श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुरधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मकी सम्मतिसे सत्यवतीद्वारा व्यासका आवाहन और व्यासजीका माताकी आज्ञासे कुरुवंश-की वृद्धिके लिये विचित्रवीर्यकी पत्नियोंके गर्भसे संतानोत्पादन करनेकी स्वीकृति देना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनर्भरतवंशस्य हेतुं संतानवृद्धये ।
वक्ष्यामि नियतं मातस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ १ ॥
ब्राह्मणो गुणवान् कश्चिद् धनेनोपनिमन्त्र्यताम्।
विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत् प्रजाः ॥ २ ॥
मूलम्
पुनर्भरतवंशस्य हेतुं संतानवृद्धये ।
वक्ष्यामि नियतं मातस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ १ ॥
ब्राह्मणो गुणवान् कश्चिद् धनेनोपनिमन्त्र्यताम्।
विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत् प्रजाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— मातः! भरतवंशकी संतानपरम्पराको बढ़ाने और सुरक्षित रखनेके लिये जो नियत उपाय है, उसे मैं बता रहा हूँ; सुनो। किसी गुणवान्1 ब्राह्मणको धन देकर बुलाओ, जो विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंके गर्भसे संतान उत्पन्न कर सके॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सत्यवती भीष्मं वाचा संसज्जमानया।
विहसन्तीव सव्रीडमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततः सत्यवती भीष्मं वाचा संसज्जमानया।
विहसन्तीव सव्रीडमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब सत्यवती कुछ हँसती और साथ ही लजाती हुई भीष्मजीसे इस प्रकार बोली। बोलते समय उसकी वाणी संकोचसे कुछ अस्पष्ट-सी हो जाती थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
विश्वासात् ते प्रवक्ष्यामि संतानाय कुलस्य नः ॥ ४ ॥
मूलम्
सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
विश्वासात् ते प्रवक्ष्यामि संतानाय कुलस्य नः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने कहा—‘महाबाहु भीष्म! तुम जैसा कहते हो वही ठीक है। तुमपर विश्वास होनेसे अपने कुलकी संततिकी रक्षाके लिये तुम्हें मैं एक बात बतलाती हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते शक्यमनाख्यातुमापद्धर्मं तथाविधम्।
त्वमेव नः कुले धर्मस्त्वं सत्यं त्वं परा गतिः॥५॥
मूलम्
न ते शक्यमनाख्यातुमापद्धर्मं तथाविधम्।
त्वमेव नः कुले धर्मस्त्वं सत्यं त्वं परा गतिः॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसे आपद्धर्मको देखकर वह बात तुम्हें बताये बिना मैं नहीं रह सकती। तुम्हीं हमारे कुलमें मूर्तिमान् धर्म हो, तुम्हीं सत्य हो और तुम्हीं परम गति हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्निशम्य सत्यं मे कुरुष्व यदनन्तरम्।
(यस्तु राजा वसुर्नाम श्रुतस्ते भरतर्षभ।
तस्य शुक्रादहं मत्स्याद् धृता कुक्षौ पुरा किल॥
मातरं मे जलाद्धृत्वा दाशः परमधर्मवित्।
मां तु स्वगृहमानीय दुहितृत्वे ह्यकल्पयत्॥)
धर्मयुक्तस्य धर्मार्थं पितुरासीत् तरी मम ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्मान्निशम्य सत्यं मे कुरुष्व यदनन्तरम्।
(यस्तु राजा वसुर्नाम श्रुतस्ते भरतर्षभ।
तस्य शुक्रादहं मत्स्याद् धृता कुक्षौ पुरा किल॥
मातरं मे जलाद्धृत्वा दाशः परमधर्मवित्।
मां तु स्वगृहमानीय दुहितृत्वे ह्यकल्पयत्॥)
धर्मयुक्तस्य धर्मार्थं पितुरासीत् तरी मम ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः मेरी सच्ची बात सुनकर उसके बाद जो कर्तव्य हो, उसे करो।
‘भरतश्रेष्ठ! तुमने महाराज वसुका नाम सुना होगा। पूर्वकालमें मैं उन्हींके वीर्यसे उत्पन्न हुई थी। मुझे एक मछलीने अपने पेटमें धारण किया था। एक परम धर्मज्ञ मल्लाहने जलमेंसे मेरी माताको पकड़ा, उसके पेटसे मुझे निकाला और अपने घर लाकर अपनी पुत्री बनाकर रखा। मेरे उन धर्मपरायण पिताके पास एक नौका थी, जो (धनके लिये नहीं) धर्मार्थ चलायी जाती थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा कदाचिदहं तत्र गता प्रथमयौवनम्।
अथ धर्मविदां श्रेष्ठः परमर्षिः पराशरः ॥ ७ ॥
आजगाम तरीं धीमांस्तरिष्यन् यमुनां नदीम्।
स तार्यमाणो यमुनां मामुपेत्याब्रवीत् तदा ॥ ८ ॥
सान्त्वपूर्वं मुनिश्रेष्ठः कामार्तो मधुरं वचः।
उक्तं जन्म कुलं मह्यमस्मि दाशसुतेत्यहम् ॥ ९ ॥
मूलम्
सा कदाचिदहं तत्र गता प्रथमयौवनम्।
अथ धर्मविदां श्रेष्ठः परमर्षिः पराशरः ॥ ७ ॥
आजगाम तरीं धीमांस्तरिष्यन् यमुनां नदीम्।
स तार्यमाणो यमुनां मामुपेत्याब्रवीत् तदा ॥ ८ ॥
सान्त्वपूर्वं मुनिश्रेष्ठः कामार्तो मधुरं वचः।
उक्तं जन्म कुलं मह्यमस्मि दाशसुतेत्यहम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक दिन मैं उसी नावपर गयी हुई थी। उन दिनों मेरे यौवनका प्रारम्भ था। उसी समय धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान् महर्षि पराशर यमुना नदी पार करनेके लिये मेरी नावपर आये। मैं उन्हें पार ले जा रही थी, तबतक वे मुनिश्रेष्ठ काम-पीड़ित हो मेरे पास आ मुझे समझाते हुए मधुर वाणीमें बोले और उन्होंने मुझसे अपने जन्म और कुलका परिचय दिया। इसपर मैंने कहा—‘भगवन्! मैं तो निषादकी पुत्री हूँ’॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत।
वरैरसुलभैरुक्ता न प्रत्याख्यातुमुत्सहे ॥ १० ॥
मूलम्
तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत।
वरैरसुलभैरुक्ता न प्रत्याख्यातुमुत्सहे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! एक ओर मैं पिताजीसे डरती थी और दूसरी ओर मुझे मुनिके शापका भी डर था। उस समय महर्षिने मुझे दुर्लभ वर देकर उत्साहित किया, जिससे मैं उनके अनुरोधको टाल न सकी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिभूय स मां बालां तेजसा वशमानयत्।
तमसा लोकमावृत्य नौगतामेव भारत ॥ ११ ॥
मत्स्यगन्धो महानासीत् पुरा मम जुगुप्सितः।
तमपास्य शुभं गन्धमिमं प्रादात् स मे मुनिः ॥ १२ ॥
मूलम्
अभिभूय स मां बालां तेजसा वशमानयत्।
तमसा लोकमावृत्य नौगतामेव भारत ॥ ११ ॥
मत्स्यगन्धो महानासीत् पुरा मम जुगुप्सितः।
तमपास्य शुभं गन्धमिमं प्रादात् स मे मुनिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यद्यपि मैं चाहती नहीं थी, तो भी उन्होंने मुझ अबलाको अपने तेजसे तिरस्कृत करके नौकापर ही मुझे अपने वशमें कर लिया। उस समय उन्होंने कुहरा उत्पन्न करके सम्पूर्ण लोकको अन्धकारसे आवृत कर दिया था। भारत! पहले मेरे शरीरसे अत्यन्त घृणित मछलीकी-सी बड़ी तीव्र दुर्गन्ध आती थी। उसको मिटाकर मुनिने मुझे यह उत्तम गन्ध प्रदान की थी॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मामाह स मुनिर्गर्भमुत्सृज्य मामकम्।
द्वीपेऽस्या एव सरितः कन्यैव त्वं भविष्यसि ॥ १३ ॥
मूलम्
ततो मामाह स मुनिर्गर्भमुत्सृज्य मामकम्।
द्वीपेऽस्या एव सरितः कन्यैव त्वं भविष्यसि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर मुनिने मुझसे कहा—‘तुम इस यमुनाके ही द्वीपमें मेरे द्वारा स्थापित इस गर्भको त्यागकर फिर कन्या ही हो जाओगी’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाराशर्यो महायोगी स बभूव महानृषिः।
