श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्व्यशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ययातिसे देवयानीको पुत्र-प्राप्ति; ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिः स्वपुरं प्राप्य महेन्द्रपुरसंनिभम्।
प्रविश्यान्तःपुरं तत्र देवयानीं न्यवेशयत् ॥ १ ॥
देवयान्याश्चानुमते सुतां तां वृषपर्वणः।
अशोकवनिकाभ्याशे गृहं कृत्वा न्यवेशयत् ॥ २ ॥
वृतां दासीसहस्रेण शर्मिष्ठां वार्षपर्वणीम्।
वासोभिरन्नपानैश्च संविभज्य सुसत्कृताम् ॥ ३ ॥
मूलम्
ययातिः स्वपुरं प्राप्य महेन्द्रपुरसंनिभम्।
प्रविश्यान्तःपुरं तत्र देवयानीं न्यवेशयत् ॥ १ ॥
देवयान्याश्चानुमते सुतां तां वृषपर्वणः।
अशोकवनिकाभ्याशे गृहं कृत्वा न्यवेशयत् ॥ २ ॥
वृतां दासीसहस्रेण शर्मिष्ठां वार्षपर्वणीम्।
वासोभिरन्नपानैश्च संविभज्य सुसत्कृताम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ययातिकी राजधानी महेन्द्रपुरी (अमरावती)-के समान थी। उन्होंने वहाँ आकर देवयानीको तो अन्तःपुरमें स्थान दिया और उसीकी अनुमतिसे अशोकवाटिकाके समीप एक महल बनवाकर उसमें वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको उसकी एक हजार दासियोंके साथ ठहराया और उन सबके लिये अन्न, वस्त्र तथा पेय आदिकी अलग-अलग व्यवस्था करके शर्मिष्ठाका समुचित सत्कार किया॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अशोकवनिकामध्ये देवयानी समागता ।
शर्मिष्ठया सा क्रीडित्वा रमणीये मनोरमे॥
तत्रैव तां तु निर्दिश्य राज्ञा सह ययौ गृहम्।
एवमेव सह प्रीत्या मुमुदे बहुकालतः॥)
मूलम्
(अशोकवनिकामध्ये देवयानी समागता ।
शर्मिष्ठया सा क्रीडित्वा रमणीये मनोरमे॥
तत्रैव तां तु निर्दिश्य राज्ञा सह ययौ गृहम्।
एवमेव सह प्रीत्या मुमुदे बहुकालतः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी ययातिके साथ परम रमणीय एवं मनोरम अशोकवाटिकामें आती और शर्मिष्ठाके साथ वन-विहार करके उसे वहीं छोड़कर स्वयं राजाके साथ महलमें चली जाती थी। इस तरह वह बहुत समयतक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द भोगती रही।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयान्या तु सहितः स नृपो नहुषात्मजः।
विजहार बहूनब्दान् देववन्मुदितः सुखी ॥ ४ ॥
मूलम्
देवयान्या तु सहितः स नृपो नहुषात्मजः।
विजहार बहूनब्दान् देववन्मुदितः सुखी ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुषकुमार राजा ययातिने देवयानीके साथ बहुत वर्षोंतक देवताओंकी भाँति विहार किया। वे उसके साथ बहुत प्रसन्न और सुखी थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते देवयानी वराङ्गना।
लेभे गर्भं प्रथमतः कुमारं च व्यजायत ॥ ५ ॥
मूलम्
ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते देवयानी वराङ्गना।
लेभे गर्भं प्रथमतः कुमारं च व्यजायत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋतुकाल आनेपर सुन्दरी देवयानीने गर्भ धारण किया और समयानुसार प्रथम पुत्रको जन्म दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते वर्षसहस्रे तु शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
ददर्श यौवनं प्राप्ता ऋतुं सा चान्वचिन्तयत् ॥ ६ ॥
मूलम्
गते वर्षसहस्रे तु शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
ददर्श यौवनं प्राप्ता ऋतुं सा चान्वचिन्तयत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर युवावस्थाको प्राप्त हुई वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने अपनेको रजस्वलावस्थामें देखा और चिन्तामग्न हो गयी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शुद्धा स्नाता तु शर्मिष्ठा सर्वालंकारभूषिता।
अशोकशाखामालम्ब्य सुफुल्लैः स्तबकैर्वृताम् ॥
आदर्शे मुखमुद्वीक्ष्य भर्तृदर्शनलालसा ।
शोकमोहसमाविष्टा वचनं चेदमब्रवीत् ॥
अशोक शोकापनुद शोकोपहतचेतसाम् ।
त्वन्नामानं कुरु क्षिप्रं प्रियसंदर्शनाद्धि माम्॥
एवमुक्तवती सा तु शर्मिष्ठा पुनरब्रवीत्॥)
मूलम्
(शुद्धा स्नाता तु शर्मिष्ठा सर्वालंकारभूषिता।
अशोकशाखामालम्ब्य सुफुल्लैः स्तबकैर्वृताम् ॥
आदर्शे मुखमुद्वीक्ष्य भर्तृदर्शनलालसा ।
शोकमोहसमाविष्टा वचनं चेदमब्रवीत् ॥
अशोक शोकापनुद शोकोपहतचेतसाम् ।
त्वन्नामानं कुरु क्षिप्रं प्रियसंदर्शनाद्धि माम्॥
एवमुक्तवती सा तु शर्मिष्ठा पुनरब्रवीत्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
स्नान करके शुद्ध हो समस्त आभूषणोंसे विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्दर पुष्पोंके गुच्छोंसे भरी अशोक-शाखाका आश्रय लिये खड़ी थी। दर्पणमें अपना मुँह देखकर उसके मनमें पतिके दर्शनकी लालसा जाग उठी और वह शोक एवं मोहसे युक्त हो इस प्रकार बोली—‘हे अशोक वृक्ष! जिनका हृदय शोकमें डूबा हुआ है, उन सबके शोकको तुम दूर करनेवाले हो। इस समय मुझे प्रियतमका दर्शन कराकर अपने ही जैसे नामवाली बना दो’ ऐसा कहकर शर्मिष्ठा फिर बोली—।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतुकालश्च सम्प्राप्तो न च मेऽस्ति पतिर्वृतः।
किं प्राप्तं किं नु कर्तव्यं किं वा कृत्वा कृतं भवेत्॥७॥
मूलम्
ऋतुकालश्च सम्प्राप्तो न च मेऽस्ति पतिर्वृतः।
किं प्राप्तं किं नु कर्तव्यं किं वा कृत्वा कृतं भवेत्॥७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे ऋतुकाल प्राप्त हो गया; किंतु अभीतक मैंने पतिका वरण नहीं किया है। यह कैसी परिस्थिति आ गयी। अब क्या करना चाहिये अथवा क्या करनेसे सुकृत (पुण्य) होगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयानी प्रजातासौ वृथाहं प्राप्तयौवना।
यथा तया वृतो भर्ता तथैवाहं वृणोमि तम् ॥ ८ ॥
मूलम्
देवयानी प्रजातासौ वृथाहं प्राप्तयौवना।
यथा तया वृतो भर्ता तथैवाहं वृणोमि तम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवयानी तो पुत्रवती हो गयी; किंतु मुझे जो जवानी मिली है, वह व्यर्थ जा रही है। जिस प्रकार उसने पतिका वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्हीं महाराजका क्यों न पतिके रूपमें वरण कर लूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा पुत्रफलं देयमिति मे निश्चिता मतिः।
अपीदानीं स धर्मात्मा इयान्मे दर्शनं रहः ॥ ९ ॥
मूलम्
राज्ञा पुत्रफलं देयमिति मे निश्चिता मतिः।
अपीदानीं स धर्मात्मा इयान्मे दर्शनं रहः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे याचना करनेपर राजा मुझे पुत्ररूप फल दे सकते हैं, इस बातका मुझे पूरा विश्वास है; परंतु क्या वे धर्मात्मा नरेश इस समय मुझे एकान्तमें दर्शन देंगे?’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ निष्क्रम्य राजासौ तस्मिन् काले यदृच्छया।
अशोकवनिकाभ्याशे शर्मिष्ठां प्रेक्ष्य विष्ठितः ॥ १० ॥
मूलम्
अथ निष्क्रम्य राजासौ तस्मिन् काले यदृच्छया।
अशोकवनिकाभ्याशे शर्मिष्ठां प्रेक्ष्य विष्ठितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठा इस प्रकार विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उसी समय दैववश महलसे बाहर निकले और अशोकवाटिकाके निकट शर्मिष्ठाको देखकर ठहर गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेकं रहिते दृष्ट्वा शर्मिष्ठा चारुहासिनी।
प्रत्युद्गम्याञ्जलिं कृत्वा राजानं वाक्यमब्रवीत् ॥ ११ ॥
मूलम्
तमेकं रहिते दृष्ट्वा शर्मिष्ठा चारुहासिनी।
प्रत्युद्गम्याञ्जलिं कृत्वा राजानं वाक्यमब्रवीत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनोहर हासवाली शर्मिष्ठाने उन्हें एकान्तमें अकेला देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की तथा हाथ जोड़कर राजासे यह बात कही॥११॥
मूलम् (वचनम्)
शर्मिष्ठोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमस्येन्द्रस्य विष्णोर्वा यमस्य वरुणस्य च।
तव वा नाहुष गृहे कः स्त्रियं द्रष्टुमर्हति ॥ १२ ॥
रूपाभिजनशीलैर्हि त्वं राजन् वेत्थ मां सदा।
सा त्वां याचे प्रसाद्याहमृतुं देहि नराधिप ॥ १३ ॥
मूलम्
सोमस्येन्द्रस्य विष्णोर्वा यमस्य वरुणस्य च।
तव वा नाहुष गृहे कः स्त्रियं द्रष्टुमर्हति ॥ १२ ॥
रूपाभिजनशीलैर्हि त्वं राजन् वेत्थ मां सदा।
सा त्वां याचे प्रसाद्याहमृतुं देहि नराधिप ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने कहा— नहुषनन्दन! चन्द्रमा, इन्द्र, विष्णु, यम, वरुण अथवा आपके महलमें कौन किसी स्त्रीकी ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव यहाँ मैं सर्वथा सुरक्षित हूँ) महाराज! मेरे रूप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदासे ही जानते हैं। मैं आज आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझे ऋतुदान दीजिये—मेरे ऋतुकालको सफल बनाइये॥१२-१३॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेद्मि त्वां शीलसम्पन्नां दैत्यकन्यामनिन्दिताम्।
रूपं च ते न पश्यामि सूच्यग्रमपि निन्दितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
वेद्मि त्वां शीलसम्पन्नां दैत्यकन्यामनिन्दिताम्।
रूपं च ते न पश्यामि सूच्यग्रमपि निन्दितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिने कहा— शर्मिष्ठे! तुम दैत्यराजकी सुशील और निर्दोष कन्या हो। मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे शरीर अथवा रूपमें सूईकी नोक बराबर भी ऐसा स्थान नहीं है, जो निन्दाके योग्य हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीदुशना काव्यो देवयानीं यदावहम्।
नेयमाह्वयितव्या ते शयने वार्षपर्वणी ॥ १५ ॥
मूलम्
अब्रवीदुशना काव्यो देवयानीं यदावहम्।
नेयमाह्वयितव्या ते शयने वार्षपर्वणी ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु क्या करूँ; जब मैंने देवयानीके साथ विवाह किया था, उस समय कविपुत्र शुक्राचार्यने मुझसे स्पष्ट कहा था कि ‘वृषपर्वाकी पुत्री इस शर्मिष्ठाको अपनी सेजपर न बुलाना’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
शर्मिष्ठोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ १६ ॥
मूलम्
न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने कहा— राजन्! परिहासयुक्त वचन असत्य हो तो भी वह हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियोंके प्रति, विवाहके समय, प्राणसंकटके समय तथा सर्वस्वका अपहरण होते समय यदि कभी विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोषकारक नहीं होता। ये पाँच प्रकारके असत्य पापशून्य बताये गये हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्यथा
वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र।
एकार्थतायां तु समाहितायां
मिथ्या वदन्तं त्वनृतं हिनस्ति ॥ १७ ॥
मूलम्
पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्यथा
वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र।
एकार्थतायां तु समाहितायां
मिथ्या वदन्तं त्वनृतं हिनस्ति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! किसी निर्दोष प्राणीका प्राण बचानेके लिये गवाही देते समय किसीके पूछनेपर अन्यथा (असत्य) भाषण करनेवालेको यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन मिथ्या है। परंतु जहाँ अपने और दूसरे दोनोंके ही प्राण बचानेका प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ केवल अपने प्राण बचानेके लिये मिथ्या बोलनेवालेका असत्यभाषण उसका नाश कर देता है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा प्रमाणं भूतानां स नश्येत मृषा वदन्।
अर्थकृच्छ्रमपि प्राप्य न मिथ्या कर्तुमुत्सहे ॥ १८ ॥
मूलम्
राजा प्रमाणं भूतानां स नश्येत मृषा वदन्।
अर्थकृच्छ्रमपि प्राप्य न मिथ्या कर्तुमुत्सहे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— देवि! सब प्राणियोंके लिये राजा ही प्रमाण है। वह यदि झूठ बोलने लगे तो उसका नाश हो जाता है। अतः अर्थ-संकटमें पड़नेपर भी मैं झूठा काम नहीं कर सकता॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
शर्मिष्ठोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
समावेतौ मतौ राजन् पतिः सख्याश्च यः पतिः।
समं विवाहमित्याहुः सख्या मेऽसि वृतः पतिः ॥ १९ ॥
मूलम्
समावेतौ मतौ राजन् पतिः सख्याश्च यः पतिः।
समं विवाहमित्याहुः सख्या मेऽसि वृतः पतिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने कहा— राजन्! अपना पति और सखीका पति दोनों बराबर माने गये हैं। सखीके साथ ही उसकी सेवामें रहनेवाली दूसरी कन्याओंका भी विवाह हो जाता है। मेरी सखीने आपको अपना पति बनाया है, अतः मैंने भी बना लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सह दत्तास्मि काव्येन देवयान्या महर्षिणा।
पूज्या पोषयितव्येति न मृषा कर्तुमर्हसि॥
सुवर्णमणिरत्नानि वस्त्राण्याभरणानि च ।
याचितॄणां ददासि त्वं गोभूम्यादीनि यानि च॥
वाहिकं दानमित्युक्तं न शरीराश्रितं नृप।
दुष्करं पुत्रदानं च आत्मदानं च दुष्करम्॥
शरीरदानात् तत् सर्वं दत्तं भवति नाहुष।
यस्य यस्य यथा कामस्तस्य तस्य ददाम्यहम्॥
इत्युक्त्वा नगरे राजंस्त्रिकालं घोषितं त्वया॥
अनृतं तत्तु राजेन्द्र वृथा घोषितमेव च।
तत् सत्यं कुरु राजेन्द्र यथा वैश्रवणस्तथा॥)
मूलम्
(सह दत्तास्मि काव्येन देवयान्या महर्षिणा।
पूज्या पोषयितव्येति न मृषा कर्तुमर्हसि॥
सुवर्णमणिरत्नानि वस्त्राण्याभरणानि च ।
याचितॄणां ददासि त्वं गोभूम्यादीनि यानि च॥
वाहिकं दानमित्युक्तं न शरीराश्रितं नृप।
दुष्करं पुत्रदानं च आत्मदानं च दुष्करम्॥
शरीरदानात् तत् सर्वं दत्तं भवति नाहुष।
यस्य यस्य यथा कामस्तस्य तस्य ददाम्यहम्॥
इत्युक्त्वा नगरे राजंस्त्रिकालं घोषितं त्वया॥
अनृतं तत्तु राजेन्द्र वृथा घोषितमेव च।
तत् सत्यं कुरु राजेन्द्र यथा वैश्रवणस्तथा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महर्षि शुक्राचार्यने देवयानीके साथ मुझे भी यह कहकर आपको समर्पित किया है कि तुम इसका भी पालन-पोषण और आदर करना। आप उनके वचनको मिथ्या न करें। महाराज! आप प्रतिदिन याचकोंको जो सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण, गौ और भूमि आदि दान करते हैं, वह बाह्य दान कहा गया है। वह शरीरके आश्रित नहीं है। पुत्रदान और शरीरदान अत्यन्त कठिन है। नहुषनन्दन! शरीरदानसे उपर्युक्त सब दान सम्पन्न हो जाता है। राजन्! ‘जिसकी जैसी इच्छा होगी उस-उस मनुष्यको मैं मुँहमाँगी वस्तु दूँगा’ ऐसा कहकर आपने नगरमें जो तीनों समय दानकी घोषणा करायी है, वह मेरी प्रार्थना ठुकरा देनेपर झूठी सिद्ध होगी। वह सारी घोषणा ही व्यर्थ समझी जायगी। राजेन्द्र! आप कुबेरकी भाँति अपनी उस घोषणाको सत्य कीजिये।
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दातव्यं याचमानेभ्य इति मे व्रतमाहितम्।
त्वं च याचसि मां कामं ब्रूहि किं करवाणि ते॥२०॥
मूलम्
दातव्यं याचमानेभ्य इति मे व्रतमाहितम्।
त्वं च याचसि मां कामं ब्रूहि किं करवाणि ते॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— याचकोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ दी जायँ, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी मुझसे अपने मनोरथकी याचना करती हो; अतः बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
शर्मिष्ठोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मात् पाहि मां राजन् धर्मं च प्रतिपादय।
त्वत्तोऽपत्यवती लोके चरेयं धर्ममुत्तमम् ॥ २१ ॥
मूलम्
अधर्मात् पाहि मां राजन् धर्मं च प्रतिपादय।
त्वत्तोऽपत्यवती लोके चरेयं धर्ममुत्तमम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने कहा— राजन्! मुझे अधर्मसे बचाइये और धर्मका पालन कराइये। मैं चाहती हूँ, आपसे संतानवती होकर इस लोकमें उत्तम धर्मका आचरण करूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रय एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा सुतः।
यत् ते समधिगच्छन्ति यस्यैते तस्य तद् धनम् ॥ २२ ॥
मूलम्
त्रय एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा सुतः।
यत् ते समधिगच्छन्ति यस्यैते तस्य तद् धनम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तीन व्यक्ति धनके अधिकारी नहीं हैं—पत्नी, दास और पुत्र। ये जो धन प्राप्त करते हैं वह उसीका होता है जिसके अधिकारमें ये हैं। अर्थात् पत्नीके धनपर पतिका, सेवकके धनपर स्वामीका और पुत्रके धनपर पिताका अधिकार होता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयान्या भुजिष्यास्मि वश्या च तव भार्गवी।
सा चाहं च त्वया राजन् भजनीये भजस्व माम्॥२३॥
मूलम्
देवयान्या भुजिष्यास्मि वश्या च तव भार्गवी।
सा चाहं च त्वया राजन् भजनीये भजस्व माम्॥२३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं देवयानीकी सेविका हूँ और वह आपके अधीन है; अतः राजन्! वह और मैं दोनों ही आपके सेवन करनेयोग्य हैं। अतः मेरा सेवन कीजिये॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु राजा स तथ्यमित्यभिजज्ञिवान्।
पूजयामास शर्मिष्ठां धर्मं च प्रत्यपादयत् ॥ २४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु राजा स तथ्यमित्यभिजज्ञिवान्।
पूजयामास शर्मिष्ठां धर्मं च प्रत्यपादयत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— शर्मिष्ठाके ऐसा कहनेपर राजाने उसकी बातोंको ठीक समझा। उन्होंने शर्मिष्ठाका सत्कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स समागम्य शर्मिष्ठां यथाकाममवाप्य च।
अन्योन्यं चाभिसम्पूज्य जग्मतुस्तौ यथागतम् ॥ २५ ॥
मूलम्
स समागम्य शर्मिष्ठां यथाकाममवाप्य च।
अन्योन्यं चाभिसम्पूज्य जग्मतुस्तौ यथागतम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर शर्मिष्ठाके साथ समागम किया और इच्छानुसार कामोपभोग करके एक-दूसरेका आदर-सत्कार करनेके पश्चात् दोनों जैसे आये थे वैसे ही अपने-अपने स्थानपर चले गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् समागमे सुभ्रूः शर्मिष्ठा चारुहासिनी।
लेभे गर्भं प्रथमतस्तस्मान्नृपतिसत्तमात् ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्मिन् समागमे सुभ्रूः शर्मिष्ठा चारुहासिनी।
लेभे गर्भं प्रथमतस्तस्मान्नृपतिसत्तमात् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर भौंह तथा मनोहर मुसकानवाली शर्मिष्ठाने उस समागममें नृपश्रेष्ठ ययातिसे पहले-पहल गर्भ धारण किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजज्ञे च ततः काले राजन् राजीवलोचना।
कुमारं देवगर्भाभं राजीवनिभलोचनम् ॥ २७ ॥
मूलम्
प्रजज्ञे च ततः काले राजन् राजीवलोचना।
कुमारं देवगर्भाभं राजीवनिभलोचनम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! तदनन्तर समय आनेपर कमलके समान नेत्रोंवाली शर्मिष्ठाने देवबालक-जैसे सुन्दर एक कमलनयन कुमारको उत्पन्न किया॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ११ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं)