श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
नवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अष्टक और ययातिका संवाद
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदावसो नन्दने कामरूपी
संवत्सराणामयुतं शतानाम् ।
किं कारणं कार्तयुगप्रधान
हित्वा च त्वं वसुधामन्वपद्यः ॥ १ ॥
मूलम्
यदावसो नन्दने कामरूपी
संवत्सराणामयुतं शतानाम् ।
किं कारणं कार्तयुगप्रधान
हित्वा च त्वं वसुधामन्वपद्यः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— सत्ययुगके निष्पाप राजाओंमें प्रधान नरेश! जब आप इच्छानुसार रूप धारण करके दस लाख वर्षोंतक नन्दनवनमें निवास कर चुके हैं, तब क्या कारण है कि आप उसे छोड़कर भूतलपर चले आये?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातिः सुहृत् स्वजनो वा यथेह
क्षीणे वित्ते त्यज्यते मानवैर्हि।
तथा तत्र क्षीणपुण्यं मनुष्यं
त्यजन्ति सद्यः सेश्वरा देवसङ्घाः ॥ २ ॥
मूलम्
ज्ञातिः सुहृत् स्वजनो वा यथेह
क्षीणे वित्ते त्यज्यते मानवैर्हि।
तथा तत्र क्षीणपुण्यं मनुष्यं
त्यजन्ति सद्यः सेश्वरा देवसङ्घाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— जैसे इस लोकमें जाति-भाई, सुहृद् अथवा स्वजन कोई भी क्यों न हो, धन नष्ट हो जानेपर उसे सब मनुष्य त्याग देते हैं; उसी प्रकार परलोकमें जिसका पुण्य समाप्त हो गया है, उस मनुष्यको देवराज इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता तुरंत त्याग देते हैं॥२॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् कथं क्षीणपुण्या भवन्ति
सम्मुह्यते मेऽत्र मनोऽतिमात्रम् ।
किं वा विशिष्टाः कस्य धामोपयान्ति
तद् वै ब्रूहि क्षेत्रवित् त्वं मतो मे ॥ ३ ॥
मूलम्
तस्मिन् कथं क्षीणपुण्या भवन्ति
सम्मुह्यते मेऽत्र मनोऽतिमात्रम् ।
किं वा विशिष्टाः कस्य धामोपयान्ति
तद् वै ब्रूहि क्षेत्रवित् त्वं मतो मे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— देवलोकमें मनुष्योंके पुण्य कैसे क्षीण होते हैं? इस विषयमें मेरा मन अत्यन्त मोहित हो रहा है। प्रजापतिका वह कौन-सा धाम है, जिसमें विशिष्ट (अपुनरावृत्तिकी योग्यतावाले) पुरुष जाते हैं? यह बताइये; क्योंकि आप मुझे क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) जान पड़ते हैं॥३॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं भौमं नरकं ते पतन्ति
लालप्यमाना नरदेव सर्वे ।
मूलम्
इमं भौमं नरकं ते पतन्ति
लालप्यमाना नरदेव सर्वे ।
Misc Detail
ते कङ्कगोमायुबलाशनार्थे 1
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणा विवृद्धिं बहुधा व्रजन्ति ॥ ४ ॥
मूलम्
क्षीणा विवृद्धिं बहुधा व्रजन्ति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— नरदेव! जो अपने मुखसे अपने पुण्य-कर्मोंका बखान करते हैं, वे सभी इस भौम नरकमें आ गिरते हैं। यहाँ वे गीधों, गीदड़ों और कौओं आदिके खानेयोग्य इस शरीरके लिये बड़ा भारी परिश्रम करके क्षीण होते और पुत्र-पौत्रादिरूपसे बहुधा विस्तारको प्राप्त होते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादेतद् वर्जनीयं नरेन्द्र
दुष्टं लोके गर्हणीयं च कर्म।
आख्यातं ते पार्थिव सर्वमेव
भूयश्चेदानीं वद किं ते वदामि ॥ ५ ॥
मूलम्
तस्मादेतद् वर्जनीयं नरेन्द्र
दुष्टं लोके गर्हणीयं च कर्म।
आख्यातं ते पार्थिव सर्वमेव
भूयश्चेदानीं वद किं ते वदामि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये नरेन्द्र! इस लोकमें जो दुष्ट और निन्दनीय कर्म हो उसको सर्वथा त्याग देना चाहिये। भूपाल! मैंने तुमसे सब कुछ कह दिया, बोलो, अब और तुम्हें क्या बताऊँ?॥५॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु तान् वितुदन्ते वयांसि
तथा गृध्राः शितिकण्ठाः पतङ्गाः।
कथं भवन्ति कथमाभवन्ति
न भौममन्यं नरकं शृणोमि ॥ ६ ॥
मूलम्
यदा तु तान् वितुदन्ते वयांसि
तथा गृध्राः शितिकण्ठाः पतङ्गाः।
कथं भवन्ति कथमाभवन्ति
न भौममन्यं नरकं शृणोमि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— जब मनुष्योंको मृत्युके पश्चात् पक्षी, गीध, नीलकण्ठ और पतंग ये नोच-नोचकर खा लेते हैं, तब वे कैसे और किस रूपमें उत्पन्न होते हैं? मैंने अबतक भौम नामक किसी दूसरे नरकका नाम नहीं सुना था॥६॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वं देहात् कर्मणा जृम्भमाणाद्
व्यक्तं पृथिव्यामनुसंचरन्ति ।
इमं भौमं नरकं ते पतन्ति
नावेक्षन्ते वर्षपूगाननेकान् ॥ ७ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वं देहात् कर्मणा जृम्भमाणाद्
व्यक्तं पृथिव्यामनुसंचरन्ति ।
इमं भौमं नरकं ते पतन्ति
नावेक्षन्ते वर्षपूगाननेकान् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— कर्मसे उत्पन्न होने और बढ़नेवाले शरीरको पाकर गर्भसे निकलनेके पश्चात् जीव सबके समक्ष इस पृथ्वीपर (विषयोंमें) विचरते हैं। उनका यह विचरण ही भौम नरक कहा गया है। इसीमें वे पड़ते हैं। इसमें पड़नेपर वे व्यर्थ बीतनेवाले अनेक वर्षसमूहोंकी ओर दृष्टिपात नहीं करते॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षष्टिं सहस्राणि पतन्ति व्योम्नि
तथा अशीतिं परिवत्सराणि ।
तान् वै तुदन्ति पततः प्रपातं
भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्ट्राः ॥ ८ ॥
मूलम्
षष्टिं सहस्राणि पतन्ति व्योम्नि
तथा अशीतिं परिवत्सराणि ।
तान् वै तुदन्ति पततः प्रपातं
भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्ट्राः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही प्राणी आकाश (स्वर्गादि)-में साठ हजार वर्ष रहते हैं। कुछ अस्सी हजार वर्षोंतक वहाँ निवास करते हैं। इसके बाद वे भूमिपर गिरते हैं। यहाँ उन गिरनेवाले जीवोंको तीखी दाढ़ोंवाले पृथ्वीके भयानक राक्षस (दुष्ट प्राणी) अत्यन्त पीड़ा देते हैं॥८॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेनसस्ते पततस्तुदन्ति
भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्ट्राः ।
कथं भवन्ति कथमाभवन्ति
कथंभूता गर्भभूता भवन्ति ॥ ९ ॥
मूलम्
यदेनसस्ते पततस्तुदन्ति
भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्ट्राः ।
कथं भवन्ति कथमाभवन्ति
कथंभूता गर्भभूता भवन्ति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— तीखी दाढ़ोंवाले पृथ्वीके वे भयंकर राक्षस पापवश आकाशसे गिरते हुए जिन जीवोंको सताते हैं, वे गिरकर कैसे जीवित रहते हैं? किस प्रकार इन्द्रिय आदिसे युक्त होते हैं? और कैसे गर्भमें आते हैं?॥९॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्रं रेतः पुष्पफलानुपृक्त-
मन्वेति तद् वै पुरुषेण सृष्टम्।
स वै तस्या रज आपद्यते वै
स गर्भभूतः समुपैति तत्र ॥ १० ॥
मूलम्
अस्रं रेतः पुष्पफलानुपृक्त-
मन्वेति तद् वै पुरुषेण सृष्टम्।
स वै तस्या रज आपद्यते वै
स गर्भभूतः समुपैति तत्र ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— अन्तरिक्षसे गिरा हुआ प्राणी अस्र (जल) होता है। फिर वही क्रमशः नूतन शरीरका बीजभूत वीर्य बन जाता है। वह वीर्य फूल और फलरूपी शेष कर्मोंसे संयुक्त होकर तदनुरूप योनिका अनुसरण करता है। गर्भाधान करनेवाले पुरुषके द्वारा स्त्रीसंसर्ग होनेपर वह वीर्यमें आविष्ट हुआ जीव उस स्त्रीके रजसे मिल जाता है। तदनन्तर वही गर्भरूपमें परिणत हो जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनस्पतीनोषधीश्चाविशन्ति
अपो वायुं पृथिवीं चान्तरिक्षम्।
चतुष्पदं द्विपदं चापि सर्व-
मेवम्भूता गर्भभूता भवन्ति ॥ ११ ॥
मूलम्
वनस्पतीनोषधीश्चाविशन्ति
अपो वायुं पृथिवीं चान्तरिक्षम्।
चतुष्पदं द्विपदं चापि सर्व-
मेवम्भूता गर्भभूता भवन्ति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव जलरूपसे गिरकर वनस्पतियों और ओषधियोंमें प्रवेश करते हैं। जल, वायु, पृथ्वी और अन्तरिक्ष आदिमें प्रवेश करते हुए कर्मानुसार पशु अथवा मनुष्य सब कुछ होते हैं। इस प्रकार भूमिपर आकर फिर पूर्वोक्त क्रमके अनुसार गर्भभावको प्राप्त होते हैं॥११॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यद् वपुर्विदधातीह गर्भ-
मुताहोस्वित् स्वेन कायेन याति।
आपद्यमानो नरयोनिमेता-
माचक्ष्व मे संशयात् प्रब्रवीमि ॥ १२ ॥
मूलम्
अन्यद् वपुर्विदधातीह गर्भ-
मुताहोस्वित् स्वेन कायेन याति।
आपद्यमानो नरयोनिमेता-
माचक्ष्व मे संशयात् प्रब्रवीमि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— राजन्! इस मनुष्ययोनिमें आनेवाला जीव अपने इसी शरीरसे गर्भमें आता है या दूसरा शरीर धारण करता है। आप यह रहस्य मुझे बताइये। मैं संशय होनेके कारण पूछता हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरभेदाभिसमुच्छ्रयं च
चक्षुःश्रोत्रे लभते केन संज्ञाम्।
एतत् तत्त्वं सर्वमाचक्ष्व पृष्टः
क्षेत्रज्ञं त्वां तात मन्याम सर्वे ॥ १३ ॥
मूलम्
शरीरभेदाभिसमुच्छ्रयं च
चक्षुःश्रोत्रे लभते केन संज्ञाम्।
एतत् तत्त्वं सर्वमाचक्ष्व पृष्टः
क्षेत्रज्ञं त्वां तात मन्याम सर्वे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गर्भमें आनेपर वह भिन्न-भिन्न शरीररूपी आश्रयको, आँख और कान आदि इन्द्रियोंको तथा चेतनाको भी कैसे उपलब्ध करता है? मेरे पूछनेपर ये सब बातें आप बताइये। तात! हम सब लोग आपको क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) मानते हैं॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुः समुत्कर्षति गर्भयोनि-
मृतौ रेतः पुष्परसानुपृक्तम् ।
स तत्र तन्मात्रकृताधिकारः
क्रमेण संवर्धयतीह गर्भम् ॥ १४ ॥
मूलम्
वायुः समुत्कर्षति गर्भयोनि-
मृतौ रेतः पुष्परसानुपृक्तम् ।
स तत्र तन्मात्रकृताधिकारः
क्रमेण संवर्धयतीह गर्भम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— ऋतुकालमें पुष्परससे संयुक्त वीर्यको वायु गर्भाशयमें खींच लाता है। वहाँ गर्भाशयमें सूक्ष्मभूत उसपर अधिकार कर लेते हैं और वह क्रमशः गर्भकी वृद्धि करता रहता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स जायमानो विगृहीतमात्रः
संज्ञामधिष्ठाय ततो मनुष्यः ।
स श्रोत्राभ्यां वेदयतीह शब्दं
स वै रूपं पश्यति चक्षुषा च ॥ १५ ॥
मूलम्
स जायमानो विगृहीतमात्रः
संज्ञामधिष्ठाय ततो मनुष्यः ।
स श्रोत्राभ्यां वेदयतीह शब्दं
स वै रूपं पश्यति चक्षुषा च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह गर्भ बढ़कर जब सम्पूर्ण अवयवोंसे सम्पन्न हो जाता है, तब चेतनताका आश्रय ले योनिसे बाहर निकलकर मनुष्य कहलाता है। वह कानोंसे शब्द सुनता है, आँखोंसे रूप देखता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घ्राणेन गन्धं जिह्वयाथो रसं च
त्वचा स्पर्शं मनसा वेद भावम्।
इत्यष्टकेहोपहितं हि विद्धि
महात्मनां प्राणभृतां शरीरे ॥ १६ ॥
मूलम्
घ्राणेन गन्धं जिह्वयाथो रसं च
त्वचा स्पर्शं मनसा वेद भावम्।
इत्यष्टकेहोपहितं हि विद्धि
महात्मनां प्राणभृतां शरीरे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नासिकासे सुगन्ध लेता है। जिह्वासे रसका आस्वादन करता है। त्वचासे स्पर्श और मनसे आन्तरिक भावोंका अनुभव करता है। अष्टक! इस प्रकार महात्मा प्राणधारियोंके शरीरमें जीवकी स्थापना होती है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः संस्थितः पुरुषो दह्यते वा
निखन्यते वापि निकृष्यते वा।
अभावभूतः स विनाशमेत्य
केनात्मना चेतयते परस्तात् ॥ १७ ॥
मूलम्
यः संस्थितः पुरुषो दह्यते वा
निखन्यते वापि निकृष्यते वा।
अभावभूतः स विनाशमेत्य
केनात्मना चेतयते परस्तात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— जो मनुष्य मर जाता है, वह जलाया जाता है या गाड़ दिया जाता है अथवा जलमें बहा दिया जाता है। इस प्रकार विनाश होकर स्थूल शरीरका अभाव हो जाता है। फिर वह चेतन जीवात्मा किस शरीरके आधारपर रहकर चैतन्ययुक्त व्यवहार करता है?॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हित्वा सोऽसून् सुप्तवन्निष्टनित्वा
पुरोधाय सुकृतं दुष्कृतं वा।
अन्यां योनिं पवनाग्रानुसारी
हित्वा देहं भजते राजसिंह ॥ १८ ॥
मूलम्
हित्वा सोऽसून् सुप्तवन्निष्टनित्वा
पुरोधाय सुकृतं दुष्कृतं वा।
अन्यां योनिं पवनाग्रानुसारी
हित्वा देहं भजते राजसिंह ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— राजसिंह! जैसे मनुष्य श्वास लेते हुए प्राणयुक्त स्थूल शरीरको छोड़कर स्वप्नमें विचरण करता है, वैसे ही यह चेतन जीवात्मा अस्फुट शब्दोच्चारणके साथ इस मृतक स्थूल शरीरको त्यागकर सूक्ष्म शरीरसे संयुक्त होता है और फिर पुण्य अथवा पापको आगे रखकर वायुके समान वेगसे चलता हुआ अन्य योनिको प्राप्त होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यां योनिं पुण्यकृतो व्रजन्ति
पापां योनिं पापकृतो व्रजन्ति।
कीटाः पतङ्गाश्च भवन्ति पापा
न मे विवक्षास्ति महानुभाव ॥ १९ ॥
चतुष्पदा द्विपदाः षट्पदाश्च
तथाभूता गर्भभूता भवन्ति ।
आख्यातमेतन्निखिलेन सर्वं
भूयस्तु किं पृच्छसि राजसिंह ॥ २० ॥
मूलम्
पुण्यां योनिं पुण्यकृतो व्रजन्ति
पापां योनिं पापकृतो व्रजन्ति।
कीटाः पतङ्गाश्च भवन्ति पापा
न मे विवक्षास्ति महानुभाव ॥ १९ ॥
चतुष्पदा द्विपदाः षट्पदाश्च
तथाभूता गर्भभूता भवन्ति ।
आख्यातमेतन्निखिलेन सर्वं
भूयस्तु किं पृच्छसि राजसिंह ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्य करनेवाले मनुष्य पुण्य-योनियोंमें जाते हैं और पाप करनेवाले मनुष्य पाप-योनिमें जाते हैं। इस प्रकार पापी जीव कीट-पतंग आदि होते हैं। महानुभाव! इन सब विषयोंको विस्तारके साथ कहनेकी इच्छा नहीं होती। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार जीव गर्भमें आकर चार पैर, छः पैर और दो पैरवाले प्राणियोंके रूपमें उत्पन्न होते हैं। यह सब मैंने पूरा-पूरा बता दिया। अब और क्या पूछना चाहते हो?॥१९-२०॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंस्वित् कृत्वा लभते तात लोकान्
मर्त्यः श्रेष्ठांस्तपसा विद्यया वा।
तन्मे पृष्टः शंस सर्वं यथाव-
च्छुभाल्ँलोकान् येन गच्छेत् क्रमेण ॥ २१ ॥
मूलम्
किंस्वित् कृत्वा लभते तात लोकान्
मर्त्यः श्रेष्ठांस्तपसा विद्यया वा।
तन्मे पृष्टः शंस सर्वं यथाव-
च्छुभाल्ँलोकान् येन गच्छेत् क्रमेण ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टकने पूछा— तात! मनुष्य कौन-सा कर्म करके उत्तम लोक प्राप्त करता है? वे लोक तपसे प्राप्त होते हैं या विद्यासे? मैं यही पूछता हूँ। जिस कर्मके द्वारा क्रमशः श्रेष्ठ लोकोंकी प्राप्ति हो सके, वह सब यथार्थरूपसे बताइये॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपश्च दानं च शमो दमश्च
ह्रीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा ।
स्वर्गस्य लोकस्य वदन्ति सन्तो
द्वाराणि सप्तैव महान्ति पुंसाम्।
नश्यन्ति मानेन तमोऽभिभूताः
पुंसः सदैवेति वदन्ति सन्तः ॥ २२ ॥
मूलम्
तपश्च दानं च शमो दमश्च
ह्रीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा ।
स्वर्गस्य लोकस्य वदन्ति सन्तो
द्वाराणि सप्तैव महान्ति पुंसाम्।
नश्यन्ति मानेन तमोऽभिभूताः
पुंसः सदैवेति वदन्ति सन्तः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— राजन्! साधु पुरुष स्वर्गलोकके सात महान् दरवाजे बतलाते हैं, जिनसे प्राणी उसमें प्रवेश करते हैं। उनके नाम ये हैं—तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और समस्त प्राणियोंके प्रति दया। वे तप आदि द्वार सदा ही पुरुषके अभिमानरूप तमसे आच्छादित होनेपर नष्ट हो जाते हैं, यह संत पुरुषोंका कथन है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीयानः पण्डितं मन्यमानो
यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम्।
तस्यान्तवन्तश्च भवन्ति लोका
न चास्य तद् ब्रह्म फलं ददाति ॥ २३ ॥
मूलम्
अधीयानः पण्डितं मन्यमानो
यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम्।
तस्यान्तवन्तश्च भवन्ति लोका
न चास्य तद् ब्रह्म फलं ददाति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वेदोंका अध्ययन करके अपनेको सबसे बड़ा पण्डित मानता और अपनी विद्याद्वारा दूसरोंके यशका नाश करता है, उसके पुण्यलोक अन्तवान् (विनाशशील) होते हैं और उसका पढ़ा हुआ वेद भी उसे फल नहीं देता॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि
भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं
मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ॥ २४ ॥
मूलम्
चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि
भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं
मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निहोत्र, मौन, अध्ययन और यज्ञ—ये चार कर्म मनुष्यको भयसे मुक्त करनेवाले हैं; परंतु वे ही ठीकसे न किये जायँ, अभिमानपूर्वक उनका अनुष्ठान किया जाय तो वे उलटे भय प्रदान करते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मानमान्यो मुदमाददीत
न संतापं प्राप्नुयाच्चावमानात् ।
सन्तः सतः पूजयन्तीह लोके
नासाधवः साधुबुद्धिं लभन्ते ॥ २५ ॥
मूलम्
न मानमान्यो मुदमाददीत
न संतापं प्राप्नुयाच्चावमानात् ।
सन्तः सतः पूजयन्तीह लोके
नासाधवः साधुबुद्धिं लभन्ते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष सम्मानित होनेपर अधिक आनन्दित न हो और अपमानित होनेपर संतप्त न हो। इस लोकमें संत पुरुष ही सत्पुरुषोंका आदर करते हैं। दुष्ट पुरुषोंको ‘यह सत्पुरुष है’ ऐसी बुद्धि प्राप्त ही नहीं होती॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति दद्यामिति यज इत्यधीय इति व्रतम्।
इत्येतानि भयान्याहुस्तानि वर्ज्यानि सर्वशः ॥ २६ ॥
मूलम्
इति दद्यामिति यज इत्यधीय इति व्रतम्।
इत्येतानि भयान्याहुस्तानि वर्ज्यानि सर्वशः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं यह दे सकता हूँ, इस प्रकार यजन करता हूँ, इस तरह स्वाध्यायमें लगा रहता हूँ और यह मेरा व्रत है; इस प्रकार जो अहंकारपूर्वक वचन हैं, उन्हें भयरूप कहा गया है। ऐसे वचनोंको सर्वथा त्याग देना चाहिये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चाश्रयं वेदयन्ते पुराणं
मनीषिणो मानसमार्गरुद्धम् ।
तद्वः श्रेयस्तेन संयोगमेत्य
परां शान्तिं प्राप्नुयुः प्रेत्य चेह ॥ २७ ॥
मूलम्
ये चाश्रयं वेदयन्ते पुराणं
मनीषिणो मानसमार्गरुद्धम् ।
तद्वः श्रेयस्तेन संयोगमेत्य
परां शान्तिं प्राप्नुयुः प्रेत्य चेह ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सबका आश्रय है, पुराण (कूटस्थ) है तथा जहाँ मनकी गति भी रुक जाती है वह (परब्रह्म परमात्मा) तुम सब लोगोंके लिये कल्याणकारी हो। जो विद्वान् उसे जानते हैं, वे उस परब्रह्म परमात्मासे संयुक्त होकर इहलोक और परलोकमें परम शान्तिको प्राप्त होते हैं॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९०॥
-
‘बल’ शब्दका अर्थ यहाँ कौआ किया गया है; जो ‘स्थौल्यसामर्थ्यसैन्येषु बलं ना काकसीरिणोः’ अमरकोषके इस वाक्यसे समर्थित होता है। ↩︎