कन्यापुत्रो मम पुरा द्वैपायन इति श्रुतः ॥ १४ ॥
मूलम्
पाराशर्यो महायोगी स बभूव महानृषिः।
कन्यापुत्रो मम पुरा द्वैपायन इति श्रुतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस गर्भसे पराशरजीके पुत्र महान् योगी महर्षि व्यास प्रकट हुए। वे ही द्वैपायन नामसे विख्यात हैं। वे मेरे कन्यावस्थाके पुत्र हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो व्यस्य वेदांश्चतुरस्तपसा भगवानृषिः।
लोके व्यासत्वमापेदे कार्ष्ण्यात् कृष्णत्वमेव च ॥ १५ ॥
मूलम्
यो व्यस्य वेदांश्चतुरस्तपसा भगवानृषिः।
लोके व्यासत्वमापेदे कार्ष्ण्यात् कृष्णत्वमेव च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे भगवान् द्वैपायन मुनि अपने तपोबलसे चारों वेदोंका पृथक्-पृथक् विस्तार करके लोकमें ‘व्यास’ पदवीको प्राप्त हुए हैं। शरीरका रंग साँवला होनेसे उन्हें लोग ‘कृष्ण’ भी कहते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यवादी शमपरस्तपस्वी दग्धकिल्बिषः ।
समुत्पन्नः स तु महान् सह पित्रा ततो गतः॥१६॥
मूलम्
सत्यवादी शमपरस्तपस्वी दग्धकिल्बिषः ।
समुत्पन्नः स तु महान् सह पित्रा ततो गतः॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे सत्यवादी, शान्त, तपस्वी और पापशून्य हैं। वे उत्पन्न होते ही बड़े होकर उस द्वीपसे अपने पिताके साथ चले गये थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नियुक्तो मया व्यक्तं त्वया चाप्रतिमद्युतिः।
भ्रातुः क्षेत्रेषु कल्याणमपत्यं जनयिष्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
स नियुक्तो मया व्यक्तं त्वया चाप्रतिमद्युतिः।
भ्रातुः क्षेत्रेषु कल्याणमपत्यं जनयिष्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे और तुम्हारे आग्रह करनेपर वे अनुपम तेजस्वी व्यास अवश्य ही अपने भाईके क्षेत्रमें कल्याणकारी संतान उत्पन्न करेंगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि मामुक्तवांस्तत्र स्मरेः कृच्छ्रेषु मामिति।
तं स्मरिष्ये महाबाहो यदि भीष्म त्वमिच्छसि ॥ १८ ॥
मूलम्
स हि मामुक्तवांस्तत्र स्मरेः कृच्छ्रेषु मामिति।
तं स्मरिष्ये महाबाहो यदि भीष्म त्वमिच्छसि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने जाते समय मुझसे कहा था कि संकटके समय मुझे याद करना। महाबाहु भीष्म! यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं उन्हींका स्मरण करूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव ह्यनुमते भीष्म नियतं स महातपाः।
विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु पुत्रानुत्पादयिष्यति ॥ १९ ॥
मूलम्
तव ह्यनुमते भीष्म नियतं स महातपाः।
विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु पुत्रानुत्पादयिष्यति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्म! तुम्हारी अनुमति मिल जाय, तो महा-तपस्वी व्यास निश्चय ही विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंसे पुत्रोंको उत्पन्न करेंगे’॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षेः कीर्तने तस्य भीष्मः प्राञ्जलिरब्रवीत्।
धर्ममर्थं च कामं च त्रीनेतान् योऽनुपश्यति ॥ २० ॥
अर्थमर्थानुबन्धं च धर्मं धर्मानुबन्धनम्।
कामं कामानुबन्धं च विपरीतान् पृथक् पृथक् ॥ २१ ॥
यो विचिन्त्य धिया धीरो व्यवस्यति स बुद्धिमान्।
तदिदं धर्मयुक्तं च हितं चैव कुलस्य नः ॥ २२ ॥
उक्तं भवत्या यच्छ्रेयस्तन्मह्यं रोचते भृशम्।
मूलम्
महर्षेः कीर्तने तस्य भीष्मः प्राञ्जलिरब्रवीत्।
धर्ममर्थं च कामं च त्रीनेतान् योऽनुपश्यति ॥ २० ॥
अर्थमर्थानुबन्धं च धर्मं धर्मानुबन्धनम्।
कामं कामानुबन्धं च विपरीतान् पृथक् पृथक् ॥ २१ ॥
यो विचिन्त्य धिया धीरो व्यवस्यति स बुद्धिमान्।
तदिदं धर्मयुक्तं च हितं चैव कुलस्य नः ॥ २२ ॥
उक्तं भवत्या यच्छ्रेयस्तन्मह्यं रोचते भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महर्षि व्यासका नाम लेते ही भीष्मजी हाथ जोड़कर बोले—‘माताजी! जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम—इन तीनोंका बारंबार विचार करता है तथा यह भी जानता है कि किस प्रकार अर्थसे अर्थ, धर्मसे धर्म और कामसे कामरूप फलकी प्राप्ति होती है और वह परिणाममें कैसे सुखद होता है तथा किस प्रकार अर्थादिके सेवनसे विपरीत फल (अर्थनाश आदि) प्रकट होते हैं, इन बातोंपर पृथक्-पृथक् भलीभाँति विचार करके जो धीर पुरुष अपनी बुद्धिके द्वारा कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करता है, वही बुद्धिमान् है। तुमने जो बात कही है, वह धर्मयुक्त तो है ही, हमारे कुलके लिये भी हितकर और कल्याणकारी है; इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगी है’॥२०—२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्मिन् प्रतिज्ञाते भीष्मेण कुरुनन्दन ॥ २३ ॥
कृष्णद्वैपायनं काली चिन्तयामास वै मुनिम्।
स वेदान् विब्रुवन् धीमान् मातुर्विज्ञाय चिन्तितम् ॥ २४ ॥
प्रादुर्बभूवाविदितः क्षणेन कुरुनन्दन ।
तस्मै पूजां ततः कृत्वा सुताय विधिपूर्वकम् ॥ २५ ॥
परिष्वज्य च बाहुभ्यां प्रस्रवैरभ्यषिञ्चत।
मुमोच बाष्पं दाशेयी पुत्रं दृष्ट्वा चिरस्य तु ॥ २६ ॥
मूलम्
ततस्तस्मिन् प्रतिज्ञाते भीष्मेण कुरुनन्दन ॥ २३ ॥
कृष्णद्वैपायनं काली चिन्तयामास वै मुनिम्।
स वेदान् विब्रुवन् धीमान् मातुर्विज्ञाय चिन्तितम् ॥ २४ ॥
प्रादुर्बभूवाविदितः क्षणेन कुरुनन्दन ।
तस्मै पूजां ततः कृत्वा सुताय विधिपूर्वकम् ॥ २५ ॥
परिष्वज्य च बाहुभ्यां प्रस्रवैरभ्यषिञ्चत।
मुमोच बाष्पं दाशेयी पुत्रं दृष्ट्वा चिरस्य तु ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— कुरुनन्दन! उस समय भीष्मजीके इस प्रकार अपनी सम्मति देनेपर काली (सत्यवती)-ने मुनिवर कृष्णद्वैपायनका चिन्तन किया। जनमेजय! माताने मेरा स्मरण किया है, यह जानकर परम बुद्धिमान् व्यासजी वेदमन्त्रोंका पाठ करते हुए क्षणभरमें वहाँ प्रकट हो गये। वे कब किधरसे आ गये, इसका पता किसीको न चला। सत्यवतीने अपने पुत्रका भलीभाँति सत्कार किया और दोनों भुजाओंसे उनका आलिंगन करके अपने स्तनोंके झरते हुए दूधसे उनका अभिषेक किया। अपने पुत्रको दीर्घकालके बाद देखकर सत्यवतीकी आँखोंसे स्नेह और आनन्दके आँसू बहने लगे॥२३—२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामद्भिः परिषिच्यार्तां महर्षिरभिवाद्य च।
मातरं पूर्वजः पुत्रो व्यासो वचनमब्रवीत् ॥ २७ ॥
मूलम्
तामद्भिः परिषिच्यार्तां महर्षिरभिवाद्य च।
मातरं पूर्वजः पुत्रो व्यासो वचनमब्रवीत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सत्यवतीके प्रथम पुत्र महर्षि व्यासने अपने कमण्डलुके पवित्र जलसे दुःखिनी माताका अभिषेक किया और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा—॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्या यदभिप्रेतं तदहं कर्तुमागतः।
शाधि मां धर्मतत्त्वज्ञे करवाणि प्रियं तव ॥ २८ ॥
मूलम्
भवत्या यदभिप्रेतं तदहं कर्तुमागतः।
शाधि मां धर्मतत्त्वज्ञे करवाणि प्रियं तव ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मके तत्त्वको जाननेवाली माताजी! आपकी जो हार्दिक इच्छा हो, उसके अनुसार कार्य करनेके लिये मैं यहाँ आया हूँ। आज्ञा दीजिये, मैं आपकी कौन-सी प्रिय सेवा करूँ’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै पूजां ततोऽकार्षीत् पुरोधाः परमर्षये।
स च तां प्रतिजग्राह विधिवन्मन्त्रपूर्वकम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्मै पूजां ततोऽकार्षीत् पुरोधाः परमर्षये।
स च तां प्रतिजग्राह विधिवन्मन्त्रपूर्वकम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् पुरोहितने महर्षिका विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारणके साथ पूजन किया और महर्षिने उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजितो मन्त्रपूर्वं तु विधिवत् प्रीतिमाप सः।
तमासनगतं माता पृष्ट्वा कुशलमव्ययम् ॥ ३० ॥
सत्यवत्यथ वीक्ष्यैनमुवाचेदमनन्तरम् ।
मूलम्
पूजितो मन्त्रपूर्वं तु विधिवत् प्रीतिमाप सः।
तमासनगतं माता पृष्ट्वा कुशलमव्ययम् ॥ ३० ॥
सत्यवत्यथ वीक्ष्यैनमुवाचेदमनन्तरम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
विधि और मन्त्रोच्चारणपूर्वक की हुई उस पूजासे व्यासजी बहुत प्रसन्न हुए। जब वे आसनपर बैठ गये, तब माता सत्यवतीने उनका कुशल-क्षेम पूछा और उनकी ओर देखकर इस प्रकार कहा—॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापित्रोः प्रजायन्ते पुत्राः साधारणाः कवे ॥ ३१ ॥
तेषां पिता यथा स्वामी तथा माता न संशयः।
विधानविहितः सत्यं यथा मे प्रथमः सुतः ॥ ३२ ॥
विचित्रवीर्यो ब्रह्मर्षे तथा मेऽवरजः सुतः।
यथैव पितृतो भीष्मस्तथा त्वमपि मातृतः ॥ ३३ ॥
भ्राता विचित्रवीर्यस्य यथा वा पुत्र मन्यसे।
अयं शान्तनवः सत्यं पालयन् सत्यविक्रमः ॥ ३४ ॥
मूलम्
मातापित्रोः प्रजायन्ते पुत्राः साधारणाः कवे ॥ ३१ ॥
तेषां पिता यथा स्वामी तथा माता न संशयः।
विधानविहितः सत्यं यथा मे प्रथमः सुतः ॥ ३२ ॥
विचित्रवीर्यो ब्रह्मर्षे तथा मेऽवरजः सुतः।
यथैव पितृतो भीष्मस्तथा त्वमपि मातृतः ॥ ३३ ॥
भ्राता विचित्रवीर्यस्य यथा वा पुत्र मन्यसे।
अयं शान्तनवः सत्यं पालयन् सत्यविक्रमः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विद्वन्! माता और पिता दोनोंसे पुत्रोंका जन्म होता है, अतः उनपर दोनोंका समान अधिकार है। जैसे पिता पुत्रोंका स्वामी है, उसी प्रकार माता भी है। इसमें संदेह नहीं है। ब्रह्मर्षे! विधाताके विधान या मेरे पूर्वजन्मोंके पुण्यसे जिस प्रकार तुम मेरे प्रथम पुत्र हो, उसी प्रकार विचित्रवीर्य मेरा सबसे छोटा पुत्र था। जैसे एक पिताके नाते भीष्म उसके भाई हैं, उसी प्रकार एक माताके नाते तुम भी विचित्रवीर्यके भाई ही हो। बेटा! मेरी तो ऐसी ही मान्यता है; फिर तुम जैसा समझो। ये सत्यपराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म सत्यका पालन कर रहे हैं॥३१—३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिं न कुरुतेऽपत्ये तथा राज्यानुशासने।
स त्वं व्यपेक्षया भ्रातुः संतानाय कुलस्य च ॥ ३५ ॥
भीष्मस्य चास्य वचनान्नियोगाच्च ममानघ।
अनुक्रोशाच्च भूतानां सर्वेषां रक्षणाय च ॥ ३६ ॥
आनृशंस्याच्च यद् ब्रूयां तच्छ्रुत्वा कर्तुमर्हसि।
यवीयसस्तव भ्रातुर्भार्ये सुरसुतोपमे ॥ ३७ ॥
रूपयौवनसम्पन्ने पुत्रकामे च धर्मतः।
तयोरुत्पादयापत्यं समर्थो ह्यसि पुत्रक ॥ ३८ ॥
अनुरूपं कुलस्यास्य संतत्याः प्रसवस्य च।
मूलम्
बुद्धिं न कुरुतेऽपत्ये तथा राज्यानुशासने।
स त्वं व्यपेक्षया भ्रातुः संतानाय कुलस्य च ॥ ३५ ॥
भीष्मस्य चास्य वचनान्नियोगाच्च ममानघ।
अनुक्रोशाच्च भूतानां सर्वेषां रक्षणाय च ॥ ३६ ॥
आनृशंस्याच्च यद् ब्रूयां तच्छ्रुत्वा कर्तुमर्हसि।
यवीयसस्तव भ्रातुर्भार्ये सुरसुतोपमे ॥ ३७ ॥
रूपयौवनसम्पन्ने पुत्रकामे च धर्मतः।
तयोरुत्पादयापत्यं समर्थो ह्यसि पुत्रक ॥ ३८ ॥
अनुरूपं कुलस्यास्य संतत्याः प्रसवस्य च।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! संतानोत्पादन तथा राज्य-शासन करनेका इनका विचार नहीं है; अतः तुम अपने भाईके पारलौकिक हितका विचार करके तथा कुलकी संतानपरम्पराकी रक्षाके लिये भीष्मके अनुरोध और मेरी आज्ञासे सब प्राणियोंपर दया करके उनकी रक्षा करनेके उद्देश्यसे और अपने अन्तःकरणकी कोमल वृत्तिको देखते हुए मैं जो कुछ कहूँ, उसे सुनकर उसका पालन करो। तुम्हारे छोटे भाईकी पत्नियाँ देवकन्याओंके समान सुन्दर रूप तथा युवावस्थासे सम्पन्न हैं। उनके मनमें धर्मतः पुत्र पानेकी कामना है। पुत्र! तुम इसके लिये समर्थ हो, अतः उन दोनोंके गर्भसे ऐसी संतानोंको जन्म दो, जो इस कुलपरम्पराकी रक्षा तथा वृद्धिके लिये सर्वथा सुयोग्य हों’॥ ३५—३८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेत्थ धर्मं सत्यवति परं चापरमेव च ॥ ३९ ॥
तथा तव महाप्राज्ञे धर्मे प्रणिहिता मतिः।
तस्मादहं त्वन्नियोगाद् धर्ममुद्दिश्य कारणम् ॥ ४० ॥
ईप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं ह्योतत् सनातनम्।
भ्रातुः पुत्रान् प्रदास्यामि मित्रावरुणयोः समान् ॥ ४१ ॥
मूलम्
वेत्थ धर्मं सत्यवति परं चापरमेव च ॥ ३९ ॥
तथा तव महाप्राज्ञे धर्मे प्रणिहिता मतिः।
तस्मादहं त्वन्नियोगाद् धर्ममुद्दिश्य कारणम् ॥ ४० ॥
ईप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं ह्योतत् सनातनम्।
भ्रातुः पुत्रान् प्रदास्यामि मित्रावरुणयोः समान् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— माता सत्यवती! आप पर और अपर दोनों प्रकारके धर्मोंको जानती हैं। महाप्राज्ञे! आपकी बुद्धि सदा धर्ममें लगी रहती है। अतः मैं आपकी आज्ञासे धर्मको ही दृष्टिमें रखकर (कामके वश न होकर ही) आपकी इच्छाके अनुरूप कार्य करूँगा। यह सनातन मार्ग शास्त्रोंमें देखा गया है। मैं अपने भाईके लिये मित्र और वरुणके समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करूँगा॥३९—४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतं चरेतां ते देव्यौ निर्दिष्टमिह यन्मया।
संवत्सरं यथान्यायं ततः शुद्धे भविष्यतः ॥ ४२ ॥
न हि मामव्रतोपेता उपेयात् काचिदङ्गना।
मूलम्
व्रतं चरेतां ते देव्यौ निर्दिष्टमिह यन्मया।
संवत्सरं यथान्यायं ततः शुद्धे भविष्यतः ॥ ४२ ॥
न हि मामव्रतोपेता उपेयात् काचिदङ्गना।
अनुवाद (हिन्दी)
विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंको मेरे बताये अनुसार एक वर्षतक विधिपूर्वक व्रत (जितेन्द्रिय होकर केवल संतानार्थ साधन) करना होगा, तभी वे शुद्ध होंगी। जिसने व्रतका पालन नहीं किया है, ऐसी कोई भी स्त्री मेरे समीप नहीं आ सकती॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
सत्यवत्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्यो यथा प्रपद्येते देव्यौ गर्भं तथा कुरु ॥ ४३ ॥
मूलम्
सद्यो यथा प्रपद्येते देव्यौ गर्भं तथा कुरु ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवतीने कहा— बेटा! ये दोनों रानियाँ जिस प्रकार शीघ्र गर्भ धारण करें, वह उपाय करो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अराजकेषु राष्ट्रेषु प्रजानाथा विनश्यति।
नश्यन्ति च क्रियाः सर्वा नास्ति वृष्टिर्न देवता ॥ ४४ ॥
मूलम्
अराजकेषु राष्ट्रेषु प्रजानाथा विनश्यति।
नश्यन्ति च क्रियाः सर्वा नास्ति वृष्टिर्न देवता ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज्यमें इस समय कोई राजा नहीं है। बिना राजाके राज्यकी प्रजा अनाथ होकर नष्ट हो जाती है। यज्ञ-दान आदि क्रियाएँ भी लुप्त हो जाती हैं। उस राज्यमें न वर्षा होती है, न देवता वास करते हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं चाराजंक राष्ट्रं शक्यं धारयितुं प्रभो।
तस्माद् गर्भं समाधत्स्व भीष्मः संवर्धयिष्यति ॥ ४५ ॥
मूलम्
कथं चाराजंक राष्ट्रं शक्यं धारयितुं प्रभो।
तस्माद् गर्भं समाधत्स्व भीष्मः संवर्धयिष्यति ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! तुम्हीं सोचो, बिना राजाका राज्य कैसे सुरक्षित और अनुशासित रह सकता है। इसलिये शीघ्र गर्भाधान करो। भीष्म बालकको पाल-पोसकर बड़ा कर लेंगे॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि पुत्रः प्रदातव्यो मया भ्रातुरकालिकः।
विरूपतां मे सहतां तयोरेतत् परं व्रतम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
यदि पुत्रः प्रदातव्यो मया भ्रातुरकालिकः।
विरूपतां मे सहतां तयोरेतत् परं व्रतम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी बोले— माँ! यदि मुझे समयका नियम न रखकर शीघ्र ही अपने भाईके लिये पुत्र प्रदान करना है, तो उन देवियोंके लिये यह उत्तम व्रत आवश्यक है कि वे मेरे असुन्दर रूपको देखकर शान्त रहें, डरे नहीं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मे सहते गन्धं रूपं वेषं तथा वपुः।
अद्यैव गर्भं कौसल्या विशिष्टं प्रतिपद्यताम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
यदि मे सहते गन्धं रूपं वेषं तथा वपुः।
अद्यैव गर्भं कौसल्या विशिष्टं प्रतिपद्यताम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कौसल्या (अम्बिका) मेरे गन्ध, रूप, वेष और शरीरको सहन कर ले तो वह आज ही एक उत्तम बालकको अपने गर्भमें पा सकती है॥४७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महातेजा व्यासः सत्यवतीं तदा।
शयने सा च कौसल्या शुचिवस्त्रा ह्यलंकृता ॥ ४८ ॥
समागमनमाकाङ्क्षेदिति सोऽन्तर्हितो मुनिः ।
ततोऽभिगम्य सा देवी स्नुषां रहसि संगताम् ॥ ४९ ॥
धर्म्यमर्थसमायुक्तमुवाच वचनं हितम् ।
कौसल्ये धर्मतन्त्रं त्वां यद् ब्रवीमि निबोध तत् ॥ ५० ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महातेजा व्यासः सत्यवतीं तदा।
शयने सा च कौसल्या शुचिवस्त्रा ह्यलंकृता ॥ ४८ ॥
समागमनमाकाङ्क्षेदिति सोऽन्तर्हितो मुनिः ।
ततोऽभिगम्य सा देवी स्नुषां रहसि संगताम् ॥ ४९ ॥
धर्म्यमर्थसमायुक्तमुवाच वचनं हितम् ।
कौसल्ये धर्मतन्त्रं त्वां यद् ब्रवीमि निबोध तत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहनेके बाद महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ व्यासजी सत्यवतीसे फिर ‘अच्छा तो कौसल्या (ऋतु-स्नानके पश्चात्) शुद्ध वस्त्र और शृंगार धारण करके शय्यापर मिलनकी प्रतीक्षा करे’ यों कहकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर देवी सत्यवतीने एकान्तमें आयी हुई अपनी पुत्रवधू अम्बिकाके पास जाकर उससे (आपद्) धर्म और अर्थसे युक्त हितकारक वचन कहा—‘कौसल्ये! मैं तुमसे जो धर्मसंगत बात कह रही हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो॥४८—५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतानां समुच्छेदो व्यक्तं मद्भाग्यसंक्षयात्।
व्यथितां मां च सम्प्रेक्ष्य पितृवंशं च पीडितम् ॥ ५१ ॥
भीष्मो बुद्धिमदान्मह्यं कुलस्यास्य विवृद्धये।
सा च बुद्धिस्त्वय्यधीना पुत्रि प्रापय मां तथा ॥ ५२ ॥
मूलम्
भरतानां समुच्छेदो व्यक्तं मद्भाग्यसंक्षयात्।
व्यथितां मां च सम्प्रेक्ष्य पितृवंशं च पीडितम् ॥ ५१ ॥
भीष्मो बुद्धिमदान्मह्यं कुलस्यास्य विवृद्धये।
सा च बुद्धिस्त्वय्यधीना पुत्रि प्रापय मां तथा ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे भाग्यका नाश हो जानेसे अब भरतवंशका उच्छेद हो चला है, यह स्पष्ट दिखायी दे रहा है। इसके कारण मुझे व्यथित और पितृकुलको पीड़ित देख भीष्मने इस कुलकी वृद्धिके लिये मुझे एक सम्मति दी है। बेटी! उस सम्मतिकी सार्थकता तुम्हारे अधीन है। तुम भीष्मके बताये अनुसार मुझे उस अवस्थामें पहुँचाओ, जिससे मैं अपने अभीष्टकी सिद्धि देख सकूँ॥५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नष्टं च भारतं वंशं पुनरेव समुद्धर।
पुत्रं जनय सुश्रोणि देवराजसमप्रभम् ॥ ५३ ॥
स हि राज्यधुरं गुर्वीमुद्वक्ष्यति कुलस्य नः।
मूलम्
नष्टं च भारतं वंशं पुनरेव समुद्धर।
पुत्रं जनय सुश्रोणि देवराजसमप्रभम् ॥ ५३ ॥
स हि राज्यधुरं गुर्वीमुद्वक्ष्यति कुलस्य नः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुश्रोणि! इस नष्ट होते हुए भरतवंशका पुनः उद्धार करो। तुम देवराज इन्द्रके समान एक तेजस्वी पुत्रको जन्म दो। वही हमारे कुलके इस महान् राज्यभारको वहन करेगा’॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा धर्मतोऽनुनीयैनां कथंचिद् धर्मचारिणीम्।
भोजयामास विप्रांश्च देवर्षीनतिथींस्तथा ॥ ५४ ॥
मूलम्
सा धर्मतोऽनुनीयैनां कथंचिद् धर्मचारिणीम्।
भोजयामास विप्रांश्च देवर्षीनतिथींस्तथा ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौसल्या धर्मका आचरण करनेवाली थी। सत्यवतीने धर्मको सामने रखकर ही उसे किसी प्रकार समझा-बुझाकर (बड़ी कठिनतासे) इस कार्यके लिये तैयार किया। उसके बाद ब्राह्मणों, देवर्षियों तथा अतिथियोंको भोजन कराया॥५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि सत्यवत्युपदेशे चतुरधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें सत्यवती-उपदेशविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०४॥
मूलम् (समाप्तिः)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं)
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यहाँ गुणवान्का अर्थ है—नियोगकी विधिको जाननेवाला संयमी पुरुष। मनु महाराजने स्त्रियोंके आपद्धर्मके प्रसंगमें लिखा है—‘‘‘विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि। एकमुत्पादयेत् पुत्रं न द्वितीयं कथंचन॥’’’[[(मनुस्मृति ९।६१)]]‘‘‘विधवा स्त्रीके साथ सहवासके लिये (पतिपक्षके गुरुजनोंद्वारा) नियुक्त पुरुष अपने सारे शरीरपर घी चुपड़कर (सौन्दर्य बिगाड़कर), वाणीको संयममें रखकर (चुपचाप रहकर) रात्रिमें सहवास करे। इस प्रकार वह एक ही पुत्र उत्पन्न करे, दूसरा कभी न करे।‘‘‘‘‘‘विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि। गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम्॥’’’[[(मनुस्मृति ९।६३)]]‘‘‘विधवामें नियोगके लिये विधिके अनुसार (अर्थात् कामवश न होकर कर्तव्य बुद्धिसे) चित्तको संयमित और इन्द्रियोंको अनासक्त रखते हुए नियोगका प्रयोजन सिद्ध हो जानेपर दोनों परस्पर पिता और पुत्रवधूके समान बर्ताव करें (अर्थात् स्त्री उसको पिताके समान समझकर बरते और पुरुष उसे पुत्रवधूके समान मानकर बर्ताव करे)।‘‘‘‘‘‘कलियुगमें मनुष्योंके असंयमी और कामी होनेके कारण नियोग वर्जित है।’’’ ↩︎