०९२ प्रतर्दन-संवादः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्विनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना

मूलम् (वचनम्)

अष्टक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कतरस्त्वनयोः पूर्वं देवानामेति सात्मताम्।
उभयोर्धावतो राजन् सूर्याचन्द्रमसोरिव ॥ १ ॥

मूलम्

कतरस्त्वनयोः पूर्वं देवानामेति सात्मताम्।
उभयोर्धावतो राजन् सूर्याचन्द्रमसोरिव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टकने पूछा— राजन्! सूर्य और चन्द्रमाकी तरह अपने-अपने लक्ष्यकी ओर दौड़ते हुए वानप्रस्थ और संन्यासी इन दोनोंमेंसे पहले कौन-सा देवताओंके आत्मभाव (ब्रह्म)-को प्राप्त होता है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिकेतो गृहस्थेषु कामवृत्तेषु संयतः।
ग्राम एव वसन् भिक्षुस्तयोः पूर्वतरं गतः ॥ २ ॥

मूलम्

अनिकेतो गृहस्थेषु कामवृत्तेषु संयतः।
ग्राम एव वसन् भिक्षुस्तयोः पूर्वतरं गतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— कामवृत्तिवाले गृहस्थोंके बीच ग्राममें ही वास करते हुए भी जो जितेन्द्रिय और गृहरहित संन्यासी है, वही उन दोनों प्रकारके मुनियोंमें पहले ब्रह्मभावको प्राप्त होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाप्य दीर्घमायुस्तु यः प्राप्तो विकृतिं चरेत्।
तप्यते यदि तत् कृत्वा चरेत् सोऽन्यत् तपस्ततः ॥ ३ ॥

मूलम्

अवाप्य दीर्घमायुस्तु यः प्राप्तो विकृतिं चरेत्।
तप्यते यदि तत् कृत्वा चरेत् सोऽन्यत् तपस्ततः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वानप्रस्थ बड़ी आयु पाकर भी विषयोंके प्राप्त होनेपर उनसे विकृत हो उन्हींमें विचरने लगता है, उसे यदि विषयोपभोगके अनन्तर पश्चात्ताप होता है तो उसे मोक्षके लिये पुनः तपका अनुष्ठान करना चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापानां कर्मणां नित्यं बिभियाद् यस्तु मानवः।
सुखमप्याचरन् नित्यं सोऽत्यन्तं सुखमेधते ॥ ४ ॥

मूलम्

पापानां कर्मणां नित्यं बिभियाद् यस्तु मानवः।
सुखमप्याचरन् नित्यं सोऽत्यन्तं सुखमेधते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जो वानप्रस्थ मनुष्य पापकर्मोंसे नित्य भय करता है और सदा अपने धर्मका आचरण करता है, वह अत्यन्त सुखरूप मोक्षको अनायास ही प्राप्त कर लेता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वै नृशंसं तदसत्यमाहु-
र्यः सेवतेऽधर्ममनर्थबुद्धिः ।
अर्थोऽप्यनीशस्य तथैव राजं-
स्तदार्जवं स समाधिस्तदार्यम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तद् वै नृशंसं तदसत्यमाहु-
र्यः सेवतेऽधर्ममनर्थबुद्धिः ।
अर्थोऽप्यनीशस्य तथैव राजं-
स्तदार्जवं स समाधिस्तदार्यम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो पापबुद्धिवाला मनुष्य अधर्मका आचरण करता है, उसका वह आचरण नृशंस (पापमय) और असत्य कहा गया है एवं उस अजितेन्द्रियका धन भी वैसा ही पापमय और असत्य है। परंतु वानप्रस्थ मुनिका जो धर्मपालन है, वही सरलता है, वही समाधि है और वही श्रेष्ठ आचरण है॥५॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनासि हूतः प्रहितोऽसि राजन्
युवा स्रग्वी दर्शनीयः सुवर्चाः।
कुत आयातः कतरस्यां दिशि त्व-
मुताहोस्वित् पार्थिवं स्थानमस्ति ॥ ६ ॥

मूलम्

केनासि हूतः प्रहितोऽसि राजन्
युवा स्रग्वी दर्शनीयः सुवर्चाः।
कुत आयातः कतरस्यां दिशि त्व-
मुताहोस्वित् पार्थिवं स्थानमस्ति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टकने पूछा— राजन्! आपको यहाँ किसने बुलाया? किसने भेजा है? आप अवस्थामें तरुण, फूलोंकी मालासे सुशोभित, दर्शनीय तथा उत्तम तेजसे उद्भासित जान पड़ते हैं। आप कहाँसे आये हैं? किस दिशामें भेजे गये हैं? अथवा क्या आपके लिये इस पृथ्वीपर कोई उत्तम स्थान है?॥६॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं भौमं नरकं क्षीणपुण्यः
प्रवेष्टुमुर्वीं गगनाद् विप्रहीणः ।
उक्त्वाहं वः प्रपतिष्याम्यनन्तरं
त्वरन्ति मां लोकपा ब्रह्मणो ये ॥ ७ ॥

मूलम्

इमं भौमं नरकं क्षीणपुण्यः
प्रवेष्टुमुर्वीं गगनाद् विप्रहीणः ।
उक्त्वाहं वः प्रपतिष्याम्यनन्तरं
त्वरन्ति मां लोकपा ब्रह्मणो ये ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— मैं अपने पुण्यका क्षय होनेसे भौम नरकमें प्रवेश करनेके लिये आकाशसे गिर रहा हूँ। ब्रह्माजीके जो लोकपाल हैं, वे मुझे गिरनेके लिये जल्दी मचा रहे हैं; अतः आपलोगोंसे पूछकर विदा लेकर इस पृथ्वीपर गिरूँगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतां सकाशे तु वृतः प्रपात-
स्ते संगता गुणवन्तस्तु सर्वे।
शक्राच्च लब्धो हि वरो मयैष
पतिष्यता भूमितलं नरेन्द्र ॥ ८ ॥

मूलम्

सतां सकाशे तु वृतः प्रपात-
स्ते संगता गुणवन्तस्तु सर्वे।
शक्राच्च लब्धो हि वरो मयैष
पतिष्यता भूमितलं नरेन्द्र ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! मैं जब इस पृथ्वीतलपर गिरनेवाला था, उस समय मैंने इन्द्रसे यह वर माँगा था कि मैं साधु पुरुषोंके समीप गिरूँ। वह वर मुझे मिला, जिसके कारण आप सब सद्‌गुणी संतोंका संग प्राप्त हुआ॥८॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृच्छामि त्वां मा प्रपत प्रपातं
यदि लोकाः पार्थिव सन्ति मेऽत्र।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि स्थिताः
क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ ९ ॥

मूलम्

पृच्छामि त्वां मा प्रपत प्रपातं
यदि लोकाः पार्थिव सन्ति मेऽत्र।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि स्थिताः
क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टक बोले— महाराज! मेरा विश्वास है कि आप पारलौकिक धर्मके ज्ञाता हैं। मैं आपसे एक बात पूछता हूँ—क्या अन्तरिक्ष या स्वर्गलोकमें मुझे प्राप्त होनेवाले पुण्यलोक भी हैं? यदि हों तो (उनके प्रभावसे) आप नीचे न गिरें, आपका पतन न हो॥९॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् पृथिव्यां विहितं गवाश्वं
सहारण्यैः पशुभिः पार्वतैश्च ।
तावल्लोका दिवि ते संस्थिता वै
तथा विजानीहि नरेन्द्रसिंह ॥ १० ॥

मूलम्

यावत् पृथिव्यां विहितं गवाश्वं
सहारण्यैः पशुभिः पार्वतैश्च ।
तावल्लोका दिवि ते संस्थिता वै
तथा विजानीहि नरेन्द्रसिंह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— नरेन्द्रसिंह! इस पृथ्वीपर जंगली और पर्वतीय पशुओंके साथ जितने गाय, घोड़े आदि पशु रहते हैं, स्वर्गमें तुम्हारे लिये उतने ही लोक विद्यमान हैं। तुम इसे निश्चय जानो॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपातं
ये मे लोका दिवि राजेन्द्र सन्ति।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता-
स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः ॥ ११ ॥

मूलम्

तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपातं
ये मे लोका दिवि राजेन्द्र सन्ति।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता-
स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टक बोले— राजेन्द्र! स्वर्गमें मेरे लिये जो लोक विद्यमान हैं, वे सब आपको देता हूँ; परंतु आपका पतन न हो। अन्तरिक्ष या द्युलोकमें मेरे लिये जो स्थान हैं, उनमें आप शीघ्र ही मोहरहित होकर चले जायँ॥११॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्मद्विधो ब्राह्मणो ब्रह्मविच्च
प्रतिग्रहे वर्तते राजमुख्य ।
यथा प्रदेयं सततं द्विजेभ्य-
स्तथाददं पूर्वमहं नरेन्द्र ॥ १२ ॥

मूलम्

नास्मद्विधो ब्राह्मणो ब्रह्मविच्च
प्रतिग्रहे वर्तते राजमुख्य ।
यथा प्रदेयं सततं द्विजेभ्य-
स्तथाददं पूर्वमहं नरेन्द्र ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण ही प्रतिग्रह लेता है। मेरे-जैसा क्षत्रिय कदापि नहीं। नरेन्द्र! जैसे दान करना चाहिये, उस विधिसे पहले मैंने भी सदा उत्तम ब्राह्मणोंको बहुत दान दिये हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाब्राह्मणः कृपणो जातु जीवेद्
याच्ञापि स्याद् ब्राह्मणी वीरपत्नी।
सोऽहं नैवाकृतपूर्वं चरेयं
विधित्समानः किमु तत्र साधु ॥ १३ ॥

मूलम्

नाब्राह्मणः कृपणो जातु जीवेद्
याच्ञापि स्याद् ब्राह्मणी वीरपत्नी।
सोऽहं नैवाकृतपूर्वं चरेयं
विधित्समानः किमु तत्र साधु ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण नहीं है, उसे दीन याचक बनकर कभी जीवन नहीं बिताना चाहिये। याचना तो विद्यासे दिग्विजय करनेवाले विद्वान् ब्राह्मणकी पत्नी है अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणको ही याचना करनेका अधिकार है। मुझे उत्तम सत्कर्म करनेकी इच्छा है; अतः ऐसा कोई कार्य कैसे कर सकता हूँ, जो पहले कभी नहीं किया हो॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

प्रतर्दन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृच्छामि त्वां स्पृहणीयरूप
प्रतर्दनोऽहं यदि मे सन्ति लोकाः।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः
क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ १४ ॥

मूलम्

पृच्छामि त्वां स्पृहणीयरूप
प्रतर्दनोऽहं यदि मे सन्ति लोकाः।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः
क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतर्दन बोले— वांछनीय रूपवाले श्रेष्ठ पुरुष! मैं प्रतर्दन हूँ और आपसे पूछता हूँ, यदि अन्तरिक्ष अथवा स्वर्गमें मेरे भी लोक हों तो बताइये। मैं आपको पारलौकिक धर्मका ज्ञाता मानता हूँ॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ति लोका बहवस्ते नरेन्द्र
अप्येकैकः सप्तसप्ताप्यहानि ।
मधुच्युतो घृतपृक्ता विशोका-
स्ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति ॥ १५ ॥

मूलम्

सन्ति लोका बहवस्ते नरेन्द्र
अप्येकैकः सप्तसप्ताप्यहानि ।
मधुच्युतो घृतपृक्ता विशोका-
स्ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— नरेन्द्र! आपके तो बहुत लोक हैं, यदि एक-एक लोकमें सात-सात दिन रहा जाय तो भी उनका अन्त नहीं है। वे सब-के-सब अमृतके झरने बहाते हैं एवं घृत (तेज)-से युक्त हैं। उनमें शोकका सर्वथा अभाव है। वे सभी लोक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

प्रतर्दन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्ते ददानि मा प्रपत प्रपातं
ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता-
स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः ॥ १६ ॥

मूलम्

तांस्ते ददानि मा प्रपत प्रपातं
ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता-
स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतर्दन बोले— महाराज! वे सभी लोक मैं आपको देता हूँ, आप नीचे न गिरें। जो मेरे लोक हैं वे सब आपके हो जायँ। वे अन्तरिक्षमें हों या स्वर्गमें, आप शीघ्र मोहरहित होकर उनमें चले जाइये॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तुल्यतेजाः सुकृतं कामयेत
योगक्षेमं पार्थिव पार्थिवः सन्।
दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वां-
श्चरेन्नृशंसं न हि जातु राजा ॥ १७ ॥

मूलम्

न तुल्यतेजाः सुकृतं कामयेत
योगक्षेमं पार्थिव पार्थिवः सन्।
दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वां-
श्चरेन्नृशंसं न हि जातु राजा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— राजन्! कोई भी राजा समान तेजस्वी होकर दूसरेसे पुण्य तथा योग-क्षेमकी इच्छा न करे। विद्वान् राजा दैववश भारी आपत्तिमें पड़ जानेपर भी कोई पापमय कार्य न करे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म्यं मार्गं यतमानो यशस्यं
कुर्यान्नृपो धर्ममवेक्षमाणः ।
न मद्विधो धर्मबुद्धिः प्रजानन्
कुर्यादेवं कृपणं मां यथाऽऽत्थ ॥ १८ ॥

मूलम्

धर्म्यं मार्गं यतमानो यशस्यं
कुर्यान्नृपो धर्ममवेक्षमाणः ।
न मद्विधो धर्मबुद्धिः प्रजानन्
कुर्यादेवं कृपणं मां यथाऽऽत्थ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपर दृष्टि रखनेवाले राजाको उचित है कि वह प्रयत्नपूर्वक धर्म और यशके मार्गपर ही चले। जिसकी बुद्धि धर्ममें लगी हो उस मेरे-जैसे मनुष्यको जान-बूझकर ऐसा दीनतापूर्ण कार्य नहीं करना चाहिये, जिसके लिये आप मुझसे कह रहे हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्यादपूर्वं न कृतं यदन्यै-
र्विधित्समानः किमु तत्र साधु।
(धर्माधर्मौ सुविनिश्चित्य सम्यक्
कार्याकार्येष्वप्रमत्तश्चरेद् यः ।
स वै धीमान् सत्यसन्धः कृतात्मा
राजा भवेल्लोकपालो महिम्ना ॥
यदा भवेत् संशयो धर्मकार्ये
कामार्थे वा यत्र विन्दन्ति सम्यक्।
कार्यं तत्र प्रथमं धर्मकार्यं
न तौ कुर्यादर्थकामौ स धर्मः॥)
ब्रुवाणमेनं नृपतिं ययातिं
नृपोत्तमो वसुमानब्रवीत् तम् ॥ १९ ॥

मूलम्

कुर्यादपूर्वं न कृतं यदन्यै-
र्विधित्समानः किमु तत्र साधु।
(धर्माधर्मौ सुविनिश्चित्य सम्यक्
कार्याकार्येष्वप्रमत्तश्चरेद् यः ।
स वै धीमान् सत्यसन्धः कृतात्मा
राजा भवेल्लोकपालो महिम्ना ॥
यदा भवेत् संशयो धर्मकार्ये
कामार्थे वा यत्र विन्दन्ति सम्यक्।
कार्यं तत्र प्रथमं धर्मकार्यं
न तौ कुर्यादर्थकामौ स धर्मः॥)
ब्रुवाणमेनं नृपतिं ययातिं
नृपोत्तमो वसुमानब्रवीत् तम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शुभ कर्म करनेकी इच्छा रखता है, वह ऐसा काम नहीं कर सकता, जिसे अन्य राजाओंने नहीं किया हो। जो धर्म और अधर्मका भलीभाँति निश्चय करके कर्तव्य और अकर्तव्यके विषयमें सावधान होकर विचरता है, वही राजा बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ और मनस्वी है। वह अपनी महिमासे लोकपाल होता है। जब धर्मकार्यमें संशय हो अथवा जहाँ न्यायतः काम और अर्थ दोनों आकर प्राप्त हों, वहाँ पहले धर्मकार्यका ही सम्पादन करना चाहिये, अर्थ और कामका नहीं। यही धर्म है। इस प्रकारकी बातें कहनेवाले राजा ययातिसे नृपश्रेष्ठ वसुमान् बोले॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं)