०९७ गङ्गा-विवाहः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा प्रतीपका गंगाको पुत्रवधूके रूपमें स्वीकार करना और शान्तनुका जन्म, राज्याभिषेक तथा गंगासे मिलना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रतीपो राजाऽऽसीत् सर्वभूतहितः सदा।
निषसाद समा बह्वीर्गङ्गाद्वारगतो जपन् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः प्रतीपो राजाऽऽसीत् सर्वभूतहितः सदा।
निषसाद समा बह्वीर्गङ्गाद्वारगतो जपन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— तदनन्तर इस पृथ्वीपर राजा प्रतीप राज्य करने लगे। वे सदा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते थे। एक समय महाराज प्रतीप गंगाद्वार (हरिद्वार)-में गये और बहुत वर्षोंतक जप करते हुए एक आसनपर बैठे रहे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य रूपगुणोपेता गङ्गा स्त्रीरूपधारिणी।
उत्तीर्य सलिलात् तस्माल्लोभनीयतमाकृतिः ॥ २ ॥
अधीयानस्य राजर्षेर्दिव्यरूपा मनस्विनी ।
दक्षिणं शालसंकाशमूरुं भेजे शुभानना ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्य रूपगुणोपेता गङ्गा स्त्रीरूपधारिणी।
उत्तीर्य सलिलात् तस्माल्लोभनीयतमाकृतिः ॥ २ ॥
अधीयानस्य राजर्षेर्दिव्यरूपा मनस्विनी ।
दक्षिणं शालसंकाशमूरुं भेजे शुभानना ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मनस्विनी गंगा सुन्दर रूप और उत्तम गुणोंसे युक्त युवती स्त्रीका रूप धारण करके जलसे निकलीं और स्वाध्यायमें लगे हुए राजर्षि प्रतीपके शाल-जैसे विशाल दाहिने ऊरु (जाँघ)-पर जा बैठीं। उस समय उनकी आकृति बड़ी लुभावनी थी; रूप देवांगनाओंके समान था और मुख अत्यन्त मनोहर था॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतीपस्तु महीपालस्तामुवाच यशस्विनीम् ।
करोमि किं ते कल्याणि प्रियं यत्‌ तेऽभिकाङ्क्षितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रतीपस्तु महीपालस्तामुवाच यशस्विनीम् ।
करोमि किं ते कल्याणि प्रियं यत्‌ तेऽभिकाङ्क्षितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी जाँघपर बैठी हुई उस यशस्विनी नारीसे राजा प्रतीपने पूछा—‘कल्याणि! मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुम्हारी क्या इच्छा है?’॥ ४॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामहं कामये राजन् भजमानां भजस्व माम्।
त्यागः कामवतीनां हि स्त्रीणां सद्भिर्विगर्हितः ॥ ५ ॥

मूलम्

त्वामहं कामये राजन् भजमानां भजस्व माम्।
त्यागः कामवतीनां हि स्त्रीणां सद्भिर्विगर्हितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— राजन्! मैं आपको ही चाहती हूँ। आपके प्रति मेरा अनुराग है, अतः आप मुझे स्वीकार करें; क्योंकि कामके अधीन होकर अपने पास आयी हुई स्त्रियोंका परित्याग साधु पुरुषोंने निन्दित माना है॥५॥

मूलम् (वचनम्)

प्रतीप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं परस्त्रियं कामाद् गच्छेयं वरवर्णिनि।
न चासवर्णां कल्याणि धर्म्यमेतद्धि मे व्रतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

नाहं परस्त्रियं कामाद् गच्छेयं वरवर्णिनि।
न चासवर्णां कल्याणि धर्म्यमेतद्धि मे व्रतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतीपने कहा— सुन्दरी! मैं कामवश परायी स्त्रीके साथ समागम नहीं कर सकता। जो अपने वर्णकी न हो, उससे भी मैं सम्बन्ध नहीं रख सकता। कल्याणि! यह मेरा धर्मानुकूल व्रत है॥६॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाश्रेयस्यस्मि नागम्या न वक्तव्या च कर्हिचित्।
भजन्तीं भज मां राजन् दिव्यां कन्यां वरस्त्रियम् ॥ ७ ॥

मूलम्

नाश्रेयस्यस्मि नागम्या न वक्तव्या च कर्हिचित्।
भजन्तीं भज मां राजन् दिव्यां कन्यां वरस्त्रियम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— राजन्! मैं अशुभ या अमंगल करनेवाली नहीं हूँ, समागमके अयोग्य भी नहीं हूँ और ऐसी भी नहीं हूँ कि कभी कोई मुझपर कलंक लगावे। मैं आपके प्रति अनुरक्त होकर आयी हुई दिव्य कन्या एवं सुन्दरी स्त्री हूँ। अतः आप मुझे स्वीकार करें॥७॥

मूलम् (वचनम्)

प्रतीप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया निवृत्तमेतत् तु यन्मां चोदयसि प्रियम्।
अन्यथा प्रतिपन्नं मां नाशयेद् धर्मविप्लवः ॥ ८ ॥

मूलम्

त्वया निवृत्तमेतत् तु यन्मां चोदयसि प्रियम्।
अन्यथा प्रतिपन्नं मां नाशयेद् धर्मविप्लवः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतीपने कहा— सुन्दरी! तुम जिस प्रिय मनोरथकी पूर्तिके लिये मुझे प्रेरित कर रही हो, उसका निराकरण भी तुम्हारे द्वारा ही हो गया। यदि मैं धर्मके विपरीत तुम्हारा यह प्रस्ताव स्वीकार कर लूँ तो धर्मका यह विनाश मेरा भी नाश कर डालेगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्य दक्षिणमूरुं मे त्वमाश्लिष्टा वराङ्गने।
अपत्यानां स्नुषाणां च भीरु विद्ध्येतदासनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

प्राप्य दक्षिणमूरुं मे त्वमाश्लिष्टा वराङ्गने।
अपत्यानां स्नुषाणां च भीरु विद्ध्येतदासनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वरांगने! तुम मेरी दाहिनी जाँघपर आकर बैठी हो। भीरु! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधूका आसन है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सव्योरुः कामिनीभोग्यस्त्वया स च विवर्जितः।
तस्मादहं नाचरिष्ये त्वयि कामं वराङ्गने ॥ १० ॥

मूलम्

सव्योरुः कामिनीभोग्यस्त्वया स च विवर्जितः।
तस्मादहं नाचरिष्ये त्वयि कामं वराङ्गने ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषकी बायीं जाँघ ही कामिनीके उपभोगके योग्य है; किंतु तुमने उसका त्याग कर दिया है। अतः वरांगने! मैं तुम्हारे प्रति कामयुक्त आचरण नहीं करूँगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नुषा मे भव सुश्रोणि पुत्रार्थं त्वां वृणोम्यहम्।
स्नुषापक्षं हि वामोरु त्वमागम्य समाश्रिता ॥ ११ ॥

मूलम्

स्नुषा मे भव सुश्रोणि पुत्रार्थं त्वां वृणोम्यहम्।
स्नुषापक्षं हि वामोरु त्वमागम्य समाश्रिता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुश्रोणि! तुम मेरी पुत्रवधू हो जाओ। मैं अपने पुत्रके लिये तुम्हारा वरण करता हूँ; क्योंकि वामोरु! तुमने यहाँ आकर मेरी उसी जाँघका आश्रय लिया है, जो पुत्रवधूके पक्षकी है॥११॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमप्यस्तु धर्मज्ञ संयुज्येयं सुतेन ते।
त्वद्भक्त्या तु भजिष्यामि प्रख्यातं भारतं कुलम् ॥ १२ ॥

मूलम्

एवमप्यस्तु धर्मज्ञ संयुज्येयं सुतेन ते।
त्वद्भक्त्या तु भजिष्यामि प्रख्यातं भारतं कुलम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— धर्मज्ञ नरेश! आप जैसा कहते हैं, वैसा भी हो सकता है। मैं आपके पुत्रके साथ संयुक्त होऊँगी। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, उसके कारण मैं विख्यात भरतवंशका सेवन करूँगी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिव्यां पार्थिवा ये च तेषां यूयं परायणम्।
गुणा न हि मया शक्या वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ १३ ॥

मूलम्

पृथिव्यां पार्थिवा ये च तेषां यूयं परायणम्।
गुणा न हि मया शक्या वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपर जितने राजा हैं, उन सबके आपलोग उत्तम आश्रय हैं। सौ वर्षोंमें भी आपलोगोंके गुणोंका वर्णन मैं नहीं कर सकती॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलस्य ये वः प्रथितास्तत्साधुत्वमथोत्तमम्।
समयेनेह धर्मज्ञ आचरेयं च यद् विभो ॥ १४ ॥
तत् सर्वमेव पुत्रस्ते न मीमांसेत कर्हिचित्।
एवं वसन्ती पुत्रे ते वर्धयिष्याम्यहं रतिम् ॥ १५ ॥
पुत्रैः पुण्यैः प्रियैश्चैव स्वर्गं प्राप्स्यति ते सुतः।

मूलम्

कुलस्य ये वः प्रथितास्तत्साधुत्वमथोत्तमम्।
समयेनेह धर्मज्ञ आचरेयं च यद् विभो ॥ १४ ॥
तत् सर्वमेव पुत्रस्ते न मीमांसेत कर्हिचित्।
एवं वसन्ती पुत्रे ते वर्धयिष्याम्यहं रतिम् ॥ १५ ॥
पुत्रैः पुण्यैः प्रियैश्चैव स्वर्गं प्राप्स्यति ते सुतः।

अनुवाद (हिन्दी)

आपके कुलमें जो विख्यात राजा हो गये हैं, उनकी साधुता सर्वोपरि है। धर्मज्ञ! मैं एक शर्तके साथ आपके पुत्रसे विवाह करूँगी। प्रभो! मैं जो कुछ भी आचरण करूँ, वह सब आपके पुत्रको स्वीकार होना चाहिये। वे उसके विषयमें कभी कुछ विचार न करें। इस शर्तपर रहती हुई मैं आपके पुत्रके प्रति अपना प्रेम बढ़ाऊँगी। मुझसे जो पुण्यात्मा एवं प्रिय पुत्र उत्पन्न होंगे, उनके द्वारा आपके पुत्रको स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी॥१४-१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्ता तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥

मूलम्

तथेत्युक्ता तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा प्रतीपने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् वह वहीं अन्तर्धान हो गयी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रजन्म प्रतीक्षन् वै स राजा तदधारयत्।
एतस्मिन्नेव काले तु प्रतीपः क्षत्रियर्षभः ॥ १७ ॥
तपस्तेपे सुतस्यार्थे सभार्यः कुरुनन्दन।

मूलम्

पुत्रजन्म प्रतीक्षन् वै स राजा तदधारयत्।
एतस्मिन्नेव काले तु प्रतीपः क्षत्रियर्षभः ॥ १७ ॥
तपस्तेपे सुतस्यार्थे सभार्यः कुरुनन्दन।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद पुत्रके जन्मकी प्रतीक्षा करते हुए राजा प्रतीपने उसकी बात याद रखी। कुरुनन्दन! इन्हीं दिनों क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ प्रतीप अपनी पत्नीको साथ लेकर पुत्रके लिये तपस्या करने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(प्रतीपस्य तु भार्यायां गर्भः श्रीमानवर्धत।
श्रिया परमया युक्तः शरच्छुक्ले यथा शशी॥
ततस्तु दशमे मासि प्राजायत रविप्रभम्।
कुमारं देवगर्भाभं प्रतीपमहिषी तदा॥)
तयोः समभवत् पुत्रो वृद्धयोः स महाभिषः ॥ १८ ॥

मूलम्

(प्रतीपस्य तु भार्यायां गर्भः श्रीमानवर्धत।
श्रिया परमया युक्तः शरच्छुक्ले यथा शशी॥
ततस्तु दशमे मासि प्राजायत रविप्रभम्।
कुमारं देवगर्भाभं प्रतीपमहिषी तदा॥)
तयोः समभवत् पुत्रो वृद्धयोः स महाभिषः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतीपकी पत्नीकी कुक्षिमें एक तेजस्वी गर्भका आविर्भाव हुआ, जो शरद्-ऋतुके शुक्ल पक्षमें परम कान्तिमान् चन्द्रमाकी भाँति प्रतिदिन बढ़ने लगा। तदनन्तर दसवाँ मास प्राप्त होनेपर प्रतीपकी महारानीने एक देवोपम पुत्रको जन्म दिया, जो सूर्यके समान प्रकाशमान था। उन बूढ़े राजदम्पतिके यहाँ पूर्वोक्त राजा महाभिष ही पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तस्य जज्ञे संतानस्तस्मादासीत् स शान्तनुः।

मूलम्

शान्तस्य जज्ञे संतानस्तस्मादासीत् स शान्तनुः।

अनुवाद (हिन्दी)

शान्त पिताकी संतान होनेसे वे शान्तनु कहलाये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तस्य जातस्य कृत्यानि प्रतीपोऽकारयत् प्रभुः।
जातकर्मादि विप्रेण वेदोक्तैः कर्मभिस्तदा॥

मूलम्

(तस्य जातस्य कृत्यानि प्रतीपोऽकारयत् प्रभुः।
जातकर्मादि विप्रेण वेदोक्तैः कर्मभिस्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली राजा प्रतीपने उस बालकके आवश्यक कृत्य (संस्कार) करवाये। ब्राह्मण पुरोहितने वेदोक्त क्रियाओंद्वारा उसके जात-कर्म आदि सम्पन्न किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामकर्म च विप्रास्तु चक्रुः परमसत्कृतम्।
शान्तनोरवनीपाल वेदोक्तैः कर्मभिस्तदा ॥

मूलम्

नामकर्म च विप्रास्तु चक्रुः परमसत्कृतम्।
शान्तनोरवनीपाल वेदोक्तैः कर्मभिस्तदा ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! तदनन्तर बहुत-से ब्राह्मणोंने मिलकर वेदोक्त विधियोंके अनुसार शान्तनुका नामकरण-संस्कार भी किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संवर्धितो राजा शान्तनुर्लोकपालकः।
स तु लेभे परां निष्ठां प्राप्य धर्मविदां वरः॥
धनुर्वेदे च वेदे च गतिं स परमां गतः।
यौवनं चापि सम्प्राप्तः कुमारो वदतां वरः॥)

मूलम्

ततः संवर्धितो राजा शान्तनुर्लोकपालकः।
स तु लेभे परां निष्ठां प्राप्य धर्मविदां वरः॥
धनुर्वेदे च वेदे च गतिं स परमां गतः।
यौवनं चापि सम्प्राप्तः कुमारो वदतां वरः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् बड़े होनेपर राजकुमार शान्तनु लोकरक्षाका कार्य करने लगे। वे धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने धनुर्वेदमें उत्तम योग्यता प्राप्त करके वेदाध्ययनमें भी ऊँची स्थिति प्राप्त की। वक्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ वे राजकुमार धीरे-धीरे युवावस्थामें पहुँच गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्मरंश्चाक्षयाल्ँलोकान् विजातान् स्वेन कर्मणा ॥ १९ ॥
पुण्यकर्मकृदेवासीच्छान्तनुः कुरुसत्तमः ।
प्रतीपः शान्तनुं पुत्रं यौवनस्थं ततोऽन्वशात् ॥ २० ॥

मूलम्

संस्मरंश्चाक्षयाल्ँलोकान् विजातान् स्वेन कर्मणा ॥ १९ ॥
पुण्यकर्मकृदेवासीच्छान्तनुः कुरुसत्तमः ।
प्रतीपः शान्तनुं पुत्रं यौवनस्थं ततोऽन्वशात् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने सत्कर्मोंद्वारा उपार्जित अक्षय पुण्यलोकोंका स्मरण करके कुरुश्रेष्ठ शान्तनु सदा पुण्यकर्मोंके अनुष्ठानमें ही लगे रहते थे। युवावस्थामें पहुँचे हुए राजकुमार शान्तनुको राजा प्रतीपने आदेश दिया—॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा स्त्री मां समभ्यागाच्छान्तनो भूतये तव।
त्वामाव्रजेद् यदि रहः सा पुत्र वरवर्णिनी ॥ २१ ॥
कामयानाभिरूपाढ्या दिव्या स्त्री पुत्रकाम्यया।
सा त्वया नानुयोक्तव्या कासि कस्यासि चाङ्गने ॥ २२ ॥

मूलम्

पुरा स्त्री मां समभ्यागाच्छान्तनो भूतये तव।
त्वामाव्रजेद् यदि रहः सा पुत्र वरवर्णिनी ॥ २१ ॥
कामयानाभिरूपाढ्या दिव्या स्त्री पुत्रकाम्यया।
सा त्वया नानुयोक्तव्या कासि कस्यासि चाङ्गने ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शान्तनो! पूर्वकालमें मेरे समीप एक दिव्य नारी आयी थी। उसका आगमन तुम्हारे कल्याणके लिये ही हुआ था। बेटा! यदि वह सुन्दरी कभी एकान्तमें तुम्हारे पास आवे, तुम्हारे प्रति कामभावसे युक्त हो और तुमसे पुत्र पानेकी इच्छा रखती हो, तो तुम उत्तम रूपसे सुशोभित उस दिव्य नारीसे ‘अंगने! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? इत्यादि प्रश्न न करना॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च कुर्यान्न तत् कर्म सा प्रष्टव्या त्वयानघ।
मन्नियोगाद् भजन्तीं तां भजेथा इत्युवाच तम् ॥ २३ ॥

मूलम्

यच्च कुर्यान्न तत् कर्म सा प्रष्टव्या त्वयानघ।
मन्नियोगाद् भजन्तीं तां भजेथा इत्युवाच तम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनघ! वह जो कार्य करे, उसके विषयमें भी तुम्हें कुछ पूछताछ नहीं करनी चाहिये। यदि वह तुम्हें चाहे, तो मेरी आज्ञासे उसे अपनी पत्नी बना लेना।’ ये बातें राजा प्रतीपने अपने पुत्रसे कहीं॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संदिश्य तनयं प्रतीपः शान्तनुं तदा।
स्वे च राज्येऽभिषिच्यैनं वनं राजा विवेश ह ॥ २४ ॥

मूलम्

एवं संदिश्य तनयं प्रतीपः शान्तनुं तदा।
स्वे च राज्येऽभिषिच्यैनं वनं राजा विवेश ह ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— अपने पुत्र शान्तनुको ऐसा आदेश देकर राजा प्रतीपने उसी समय उन्हें अपने राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं वनमें प्रवेश किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा शान्तनुर्धीमान् देवराजसमद्युतिः।
बभूव मृगयाशीलः शान्तनुर्वनगोचरः ॥ २५ ॥

मूलम्

स राजा शान्तनुर्धीमान् देवराजसमद्युतिः।
बभूव मृगयाशीलः शान्तनुर्वनगोचरः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् राजा शान्तनु देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी थे। वे हिंसक पशुओंको मारनेके उद्देश्यसे वनमें घूमते रहते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मृगान् महिषांश्चैव विनिघ्नन् राजसत्तमः।
गङ्गामनुचचारैकः सिद्धचारणसेविताम् ॥ २६ ॥

मूलम्

स मृगान् महिषांश्चैव विनिघ्नन् राजसत्तमः।
गङ्गामनुचचारैकः सिद्धचारणसेविताम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंमें श्रेष्ठ शान्तनु हिंसक पशुओं और जंगली भैंसोंको मारते हुए सिद्ध एवं चारणोंसे सेवित गंगाजीके तटपर अकेले ही विचरण करते थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचिन्महाराज ददर्श परमां स्त्रियम्।
जाज्वल्यमानां वपुषा साक्षाच्छ्रियमिवापराम् ॥ २७ ॥

मूलम्

स कदाचिन्महाराज ददर्श परमां स्त्रियम्।
जाज्वल्यमानां वपुषा साक्षाच्छ्रियमिवापराम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज जनमेजय! एक दिन उन्होंने एक परम सुन्दरी नारी देखी, जो अपने तेजस्वी शरीरसे ऐसी प्रकाशित हो रही थी, मानो साक्षात् लक्ष्मी ही दूसरा शरीर धारण करके आ गयी हो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वानवद्यां सुदतीं दिव्याभरणभूषिताम् ।
सूक्ष्माम्बरधरामेकां पद्मोदरसमप्रभाम् ॥ २८ ॥

मूलम्

सर्वानवद्यां सुदतीं दिव्याभरणभूषिताम् ।
सूक्ष्माम्बरधरामेकां पद्मोदरसमप्रभाम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके सारे अंग परम सुन्दर और निर्दोष थे। दाँत तो और भी सुन्दर थे। वह दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके शरीरपर महीन साड़ी शोभा पा रही थी और कमलके भीतरी भागके समान उसकी कान्ति थी, वह अकेली थी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां दृष्ट्‌वा हृष्टरोमाभूद् विस्मितो रूपसम्पदा।
पिबन्निव च नेत्राभ्यां नातृप्यत नराधिपः ॥ २९ ॥

मूलम्

तां दृष्ट्‌वा हृष्टरोमाभूद् विस्मितो रूपसम्पदा।
पिबन्निव च नेत्राभ्यां नातृप्यत नराधिपः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे देखते ही राजा शान्तनुके शरीरमें रोमांच हो आया, वे उसकी रूप-सम्पत्तिसे आश्चर्यचकित हो उठे और दोनों नेत्रोंद्वारा उसकी सौन्दर्य-सुधाका पान करते हुए-से तृप्त नहीं होते थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा च दृष्ट्वैव राजानं विचरन्तं महाद्युतिम्।
स्नेहादागतसौहार्दा नातृप्यत विलासिनी ॥ ३० ॥

मूलम्

सा च दृष्ट्वैव राजानं विचरन्तं महाद्युतिम्।
स्नेहादागतसौहार्दा नातृप्यत विलासिनी ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भी वहाँ विचरते हुए महातेजस्वी राजा शान्तनुको देखते ही मुग्ध हो गयी। स्नेहवश उसके हृदयमें सौहार्दका उदय हो आया। वह विलासिनी राजाको देखते-देखते तृप्त नहीं होती थी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामुवाच ततो राजा सान्त्वयञ्शलक्ष्णया गिरा।
देवी वा दानवी वा त्वं गन्धर्वी चाथ वाप्सराः॥३१॥
यक्षी वा पन्नगी वापि मानुषी वा सुमध्यमे।
याचे त्वां सुरगर्भाभे भार्या मे भव शोभने ॥ ३२ ॥

मूलम्

तामुवाच ततो राजा सान्त्वयञ्शलक्ष्णया गिरा।
देवी वा दानवी वा त्वं गन्धर्वी चाथ वाप्सराः॥३१॥
यक्षी वा पन्नगी वापि मानुषी वा सुमध्यमे।
याचे त्वां सुरगर्भाभे भार्या मे भव शोभने ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा शान्तनु उसे सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें बोले—‘सुमध्यमे! तुम देवी, दानवी, गन्धर्वी, अप्सरा, यक्षी, नागकन्या अथवा मानवी, कुछ भी क्यों न होओ; देवकन्याके समान सुशोभित होनेवाली सुन्दरी! मैं तुमसे याचना करता हूँ कि मेरी पत्नी हो जाओ’॥३१-३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शान्तनूपाख्याने सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥ ९७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शान्तनूपाख्यानविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं)