०९९ वसु-शापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

नवनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

महर्षि वसिष्ठद्वारा वसुओंको शाप प्राप्त होनेकी कथा

मूलम् (वचनम्)

शान्तनुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपवो नाम को न्वेष वसूनां किं च दुष्कृतम्।
यस्याभिशापात् ते सर्वे मानुषीं योनिमागताः ॥ १ ॥

मूलम्

आपवो नाम को न्वेष वसूनां किं च दुष्कृतम्।
यस्याभिशापात् ते सर्वे मानुषीं योनिमागताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तनुने पूछा— देवि! ये आपव नामके महात्मा कौन हैं? और वसुओंका क्या अपराध था, जिससे आपवके शापसे उन सबको मनुष्य-योनिमें आना पड़ा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन च कुमारेण त्वया दत्तेन किं कृतम्।
यस्य चैव कृतेनायं मानुषेषु निवत्स्यति ॥ २ ॥

मूलम्

अनेन च कुमारेण त्वया दत्तेन किं कृतम्।
यस्य चैव कृतेनायं मानुषेषु निवत्स्यति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और तुम्हारे दिये हुए इस पुत्रने कौन-सा कर्म किया है, जिसके कारण यह मनुष्यलोकमें निवास करेगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईशा वै सर्वलोकस्य वसवस्ते च वै कथम्।
मानुषेषूदपद्यन्त तन्ममाचक्ष्व जाह्नवि ॥ ३ ॥

मूलम्

ईशा वै सर्वलोकस्य वसवस्ते च वै कथम्।
मानुषेषूदपद्यन्त तन्ममाचक्ष्व जाह्नवि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाह्नवि! वसु तो समस्त लोकोंके अधीश्वर हैं, वे कैसे मनुष्यलोकमें उत्पन्न हुए? यह सब बात मुझे बताओ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तदा गङ्गा राजानमिदमब्रवीत्।
भर्तारं जाह्नवी देवी शान्तनुं पुरुषर्षभ ॥ ४ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तदा गङ्गा राजानमिदमब्रवीत्।
भर्तारं जाह्नवी देवी शान्तनुं पुरुषर्षभ ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— नरश्रेष्ठ जनमेजय! अपने पति राजा शान्तनुके इस प्रकार पूछनेपर जह्नुपुत्री गंगादेवीने उनसे इस प्रकार कहा॥४॥

मूलम् (वचनम्)

गङ्गोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं लेभे वरुणः पुत्रं पुरा भरतसत्तम।
वसिष्ठनामा स मुनिः ख्यात आपव इत्युत ॥ ५ ॥

मूलम्

यं लेभे वरुणः पुत्रं पुरा भरतसत्तम।
वसिष्ठनामा स मुनिः ख्यात आपव इत्युत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गंगा बोलीं— भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालमें वरुणने जिन्हें पुत्ररूपमें प्राप्त किया था, वे वसिष्ठ नामक मुनि ही ‘आपव’ नामसे विख्यात हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याश्रमपदं पुण्यं मृगपक्षिसमन्वितम् ।
मेरोः पार्श्वे नगेन्द्रस्य सर्वर्तुकुसुमावृतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्याश्रमपदं पुण्यं मृगपक्षिसमन्वितम् ।
मेरोः पार्श्वे नगेन्द्रस्य सर्वर्तुकुसुमावृतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गिरिराज मेरुके पार्श्वभागमें उनका पवित्र आश्रम है; जो मृग और पक्षियोंसे भरा रहता है। सभी ऋतुओंमें विकसित होनेवाले फूल उस आश्रमकी शोभा बढ़ाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वारुणिस्तपस्तेपे तस्मिन् भरतसत्तम।
वने पुण्यकृतां श्रेष्ठः स्वादुमूलफलोदके ॥ ७ ॥

मूलम्

स वारुणिस्तपस्तेपे तस्मिन् भरतसत्तम।
वने पुण्यकृतां श्रेष्ठः स्वादुमूलफलोदके ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! उस वनमें स्वादिष्ट फल, मूल और जलकी सुविधा थी, पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ वरुणनन्दन महर्षि वसिष्ठ उसीमें तपस्या करते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षस्य दुहिता या तु सुरभीत्यभिशब्दिता।
गां प्रजाता तु सा देवी कश्यपाद् भरतर्षभ ॥ ८ ॥

मूलम्

दक्षस्य दुहिता या तु सुरभीत्यभिशब्दिता।
गां प्रजाता तु सा देवी कश्यपाद् भरतर्षभ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! दक्ष प्रजापतिकी पुत्रीने, जो देवी सुरभि नामसे विख्यात है, कश्यपजीके सहवाससे एक गौको जन्म दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुग्रहार्थं जगतः सर्वकामदुहां वरा।
तां लेभे गां तु धर्मात्मा होमधेनुं स वारुणिः॥९॥

मूलम्

अनुग्रहार्थं जगतः सर्वकामदुहां वरा।
तां लेभे गां तु धर्मात्मा होमधेनुं स वारुणिः॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह गौ सम्पूर्ण जगत्‌पर अनुग्रह करनेके लिये प्रकट हुई थी तथा समस्त कामनाओंको देनेवालोंमें श्रेष्ठ थी। वरुणपुत्र धर्मात्मा वसिष्ठने उस गौको अपनी होमधेनुके रूपमें प्राप्त किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तस्मिंस्तापसारण्ये वसन्ती मुनिसेविते।
चचार पुण्ये रम्ये च गौरपेतभया तदा ॥ १० ॥

मूलम्

सा तस्मिंस्तापसारण्ये वसन्ती मुनिसेविते।
चचार पुण्ये रम्ये च गौरपेतभया तदा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह गौ मुनियोंद्वारा सेवित उस पवित्र एवं रमणीय तापसवनमें रहती हुई सब ओर निर्भय होकर चरती थी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तद् वनमाजग्मुः कदाचिद् भरतर्षभ।
पृथ्वाद्या वसवः सर्वे देवा देवर्षिसेवितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अथ तद् वनमाजग्मुः कदाचिद् भरतर्षभ।
पृथ्वाद्या वसवः सर्वे देवा देवर्षिसेवितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! एक दिन उस देवर्षिसेवित वनमें पृथु आदि वसु तथा सम्पूर्ण देवता पधारे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते सदारा वनं तच्च व्यचरन्त समन्ततः।
रेमिरे रमणीयेषु पर्वतेषु वनेषु च ॥ १२ ॥

मूलम्

ते सदारा वनं तच्च व्यचरन्त समन्ततः।
रेमिरे रमणीयेषु पर्वतेषु वनेषु च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनी स्त्रियोंके साथ उस वनमें चारों ओर विचरने तथा रमणीय पर्वतों और वनोंमें रमण करने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकस्याथ भार्या तु वसोर्वासवविक्रम।
संचरन्ती वने तस्मिन् गां ददर्श सुमध्यमा ॥ १३ ॥

मूलम्

तत्रैकस्याथ भार्या तु वसोर्वासवविक्रम।
संचरन्ती वने तस्मिन् गां ददर्श सुमध्यमा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके समान पराक्रमी महीपाल! उन वसुओंमेंसे एककी सुन्दरी पत्नीने उस वनमें घूमते समय उस गौको देखा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दिनीं नाम राजेन्द्र सर्वकामधुगुत्तमाम्।
सा विस्मयसमाविष्टा शीलद्रविणसम्पदा ॥ १४ ॥

मूलम्

नन्दिनीं नाम राजेन्द्र सर्वकामधुगुत्तमाम्।
सा विस्मयसमाविष्टा शीलद्रविणसम्पदा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवालोंमें उत्तम नन्दिनी नामवाली उस गायको देखकर उसकी शीलसम्पत्तिसे वह वसुपत्नी आश्चर्यचकित हो उठी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यवे वै दर्शयामास तां गां गोवृषभेक्षण।
आपीनां च सुदोग्ध्रीं च सुवालधिखुरां शुभाम् ॥ १५ ॥
उपपन्नां गुणैः सर्वैः शीलेनानुत्तमेन च।
एवंगुणसमायुक्तां वसवे वसुनन्दिनी ॥ १६ ॥
दर्शयामास राजेन्द्र पुरा पौरवनन्दन।
द्यौस्तदा तां तु दृष्ट्वैव गां गजेन्द्रेन्द्रविक्रम ॥ १७ ॥
उवाच राजंस्तां देवीं तस्या रूपगुणान् वदन्।
एषा गौरुत्तमा देवी वारुणेरसितेक्षणा ॥ १८ ॥
ऋषेस्तस्य वरारोहे यस्येदं वनमुत्तमम्।
अस्याः क्षीरं पिबेन्मर्त्यः स्वादु यो वै सुमध्यमे ॥ १९ ॥
दशवर्षसहस्राणि स जीवेत् स्थिरयौवनः।
एतच्छ्रुत्वा तु सा देवी नृपोत्तम सुमध्यमा ॥ २० ॥
तमुवाचानवद्याङ्गी भर्तारं दीप्ततेजसम् ।
अस्ति मे मानुषे लोके नरदेवात्मजा सखी ॥ २१ ॥

मूलम्

द्यवे वै दर्शयामास तां गां गोवृषभेक्षण।
आपीनां च सुदोग्ध्रीं च सुवालधिखुरां शुभाम् ॥ १५ ॥
उपपन्नां गुणैः सर्वैः शीलेनानुत्तमेन च।
एवंगुणसमायुक्तां वसवे वसुनन्दिनी ॥ १६ ॥
दर्शयामास राजेन्द्र पुरा पौरवनन्दन।
द्यौस्तदा तां तु दृष्ट्वैव गां गजेन्द्रेन्द्रविक्रम ॥ १७ ॥
उवाच राजंस्तां देवीं तस्या रूपगुणान् वदन्।
एषा गौरुत्तमा देवी वारुणेरसितेक्षणा ॥ १८ ॥
ऋषेस्तस्य वरारोहे यस्येदं वनमुत्तमम्।
अस्याः क्षीरं पिबेन्मर्त्यः स्वादु यो वै सुमध्यमे ॥ १९ ॥
दशवर्षसहस्राणि स जीवेत् स्थिरयौवनः।
एतच्छ्रुत्वा तु सा देवी नृपोत्तम सुमध्यमा ॥ २० ॥
तमुवाचानवद्याङ्गी भर्तारं दीप्ततेजसम् ।
अस्ति मे मानुषे लोके नरदेवात्मजा सखी ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृषभके समान विशाल नेत्रोंवाले महाराज! उस देवीने द्यो नामक वसुको वह शुभ गाय दिखायी, जो भलीभाँति हृष्ट-पुष्ट थी। दूधसे भरे हुए उसके थन बड़े सुन्दर थे, पूँछ और खुर भी बहुत अच्छे थे। वह सुन्दर गाय सभी सद्‌गुणोंसे सम्पन्न और सर्वोत्तम शील-स्वभावसे युक्त थी। पूरुवंशका आनन्द बढ़ानेवाली सम्राट्! इस प्रकार पूर्वकालमें वसुका आनन्द बढ़ानेवाली देवीने अपने पति वसुको ऐसे सद्‌गुणोंवाली गौका दर्शन कराया। गजराजके समान पराक्रमी महाराज! द्योने उस गायको देखते ही उसके रूप और गुणोंका वर्णन करते हुए अपनी पत्नीसे कहा—‘यह कजरारे नेत्रोंवाली उत्तम गौ दिव्य है। वरारोहे! यह उन वरुणनन्दन महर्षि वसिष्ठकी गाय है, जिनका यह उत्तम तपोवन है। सुमध्यमे! जो मनुष्य इसका स्वादिष्ट दूध पी लेगा, वह दस हजार वर्षोंतक जीवित रहेगा और उतने समयतक उसकी युवावस्था स्थिर रहेगी।’ नृपश्रेष्ठ! सुन्दर कटि-प्रदेश और निर्दोष अंगोंवाली वह देवी यह बात सुनकर अपने तेजस्वी पतिसे बोली—‘प्राणनाथ! मनुष्यलोकमें एक राजकुमारी मेरी सखी है’॥१५—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम्ना जितवती नाम रूपयौवनशालिनी।
उशीनरस्य राजर्षेः सत्यसंधस्य धीमतः ॥ २२ ॥
दुहिता प्रथिता लोके मानुषे रूपसम्पदा।
तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां ममेप्सिताम् ॥ २३ ॥

मूलम्

नाम्ना जितवती नाम रूपयौवनशालिनी।
उशीनरस्य राजर्षेः सत्यसंधस्य धीमतः ॥ २२ ॥
दुहिता प्रथिता लोके मानुषे रूपसम्पदा।
तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां ममेप्सिताम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसका नाम है जितवती। वह सुन्दर रूप और युवावस्थासे सुशोभित है। सत्यप्रतिज्ञ बुद्धिमान् राजर्षि उशीनरकी पुत्री है। रूपसम्पत्तिकी दृष्टिसे मनुष्यलोकमें उसकी बड़ी ख्याति है। महाभाग! उसीके लिये बछड़ेसहित यह गाय लेनेकी मेरी बड़ी इच्छा है॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनयस्वामरश्रेष्ठ त्वरितं पुण्यवर्धन ।
यावदस्याः पयः पीत्वा सा सखी मम मानद ॥ २४ ॥
मानुषेषु भवत्वेका जरारोगविवर्जिता ।
एतन्मम महाभाग कर्तुमर्हस्यनिन्दित ॥ २५ ॥

मूलम्

आनयस्वामरश्रेष्ठ त्वरितं पुण्यवर्धन ।
यावदस्याः पयः पीत्वा सा सखी मम मानद ॥ २४ ॥
मानुषेषु भवत्वेका जरारोगविवर्जिता ।
एतन्मम महाभाग कर्तुमर्हस्यनिन्दित ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुरश्रेष्ठ! आप पुण्यकी वृद्धि करनेवाले हैं। इस गायको शीघ्र ले आइये। मानद! जिससे इसका दूध पीकर मेरी वह सखी मनुष्यलोकमें अकेली ही जरावस्था एवं रोग-व्याधिसे बची रहे। महाभाग! आप निन्दारहित हैं; मेरे इस मनोरथको पूर्ण कीजिये॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं प्रियतरं ह्यस्मान्नास्ति मेऽन्यत् कथंचन।
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्या देव्याः प्रियचिकीर्षया ॥ २६ ॥
पृथ्वाद्यैर्भ्रातृभिः सार्धं द्यौस्तदा तां जहार गाम्।
तया कमलपत्राक्ष्या नियुक्तो द्यौस्तदा नृप ॥ २७ ॥
ऋषेस्तस्य तपस्तीव्रं न शशाक निरीक्षितुम्।
हृता गौः सा सदा तेन प्रपातस्तु न तर्कितः॥२८॥

मूलम्

प्रियं प्रियतरं ह्यस्मान्नास्ति मेऽन्यत् कथंचन।
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्या देव्याः प्रियचिकीर्षया ॥ २६ ॥
पृथ्वाद्यैर्भ्रातृभिः सार्धं द्यौस्तदा तां जहार गाम्।
तया कमलपत्राक्ष्या नियुक्तो द्यौस्तदा नृप ॥ २७ ॥
ऋषेस्तस्य तपस्तीव्रं न शशाक निरीक्षितुम्।
हृता गौः सा सदा तेन प्रपातस्तु न तर्कितः॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे लिये किसी तरह भी इससे बढ़कर प्रिय अथवा प्रियतर वस्तु दूसरी नहीं है।’
उस देवीका यह वचन सुनकर उसका प्रिय करनेकी इच्छासे द्यो नामक वसुने पृथु आदि अपने भाइयोंकी सहायतासे उस गौका अपहरण कर लिया। राजन्! कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाली पत्नीसे प्रेरित होकर द्योने गौका अपहरण तो कर लिया; परंतु उस समय उन महर्षि वसिष्ठकी तीव्र तपस्याके प्रभावकी ओर वे दृष्टिपात नहीं कर सके और न यही सोच सके कि ऋषिके कोपसे मेरा स्वर्गसे पतन हो जायगा॥२६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाश्रमपदं प्राप्तः फलान्यादाय वारुणिः।
न चापश्यत् स गां तत्र सवत्सां काननोत्तमे ॥ २९ ॥

मूलम्

अथाश्रमपदं प्राप्तः फलान्यादाय वारुणिः।
न चापश्यत् स गां तत्र सवत्सां काननोत्तमे ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ समयके बाद वरुणनन्दन वसिष्ठजी फल-मूल लेकर आश्रमपर आये; परंतु उस सुन्दर काननमें उन्हें बछड़ेसहित अपनी गाय नहीं दिखायी दी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स मृगयामास वने तस्मिंस्तपोधनः।
नाध्यगच्छच्च मृगयंस्तां गां मुनिरुदारधीः ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः स मृगयामास वने तस्मिंस्तपोधनः।
नाध्यगच्छच्च मृगयंस्तां गां मुनिरुदारधीः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब तपोधन वसिष्ठजी उस वनमें गायकी खोज करने लगे; परंतु खोजनेपर भी वे उदारबुद्धि महर्षि उस गायको न पा सके॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञात्वा तथापनीतां तां वसुभिर्दिव्यदर्शनः।
ययौ क्रोधवशं सद्यः शशाप च वसूंस्तदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

ज्ञात्वा तथापनीतां तां वसुभिर्दिव्यदर्शनः।
ययौ क्रोधवशं सद्यः शशाप च वसूंस्तदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने दिव्य दृष्टिसे देखा और यह जान गये कि वसुओंने उसका अपहरण किया है। फिर तो वे क्रोधके वशीभूत हो गये और तत्काल वसुओंको शाप दे दिया—॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मान्मे वसवो जह्नुर्गां वै दोग्ध्रीं सुवालधिम्।
तस्मात् सर्वे जनिष्यन्ति मानुषेषु न संशयः ॥ ३२ ॥

मूलम्

यस्मान्मे वसवो जह्नुर्गां वै दोग्ध्रीं सुवालधिम्।
तस्मात् सर्वे जनिष्यन्ति मानुषेषु न संशयः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वसुओंने सुन्दर पूँछवाली मेरी कामधेनु गायका अपहरण किया है, इसलिये वे सब-के-सब मनुष्य-योनिमें जन्म लेंगे, इसमें संशय नहीं है’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं शशाप भगवान् वसूंस्तान् भरतर्षभ।
वशं क्रोधस्य सम्प्राप्त आपवो मुनिसत्तमः ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं शशाप भगवान् वसूंस्तान् भरतर्षभ।
वशं क्रोधस्य सम्प्राप्त आपवो मुनिसत्तमः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतर्षभ! इस प्रकार मुनिवर भगवान् वसिष्ठने क्रोधके आवेशमें आकर उन वसुओंको शाप दिया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शप्त्वा च तान् महाभागस्तपस्येव मनो दधे।
एवं स शप्तवान् राजन् वसूनष्टौ तपोधनः ॥ ३४ ॥
महाप्रभावो ब्रह्मर्षिर्देवान् क्रोधसमन्वितः ।
अथाश्रमपदं प्राप्तास्ते वै भूयो महात्मनः ॥ ३५ ॥
शप्ताः स्म इति जानन्त ऋषिं तमुपचक्रमुः।
प्रसादयन्तस्तमृषिं वसवः पार्थिवर्षभ ॥ ३६ ॥
लेभिरे न च तस्मात् ते प्रसादमृषिसत्तमात्।
आपवात् पुरुषव्याघ्र सर्वधर्मविशारदात् ॥ ३७ ॥

मूलम्

शप्त्वा च तान् महाभागस्तपस्येव मनो दधे।
एवं स शप्तवान् राजन् वसूनष्टौ तपोधनः ॥ ३४ ॥
महाप्रभावो ब्रह्मर्षिर्देवान् क्रोधसमन्वितः ।
अथाश्रमपदं प्राप्तास्ते वै भूयो महात्मनः ॥ ३५ ॥
शप्ताः स्म इति जानन्त ऋषिं तमुपचक्रमुः।
प्रसादयन्तस्तमृषिं वसवः पार्थिवर्षभ ॥ ३६ ॥
लेभिरे न च तस्मात् ते प्रसादमृषिसत्तमात्।
आपवात् पुरुषव्याघ्र सर्वधर्मविशारदात् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें शाप देकर उन महाभाग महर्षिने फिर तपस्यामें ही मन लगाया। राजन्! तपस्याके धनी ब्रह्मर्षि वसिष्ठका प्रभाव बहुत बड़ा है। इसीलिये उन्होंने क्रोधमें भरकर देवता होनेपर भी उन आठों वसुओंको शाप दे दिया। तदनन्तर हमें शाप मिला है, यह जानकर वे वसु पुनः महामना वसिष्ठके आश्रमपर आये और उन महर्षिको प्रसन्न करनेकी चेष्टा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! महर्षि आपव समस्त धर्मोंके ज्ञानमें निपुण थे। महाराज! उनको प्रसन्न करनेकी पूरी चेष्टा करने-पर भी वे वसु उन मुनिश्रेष्ठसे उनका कृपाप्रसाद न पा सके॥३४—३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच च स धर्मात्मा शप्ता यूयं धरादयः।
अनुसंवत्सरात् सर्वे शापमोक्षमवाप्स्यथ ॥ ३८ ॥

मूलम्

उवाच च स धर्मात्मा शप्ता यूयं धरादयः।
अनुसंवत्सरात् सर्वे शापमोक्षमवाप्स्यथ ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय धर्मात्मा वसिष्ठने उनसे कहा—‘मैंने धर आदि तुम सभी वसुओंको शाप दे दिया है; परंतु तुमलोग तो प्रति वर्ष एक-एक करके सब-के-सब शापसे मुक्त हो जाओगे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं तु यत्कृते यूयं मया शप्ताः स वत्स्यति।
द्यौस्तदा मानुषे लोके दीर्घकालं स्वकर्मणा ॥ ३९ ॥

मूलम्

अयं तु यत्कृते यूयं मया शप्ताः स वत्स्यति।
द्यौस्तदा मानुषे लोके दीर्घकालं स्वकर्मणा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु यह द्यो, जिसके कारण तुम सबको शाप मिला है, मनुष्यलोकमें अपने कर्मानुसार दीर्घकालतक निवास करेगा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानृतं तच्चिकीर्षामि क्रुद्धो युष्मान् यदब्रुवम्।
न प्रजास्यति चाप्येष मानुषेषु महामनाः ॥ ४० ॥

मूलम्

नानृतं तच्चिकीर्षामि क्रुद्धो युष्मान् यदब्रुवम्।
न प्रजास्यति चाप्येष मानुषेषु महामनाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने क्रोधमें आकर तुमलोगोंसे जो कुछ कहा है, उसे असत्य करना नहीं चाहता। ये महामना द्यो मनुष्यलोकमें संतानकी उत्पत्ति नहीं करेंगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भविष्यति च धर्मात्मा सर्वशास्त्रविशारदः।
पितुः प्रियहिते युक्तः स्त्रीभोगान् वर्जयिष्यति ॥ ४१ ॥

मूलम्

भविष्यति च धर्मात्मा सर्वशास्त्रविशारदः।
पितुः प्रियहिते युक्तः स्त्रीभोगान् वर्जयिष्यति ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘और धर्मात्मा तथा सब शास्त्रोंमें निपुण विद्वान् होंगे; पिताके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहकर स्त्री-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग कर देंगे’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा वसून् सर्वान् स जगाम महानृषिः।
ततो मामुपजग्मुस्ते समेता वसवस्तदा ॥ ४२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा वसून् सर्वान् स जगाम महानृषिः।
ततो मामुपजग्मुस्ते समेता वसवस्तदा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सब वसुओंसे ऐसी बात कहकर वे महर्षि वहाँसे चल दिये। तब वे सब वसु एकत्र होकर मेरे पास आये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयाचन्त च मां राजन् वरं तच्च मया कृतम्।
जाताञ्जातान् प्रक्षिपास्मान् स्वयं गङ्गे त्वमम्भसि ॥ ४३ ॥

मूलम्

अयाचन्त च मां राजन् वरं तच्च मया कृतम्।
जाताञ्जातान् प्रक्षिपास्मान् स्वयं गङ्गे त्वमम्भसि ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय उन्होंने मुझसे याचना की और मैंने उसे पूर्ण किया। उनकी याचना इस प्रकार थी—‘गंगे! हम ज्यों-ज्यों जन्म लें, तुम स्वयं हमें अपने जलमें डाल देना’॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तेषामहं सम्यक् शप्तानां राजसत्तम।
मोक्षार्थं मानुषाल्लोकाद् यथावत्‌ कृतवत्यहम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

एवं तेषामहं सम्यक् शप्तानां राजसत्तम।
मोक्षार्थं मानुषाल्लोकाद् यथावत्‌ कृतवत्यहम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजशिरोमणे! इस प्रकार उन शापग्रस्त वसुओंको इस मनुष्यलोकसे मुक्त करनेके लिये मैंने यथावत् प्रयत्न किया है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं शापादृषेस्तस्य एक एव नृपोत्तम।
द्यौ राजन् मानुषे लोके चिरं वत्स्यति भारत ॥ ४५ ॥

मूलम्

अयं शापादृषेस्तस्य एक एव नृपोत्तम।
द्यौ राजन् मानुषे लोके चिरं वत्स्यति भारत ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! नृपश्रेष्ठ! यह एकमात्र द्यो ही महर्षिके शापसे दीर्घकालतक मनुष्यलोकमें निवास करेगा॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अयं देवव्रतश्चैव गङ्गादत्तश्च मे सुतः।
द्विनामा शान्तनोः पुत्रः शान्तनोरधिको गुणैः॥
अयं कुमारः पुत्रस्ते विवृद्धः पुनरेष्यति।
अहं च ते भविष्यामि आह्वानोपगता नृप॥)

मूलम्

(अयं देवव्रतश्चैव गङ्गादत्तश्च मे सुतः।
द्विनामा शान्तनोः पुत्रः शान्तनोरधिको गुणैः॥
अयं कुमारः पुत्रस्ते विवृद्धः पुनरेष्यति।
अहं च ते भविष्यामि आह्वानोपगता नृप॥)

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मेरा यह पुत्र देवव्रत और गंगादत्त—दो नामोंसे विख्यात होगा। आपका बालक गुणोंमें आपसे भी बढ़कर होगा। (अच्छा, अब जाती हूँ) आपका यह पुत्र अभी शिशु-अवस्थामें है। बड़ा होनेपर फिर आपके पास आ जायगा और आप जब मुझे बुलायेंगे तभी मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊँगी।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदाख्याय सा देवी तत्रैवान्तरधीयत।
आदाय च कुमारं तं जगामाथ यथेप्सितम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

एतदाख्याय सा देवी तत्रैवान्तरधीयत।
आदाय च कुमारं तं जगामाथ यथेप्सितम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ये सब बातें बताकर गंगादेवी उस नवजात शिशुको साथ ले वहीं अन्तर्धान हो गयीं और अपने अभीष्ट स्थानको चली गयीं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु देवव्रतो नाम गाङ्गेय इति चाभवत्।
द्युनामा शान्तनोः पुत्रः शान्तनोरधिको गुणैः ॥ ४७ ॥

मूलम्

स तु देवव्रतो नाम गाङ्गेय इति चाभवत्।
द्युनामा शान्तनोः पुत्रः शान्तनोरधिको गुणैः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बालकका नाम हुआ देवव्रत। कुछ लोग गांगेय भी कहते थे। द्यु1 नामवाले वसु शान्तनुके पुत्र होकर गुणोंमें उनसे भी बढ़ गये॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तनुश्चापि शोकार्तो जगाम स्वपुरं ततः।
तस्याहं कीर्तयिष्यामि शान्तनोरधिकान् गुणान् ॥ ४८ ॥

मूलम्

शान्तनुश्चापि शोकार्तो जगाम स्वपुरं ततः।
तस्याहं कीर्तयिष्यामि शान्तनोरधिकान् गुणान् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर शान्तनु शोकसे आतुर हो पुनः अपने नगरको लौट गये। शान्तनुके उत्तम गुणोंका मैं आगे चलकर वर्णन करूँगा॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभाग्यं च नृपतेर्भारतस्य महात्मनः।
यस्येतिहासो द्युतिमान् महाभारतमुच्यते ॥ ४९ ॥

मूलम्

महाभाग्यं च नृपतेर्भारतस्य महात्मनः।
यस्येतिहासो द्युतिमान् महाभारतमुच्यते ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन भरतवंशी महात्मा नरेशके महान् सौभाग्यका भी मैं वर्णन करूँगा, जिनका उज्ज्वल इतिहास ‘महाभारत’ नामसे विख्यात है॥४९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि आपवोपाख्याने नवनवतितमोऽध्यायः ॥ ९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें आपवोपाख्यानविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं)


  1. ‘द्यु’ का ही नाम ‘द्यो’ है, जैसा कि पहले कई बार आ चुका है। ↩︎