श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन् गृहस्थः कथमेति धर्मान्
कथं भिक्षुः कथमाचार्यकर्मा ।
वानप्रस्थः सत्पथे संनिविष्टो
बहून्यस्मिन् सम्प्रति वेदयन्ति ॥ १ ॥
मूलम्
चरन् गृहस्थः कथमेति धर्मान्
कथं भिक्षुः कथमाचार्यकर्मा ।
वानप्रस्थः सत्पथे संनिविष्टो
बहून्यस्मिन् सम्प्रति वेदयन्ति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— महाराज! वेदज्ञ विद्वान् इस धर्मके अन्तर्गत बहुत-से कर्मोंको उत्तम लोकोंकी प्राप्तिका द्वार बताते हैं; अतः मैं पूछता हूँ, आचार्यकी सेवा करनेवाला ब्रह्मचारी, गृहस्थ, सन्मार्गमें स्थित वानप्रस्थ और संन्यासी किस प्रकार धर्माचरण करके उत्तम लोकमें जाता है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वचोद्यः
पूर्वोत्थायी चरमं चोपशायी ।
मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः
स्वाध्यायशीलः सिध्यति ब्रह्मचारी ॥ २ ॥
मूलम्
आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वचोद्यः
पूर्वोत्थायी चरमं चोपशायी ।
मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः
स्वाध्यायशीलः सिध्यति ब्रह्मचारी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— शिष्यको उचित है कि गुरुके बुलानेपर उसके समीप जाकर पढ़े। गुरुकी सेवामें बिना कहे लगा रहे, रातमें गुरुजीके सो जानेके बाद सोये और सबेरे उनसे पहले ही उठ जाय। वह मृदुल (विनम्र), जितेन्द्रिय, धैर्यवान्, सावधान और स्वाध्यायशील हो। इस नियमसे रहनेवाला ब्रह्मचारी सिद्धिको पाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मागतं प्राप्य धनं यजेत
दद्यात् सदैवातिथीन् भोजयेच्च ।
अनाददानश्च परैरदत्तं
सैषा गृहस्थोपनिषत् पुराणी ॥ ३ ॥
मूलम्
धर्मागतं प्राप्य धनं यजेत
दद्यात् सदैवातिथीन् भोजयेच्च ।
अनाददानश्च परैरदत्तं
सैषा गृहस्थोपनिषत् पुराणी ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ पुरुष न्यायसे प्राप्त हुए धनको पाकर उससे यज्ञ करे, दान दे और सदा अतिथियोंको भोजन करावे। दूसरोंकी वस्तु उनके दिये बिना ग्रहण नहीं करे। यह गृहस्थ-धर्मका प्राचीन एवं रहस्यमय स्वरूप है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्ववीर्यजीवी वृजिनान्निवृत्तो
दाता परेभ्यो न परोपतापी।
तादृङ्मुनिः सिद्धिमुपैति मुख्यां
वसन्नरण्ये नियताहारचेष्टः ॥४ ॥
मूलम्
स्ववीर्यजीवी वृजिनान्निवृत्तो
दाता परेभ्यो न परोपतापी।
तादृङ्मुनिः सिद्धिमुपैति मुख्यां
वसन्नरण्ये नियताहारचेष्टः ॥४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानप्रस्थ मुनि वनमें निवास करे। आहार और विहारको नियमित रखे। अपने ही पराक्रम एवं परिश्रमसे जीवन-निर्वाह करे, पापसे दूर रहे। दूसरोंको दान दे और किसीको कष्ट न पहुँचावे। ऐसा मुनि परम मोक्षको प्राप्त होता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशिल्पजीवी गुणवांश्चैव नित्यं
जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रयुक्तः ।
अनोकशायी लघुरल्पप्रचार-
श्चरन् देशानेकचरः स भिक्षुः ॥ ५ ॥
मूलम्
अशिल्पजीवी गुणवांश्चैव नित्यं
जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रयुक्तः ।
अनोकशायी लघुरल्पप्रचार-
श्चरन् देशानेकचरः स भिक्षुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी शिल्पकलासे जीवन-निर्वाह न करे। शम, दम आदि श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो। सदा अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखे। सबसे अलग रहे। गृहस्थके घरमें न सोये। परिग्रहका भार न लेकर अपनेको हलका रखे। थोड़ा थोड़ा चले। अकेला ही अनेक स्थानोंमें भ्रमण करता रहे। ऐसा संन्यासी ही वास्तवमें भिक्षु कहलानेयोग्य है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रात्र्या यया वाभिजिताश्च लोका
भवन्ति कामाभिजिताः सुखाश्च ।
तामेव रात्रिं प्रयतेत विद्वा-
नरण्यसंस्थो भवितुं यतात्मा ॥ ६ ॥
मूलम्
रात्र्या यया वाभिजिताश्च लोका
भवन्ति कामाभिजिताः सुखाश्च ।
तामेव रात्रिं प्रयतेत विद्वा-
नरण्यसंस्थो भवितुं यतात्मा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय रूप, रस आदि विषय तुच्छ प्रतीत होने लगें, इच्छानुसार जीत लिये जायँ तथा उनके परित्यागमें ही सुख जान पड़े, उसी समय विद्वान् पुरुष मनको वशमें करके समस्त संग्रहोंका त्याग कर वनवासी होनेका प्रयत्न करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशैव पूर्वान् दश चापरांश्च
ज्ञातीनथात्मानमथैकविंशम् ।
अरण्यवासी सुकृते दधाति
विमुच्यारण्ये स्वशरीरधातून् ॥ ७ ॥
मूलम्
दशैव पूर्वान् दश चापरांश्च
ज्ञातीनथात्मानमथैकविंशम् ।
अरण्यवासी सुकृते दधाति
विमुच्यारण्ये स्वशरीरधातून् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वनवासी मुनि वनमें ही अपने पंचभूतात्मक शरीरका परित्याग करता है, वह दस पीढ़ी पूर्वके और दस पीढ़ी बादके जाति-भाइयोंको तथा इक्कीसवें अपनेको भी पुण्यलोकोंमें पहुँचा देता है॥७॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कतिस्विदेव मुनयः कति मौनानि चाप्युत।
भवन्तीति तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
कतिस्विदेव मुनयः कति मौनानि चाप्युत।
भवन्तीति तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— राजन्! मुनि कितने हैं? और मौन कितने प्रकारके हैं? यह बताइये, हम इसे सुनना चाहते हैं॥८॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरण्ये वसतो यस्य ग्रामो भवति पृष्ठतः।
ग्रामे वा वसतोऽरण्यं स मुनिः स्याज्जनाधिप ॥ ९ ॥
मूलम्
अरण्ये वसतो यस्य ग्रामो भवति पृष्ठतः।
ग्रामे वा वसतोऽरण्यं स मुनिः स्याज्जनाधिप ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिने कहा— जनेश्वर! अरण्यमें निवास करते समय जिसके लिये ग्राम पीछे होता है और ग्राममें वास करते समय जिसके लिये अरण्य पीछे होता है, वह मुनि कहलाता है॥९॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथंस्विद् वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः।
ग्रामे वा वसतोऽरण्यं कथं भवति पृष्ठतः ॥ १० ॥
मूलम्
कथंस्विद् वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः।
ग्रामे वा वसतोऽरण्यं कथं भवति पृष्ठतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— अरण्यमें निवास करनेवालेके लिये ग्राम और ग्राममें निवास करनेवालेके लिये अरण्य पीछे कैसे है?॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ग्राम्यमुपयुञ्जीत य आरण्यो मुनिर्भवेत्।
तथास्य वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः ॥ ११ ॥
मूलम्
न ग्राम्यमुपयुञ्जीत य आरण्यो मुनिर्भवेत्।
तथास्य वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिने कहा— जो मुनि वनमें निवास करता है और गाँवोंमें प्राप्त होनेवाली वस्तुओंका उपयोग नहीं करता, इस प्रकार वनमें निवास करनेवाले उस (वानप्रस्थ) मुनिके लिये गाँव पीछे समझा जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनग्निरनिकेतश्चाप्यगोत्रचरणो मुनिः ।
कौपीनाच्छादनं यावत् तावदिच्छेच्च चीवरम् ॥ १२ ॥
यावत् प्राणाभिसंधानं तावदिच्छेच्च भोजनम्।
तथास्य वसतो ग्रामेऽरण्यं भवति पृष्ठतः ॥ १३ ॥
मूलम्
अनग्निरनिकेतश्चाप्यगोत्रचरणो मुनिः ।
कौपीनाच्छादनं यावत् तावदिच्छेच्च चीवरम् ॥ १२ ॥
यावत् प्राणाभिसंधानं तावदिच्छेच्च भोजनम्।
तथास्य वसतो ग्रामेऽरण्यं भवति पृष्ठतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अग्नि और गृहको त्याग चुका है, जिसका गोत्र और चरण (वेदकी शाखा एवं जाति)-से भी सम्बन्ध नहीं रह गया है, जो मौन रहता है और उतने ही वस्त्रकी इच्छा रखता है जितनेसे लंगोटी और ओढ़नेका काम चल जाय; इसी प्रकार जितनेसे प्राणोंकी रक्षा हो सके उतना ही भोजन चाहता है; इस नियमसे गाँवमें निवास करनेवाले उस (संन्यासी) मुनिके लिये अरण्य पीछे समझा जाता है॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु कामान् परित्यज्य त्यक्तकर्मा जितेन्द्रियः।
आतिष्ठेच्च मुनिर्मैनं स लोके सिद्धिमाप्नुयात् ॥ १४ ॥
मूलम्
यस्तु कामान् परित्यज्य त्यक्तकर्मा जितेन्द्रियः।
आतिष्ठेच्च मुनिर्मैनं स लोके सिद्धिमाप्नुयात् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मुनि सम्पूर्ण कामनाओंको छोड़कर कर्मोंको त्याग चुका है और इन्द्रिय-संयमपूर्वक सदा मौनमें स्थित है, ऐसा संन्यासी लोकमें परम सिद्धिको प्राप्त होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धौतदन्तं कृत्तनखं सदा स्नातमलंकृतम्।
असितं सितकर्माणं कस्तमर्हति नार्चितुम् ॥ १५ ॥
मूलम्
धौतदन्तं कृत्तनखं सदा स्नातमलंकृतम्।
असितं सितकर्माणं कस्तमर्हति नार्चितुम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके दाँत शुद्ध और साफ हैं, जिसके नख (और केश) कटे हुए हैं, जो सदा स्नान करता है तथा यम-नियमादिसे अलंकृत (है, उन्हें धारण किये हुए) है, शीतोष्णको सहनेसे जिसका शरीर श्याम पड़ गया है, जिसके आचरण उत्तम हैं—ऐसा संन्यासी किसके लिये पूजनीय नहीं है?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा कर्शितः क्षामः क्षीणमांसास्थिशोणितः।
स च लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम् ॥ १६ ॥
मूलम्
तपसा कर्शितः क्षामः क्षीणमांसास्थिशोणितः।
स च लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्यासे मांस, हड्डी तथा रक्तके क्षीण हो जानेपर जिसका शरीर कृश और दुर्बल हो गया है, वह (वानप्रस्थ) मुनि इस लोकको जीतकर परलोकपर भी विजय पाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा भवति निर्द्वन्द्वो मुनिर्मौनं समास्थितः।
अथ लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम् ॥ १७ ॥
मूलम्
यदा भवति निर्द्वन्द्वो मुनिर्मौनं समास्थितः।
अथ लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब (वानप्रस्थ) मुनि सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित एवं भलीभाँति मौनावलम्बी हो जाता है, तब वह इस लोकको जीतकर परलोकपर भी विजय पाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्येन तु यदाहारं गोवन्मृगयते मुनिः।
अथास्य लोकः सर्वोऽयं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १८ ॥
मूलम्
आस्येन तु यदाहारं गोवन्मृगयते मुनिः।
अथास्य लोकः सर्वोऽयं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब संन्यासी मुनि गाय-बैलोंकी तरह मुखसे ही आहार ग्रहण करता है, हाथ आदिका भी सहारा नहीं लेता, तब उसके द्वारा ये सब लोक जीत लिये गये समझे जाते हैं और वह मोक्षकी प्राप्तिके लिये समर्थ समझा जाता है॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते एकनवतितमोऽध्यायः ॥ ९१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९१॥