०८१ देवयानी-विवाहः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वन-विहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीकी उनके साथ बातचीत तथा विवाह

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दीर्घस्य कालस्य देवयानी नृपोत्तम।
वनं तदेव निर्याता क्रीडार्थं वरवर्णिनी ॥ १ ॥

मूलम्

अथ दीर्घस्य कालस्य देवयानी नृपोत्तम।
वनं तदेव निर्याता क्रीडार्थं वरवर्णिनी ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम वर्णवाली देवयानी फिर उसी वनमें विहारके लिये गयी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन दासीसहस्रेण सार्धं शर्मिष्ठया तदा।
तमेव देशं सम्प्राप्ता यथाकामं चचार सा ॥ २ ॥
ताभिः सखीभिः सहिता सर्वाभिर्मुदिता भृशम्।
क्रीडन्त्योऽभिरताः सर्वाः पिबन्त्यो मधुमाधवीम् ॥ ३ ॥
खादन्त्यो विविधान् भक्ष्यान् विदशन्त्यः फलानि च।
पुनश्च नाहुषो राजा मृगलिप्सुर्यदृच्छया ॥ ४ ॥
तमेव देशं सम्प्राप्तो जलार्थी श्रमकर्शितः।
ददृशे देवयानीं स शर्मिष्ठां ताश्च योषितः ॥ ५ ॥

मूलम्

तेन दासीसहस्रेण सार्धं शर्मिष्ठया तदा।
तमेव देशं सम्प्राप्ता यथाकामं चचार सा ॥ २ ॥
ताभिः सखीभिः सहिता सर्वाभिर्मुदिता भृशम्।
क्रीडन्त्योऽभिरताः सर्वाः पिबन्त्यो मधुमाधवीम् ॥ ३ ॥
खादन्त्यो विविधान् भक्ष्यान् विदशन्त्यः फलानि च।
पुनश्च नाहुषो राजा मृगलिप्सुर्यदृच्छया ॥ ४ ॥
तमेव देशं सम्प्राप्तो जलार्थी श्रमकर्शितः।
ददृशे देवयानीं स शर्मिष्ठां ताश्च योषितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उसके साथ एक हजार दासियोंसहित शर्मिष्ठा भी सेवामें उपस्थित थी। वनके उसी प्रदेशमें जाकर वह उन समस्त सखियोंके साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इच्छानुसार विचरने लगी। वे सभी किशोरियाँ वहाँ भाँति-भाँतिके खेल खेलती हुई आनन्दमें मग्न हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्पोंके मकरन्दका पान करतीं, कभी नाना प्रकारके भोज्य पदार्थोंका स्वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं। इसी समय नहुषपुत्र राजा ययाति पुनः शिकार खेलनेके लिये दैवेच्छासे उसी स्थानपर आ गये। वे परिश्रम करनेके कारण अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्य युवतियोंको भी देखा॥२—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिबन्तीर्ललमानाश्च दिव्याभरणभूषिताः ।
(आसने प्रवरे दिव्ये सर्वाभरणभूषिते।)
उपविष्टां च ददृशे देवयानीं शुचिस्मिताम् ॥ ६ ॥

मूलम्

पिबन्तीर्ललमानाश्च दिव्याभरणभूषिताः ।
(आसने प्रवरे दिव्ये सर्वाभरणभूषिते।)
उपविष्टां च ददृशे देवयानीं शुचिस्मिताम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो पीनेयोग्य रसका पान और भाँति-भाँतिकी क्रीड़ाएँ कर रही थीं। राजाने पवित्र मुसकानवाली देवयानीको वहाँ समस्त आभूषणोंसे विभूषित परम सुन्दर दिव्य आसनपर बैठी हुई देखा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपेणाप्रतिमां तासां स्त्रीणां मध्ये वराङ्गनाम्।
शर्मिष्ठया सेव्यमानां पादसंवाहनादिभिः ॥ ७ ॥

मूलम्

रूपेणाप्रतिमां तासां स्त्रीणां मध्ये वराङ्गनाम्।
शर्मिष्ठया सेव्यमानां पादसंवाहनादिभिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्दरी उन स्त्रियोंके मध्यमें बैठी हुई थी और शर्मिष्ठाद्वारा उसकी चरणसेवा की जा रही थी॥७॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वाभ्यां कन्यासहस्राभ्यां द्वे कन्ये परिवारिते।
गोत्रे च नामनी चैव द्वयोः पृच्छाम्यहं शुभे ॥ ८ ॥

मूलम्

द्वाभ्यां कन्यासहस्राभ्यां द्वे कन्ये परिवारिते।
गोत्रे च नामनी चैव द्वयोः पृच्छाम्यहं शुभे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने पूछा— दो हजार1 कुमारी सखियोंसे घिरी हुई कन्याओ! मैं आप दोनोंके गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे! आप दोनों अपना परिचय दें॥८॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आख्यास्याम्यहमादत्स्व वचनं मे नराधिप।
शुक्रो नामासुरगुरुः सुतां जानीहि तस्य माम् ॥ ९ ॥

मूलम्

आख्यास्याम्यहमादत्स्व वचनं मे नराधिप।
शुक्रो नामासुरगुरुः सुतां जानीहि तस्य माम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी बोली— महाराज! मैं स्वयं परिचय देती हूँ, आप मेरी बात सुनें। असुरोंके जो सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्हींकी पुत्री जानिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं च मे सखी दासी यत्राहं तत्र गामिनी।
दुहिता दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा वृषपर्वणः ॥ १० ॥

मूलम्

इयं च मे सखी दासी यत्राहं तत्र गामिनी।
दुहिता दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा वृषपर्वणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह दानवराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होनेपर जहाँ जाऊँगी, वहाँ यह भी जायगी॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं तु ते सखी दासी कन्येयं वरवर्णिनी।
असुरेन्द्रसुता सुभ्रूः परं कौतूहलं हि मे ॥ ११ ॥

मूलम्

कथं तु ते सखी दासी कन्येयं वरवर्णिनी।
असुरेन्द्रसुता सुभ्रूः परं कौतूहलं हि मे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— सुन्दरी! यह असुरराजकी रूपवती कन्या सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठा आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई? यह बताइये। इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है॥११॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व एव नरश्रेष्ठ विधानमनुवर्तते।
विधानविहितं मत्वा मा विचित्राः कथाः कृथाः ॥ १२ ॥

मूलम्

सर्व एव नरश्रेष्ठ विधानमनुवर्तते।
विधानविहितं मत्वा मा विचित्राः कथाः कृथाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी बोली— नरश्रेष्ठ! सब लोग दैवके विधानका ही अनुसरण करते हैं। इसे भी भाग्यका विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषयकी विचित्र घटनाओंको न पूछिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजवद् रूपवेषौ ते ब्राह्मीं वाचं बिभर्षि च।
को नाम त्वं कुतश्चासि कस्य पुत्रश्च शंस मे॥१३॥

मूलम्

राजवद् रूपवेषौ ते ब्राह्मीं वाचं बिभर्षि च।
को नाम त्वं कुतश्चासि कस्य पुत्रश्च शंस मे॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके रूप और वेष राजाके समान हैं और आप ब्राह्मी वाणी (विशुद्ध संस्कृत भाषा) बोल रहे हैं। मुझे बताइये; आपका क्या नाम है, कहाँसे आये हैं और किसके पुत्र हैं?॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्येण वेदो मे कृत्स्नः श्रुतिपथं गतः।
राजाहं राजपुत्रश्च ययातिरिति विश्रुतः ॥ १४ ॥

मूलम्

ब्रह्मचर्येण वेदो मे कृत्स्नः श्रुतिपथं गतः।
राजाहं राजपुत्रश्च ययातिरिति विश्रुतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— मैंने ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक सम्पूर्ण वेदका अध्ययन किया है। मैं राजा नहुषका पुत्र हूँ और इस समय स्वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनास्यर्थेन नृपते इमं देशमुपागतः।
जिघृक्षुर्वारिजं किंचिदथवा मृगलिप्सया ॥ १५ ॥

मूलम्

केनास्यर्थेन नृपते इमं देशमुपागतः।
जिघृक्षुर्वारिजं किंचिदथवा मृगलिप्सया ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने पूछा— महाराज! आप किस कार्यसे वनके इस प्रदेशमें आये हैं? आप जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकारकी इच्छासे ही आये हैं?॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगलिप्सुरहं भद्रे पानीयार्थमुपागतः ।
बहुधाप्यनुयुक्तोऽस्मि तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ १६ ॥

मूलम्

मृगलिप्सुरहं भद्रे पानीयार्थमुपागतः ।
बहुधाप्यनुयुक्तोऽस्मि तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— भद्रे! मैं एक हिंसक पशुको मारनेके लिये उसका पीछा कर रहा था, इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीनेके लिये यहाँ आया हूँ। अतः अब मुझे आज्ञा दीजिये॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वाभ्यां कन्यासहस्राभ्यां दास्या शर्मिष्ठया सह।
त्वदधीनास्मि भद्रं ते सखा भर्ता च मे भव॥१७॥

मूलम्

द्वाभ्यां कन्यासहस्राभ्यां दास्या शर्मिष्ठया सह।
त्वदधीनास्मि भद्रं ते सखा भर्ता च मे भव॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— राजन्! आपका कल्याण हो। मैं दो हजार कन्याओं तथा अपनी सेविका शर्मिष्ठाके साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे सखा और पति हो जायँ॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्ध्यौशनसि भद्रं ते न त्वामर्होऽस्मि भाविनि।
अविवाह्या हि राजानो देवयानि पितुस्तव ॥ १८ ॥

मूलम्

विद्ध्यौशनसि भद्रं ते न त्वामर्होऽस्मि भाविनि।
अविवाह्या हि राजानो देवयानि पितुस्तव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— शुक्रनन्दिनी देवयानी! आपका भला हो। भाविनि! मैं आपके योग्य नहीं हूँ। क्षत्रियलोग आपके पितासे कन्यादान लेनेके अधिकारी नहीं हैं॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं क्षत्रेण ब्रह्म संहितम्।
ऋषिश्चाप्यृषिपुत्रश्च नाहुषाङ्ग वहस्व माम् ॥ १९ ॥

मूलम्

संसृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं क्षत्रेण ब्रह्म संहितम्।
ऋषिश्चाप्यृषिपुत्रश्च नाहुषाङ्ग वहस्व माम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— नहुषनन्दन! ब्राह्मणसे क्षत्रिय जाति और क्षत्रियसे ब्राह्मण जाति मिली हुई है। आप राजर्षिके पुत्र हैं और स्वयं भी राजर्षि हैं। अतः मुझसे विवाह कीजिये॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदेहोद्भवा वर्णाश्चत्वारोऽपि वराङ्गने ।
पृथग्धर्माः पृथक्छौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः ॥ २० ॥

मूलम्

एकदेहोद्भवा वर्णाश्चत्वारोऽपि वराङ्गने ।
पृथग्धर्माः पृथक्छौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— वरांगने! एक ही परमेश्वरके शरीरसे चारों वर्णोंकी उत्पत्ति हुई है; परंतु सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सब वर्णोंमें श्रेष्ठ हैं॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिधर्मो नाहुषायं न पुम्भिः सेवितः पुरा।
तं मे त्वमग्रहीरग्रे वृणोमि त्वामहं ततः ॥ २१ ॥

मूलम्

पाणिधर्मो नाहुषायं न पुम्भिः सेवितः पुरा।
तं मे त्वमग्रहीरग्रे वृणोमि त्वामहं ततः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— नहुषकुमार! नारीके लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी पुरुषने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आपहीने मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये आपहीका मैं पतिरूपमें वरण करती हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु मे मनस्विन्याः पाणिमन्यः पुमान् स्पृशेत्।
गृहीतमृषिपुत्रेण स्वयं वाप्यृषिणा त्वया ॥ २२ ॥

मूलम्

कथं नु मे मनस्विन्याः पाणिमन्यः पुमान् स्पृशेत्।
गृहीतमृषिपुत्रेण स्वयं वाप्यृषिणा त्वया ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं मनको वशमें रखनेवाली स्त्री हूँ। आप-जैसे राजर्षिकुमार अथवा राजर्षिद्वारा पकड़े गये मेरे हाथका स्पर्श अब दूसरा पुरुष कैसे कर सकता है॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रुद्धादाशीविषात्‌ सर्पाज्ज्वलनात्‌ सर्वतोमुखात् ।
दुराधर्षतरो विप्रो ज्ञेयः पुंसा विजानता ॥ २३ ॥

मूलम्

क्रुद्धादाशीविषात्‌ सर्पाज्ज्वलनात्‌ सर्वतोमुखात् ।
दुराधर्षतरो विप्रो ज्ञेयः पुंसा विजानता ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— देवि! विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह ब्राह्मणको क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्प तथा सब ओरसे प्रज्वलित अग्निसे भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमाशीविषात्‌ सर्पाज्ज्वलनात्‌ सर्वतोमुखात् ।
दुराधर्षतरो विप्र इत्यात्थ पुरुषर्षभ ॥ २४ ॥

मूलम्

कथमाशीविषात्‌ सर्पाज्ज्वलनात्‌ सर्वतोमुखात् ।
दुराधर्षतरो विप्र इत्यात्थ पुरुषर्षभ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— पुरुषप्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओरसे प्रज्वलित होनेवाली अग्निसे भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही?॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकमाशीविषो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते।
हन्ति विप्रः सराष्ट्राणि पुराण्यपि हि कोपितः ॥ २५ ॥
दुराधर्षतरो विप्रस्तस्माद् भीरु मतो मम।
अतोऽदत्तां च पित्रा त्वां भद्रे न विवहाम्यहम् ॥ २६ ॥

मूलम्

एकमाशीविषो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते।
हन्ति विप्रः सराष्ट्राणि पुराण्यपि हि कोपितः ॥ २५ ॥
दुराधर्षतरो विप्रस्तस्माद् भीरु मतो मम।
अतोऽदत्तां च पित्रा त्वां भद्रे न विवहाम्यहम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— भद्रे! सर्प एकको ही मारता है, शस्त्रसे भी एक ही व्यक्तिका वध होता है; परंतु क्रोधमें भरा हुआ ब्राह्मण समस्त राष्ट्र और नगरका भी नाश कर देता है। भीरु! इसलिये मैं ब्राह्मणको अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अतः जबतक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तबतक मैं आपसे विवाह नहीं करूँगा॥२५-२६॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्तां वहस्व तन्मा त्वं पित्रा राजन् वृतो मया।
अयाचतो भयं नास्ति दत्तां च प्रतिगृह्णतः ॥ २७ ॥
(तिष्ठ राजन् मुहूर्तं तु प्रेषयिष्याम्यहं पितुः।

मूलम्

दत्तां वहस्व तन्मा त्वं पित्रा राजन् वृतो मया।
अयाचतो भयं नास्ति दत्तां च प्रतिगृह्णतः ॥ २७ ॥
(तिष्ठ राजन् मुहूर्तं तु प्रेषयिष्याम्यहं पितुः।

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— राजन्! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिताके देनेपर ही मुझसे विवाह करें। आप स्वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं; उनके देनेपर ही मुझे स्वीकार करेंगे। अतः आपको उनके कोपका भय नहीं है। राजन्! दो घड़ी ठहर जाइये। मैं अभी पिताके पास संदेश भेजती हूँ॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ त्वं धात्रिके शीघ्रं ब्रह्मकल्पमिहानय॥
स्वयंवरे वृतं शीघ्रं निवेदय च नाहुषम्॥)

मूलम्

गच्छ त्वं धात्रिके शीघ्रं ब्रह्मकल्पमिहानय॥
स्वयंवरे वृतं शीघ्रं निवेदय च नाहुषम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

धाय! शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्मतुल्य पिताको यहाँ बुला ले आओ। उनसे यह भी कह देना कि देवयानीने स्वयंवरकी विधिसे नहुषनन्दन राजा ययातिका पतिरूपमें वरण किया है।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वरितं देवयान्याथ संदिष्टं पितुरात्मनः।
सर्वं निवेदयामास धात्री तस्मै यथातथम् ॥ २८ ॥

मूलम्

त्वरितं देवयान्याथ संदिष्टं पितुरात्मनः।
सर्वं निवेदयामास धात्री तस्मै यथातथम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार देवयानीने तुरंत धायको भेजकर अपने पिताको संदेश दिया। धायने जाकर शुक्राचार्यसे सब बातें ठीक-ठीक बता दीं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैव च स राजानं दर्शयामास भार्गवः।
दृष्ट्वैव चागतं शुक्रं ययातिः पृथिवीपतिः।
ववन्दे ब्राह्मणं काव्यं प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ॥ २९ ॥

मूलम्

श्रुत्वैव च स राजानं दर्शयामास भार्गवः।
दृष्ट्वैव चागतं शुक्रं ययातिः पृथिवीपतिः।
ववन्दे ब्राह्मणं काव्यं प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्यने वहाँ आकर राजाको दर्शन दिया। विप्रवर शुक्राचार्यको आया देख राजा ययातिने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्रभावसे खड़े हो गये॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजायं नाहुषस्तात दुर्गमे पाणिमग्रहीत्।
नमस्ते देहि मामस्मै लोके नान्यं पतिं वृणे ॥ ३० ॥

मूलम्

राजायं नाहुषस्तात दुर्गमे पाणिमग्रहीत्।
नमस्ते देहि मामस्मै लोके नान्यं पतिं वृणे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी बोली— तात! ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्होंने संकटके समय मेरा हाथ पकड़ा था। आपको नमस्कार है। आप मुझे इन्हींकी सेवामें समर्पित कर दें। मैं इस जगत्‌में इनके सिवा दूसरे किसी पतिका वरण नहीं करूँगी॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

शुक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृतोऽनया पतिर्वीर सुतया त्वं ममेष्टया।
गृहाणेमां मया दत्तां महिषीं नहुषात्मज ॥ ३१ ॥

मूलम्

वृतोऽनया पतिर्वीर सुतया त्वं ममेष्टया।
गृहाणेमां मया दत्तां महिषीं नहुषात्मज ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यने कहा— वीर नहुषनन्दन! मेरी इस लाड़ली पुत्रीने तुम्हें पतिरूपमें वरण किया है; अतः मेरी दी हुई इस कन्याको तुम अपनी पटरानीके रूपमें ग्रहण करो॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मो न स्पृशेदेष महान् मामिह भार्गव।
वर्णसंकरजो ब्रह्मन्निति त्वां प्रवृणोम्यहम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अधर्मो न स्पृशेदेष महान् मामिह भार्गव।
वर्णसंकरजो ब्रह्मन्निति त्वां प्रवृणोम्यहम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययाति बोले— भार्गव ब्रह्मन्! मैं आपसे यह वर माँगता हूँ कि इस विवाहमें यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला वर्णसंकरजनित महान् अधर्म मेरा स्पर्श न करे॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

शुक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मात् त्वां विमुञ्चामि वृणु त्वं वरमीप्सितम्।
अस्मिन् विवाहे मा म्लासीरहं पापं नुदामि ते ॥ ३३ ॥

मूलम्

अधर्मात् त्वां विमुञ्चामि वृणु त्वं वरमीप्सितम्।
अस्मिन् विवाहे मा म्लासीरहं पापं नुदामि ते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यने कहा— राजन्! मैं तुम्हें अधर्मसे मुक्त करता हूँ; तुम्हारी जो इच्छा हो वर माँग लो। इस विवाहको लेकर तुम्हारे मनमें ग्लानि नहीं होनी चाहिये। मैं तुम्हारे सारे पापको दूर करता हूँ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वहस्व भार्यां धर्मेण देवयानीं सुमध्यमाम्।
अनया सह सम्प्रीतिमतुलां समवाप्नुहि ॥ ३४ ॥

मूलम्

वहस्व भार्यां धर्मेण देवयानीं सुमध्यमाम्।
अनया सह सम्प्रीतिमतुलां समवाप्नुहि ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम सुन्दरी देवयानीको धर्मपूर्वक अपनी पत्नी बनाओ और इसके साथ रहकर अतुल सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त करो॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं चापि कुमारी ते शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
सम्पूज्या सततं राजन् मा चैनां शयने ह्वयेः ॥ ३५ ॥

मूलम्

इयं चापि कुमारी ते शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
सम्पूज्या सततं राजन् मा चैनां शयने ह्वयेः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वृषपर्वाकी पुत्री यह कुमारी शर्मिष्ठा भी तुम्हें समर्पित है। इसका सदा आदर करना, किंतु इसे अपनी सेजपर कभी न बुलाना॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(रहस्येनां समाहूय न वदेर्न च संस्पृशेः।
वहस्व भार्यां भद्रं ते यथाकाममवाप्स्यसि॥)

मूलम्

(रहस्येनां समाहूय न वदेर्न च संस्पृशेः।
वहस्व भार्यां भद्रं ते यथाकाममवाप्स्यसि॥)

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारा कल्याण हो। इस शर्मिष्ठाको एकान्तमें बुलाकर न तो इससे बात करना और न इसके शरीरका स्पर्श ही करना। अब तुम विवाह करके इसे अपनी पत्नी बनाओ। इससे तुम्हें इच्छानुसार फलकी प्राप्ति होगी।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो ययातिस्तु शुक्रं कृत्वा प्रदक्षिणम्।
शास्त्रोक्तविधिना राजा विवाहमकरोच्छुभम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

एवमुक्तो ययातिस्तु शुक्रं कृत्वा प्रदक्षिणम्।
शास्त्रोक्तविधिना राजा विवाहमकरोच्छुभम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर राजा ययातिने उनकी परिक्रमा की और शास्त्रोक्त विधिसे मंगलमय विवाह-कार्य सम्पन्न किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वा शुक्रान्महद् वित्तं देवयानीं तदोत्तमाम्।
द्विसहस्रेण कन्यानां तथा शर्मिष्ठया सह ॥ ३७ ॥
सम्पूजितश्च शुक्रेण दैत्यैश्च नृपसत्तमः।
जगाम स्वपुरं हृष्टोऽनुज्ञातोऽथ महात्मना ॥ ३८ ॥

मूलम्

लब्ध्वा शुक्रान्महद् वित्तं देवयानीं तदोत्तमाम्।
द्विसहस्रेण कन्यानां तथा शर्मिष्ठया सह ॥ ३७ ॥
सम्पूजितश्च शुक्रेण दैत्यैश्च नृपसत्तमः।
जगाम स्वपुरं हृष्टोऽनुज्ञातोऽथ महात्मना ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यसे देवयानी-जैसी उत्तम कन्या, शर्मिष्ठा और दो हजार अन्य कन्याओं तथा महान् वैभवको पाकर दैत्यों एवं शुक्राचार्यसे पूजित हो, उन महात्माकी आज्ञा ले नृपश्रेष्ठ ययाति बड़े हर्षके साथ अपनी राजधानीको गये॥३७-३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने एकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत ययात्युपाख्यानविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं)


  1. किन्हीं श्लोकोंमें दो हजार और किन्हींमें एक हजार सखियोंका वर्णन आता है। यथावसर दोनों ठीक हैं। ↩︎