०८७ इन्द्र-ययाति-संवादः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्ताशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पूरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गतः स तु राजेन्द्रो निवसन् देववेश्मनि।
पूजितस्त्रिदशैः साध्यैर्मरुद्भिर्वसुभिस्तथा ॥ १ ॥

मूलम्

स्वर्गतः स तु राजेन्द्रो निवसन् देववेश्मनि।
पूजितस्त्रिदशैः साध्यैर्मरुद्भिर्वसुभिस्तथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! स्वर्गलोकमें जाकर महाराज ययाति देवभवनमें निवास करने लगे। वहाँ देवताओं, साध्यगणों, मरुद्‌गणों तथा वसुओंने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवलोकं ब्रह्मलोकं संचरन् पुण्यकृद् वशी।
अवसत् पृथिवीपालो दीर्घकालमिति श्रुतिः ॥ २ ॥

मूलम्

देवलोकं ब्रह्मलोकं संचरन् पुण्यकृद् वशी।
अवसत् पृथिवीपालो दीर्घकालमिति श्रुतिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुना जाता है कि पुण्यात्मा तथा जितेन्द्रिय राजा ययाति देवलोक और ब्रह्मलोकमें भ्रमण करते हुए वहाँ दीर्घकालतक रहे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचिन्नृपश्रेष्ठो ययातिः शक्रमागमत्।
कथान्ते तत्र शक्रेण स पृष्टः पृथिवीपतिः ॥ ३ ॥

मूलम्

स कदाचिन्नृपश्रेष्ठो ययातिः शक्रमागमत्।
कथान्ते तत्र शक्रेण स पृष्टः पृथिवीपतिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन नृपश्रेष्ठ ययाति देवराज इन्द्रके पास आये। दोनोंमें वार्तालाप हुआ और अन्तमें इन्द्रने राजा ययातिसे पूछा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा स पूरुस्तव रूपेण राजन्
जरां गृहीत्वा प्रचचार भूमौ।
तदा च राज्यं सम्प्रदायैव तस्मै
त्वया किमुक्तः कथयेह सत्यम् ॥ ४ ॥

मूलम्

यदा स पूरुस्तव रूपेण राजन्
जरां गृहीत्वा प्रचचार भूमौ।
तदा च राज्यं सम्प्रदायैव तस्मै
त्वया किमुक्तः कथयेह सत्यम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने पूछा— राजन्! जब पूरु तुमसे वृद्धावस्था लेकर तुम्हारे स्वरूपसे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगा, तुम सत्य कहो, उस समय राज्य देकर तुमने उसको क्या आदेश दिया था?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गङ्गायमुनयोर्मध्ये कृत्स्नोऽयं विषयस्तव ।
मध्ये पृथिव्यास्त्वं राजा भ्रातरोऽन्त्याधिपास्तव ॥ ५ ॥

मूलम्

गङ्गायमुनयोर्मध्ये कृत्स्नोऽयं विषयस्तव ।
मध्ये पृथिव्यास्त्वं राजा भ्रातरोऽन्त्याधिपास्तव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— (देवराज! मैंने अपने पुत्र पूरुसे कहा था कि) बेटा! गंगा और यमुनाके बीचका यह सारा प्रदेश तुम्हारे अधिकारमें रहेगा। यह पृथ्वीका मध्य भाग है, इसके तुम राजा होओगे और तुम्हारे भाई सीमान्त देशोंके अधिपति होंगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(न च कुर्यान्नरो दैन्यं शाठ्यं क्रोधं तथैव च।
जैह्म्यं च मत्सरं वैरं सर्वत्रैव न कारयेत्॥
मातरं पितरं चैव विद्वांसं च तपोधनम्।
क्षमावन्तं च देवेन्द्र नावमन्येत बुद्धिमान्॥
शक्तस्तु क्षमते नित्यमशक्तः क्रुध्यते नरः।
दुर्जनः सुजनं द्वेष्टि दुर्बलो बलवत्तरम्॥
रूपवन्तमरूपी च धनवन्तं च निर्धनः।
अकर्मी कर्मिणं द्वेष्टि धार्मिकं च न धार्मिकः॥
निर्गुणो गुणवन्तं च शक्रैतत् कलिलक्षणम्।)

मूलम्

(न च कुर्यान्नरो दैन्यं शाठ्यं क्रोधं तथैव च।
जैह्म्यं च मत्सरं वैरं सर्वत्रैव न कारयेत्॥
मातरं पितरं चैव विद्वांसं च तपोधनम्।
क्षमावन्तं च देवेन्द्र नावमन्येत बुद्धिमान्॥
शक्तस्तु क्षमते नित्यमशक्तः क्रुध्यते नरः।
दुर्जनः सुजनं द्वेष्टि दुर्बलो बलवत्तरम्॥
रूपवन्तमरूपी च धनवन्तं च निर्धनः।
अकर्मी कर्मिणं द्वेष्टि धार्मिकं च न धार्मिकः॥
निर्गुणो गुणवन्तं च शक्रैतत् कलिलक्षणम्।)

अनुवाद (हिन्दी)

देवेन्द्र! (इसके बाद मैंने यह आदेश दिया कि) मनुष्य दीनता, शठता और क्रोध न करे। कुटिलता, मात्सर्य और वैर कहीं न करे। माता-पिता, विद्वान्, तपस्वी तथा क्षमाशील पुरुषका बुद्धिमान् मनुष्य कभी अपमान न करे। शक्तिशाली पुरुष सदा क्षमा करता है। शक्तिहीन मनुष्य सदा क्रोध करता है। दुष्ट मानव साधु पुरुषसे और दुर्बल अधिक बलवान्‌से द्वेष करता है। कुरूप मनुष्य रूपवान्‌से, निर्धन धनवान्‌से, अकर्मण्य कर्मनिष्ठसे और अधार्मिक धर्मात्मासे द्वेष करता है। इसी प्रकार गुणहीन मनुष्य गुणवान्‌से डाह रखता है। इन्द्र! यह कलिका लक्षण है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रोधनः क्रोधनेभ्यो विशिष्ट-
स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।
अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधाना
विद्वांस्तथैवाविदुषः प्रधानः ॥ ६ ॥

मूलम्

अक्रोधनः क्रोधनेभ्यो विशिष्ट-
स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।
अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधाना
विद्वांस्तथैवाविदुषः प्रधानः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोध करनेवालोंसे वह पुरुष श्रेष्ठ है, जो कभी क्रोध नहीं करता। इसी प्रकार असहनशीलसे सहनशील उत्तम है, मनुष्येतर प्राणियोंसे मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मूर्खोंसे विद्वान् उत्तम है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ ७ ॥

मूलम्

आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई किसीकी निन्दा करता या उसे गाली देता हो तो वह भी बदलेमें निन्दा या गाली-गलौज न करे; क्योंकि जो गाली या निन्दा सह लेता है, उस पुरुषका आन्तरिक दुःख ही गाली देनेवाले या अपमान करनेवालेको जला डालता है। साथ ही उसके पुण्यको भी वह ले लेता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥ ८ ॥

मूलम्

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधवश किसीके मर्म-स्थानमें चोट न पहुँचाये (ऐसा बर्ताव न करे, जिससे किसीको मार्मिक पीड़ा हो)। किसीके प्रति कठोर बात भी मुँहसे न निकाले। अनुचित उपायसे शत्रुको भी वशमें न करे। जो जीको जलानेवाली हो, जिससे दूसरेको उद्वेग होता हो, ऐसी बात मुँहसे न बोले; क्योंकि पापीलोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरुन्तुदं परुषं तीक्ष्णवाचं
वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां
मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अरुन्तुदं परुषं तीक्ष्णवाचं
वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां
मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्वभावका कठोर हो, दूसरोंके मर्ममें चोट पहुँचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और कठोर वचनरूपी काँटोंसे दूसरे मनुष्यको पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मीहीन (दरिद्र या अभागा) समझे। (उसको देखना भी बुरा है; क्योंकि) वह कड़वी बोलीके रूपमें अपने मुँहमें बँधी हुई एक पिशाचिनीको ढो रहा है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात्
सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात्।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत्
सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः ॥ १० ॥

मूलम्

सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात्
सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात्।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत्
सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अपना बर्ताव और व्यवहार ऐसा रखे, जिससे) साधु पुरुष सामने तो सत्कार करें ही, पीठ-पीछे भी उनके द्वारा अपनी रक्षा हो। दुष्ट लोगोंकी कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा श्रेष्ठ पुरुषोंके सदाचारका आश्रय लेकर साधु पुरुषोंके व्यवहारको ही अपनाना चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु ॥ ११ ॥

मूलम्

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्ट मनुष्योंके मुखसे कटु वचनरूपी बाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्तामें डूबा रहता है। वे वाग्बाण दूसरोंके मर्मस्थानोंपर ही चोट करते हैं। अतः विद्वान् पुरुष दूसरेके प्रति ऐसी कठोर वाणीका प्रयोग न करे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते।
दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्॥१२॥

मूलम्

न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते।
दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी प्राणियोंके प्रति दया और मैत्रीका बर्ताव, दान और सबके प्रति मधुर वाणीका प्रयोग—तीनों लोकोंमें इनके समान कोई वशीकरण नहीं है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित्।
पूज्यान् सम्पूजयेद् दद्यान्न च याचेत् कदाचन ॥ १३ ॥

मूलम्

तस्मात् सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित्।
पूज्यान् सम्पूजयेद् दद्यान्न च याचेत् कदाचन ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये कभी कठोर वचन न बोले। सदा सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोले। पूजनीय पुरुषोंका पूजन (आदर-सत्कार) करे। दूसरोंको दान दे और स्वयं कभी किसीसे कुछ न माँगे॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं)