१०१ विचित्रवीर्य-राज्यम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सत्यवतीके गर्भसे चित्रांगद और विचित्रवीर्यकी उत्पत्ति, शान्तनु और चित्रांगदका निधन तथा विचित्रवीर्यका राज्याभिषेक

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(चेदिराजसुतां ज्ञात्वा दाशराजेन वर्धिताम्।
विवाहं कारयामास शास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥)
ततो विवाहे निर्वृत्ते स राजा शान्तनुर्नृपः।
तां कन्यां रूपसम्पन्नां स्वगृहे संन्यवेशयत् ॥ १ ॥

मूलम्

(चेदिराजसुतां ज्ञात्वा दाशराजेन वर्धिताम्।
विवाहं कारयामास शास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥)
ततो विवाहे निर्वृत्ते स राजा शान्तनुर्नृपः।
तां कन्यां रूपसम्पन्नां स्वगृहे संन्यवेशयत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— सत्यवती चेदिराज वसुकी पुत्री है और निषादराजने इसका पालन-पोषण किया है—यह जानकर राजा शान्तनुने उसके साथ शास्त्रीय विधिसे विवाह किया। तदनन्तर विवाह सम्पन्न हो जानेपर राजा शान्तनुने उस रूपवती कन्याको अपने महलमें रखा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शान्तनवो धीमान् सत्यवत्यामजायत।
वीरश्चित्राङ्गदो नाम वीर्यवान् पुरुषेश्वरः ॥ २ ॥

मूलम्

ततः शान्तनवो धीमान् सत्यवत्यामजायत।
वीरश्चित्राङ्गदो नाम वीर्यवान् पुरुषेश्वरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ कालके पश्चात् सत्यवतीके गर्भसे शान्तनुका बुद्धिमान् पुत्र वीर चित्रांगद उत्पन्न हुआ, जो बड़ा ही पराक्रमी तथा समस्त पुरुषोंमें श्रेष्ठ था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरं महेष्वासं सत्यवत्यां सुतं प्रभुः।
विचित्रवीर्यं राजानं जनयामास वीर्यवान् ॥ ३ ॥

मूलम्

अथापरं महेष्वासं सत्यवत्यां सुतं प्रभुः।
विचित्रवीर्यं राजानं जनयामास वीर्यवान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद महापराक्रमी और शक्तिशाली राजा शान्तनुने दूसरे पुत्र महान् धनुर्धर राजा विचित्रवीर्यको जन्म दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्राप्तवति तस्मिंस्तु यौवनं पुरुषर्षभे।
स राजा शान्तनुर्धीमान् कालधर्ममुपेयिवान् ॥ ४ ॥

मूलम्

अप्राप्तवति तस्मिंस्तु यौवनं पुरुषर्षभे।
स राजा शान्तनुर्धीमान् कालधर्ममुपेयिवान् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ विचित्रवीर्य अभी यौवनको प्राप्त भी नहीं हुए थे कि बुद्धिमान् महाराज शान्तनुकी मृत्यु हो गयी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गते शान्तनौ भीष्मश्चित्राङ्गदमरिंदमम् ।
स्थापयामास वै राज्ये सत्यवत्या मते स्थितः ॥ ५ ॥

मूलम्

स्वर्गते शान्तनौ भीष्मश्चित्राङ्गदमरिंदमम् ।
स्थापयामास वै राज्ये सत्यवत्या मते स्थितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तनुके स्वर्गवासी हो जानेपर भीष्मने सत्यवतीकी सम्मतिसे शत्रुओंका दमन करनेवाले वीर चित्रांगदको राज्यपर बिठाया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु चित्राङ्गदः शौर्यात् सर्वांश्चिक्षेप पार्थिवान्।
मनुष्यं न हि मेने स कञ्चित् सदृशमात्मनः ॥ ६ ॥

मूलम्

स तु चित्राङ्गदः शौर्यात् सर्वांश्चिक्षेप पार्थिवान्।
मनुष्यं न हि मेने स कञ्चित् सदृशमात्मनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रांगद अपने शौर्यके घमंडमें आकर सब राजाओंका तिरस्कार करने लगे। वे किसी भी मनुष्यको अपने समान नहीं मानते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं क्षिपन्तं सुरांश्चैव मनुष्यानसुरांस्तथा।
गन्धर्वराजो बलवांस्तुल्यनामाभ्ययात् तदा ॥ ७ ॥

मूलम्

तं क्षिपन्तं सुरांश्चैव मनुष्यानसुरांस्तथा।
गन्धर्वराजो बलवांस्तुल्यनामाभ्ययात् तदा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंपर ही नहीं, वे देवताओं तथा असुरोंपर भी आक्षेप करते थे। तब एक दिन उन्हींके समान नामवाला महाबली गन्धर्वराज चित्रांगद उनके पास आया॥७॥

मूलम् (वचनम्)

(गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै सदृशनामासि युद्धं देहि नृपात्मज।
नाम चान्यत् प्रगृणीष्व यदि युद्धं न दास्यसि॥
त्वयाहं युद्धमिच्छामि त्वत्सकाशात् तु नामतः।
आगतोऽस्मि वृथाभाष्यो न गच्छेन्नामतो यथा॥)

मूलम्

त्वं वै सदृशनामासि युद्धं देहि नृपात्मज।
नाम चान्यत् प्रगृणीष्व यदि युद्धं न दास्यसि॥
त्वयाहं युद्धमिच्छामि त्वत्सकाशात् तु नामतः।
आगतोऽस्मि वृथाभाष्यो न गच्छेन्नामतो यथा॥)

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वने कहा— राजकुमार! तुम मेरे सदृश नाम धारण करते हो, अतः मुझे युद्धका अवसर दो और यदि यह न कर सको तो अपना दूसरा नाम रख लो। मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। नामकी एकताके कारण ही मैं तुम्हारे निकट आया हूँ। मेरे नामद्वारा व्यर्थ पुकारा जानेवाला मनुष्य मेरे सामनेसे सकुशल नहीं जा सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनास्य सुमहद् युद्धं कुरुक्षेत्रे बभूव ह।
तयोर्बलवतोस्तत्र गन्धर्वकुरुमुख्ययोः ।
नद्यास्तीरे सरस्वत्याः समास्तिस्रोऽभवद् रणः ॥ ८ ॥
तस्मिन् विमर्दे तुमुले शस्त्रवर्षसमाकुले।
मायाधिकोऽवधीद् वीरं गन्धर्वः कुरुसत्तमम् ॥ ९ ॥

मूलम्

तेनास्य सुमहद् युद्धं कुरुक्षेत्रे बभूव ह।
तयोर्बलवतोस्तत्र गन्धर्वकुरुमुख्ययोः ।
नद्यास्तीरे सरस्वत्याः समास्तिस्रोऽभवद् रणः ॥ ८ ॥
तस्मिन् विमर्दे तुमुले शस्त्रवर्षसमाकुले।
मायाधिकोऽवधीद् वीरं गन्धर्वः कुरुसत्तमम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उसके साथ कुरुक्षेत्रमें राजा चित्रांगदका बड़ा भारी युद्ध हुआ। गन्धर्वराज और कुरुराज दोनों ही बड़े बलवान् थे। उनमें सरस्वती नदीके तटपर तीन वर्षोंतक युद्ध होता रहा। अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षासे व्याप्त उस घमासान युद्धमें मायामें बढ़े-चढ़े हुए गन्धर्वने कुरुश्रेष्ठ वीर चित्रांगदका वध कर डाला॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हत्वा तु नरश्रेष्ठं चित्राङ्गदमरिंदमम्।
अन्ताय कृत्वा गन्धर्वो दिवमाचक्रमे ततः ॥ १० ॥

मूलम्

स हत्वा तु नरश्रेष्ठं चित्राङ्गदमरिंदमम्।
अन्ताय कृत्वा गन्धर्वो दिवमाचक्रमे ततः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले नरश्रेष्ठ चित्रांगदको मारकर युद्ध समाप्त करके वह गन्धर्व स्वर्गलोकमें चला गया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् पुरुषशार्दूले निहते भूरितेजसि।
भीष्मः शान्तनवो राजा प्रेतकार्याण्यकारयत् ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्मिन् पुरुषशार्दूले निहते भूरितेजसि।
भीष्मः शान्तनवो राजा प्रेतकार्याण्यकारयत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महान् तेजस्वी पुरुषसिंह चित्रांगदके मारे जानेपर शान्तनुनन्दन भीष्मने उनके प्रेतकर्म करवाये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचित्रवीर्यं च तदा बालमप्राप्तयौवनम्।
कुरुराज्ये महाबाहुरभ्यषिञ्चदनन्तरम् ॥ १२ ॥

मूलम्

विचित्रवीर्यं च तदा बालमप्राप्तयौवनम्।
कुरुराज्ये महाबाहुरभ्यषिञ्चदनन्तरम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्रवीर्य अभी बालक थे, युवावस्थामें नहीं पहुँचे थे तो भी महाबाहु भीष्मने उन्हें कुरुदेशके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचित्रवीर्यः स तदा भीष्मस्य वचने स्थितः।
अन्वशासन्महाराज पितृपैतामहं पदम् ॥ १३ ॥

मूलम्

विचित्रवीर्यः स तदा भीष्मस्य वचने स्थितः।
अन्वशासन्महाराज पितृपैतामहं पदम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज जनमेजय! तब विचित्रवीर्य भीष्मजीकी आज्ञाके अधीन रहकर अपने बाप-दादोंके राज्यका शासन करने लगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स धर्मशास्त्रकुशलं भीष्मं शान्तनवं नृपः।
पूजयामास धर्मेण स चैनं प्रत्यपालयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

स धर्मशास्त्रकुशलं भीष्मं शान्तनवं नृपः।
पूजयामास धर्मेण स चैनं प्रत्यपालयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तनुनन्दन भीष्म धर्म एवं राजनीति आदि शास्त्रोंमें कुशल थे; अतः राजा विचित्रवीर्य धर्मपूर्वक उनका सम्मान करते थे और भीष्मजी भी इन अल्पवयस्क नरेशकी सब प्रकारसे रक्षा करते थे॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि चित्राङ्गदोपाख्याने एकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें चित्रांगदोपाख्यानविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं)