श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शान्तनु और गंगाका कुछ शर्तोंके साथ सम्बन्ध, वसुओंका जन्म और शापसे उद्धार तथा भीष्मकी उत्पत्ति
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा वचो राज्ञः सस्मितं मृदु वल्गु च।
(यशस्विनी च साऽऽगच्छच्छान्तनोर्भूतये तदा।
सा च दृष्ट्वा नृपश्रेष्ठं चरन्तं तीरमाश्रितम्॥)
वसूनां समयं स्मृत्वाथाभ्यगच्छदनिन्दिता ॥ १ ॥
(प्रजार्थिनी राजपुत्रं शान्तनुं पृथिवीपतिम्।
प्रतीपवचनं चापि संस्मृत्यैव स्वयं नृप॥
कालोऽयमिति मत्वा सा वसूनां शापचोदिता।)
उवाच चैव राज्ञः सा ह्लादयन्ती मनो गिरा।
भविष्यामि महीपाल महिषी ते वशानुगा ॥ २ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा वचो राज्ञः सस्मितं मृदु वल्गु च।
(यशस्विनी च साऽऽगच्छच्छान्तनोर्भूतये तदा।
सा च दृष्ट्वा नृपश्रेष्ठं चरन्तं तीरमाश्रितम्॥)
वसूनां समयं स्मृत्वाथाभ्यगच्छदनिन्दिता ॥ १ ॥
(प्रजार्थिनी राजपुत्रं शान्तनुं पृथिवीपतिम्।
प्रतीपवचनं चापि संस्मृत्यैव स्वयं नृप॥
कालोऽयमिति मत्वा सा वसूनां शापचोदिता।)
उवाच चैव राज्ञः सा ह्लादयन्ती मनो गिरा।
भविष्यामि महीपाल महिषी ते वशानुगा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा शान्तनुका मधुर मुसकानयुक्त मनोहर वचन सुनकर यशस्विनी गंगा उनकी ऐश्वर्य-वृद्धिके लिये उनके पास आयीं। तटपर विचरते हुए उन नृपश्रेष्ठको देखकर सती साध्वी गंगाको वसुओंको दिये हुए वचनका स्मरण हो आया। साथ ही राजा प्रतीपकी बात भी याद आ गयी। तब यही उपयुक्त समय है, ऐसा मानकर वसुओंको मिले हुए शापसे प्रेरित हो वे स्वयं संतानोत्पादनकी इच्छासे पृथ्वीपति महाराज शान्तनुके समीप चली आयीं और अपनी मधुर वाणीसे महाराजके मनको आनन्द प्रदान करती हुई बोलीं—‘भूपाल! मैं आपकी महारानी बनूँगी एवं आपके अधीन रहूँगी॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु कुर्यामहं राजञ्छुभं वा यदि वाशुभम्।
न तद् वारयितव्यास्मि न वक्तव्या तथाप्रियम् ॥ ३ ॥
मूलम्
यत् तु कुर्यामहं राजञ्छुभं वा यदि वाशुभम्।
न तद् वारयितव्यास्मि न वक्तव्या तथाप्रियम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘(परंतु एक शर्त है—) राजन्! मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूँ, उसके लिये आपको मुझे नहीं रोकना चाहिये और मुझसे कभी अप्रिय वचन भी नहीं कहना चाहिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि वर्तमानेऽहं त्वयि वत्स्यामि पार्थिव।
वारिता विप्रियं चोक्ता त्यजेयं त्वामसंशयम् ॥ ४ ॥
मूलम्
एवं हि वर्तमानेऽहं त्वयि वत्स्यामि पार्थिव।
वारिता विप्रियं चोक्ता त्यजेयं त्वामसंशयम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीपते! ऐसा बर्ताव करनेपर ही मैं आपके समीप रहूँगी। यदि आपने कभी मुझे किसी कार्यसे रोका या अप्रिय वचन कहा तो मैं निश्चय ही आपका साथ छोड़ दूँगी’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति सा यदा तूक्ता तदा भरतसत्तम।
प्रहर्षमतुलं लेभे प्राप्य तं पार्थिवोत्तमम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तथेति सा यदा तूक्ता तदा भरतसत्तम।
प्रहर्षमतुलं लेभे प्राप्य तं पार्थिवोत्तमम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उस समय बहुत अच्छा कहकर राजाने जब उसकी शर्त मान ली, तब उन नृपश्रेष्ठको पतिरूपमें प्राप्त करके उस देवीको अनुपम आनन्द मिला॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(रथमारोप्य तां देवीं जगाम स तया सह।
सा च शान्तनुमभ्यागात् साक्षाल्लक्ष्मीरिवापरा॥)
मूलम्
(रथमारोप्य तां देवीं जगाम स तया सह।
सा च शान्तनुमभ्यागात् साक्षाल्लक्ष्मीरिवापरा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा शान्तनु देवी गंगाको रथपर बिठाकर उनके साथ अपनी राजधानीको चले गये। साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान सुशोभित होनेवाली गंगादेवी शान्तनुके साथ गयीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य शान्तनुस्तां च बुभुजे कामतो वशी।
न प्रष्टव्येति मन्वानो न स तां किंचिदूचिवान् ॥ ६ ॥
मूलम्
आसाद्य शान्तनुस्तां च बुभुजे कामतो वशी।
न प्रष्टव्येति मन्वानो न स तां किंचिदूचिवान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले राजा शान्तनु उस देवीको पाकर उसका इच्छानुसार उपभोग करने लगे। पिताका यह आदेश था कि उससे कुछ पूछना मत; अतः उनकी आज्ञा मानकर राजाने उससे कोई बात नहीं पूछी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्याः शीलवृत्तेन रूपौदार्यगुणेन च।
उपचारेण च रहस्तुतोष जगतीपतिः ॥ ७ ॥
मूलम्
स तस्याः शीलवृत्तेन रूपौदार्यगुणेन च।
उपचारेण च रहस्तुतोष जगतीपतिः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके उत्तम शील-स्वभाव, सदाचार, रूप, उदारता, सद्गुण तथा एकान्त सेवासे महाराज शान्तनु बहुत संतुष्ट रहते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यरूपा हि सा देवी गङ्गा त्रिपथगामिनी।
मानुषं विग्रहं कृत्वा श्रीमन्तं वरवर्णिनी ॥ ८ ॥
भाग्योपनतकामस्य भार्या चोपनताभवत् ।
शान्तनोर्नृपसिंहस्य देवराजसमद्युतेः ॥ ९ ॥
मूलम्
दिव्यरूपा हि सा देवी गङ्गा त्रिपथगामिनी।
मानुषं विग्रहं कृत्वा श्रीमन्तं वरवर्णिनी ॥ ८ ॥
भाग्योपनतकामस्य भार्या चोपनताभवत् ।
शान्तनोर्नृपसिंहस्य देवराजसमद्युतेः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिपथगामिनी दिव्यरूपिणी देवी गंगा ही अत्यन्त सुन्दर मनुष्य-देह धारण करके देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी नृपशिरोमणि महाराज शान्तनुको, जिन्हें भाग्यसे इच्छानुसार सुख अपने-आप मिल रहा था, सुन्दरी पत्नीके रूपमें प्राप्त हुई थीं॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भोगस्नेहचातुर्यैर्हावभावसमन्वितैः ।
राजानं रमयामास यथा रेमे तथैव सः ॥ १० ॥
मूलम्
सम्भोगस्नेहचातुर्यैर्हावभावसमन्वितैः ।
राजानं रमयामास यथा रेमे तथैव सः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गंगादेवी हाव-भावसे युक्त सम्भोग-चातुरी और प्रणय-चातुरीसे राजाको जैसे-जैसे रमातीं, उसी-उसी प्रकार वे उनके साथ रमण करते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा रतिसक्तत्वादुत्तमस्त्रीगुणैर्हृतः ।
संवत्सरानृतून् मासान् बुबुधे न बहून् गतान् ॥ ११ ॥
मूलम्
स राजा रतिसक्तत्वादुत्तमस्त्रीगुणैर्हृतः ।
संवत्सरानृतून् मासान् बुबुधे न बहून् गतान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस दिव्य नारीके उत्तम गुणोंने उनके चित्तको चुरा लिया था; अतः वे राजा उसके साथ रति-भोगमें आसक्त हो गये। कितने ही वर्ष, ऋतु और मास व्यतीत हो गये, किंतु उसमें आसक्त होनेके कारण राजाको कुछ पता न चला॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रममाणस्तया सार्धं यथाकामं नरेश्वरः।
अष्टावजनयत् पुत्रांस्तस्याममरसंनिभान् ॥ १२ ॥
मूलम्
रममाणस्तया सार्धं यथाकामं नरेश्वरः।
अष्टावजनयत् पुत्रांस्तस्याममरसंनिभान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके साथ इच्छानुसार रमण करते हुए महाराज शान्तनुने उसके गर्भसे देवताओंके समान तेजस्वी आठ पुत्र उत्पन्न किये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातं जातं च सा पुत्रं क्षिपत्यम्भसि भारत।
प्रीणाम्यहं त्वामित्युक्त्वा गङ्गा स्रोतस्यमज्जयत् ॥ १३ ॥
मूलम्
जातं जातं च सा पुत्रं क्षिपत्यम्भसि भारत।
प्रीणाम्यहं त्वामित्युक्त्वा गङ्गा स्रोतस्यमज्जयत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जो-जो पुत्र उत्पन्न होता, उसे वह गंगाजीके जलमें फेंक देती और कहती—‘(वत्स! इस प्रकार शापसे मुक्त करके) मैं तुम्हें प्रसन्न कर रही हूँ।’ ऐसा कहकर गंगा प्रत्येक बालकको धारामें डुबो देती थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तन्न प्रियं राज्ञः शान्तनोरभवत् तदा।
न च तां किंचनोवाच त्यागाद् भीतो महीपतिः ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्य तन्न प्रियं राज्ञः शान्तनोरभवत् तदा।
न च तां किंचनोवाच त्यागाद् भीतो महीपतिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पत्नीका यह व्यवहार राजा शान्तनुको अच्छा नहीं लगता था, तो भी वे उस समय उससे कुछ नहीं कहते थे। राजाको यह डर बना हुआ था कि कहीं यह मुझे छोड़कर चली न जाय॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनामष्टमे पुत्रे जाते प्रहसतीमिव।
उवाच राजा दुःखार्तः परीप्सन् पुत्रमात्मनः ॥ १५ ॥
मूलम्
अथैनामष्टमे पुत्रे जाते प्रहसतीमिव।
उवाच राजा दुःखार्तः परीप्सन् पुत्रमात्मनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ, तब हँसती हुई-सी अपनी स्त्रीसे राजाने अपने पुत्रका प्राण बचानेकी इच्छासे दुःखातुर होकर कहा—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा वधीः कस्य कासीति किं हिनत्सि सुतानिति।
पुत्रघ्नि सुमहत् पापं सम्प्राप्तं ते सुगर्हितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
मा वधीः कस्य कासीति किं हिनत्सि सुतानिति।
पुत्रघ्नि सुमहत् पापं सम्प्राप्तं ते सुगर्हितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरी! इस बालकका वध न कर, तू किसकी कन्या है? कौन है? क्यों अपने ही बेटोंको मारे डालती है। पुत्रघातिनि! तुझे पुत्रहत्याका यह अत्यन्त निन्दित और भारी पाप लगा है’॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
स्त्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रकाम न ते हन्मि पुत्रं पुत्रवतां वर।
जीर्णस्तु मम वासोऽयं यथा स समयः कृतः ॥ १७ ॥
मूलम्
पुत्रकाम न ते हन्मि पुत्रं पुत्रवतां वर।
जीर्णस्तु मम वासोऽयं यथा स समयः कृतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री बोली— पुत्रकी इच्छा रखनेवाले नरेश! तुम पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ हो। मैं तुम्हारे इस पुत्रको नहीं मारूँगी; परंतु यहाँ मेरे रहनेका समय अब समाप्त हो गया; जैसी कि पहले ही शर्त हो चुकी है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं गङ्गा जह्नुसुता महर्षिगणसेविता।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थमुषिताहं त्वया सह ॥ १८ ॥
मूलम्
अहं गङ्गा जह्नुसुता महर्षिगणसेविता।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थमुषिताहं त्वया सह ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं जह्नुकी पुत्री और महर्षियोंद्वारा सेवित गंगा हूँ। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये तुम्हारे साथ रह रही थी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमेऽष्टौ वसवो देवा महाभागा महौजसः।
वसिष्ठशापदोषेण मानुषत्वमुपागताः ॥ १९ ॥
मूलम्
इमेऽष्टौ वसवो देवा महाभागा महौजसः।
वसिष्ठशापदोषेण मानुषत्वमुपागताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये तुम्हारे आठ पुत्र महातेजस्वी महाभाग वसु देवता हैं। वसिष्ठजीके शाप-दोषसे ये मनुष्य-योनिमें आये थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां जनयिता नान्यस्त्वदृते भुवि विद्यते।
मद्विधा मानुषी धात्री लोके नास्तीह काचन ॥ २० ॥
मूलम्
तेषां जनयिता नान्यस्त्वदृते भुवि विद्यते।
मद्विधा मानुषी धात्री लोके नास्तीह काचन ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे सिवा दूसरा कोई राजा इस पृथ्वीपर ऐसा नहीं था, जो उन वसुओंका जनक हो सके। इसी प्रकार इस जगत्में मेरी-जैसी दूसरी कोई मानवी नहीं है, जो उन्हें गर्भमें धारण कर सके॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् तज्जननीहेतोर्मानुषत्वमुपागता ।
जनयित्वा वसूनष्टौ जिता लोकास्त्वयाक्षयाः ॥ २१ ॥
मूलम्
तस्मात् तज्जननीहेतोर्मानुषत्वमुपागता ।
जनयित्वा वसूनष्टौ जिता लोकास्त्वयाक्षयाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इन वसुओंकी जननी होनेके लिये मैं मानवशरीर धारण करके आयी थी। राजन्! तुमने आठ वसुओंको जन्म देकर अक्षय लोक जीत लिये हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानां समयस्त्वेष वसूनां संश्रुतो मया।
जातं जातं मोक्षयिष्ये जन्मतो मानुषादिति ॥ २२ ॥
मूलम्
देवानां समयस्त्वेष वसूनां संश्रुतो मया।
जातं जातं मोक्षयिष्ये जन्मतो मानुषादिति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसु देवताओंकी यह शर्त थी और मैंने उसे पूर्ण करनेकी प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो-जो वसु जन्म लेगा, उसे मैं जन्मते ही मनुष्य-योनिसे छुटकारा दिला दूँगी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् ते शापाद् विनिर्मुक्ता आपवस्य महात्मनः।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि पुत्रं पाहि महाव्रतम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तत् ते शापाद् विनिर्मुक्ता आपवस्य महात्मनः।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि पुत्रं पाहि महाव्रतम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अब वे वसु महात्मा आपव (वसिष्ठ)-के शापसे मुक्त हो चुके हैं। तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जाऊँगी। तुम इस महान् व्रतधारी पुत्रका पालन करो॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अयं तव सुतस्तेषां वीर्येण कुलनन्दनः।
सम्भूतोऽति जनानन्यान् भविष्यति न संशयः॥)
मूलम्
(अयं तव सुतस्तेषां वीर्येण कुलनन्दनः।
सम्भूतोऽति जनानन्यान् भविष्यति न संशयः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
यह तुम्हारा पुत्र सब वसुओंके पराक्रमसे सम्पन्न होकर अपने कुलका आनन्द बढ़ानेके लिये प्रकट हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि यह बालक बल और पराक्रममें दूसरे सब लोगोंसे बढ़कर होगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पर्यायवासो मे वसूनां संनिधौ कृतः।
मत्प्रसूतिं विजानीहि गङ्गादत्तमिमं सुतम् ॥ २४ ॥
मूलम्
एष पर्यायवासो मे वसूनां संनिधौ कृतः।
मत्प्रसूतिं विजानीहि गङ्गादत्तमिमं सुतम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बालक वसुओंमेंसे प्रत्येकके एक-एक अंशका आश्रय है—सम्पूर्ण वसुओंके अंशसे इसकी उत्पत्ति हुई है। मैंने तुम्हारे लिये वसुओंके समीप प्रार्थना की थी कि ‘राजाका एक पुत्र जीवित रहे’। इसे मेरा बालक समझना और इसका नाम ‘गंगादत्त’ रखना॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मोत्पत्तावष्टनवतितमोऽध्यायः ॥ ९८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीष्मोत्पत्तिविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल २८ श्लोक हैं)