०८० शर्मिष्ठा-दास्यम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शुक्राचार्यका वृषपर्वाको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपर्वाके आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काव्यो भृगुश्रेष्ठः समन्युरुपगम्य ह।
वृषपर्वाणमासीनमित्युवाचाविचारयन् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः काव्यो भृगुश्रेष्ठः समन्युरुपगम्य ह।
वृषपर्वाणमासीनमित्युवाचाविचारयन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवयानीकी बात सुनकर भृगुश्रेष्ठ शुक्राचार्य बड़े क्रोधमें भरकर वृषपर्वाके समीप गये। वह राजसिंहासनपर बैठा हुआ था। शुक्राचार्यजीने बिना कुछ सोचे-विचारे उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मश्चरितो राजन् सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावर्त्यमानो हि कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥ २ ॥

मूलम्

नाधर्मश्चरितो राजन् सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावर्त्यमानो हि कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जो अधर्म किया जाता है, उसका फल तुरंत नहीं मिलता। जैसे गायकी सेवा करनेपर धीरे-धीरे कुछ कालके बाद वह ब्याती और दूध देती है अथवा धरतीको जोत-बोकर बीज डालनेसे कुछ कालके बाद पौधा उगता और यथासमय फल देता है, उसी प्रकार किया जानेवाला अधर्म धीरे-धीरे कर्ताकी जड़ काट देता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रेषु वा नप्तृषु वा न चेदात्मनि पश्यति।
फलत्येव ध्रुवं पापं गुरु भुक्तमिवोदरे ॥ ३ ॥

मूलम्

पुत्रेषु वा नप्तृषु वा न चेदात्मनि पश्यति।
फलत्येव ध्रुवं पापं गुरु भुक्तमिवोदरे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि वह (पापसे उपार्जित द्रव्यका) दुष्परिणाम अपने ऊपर नहीं दिखायी देता तो उस अन्यायोपार्जित द्रव्यका उपभोग करनेके कारण पुत्रों अथवा नाती-पोतोंपर अवश्य प्रकट होता है। जैसे खाया हुआ गरिष्ठ अन्न तुरंत नहीं तो कुछ देर बाद अवश्य ही पेटमें उपद्रव करता है, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी निश्चय ही अपना फल देता है’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अधीयानं हितं राजन् क्षमावन्तं जितेन्द्रियम्।)
यदघातयिथा विप्रं कचमाङ्गिरसं तदा।
अपापशीलं धर्मज्ञं शुश्रूषुं मद्‌गृहे रतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

(अधीयानं हितं राजन् क्षमावन्तं जितेन्द्रियम्।)
यदघातयिथा विप्रं कचमाङ्गिरसं तदा।
अपापशीलं धर्मज्ञं शुश्रूषुं मद्‌गृहे रतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! अंगिराके पौत्र कच विशुद्ध ब्राह्मण हैं। वे स्वाध्याय-परायण, हितैषी, क्षमावान् और जितेन्द्रिय हैं, स्वभावसे ही निष्पाप और धर्मज्ञ हैं तथा उन दिनों मेरे घरमें रहकर निरन्तर मेरी सेवामें संलग्न थे, परंतु तुमने उनका बार-बार वध करवाया था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधादनर्हतस्तस्य वधाच्च दुहितुर्मम ।
वृषपर्वन् निबोधेदं त्यक्ष्यामि त्वां सबान्धवम्।
स्थातुं त्वद्विषये राजन् न शक्ष्यामि त्वया सह ॥ ५ ॥

मूलम्

वधादनर्हतस्तस्य वधाच्च दुहितुर्मम ।
वृषपर्वन् निबोधेदं त्यक्ष्यामि त्वां सबान्धवम्।
स्थातुं त्वद्विषये राजन् न शक्ष्यामि त्वया सह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृषपर्वन्! ध्यान देकर मेरी यह बात सुन लो, तुम्हारे द्वारा पहले वधके अयोग्य ब्राह्मणका वध किया गया है और अब मेरी पुत्री देवयानीका भी वध करनेके लिये उसे कुएँमें ढकेला गया है। इन दोनों हत्याओंके कारण मैं तुमको और तुम्हारे भाई-बन्धुओंको त्याग दूँगा। राजन्! तुम्हारे राज्यमें और तुम्हारे साथ मैं एक क्षण भी नहीं ठहर सकूँगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो मामभिजानासि दैत्य मिथ्याप्रलापिनम्।
यथेममात्मनो दोषं न नियच्छस्युपेक्षसे ॥ ६ ॥

मूलम्

अहो मामभिजानासि दैत्य मिथ्याप्रलापिनम्।
यथेममात्मनो दोषं न नियच्छस्युपेक्षसे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्यराज! बड़े आश्चर्यकी बात है कि तुमने मुझे मिथ्यावादी समझ लिया। तभी तो तुम अपने इस दोषको दूर नहीं करते और लापरवाही दिखाते हो’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वृषपर्वोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(यदि ब्रह्मन् घातयामि यदि वाऽऽक्रोशयाम्यहम्।
शर्मिष्ठया देवयानीं तेन गच्छाम्यसद्‌गतिम्॥)

मूलम्

(यदि ब्रह्मन् घातयामि यदि वाऽऽक्रोशयाम्यहम्।
शर्मिष्ठया देवयानीं तेन गच्छाम्यसद्‌गतिम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वृषपर्वा बोले— ब्रह्मन्! यदि मैं शर्मिष्ठासे देवयानीको पिटवाता या तिरस्कृत करवाता होऊँ तो इस पापसे मुझे सद्‌गति न मिले।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मं न मृषावादं त्वयि जानामि भार्गव।
त्वयि धर्मश्च सत्यं च तत् प्रसीदतु नो भवान्॥७॥
यद्यस्मानपहाय त्वमितो गच्छसि भार्गव।
समुद्रं सम्प्रवेक्ष्यामो नान्यदस्ति परायणम् ॥ ८ ॥

मूलम्

नाधर्मं न मृषावादं त्वयि जानामि भार्गव।
त्वयि धर्मश्च सत्यं च तत् प्रसीदतु नो भवान्॥७॥
यद्यस्मानपहाय त्वमितो गच्छसि भार्गव।
समुद्रं सम्प्रवेक्ष्यामो नान्यदस्ति परायणम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुनन्दन! आपपर अधर्म अथवा मिथ्याभाषणका दोष मैंने कभी लगाया हो, यह मैं नहीं जानता। आपमें तो सदा धर्म और सत्य प्रतिष्ठित हैं। अतः आप हमलोगोंपर कृपा करके प्रसन्न होइये। भार्गव! यदि आप हमें छोड़कर चले जाते हैं तो हम सब लोग समुद्रमें समा जायँगे; हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(यद्येव देवान् गच्छेस्त्वं मां च त्यक्त्वा ग्रहाधिप।
सर्वत्यागं ततः कृत्वा प्रविशामि हुताशनम्॥)

मूलम्

(यद्येव देवान् गच्छेस्त्वं मां च त्यक्त्वा ग्रहाधिप।
सर्वत्यागं ततः कृत्वा प्रविशामि हुताशनम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

ग्रहेश्वर! यदि आप मुझे छोड़कर देवताओंके पक्षमें चले जायँगे तो मैं भी सर्वस्व त्याग कर जलती आगमें कूद पड़ूँगा।

मूलम् (वचनम्)

शुक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्रं प्रविशध्वं वा दिशो वा द्रवतासुराः।
दुहितुर्नाप्रियं सोढुं शक्तोऽहं दयिता हि मे ॥ ९ ॥

मूलम्

समुद्रं प्रविशध्वं वा दिशो वा द्रवतासुराः।
दुहितुर्नाप्रियं सोढुं शक्तोऽहं दयिता हि मे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यने कहा— असुरो! तुमलोग समुद्रमें घुस जाओ अथवा चारों दिशाओंमें भाग जाओ; मैं अपनी पुत्रीके प्रति किया गया अप्रिय बर्ताव नहीं सह सकता; क्योंकि वह मुझे अत्यन्त प्रिय है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसाद्यतां देवयानी जीवितं यत्र मे स्थितम्।
योगक्षेमकरस्तेऽहमिन्द्रस्येव बृहस्पतिः ॥ १० ॥

मूलम्

प्रसाद्यतां देवयानी जीवितं यत्र मे स्थितम्।
योगक्षेमकरस्तेऽहमिन्द्रस्येव बृहस्पतिः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम देवयानीको प्रसन्न करो, क्योंकि उसीमें मेरे प्राण बसते हैं। उसके प्रसन्न हो जानेपर इन्द्रके पुरोहित बृहस्पतिकी भाँति मैं तुम्हारे योगक्षेमका वहन करता रहूँगा॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

वृषपर्वोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् किंचिदसुरेन्द्राणां विद्यते वसु भार्गव।
भुवि हस्तिगवाश्वं च तस्य त्वं मम चेश्वरः ॥ ११ ॥

मूलम्

यत् किंचिदसुरेन्द्राणां विद्यते वसु भार्गव।
भुवि हस्तिगवाश्वं च तस्य त्वं मम चेश्वरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृषपर्वा बोले— भृगुनन्दन! असुरेश्वरोंके पास इस भूतलपर जो कुछ भी सम्पत्ति तथा हाथी-घोड़े और गाय आदि पशुधन है, उसके और मेरे भी आप ही स्वामी हैं॥११॥

मूलम् (वचनम्)

शुक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् किंचिदस्ति द्रविणं दैत्येन्द्राणां महासुर।
तस्येश्वरोऽस्मि यद्येषा देवयानी प्रसाद्यताम् ॥ १२ ॥

मूलम्

यत् किंचिदस्ति द्रविणं दैत्येन्द्राणां महासुर।
तस्येश्वरोऽस्मि यद्येषा देवयानी प्रसाद्यताम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यने कहा— महान् असुर! दैत्यराजोंका जो कुछ भी धन-वैभव है, यदि उसका स्वामी मैं ही हूँ तो उसके द्वारा इस देवयानीको प्रसन्न करो॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तथेत्याह वृषपर्वा महाकविः ।
देवयान्यन्तिकं गत्वा तमर्थं प्राह भार्गवः ॥ १३ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तथेत्याह वृषपर्वा महाकविः ।
देवयान्यन्तिकं गत्वा तमर्थं प्राह भार्गवः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर वृषपर्वाने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा मान ली। तदनन्तर दोनों देवयानीके पास गये और महाकवि शुक्राचार्यने वृषपर्वाकी कही हुई सारी बात कह सुनायी॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वमीश्वरस्तात राज्ञो वित्तस्य भार्गव।
नाभिजानामि तत् तेऽहं राजा तु वदतु स्वयम् ॥ १४ ॥

मूलम्

यदि त्वमीश्वरस्तात राज्ञो वित्तस्य भार्गव।
नाभिजानामि तत् तेऽहं राजा तु वदतु स्वयम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवयानीने कहा— तात! यदि आप राजाके धनके स्वामी हैं तो आपके कहनेसे मैं इस बातको नहीं मानूँगी। राजा स्वयं कहें, तो मुझे विश्वास होगा॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

वृषपर्वोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं काममभिकामासि देवयानि शुचिस्मिते।
तत् तेऽहं सम्प्रदास्यामि यदि वापि हि दुर्लभम् ॥ १५ ॥

मूलम्

यं काममभिकामासि देवयानि शुचिस्मिते।
तत् तेऽहं सम्प्रदास्यामि यदि वापि हि दुर्लभम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृषपर्वा बोले— पवित्र मुसकानवाली देवयानी! तुम जिस वस्तुको पाना चाहती हो, वह यदि दुर्लभ हो तो भी तुम्हें अवश्य दूँगा॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासीं कन्यासहस्रेण शर्मिष्ठामभिकामये ।
अनु मां तत्र गच्छेत् सा यत्र दद्याच्च मे पिता॥१६॥

मूलम्

दासीं कन्यासहस्रेण शर्मिष्ठामभिकामये ।
अनु मां तत्र गच्छेत् सा यत्र दद्याच्च मे पिता॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— मैं चाहती हूँ, शर्मिष्ठा एक हजार कन्याओंके साथ मेरी दासी होकर रहे और पिताजी जहाँ मेरा विवाह करें, वहाँ भी वह मेरे साथ जाय॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वृषपर्वोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ त्वं गच्छ धात्रि शर्मिष्ठां शीघ्रमानय।
यं च कामयते कामं देवयानी करोतु तम् ॥ १७ ॥

मूलम्

उत्तिष्ठ त्वं गच्छ धात्रि शर्मिष्ठां शीघ्रमानय।
यं च कामयते कामं देवयानी करोतु तम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर वृषपर्वाने धायसे कहा— धात्री! तुम उठो, जाओ और शर्मिष्ठाको शीघ्र बुला लाओ एवं देवयानीकी जो कामना हो, उसे वह पूर्ण करे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥)

मूलम्

(त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

कुलके हितके लिये एक मनुष्यको त्याग दे। गाँवके भलेके लिये एक कुलको छोड़ दे। जनपदके लिये एक गाँवकी उपेक्षा कर दे और आत्मकल्याणके लिये सारी पृथ्वीको त्याग दे।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धात्री तत्र गत्वा शर्मिष्ठां वाक्यमब्रवीत्।
उत्तिष्ठ भद्रे शर्मिष्ठे ज्ञातीनां सुखमावह ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो धात्री तत्र गत्वा शर्मिष्ठां वाक्यमब्रवीत्।
उत्तिष्ठ भद्रे शर्मिष्ठे ज्ञातीनां सुखमावह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— तब धायने शर्मिष्ठाके पास जाकर कहा—‘भद्रे शर्मिष्ठे! उठो और अपने जाति-भाइयोंको सुख पहुँचाओ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजति ब्राह्मणः शिष्यान् देवयान्या प्रचोदितः।
सा यं कामयते कामं स कार्योऽद्य त्वयानघे ॥ १९ ॥

मूलम्

त्यजति ब्राह्मणः शिष्यान् देवयान्या प्रचोदितः।
सा यं कामयते कामं स कार्योऽद्य त्वयानघे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पापरहित राजकुमारी! आज बाबा शुक्राचार्य देवयानीके कहनेसे अपने शिष्यों—यजमानोंको त्याग रहे हैं। अतः देवयानीकी जो कामना हो, वह तुम्हें पूर्ण करनी चाहिये’॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

शर्मिष्ठोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं सा कामयते कामं करवाण्यहमद्य तम्।
यद्येवमाह्वयेच्छुक्रो देवयानीकृते हि माम्।
मद्दोषान्मा गमच्छुक्रो देवयानी च मत्कृते ॥ २० ॥

मूलम्

यं सा कामयते कामं करवाण्यहमद्य तम्।
यद्येवमाह्वयेच्छुक्रो देवयानीकृते हि माम्।
मद्दोषान्मा गमच्छुक्रो देवयानी च मत्कृते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शर्मिष्ठा बोली— यदि इस प्रकार देवयानीके लिये ही शुक्राचार्यजी मुझे बुला रहे हैं तो देवयानी जो कुछ चाहती है, वह सब आजसे मैं करूँगी। मेरे अपराधसे शुक्राचार्यजी न जायँ और देवयानी भी मेरे कारण अन्यत्र जानेका विचार न करे॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कन्यासहस्रेण वृता शिबिकया तदा।
पितुर्नियोगात् त्वरिता निश्चक्राम पुरोत्तमात् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततः कन्यासहस्रेण वृता शिबिकया तदा।
पितुर्नियोगात् त्वरिता निश्चक्राम पुरोत्तमात् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर पिताकी आज्ञासे राजकुमारी शर्मिष्ठा शिबिकापर आरूढ़ हो तुरंत राजधानीसे बाहर निकली। उस समय वह एक सहस्र कन्याओंसे घिरी हुई थी॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

शर्मिष्ठोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं दासीसहस्रेण दासी ते परिचारिका।
अनु त्वां तत्र यास्यामि यत्र दास्यति ते पिता॥२२॥

मूलम्

अहं दासीसहस्रेण दासी ते परिचारिका।
अनु त्वां तत्र यास्यामि यत्र दास्यति ते पिता॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

शर्मिष्ठा बोली— देवयानी! मैं एक सहस्र दासियोंके साथ तुम्हारी दासी बनकर सेवा करूँगी और तुम्हारे पिता जहाँ भी तुम्हारा ब्याह करेंगे, वहाँ तुम्हारे साथ चलूँगी॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तुवतो दुहिताहं ते याचतः प्रतिगृह्णतः।
स्तूयमानस्य दुहिता कथं दासी भविष्यसि ॥ २३ ॥

मूलम्

स्तुवतो दुहिताहं ते याचतः प्रतिगृह्णतः।
स्तूयमानस्य दुहिता कथं दासी भविष्यसि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानीने कहा— अरी! मैं तो स्तुति करनेवाले और दान लेनेवाले भिक्षुककी पुत्री हूँ और तुम उस बड़े बापकी बेटी हो, जिसकी मेरे पिता स्तुति करते हैं; फिर मेरी दासी बनकर कैसे रहोगी॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

शर्मिष्ठोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन केनचिदार्तानां ज्ञातीनां सुखमावहेत्।
अतस्त्वामनुयास्यामि यत्र दास्यति ते पिता ॥ २४ ॥

मूलम्

येन केनचिदार्तानां ज्ञातीनां सुखमावहेत्।
अतस्त्वामनुयास्यामि यत्र दास्यति ते पिता ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शर्मिष्ठा बोली— जिस किसी उपायसे भी सम्भव हो, अपने विपद्ग्रस्त जाति-भाइयोंको सुख पहुँचाना चाहिये। अतः तुम्हारे पिता जहाँ तुम्हें देंगे, वहाँ भी मैं तुम्हारे साथ चलूँगी॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिश्रुते दासभावे दुहित्रा वृषपर्वणः।
देवयानी नृपश्रेष्ठ पितरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २५ ॥

मूलम्

प्रतिश्रुते दासभावे दुहित्रा वृषपर्वणः।
देवयानी नृपश्रेष्ठ पितरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! जब वृषपर्वाकी पुत्रीने दासी होनेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब देवयानीने अपने पितासे कहा॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविशामि पुरं तात तुष्टास्मि द्विजसत्तम।
अमोघं तव विज्ञानमस्ति विद्याबलं च ते ॥ २६ ॥

मूलम्

प्रविशामि पुरं तात तुष्टास्मि द्विजसत्तम।
अमोघं तव विज्ञानमस्ति विद्याबलं च ते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी बोली— पिताजी! अब मैं नगरमें प्रवेश करूँगी। द्विजश्रेष्ठ! अब मुझे विश्वास हो गया कि आपका विज्ञान और आपकी विद्याका बल अमोघ है॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो दुहित्रा स द्विजश्रेष्ठो महायशाः।
प्रविवेश पुरं हृष्टः पूजितः सर्वदानवैः ॥ २७ ॥

मूलम्

एवमुक्तो दुहित्रा स द्विजश्रेष्ठो महायशाः।
प्रविवेश पुरं हृष्टः पूजितः सर्वदानवैः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अपनी पुत्री देवयानीके ऐसा कहनेपर महायशस्वी द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्यने समस्त दानवोंसे पूजित एवं प्रसन्न होकर नगरमें प्रवेश किया॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्यानेऽशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं)