदिता मृगपक्षिणः।
गन्धवन्ति च माल्यानि रसवन्ति फलानि च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़े-हाथी आदि वाहन हृष्ट-पुष्ट रहते थे, मृग और पक्षी बड़े आनन्दसे दिन बिताते थे, फूलों और मालाओंमें अनुपम सुगन्ध होती थी और फलोंमें अनोखा रस होता था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वणिग्भिश्चान्वकीर्यन्त नगराण्यथ शिल्पिभिः ।
शूराश्च कृतविद्याश्च सन्तश्च सुखिनोऽभवन् ॥ ४ ॥
मूलम्
वणिग्भिश्चान्वकीर्यन्त नगराण्यथ शिल्पिभिः ।
शूराश्च कृतविद्याश्च सन्तश्च सुखिनोऽभवन् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी नगर व्यापार-कुशल वैश्यों तथा शिल्पकलामें निपुण कारीगरोंसे भरे रहते थे। शूर-वीर, विद्वान् और संत सुखी हो गये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभवन् दस्यवः केचिन्नाधर्मरुचयो जनाः।
प्रदेशेष्वपि राष्ट्राणां कृतं युगमवर्तत ॥ ५ ॥
मूलम्
नाभवन् दस्यवः केचिन्नाधर्मरुचयो जनाः।
प्रदेशेष्वपि राष्ट्राणां कृतं युगमवर्तत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई भी मनुष्य डाकू नहीं था। पापमें रुचि रखनेवाले लोगोंका सर्वथा अभाव था। राष्ट्रके विभिन्न प्रान्तोंमें सत्ययुग छा रहा था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मक्रिया यज्ञशीलाः सत्यव्रतपरायणाः ।
अन्योन्यप्रीतिसंयुक्ता व्यवर्धन्त प्रजास्तदा ॥ ६ ॥
मूलम्
धर्मक्रिया यज्ञशीलाः सत्यव्रतपरायणाः ।
अन्योन्यप्रीतिसंयुक्ता व्यवर्धन्त प्रजास्तदा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयकी प्रजा सत्य-व्रतके पालनमें तत्पर हो स्वभावतः यज्ञ-कर्ममें लगी रहती और धर्मानुकूल कर्मोंमें संलग्न रहकर एक-दूसरेको प्रसन्न रखती हुई सदा उन्नतिके पथपर बढ़ती जाती थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानक्रोधविहीनाश्च नरा लोभविवर्जिताः ।
अन्योन्यमभ्यनन्दन्त धर्मोत्तरमवर्तत ॥ ७ ॥
मूलम्
मानक्रोधविहीनाश्च नरा लोभविवर्जिताः ।
अन्योन्यमभ्यनन्दन्त धर्मोत्तरमवर्तत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोग अभिमान और क्रोधसे रहित तथा लोभसे दूर रहनेवाले थे; सभी एक-दूसरेको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। लोगोंके आचार-व्यवहारमें धर्मकी ही प्रधानता थी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्महोदधिवत् पूर्णं नगरं वै व्यरोचत।
द्वारतोरणनिर्यूहैर्युक्तमभ्रचयोपमैः ॥ ८ ॥
मूलम्
तन्महोदधिवत् पूर्णं नगरं वै व्यरोचत।
द्वारतोरणनिर्यूहैर्युक्तमभ्रचयोपमैः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रकी भाँति सब प्रकारसे भरा-पूरा कौरवनगर मेघसमूहोंके समान बड़े-बड़े दरवाजों, फाटकों और गोपुरोंसे सुशोभित था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादशतसम्बाधं महेन्द्रपुरसंनिभम् ।
नदीषु वनखण्डेषु वापीपल्वलसानुषु ।
काननेषु च रम्येषु विजह्रुर्मुदिता जनाः ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रासादशतसम्बाधं महेन्द्रपुरसंनिभम् ।
नदीषु वनखण्डेषु वापीपल्वलसानुषु ।
काननेषु च रम्येषु विजह्रुर्मुदिता जनाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैकड़ों महलोंसे संयुक्त वह पुरी देवराज इन्द्रकी अमरावतीके समान शोभा पाती थी। वहाँके लोग नदियों, वनखण्डों, बावलियों, छोटे-छोटे जलाशयों, पर्वतशिखरों तथा रमणीय काननोंमें प्रसन्नतापूर्वक विहार करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरैः कुरुभिः सार्धं दक्षिणाः कुरवस्तथा।
विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा देवर्षिचारणैः ॥ १० ॥
मूलम्
उत्तरैः कुरुभिः सार्धं दक्षिणाः कुरवस्तथा।
विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा देवर्षिचारणैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय दक्षिणकुरु देशके निवासी उत्तरकुरुमें रहनेवाले लोगों, देवताओं, ऋषियों तथा चारणोंके साथ होड़-सी लगाते हुए स्वच्छन्द विचरण करते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभवत् कृपणः कश्चिन्नाभवन् विधवाः स्त्रियः।
तस्मिञ्जनपदे रम्ये कुरुभिर्बहुलीकृते ॥ ११ ॥
मूलम्
नाभवत् कृपणः कश्चिन्नाभवन् विधवाः स्त्रियः।
तस्मिञ्जनपदे रम्ये कुरुभिर्बहुलीकृते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंद्वारा बढ़ाये हुए उस रमणीय जनपदमें न तो कोई कंजूस था और न विधवा स्त्रियाँ देखी जाती थीं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूपारामसभावाप्यो ब्राह्मणावसथास्तथा ।
बभूवुः सर्वर्द्धियुतास्तस्मिन् राष्ट्रे सदोत्सवाः ॥ १२ ॥
मूलम्
कूपारामसभावाप्यो ब्राह्मणावसथास्तथा ।
बभूवुः सर्वर्द्धियुतास्तस्मिन् राष्ट्रे सदोत्सवाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राष्ट्रके कुओं, बगीचों, सभाभवनों, बावलियों तथा ब्राह्मणोंके घरोंमें सब प्रकारकी समृद्धियाँ भरी रहती थीं और वहाँ नित्य-नूतन उत्सव हुआ करते थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मेण धर्मतो राजन् सर्वतः परिरक्षिते।
बभूव रमणीयश्च चैत्ययूपशताङ्कितः ॥ १३ ॥
मूलम्
भीष्मेण धर्मतो राजन् सर्वतः परिरक्षिते।
बभूव रमणीयश्च चैत्ययूपशताङ्कितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! भीष्मजीके द्वारा सब ओरसे धर्मपूर्वक सुरक्षित भूमण्डलमें वह कुरुदेश सैकड़ों देवस्थानों और यज्ञस्तम्भोंसे चिह्नित होनेके कारण बड़ी शोभा पाता था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स देशः परराष्ट्राणि विमृज्याभिप्रवर्धितः।
भीष्मेण विहितं राष्ट्रे धर्मचक्रमवर्तत ॥ १४ ॥
मूलम्
स देशः परराष्ट्राणि विमृज्याभिप्रवर्धितः।
भीष्मेण विहितं राष्ट्रे धर्मचक्रमवर्तत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह देश दूसरे राष्ट्रोंका भी शोधन करके निरन्तर उन्नतिके पथपर अग्रसर हो रहा था। राष्ट्रमें सब ओर भीष्मजीके द्वारा चलाया हुआ धर्मका शासन चल रहा था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियमाणेषु कृत्येषु कुमाराणां महात्मनाम्।
पौरजानपदाः सर्वे बभूवुः सततोत्सवाः ॥ १५ ॥
मूलम्
क्रियमाणेषु कृत्येषु कुमाराणां महात्मनाम्।
पौरजानपदाः सर्वे बभूवुः सततोत्सवाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्मा कुमारोंके यज्ञोपवीतादि संस्कार किये जानेके समय नगर और देशके सभी लोग निरन्तर उत्सव मनाते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहेषु कुरुमुख्यानां पौराणां च नराधिप।
दीयतां भुज्यतां चेति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः ॥ १६ ॥
मूलम्
गृहेषु कुरुमुख्यानां पौराणां च नराधिप।
दीयतां भुज्यतां चेति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! कुरुकुलके प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य नगरनिवासियोंके घरोंमें सदा सब ओर यही बात सुनायी देती थी कि ‘दान दो और अतिथियोंको भोजन कराओ’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च विदुरश्च महामतिः।
जन्मप्रभृति भीष्मेण पुत्रवत् परिपालिताः ॥ १७ ॥
मूलम्
धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च विदुरश्च महामतिः।
जन्मप्रभृति भीष्मेण पुत्रवत् परिपालिताः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा परम बुद्धिमान् विदुर—इन तीनों भाइयोंका भीष्मजीने जन्मसे ही पुत्रकी भाँति पालन किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कारैः संस्कृतास्ते तु व्रताध्ययनसंयुताः।
श्रमव्यायामकुशलाः समपद्यन्त यौवनम् ॥ १८ ॥
मूलम्
संस्कारैः संस्कृतास्ते तु व्रताध्ययनसंयुताः।
श्रमव्यायामकुशलाः समपद्यन्त यौवनम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने ही उनके सब संस्कार कराये। फिर वे ब्रह्मचर्यव्रतके पालन और वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर हो गये। परिश्रम और व्यायाममें भी उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। फिर धीरे-धीरे वे युवावस्थाको प्राप्त हुए॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्वेदेऽश्वपृष्ठे च गदायुद्धेऽसिचर्मणि ।
तथैव गजशिक्षायां नीतिशास्त्रेषु पारगाः ॥ १९ ॥
मूलम्
धनुर्वेदेऽश्वपृष्ठे च गदायुद्धेऽसिचर्मणि ।
तथैव गजशिक्षायां नीतिशास्त्रेषु पारगाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुर्वेद, घोड़ेकी सवारी, गदायुद्ध, ढाल-तलवारके प्रयोग, गजशिक्षा तथा नीतिशास्त्रमें वे तीनों भाई पारंगत हो गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहासपुराणेषु नानाशिक्षासु बोधिताः ।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञाः सर्वत्र कृतनिश्चयाः ॥ २० ॥
मूलम्
इतिहासपुराणेषु नानाशिक्षासु बोधिताः ।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञाः सर्वत्र कृतनिश्चयाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें इतिहास, पुराण तथा नाना प्रकारके शिष्टाचारोंका भी ज्ञान कराया गया। वे वेद-वेदांगोंके तत्त्वज्ञ तथा सर्वत्र एक निश्चित सिद्धान्तके माननेवाले थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डुर्धनुषि विक्रान्तो नरेष्वभ्यधिकोऽभवत् ।
अन्येभ्यो बलवानासीद् धृतराष्ट्रो महीपतिः ॥ २१ ॥
मूलम्
पाण्डुर्धनुषि विक्रान्तो नरेष्वभ्यधिकोऽभवत् ।
अन्येभ्यो बलवानासीद् धृतराष्ट्रो महीपतिः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डु धनुर्विद्यामें उस समयके मनुष्योंमें सबसे बढ़-चढ़कर पराक्रमी थे। इसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र दूसरे लोगोंकी अपेक्षा शारीरिक बलमें बहुत बढ़कर थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिषु लोकेषु न त्वासीत् कश्चिद् विदुरसम्मितः।
धर्मनित्यस्तथा राजन् धर्मे च परमं गतः ॥ २२ ॥
मूलम्
त्रिषु लोकेषु न त्वासीत् कश्चिद् विदुरसम्मितः।
धर्मनित्यस्तथा राजन् धर्मे च परमं गतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तीनों लोकोंमें विदुरजीके समान दूसरा कोई भी मनुष्य धर्मपरायण तथा धर्ममें ऊँची अवस्थाको प्राप्त (आत्मद्रष्टा)1 नहीं था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणष्टं शन्तनोर्वंशं समीक्ष्य पुनरुद्धृतम्।
ततो निर्वचनं लोके सर्वराष्ट्रेष्ववर्तत ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रणष्टं शन्तनोर्वंशं समीक्ष्य पुनरुद्धृतम्।
ततो निर्वचनं लोके सर्वराष्ट्रेष्ववर्तत ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नष्ट हुए शान्तनुके वंशका पुनः उद्धार हुआ देखकर समस्त राष्ट्रके लोग परस्पर कहने लगे—॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरसूनां काशिसुते देशानां कुरुजाङ्गलम्।
सर्वधर्मविदां भीष्मः पुराणां गजसाह्वयम् ॥ २४ ॥
धृतराष्ट्रस्त्वचक्षुष्ट्वाद् राज्यं न प्रत्यपद्यत।
पारसवत्वाद् विदुरो राजा पाण्डुर्बभूव ह ॥ २५ ॥
मूलम्
वीरसूनां काशिसुते देशानां कुरुजाङ्गलम्।
सर्वधर्मविदां भीष्मः पुराणां गजसाह्वयम् ॥ २४ ॥
धृतराष्ट्रस्त्वचक्षुष्ट्वाद् राज्यं न प्रत्यपद्यत।
पारसवत्वाद् विदुरो राजा पाण्डुर्बभूव ह ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर पुत्रोंको जन्म देनेवाली स्त्रियोंमें काशिराजकी दोनों पुत्रियाँ सबसे श्रेष्ठ हैं, देशोंमें कुरुजांगल देश सबसे उत्तम है, सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें भीष्मजीका स्थान सबसे ऊँचा है तथा नगरोंमें हस्तिनापुर सर्वोत्तम है।’ धृतराष्ट्र अंधे होनेके कारण और विदुरजी पारशव (शूद्राके गर्भसे ब्राह्मणद्वारा उत्पन्न) होनेसे राज्य न पा सके; अतः सबसे छोटे पाण्डु ही राजा हुए॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिदथ गाङ्गेयः सर्वनीतिमतां वरः।
विदुरं धर्मतत्त्वज्ञं वाक्यमाह यथोचितम् ॥ २६ ॥
मूलम्
कदाचिदथ गाङ्गेयः सर्वनीतिमतां वरः।
विदुरं धर्मतत्त्वज्ञं वाक्यमाह यथोचितम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, सम्पूर्ण नीतिज्ञ पुरुषोंमें श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्मजी धर्मके तत्त्वको जाननेवाले विदुरजीसे इस प्रकार न्यायोचित वचन बोले॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुराज्याभिषेकेऽष्टाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुराज्याभिषेकविषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)
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‘अयं तु परमो धर्मो यद् योगेनात्मदर्शनम्’ याज्ञवल्क्यस्मृतिके इस कथनके अनुसार आत्मदर्शन ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। ↩︎