श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकोनाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
मूलम् (वचनम्)
शुक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(मम विद्या हि निर्द्वन्द्वा ऐश्वर्यं हि फलं मम।
दैन्यं शाठ्यं च जैह्म्यं च नास्ति मे यदधर्मतः॥)
यः परेषां नरो नित्यमतिवादांस्तितिक्षते।
देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम् ॥ १ ॥
यः समुत्पतितं क्रोधं निगृह्णाति हयं यथा।
स यन्तेत्युच्यते सद्भिर्न यो रश्मिषु लम्बते ॥ २ ॥
मूलम्
(मम विद्या हि निर्द्वन्द्वा ऐश्वर्यं हि फलं मम।
दैन्यं शाठ्यं च जैह्म्यं च नास्ति मे यदधर्मतः॥)
यः परेषां नरो नित्यमतिवादांस्तितिक्षते।
देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम् ॥ १ ॥
यः समुत्पतितं क्रोधं निगृह्णाति हयं यथा।
स यन्तेत्युच्यते सद्भिर्न यो रश्मिषु लम्बते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यने कहा— बेटी! मेरी विद्या द्वन्द्वरहित है। मेरा ऐश्वर्य ही उसका फल है। मुझमें दीनता, शठता, कुटिलता और अधर्मपूर्ण बर्ताव नहीं है। देवयानी! जो मनुष्य सदा दूसरोंके कठोर वचन (दूसरोंद्वारा की हुई अपनी निन्दा)-को सह लेता है, उसने इस सम्पूर्ण जगत्पर विजय प्राप्त कर ली, ऐसा समझो। जो उभरे हुए क्रोधको घोड़ेके समान वशमें कर लेता है, वही सत्पुरुषोंद्वारा सच्चा सारथि कहा गया है। किंतु जो केवल बागडोर या लगाम पकड़कर लटकता रहता है, वह नहीं॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः समुत्पतितं क्रोधमक्रोधेन निरस्यति।
देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
यः समुत्पतितं क्रोधमक्रोधेन निरस्यति।
देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी! जो उत्पन्न हुए क्रोधको अक्रोध (क्षमाभाव)-के द्वारा मनसे निकाल देता है, समझ लो, उसने सम्पूर्ण जगत्को जीत लिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयेह निरस्यति।
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयेह निरस्यति।
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे साँप पुरानी केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार जो मनुष्य उभड़नेवाले क्रोधको यहाँ क्षमाद्वारा त्याग देता है, वही श्रेष्ठ पुरुष कहा गया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः संधारयते मन्युं योऽतिवादांस्तितिक्षते।
यश्च तप्तो न तपति दृढं सोऽर्थस्य भाजनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
यः संधारयते मन्युं योऽतिवादांस्तितिक्षते।
यश्च तप्तो न तपति दृढं सोऽर्थस्य भाजनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो क्रोधको रोक लेता है, निन्दा सह लेता है और दूसरेके सतानेपर भी दुःखी नहीं होता, वही सब पुरुषार्थोंका सुदृढ़ पात्र है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो यजेदपरिश्रान्तो मासि मासि शतं समाः।
न क्रुद्धे्यद् यश्च सर्वस्य तयोरक्रोधनोऽधिकः ॥ ६ ॥
मूलम्
यो यजेदपरिश्रान्तो मासि मासि शतं समाः।
न क्रुद्धे्यद् यश्च सर्वस्य तयोरक्रोधनोऽधिकः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सौ वर्षोंतक प्रत्येक मासमें बिना किसी थकावटके निरन्तर यज्ञ करता रहता है और दूसरा जो किसीपर भी क्रोध नहीं करता, उन दोनोंमें क्रोध न करनेवाला ही श्रेष्ठ है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(क्रुद्धस्य निष्फलान्येव दानयज्ञतपांसि च।
तस्मादक्रोधने यज्ञस्तपो दानं महाफलम्॥
न पूतो न तपस्वी च न यज्वा न च कर्मवित्।
क्रोधस्य यो वशं गच्छेत् तस्य लोकद्वयं न च॥
पुत्रभृत्यसुहृन्मित्रभार्या धर्मश्च सत्यता ।
तस्यैतान्यपयास्यन्ति क्रोधशीलस्य निश्चितम् ॥)
यत् कुमाराः कुमार्यश्च वैरं कुर्युरचेतसः।
न तत् प्राज्ञोऽनुकुर्वीत न विदुस्ते बलाबलम् ॥ ७ ॥
मूलम्
(क्रुद्धस्य निष्फलान्येव दानयज्ञतपांसि च।
तस्मादक्रोधने यज्ञस्तपो दानं महाफलम्॥
न पूतो न तपस्वी च न यज्वा न च कर्मवित्।
क्रोधस्य यो वशं गच्छेत् तस्य लोकद्वयं न च॥
पुत्रभृत्यसुहृन्मित्रभार्या धर्मश्च सत्यता ।
तस्यैतान्यपयास्यन्ति क्रोधशीलस्य निश्चितम् ॥)
यत् कुमाराः कुमार्यश्च वैरं कुर्युरचेतसः।
न तत् प्राज्ञोऽनुकुर्वीत न विदुस्ते बलाबलम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधीके यज्ञ, दान और तप—सभी निष्फल होते हैं। अतः जो क्रोध नहीं करता, उसी पुरुषके यज्ञ, तप और दान महान् फल देनेवाले होते हैं। जो क्रोधके वशीभूत हो जाता है, वह कभी पवित्र नहीं होता तथा तपस्या भी नहीं कर सकता। उसके द्वारा यज्ञका अनुष्ठान भी सम्भव नहीं है और वह कर्मके रहस्यको भी नहीं जानता। इतना ही नहीं, उसके लोक और परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। जो स्वभावसे ही क्रोधी है, उसके पुत्र, भृत्स, सुहृद्, मित्र, पत्नी, धर्म और सत्य—ये सभी निश्चय ही उसे छोड़कर दूर चले जायँगे। अबोध बालक और बालिकाएँ अज्ञानवश आपसमें जो वैर-विरोध करते हैं, उसका अनुकरण समझदार मनुष्योंको नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे नादान बालक दूसरोंके बलाबलको नहीं जानते॥७॥
मूलम् (वचनम्)
देवयान्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहं तात बालापि धर्माणां यदिहान्तरम्।
अक्रोधे चातिवादे च वेद चापि बलाबलम् ॥ ८ ॥
मूलम्
वेदाहं तात बालापि धर्माणां यदिहान्तरम्।
अक्रोधे चातिवादे च वेद चापि बलाबलम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानीने कहा— पिताजी! यद्यपि मैं अभी बालिका हूँ फिर भी धर्म-अधर्मका अन्तर समझती हूँ। क्षमा और निन्दाकी सबलता और निर्बलताका भी मुझे ज्ञान है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्यस्याशिष्यवृत्तेस्तु न क्षन्तव्यं बुभूषता।
तस्मात् संकीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते ॥ ९ ॥
मूलम्
शिष्यस्याशिष्यवृत्तेस्तु न क्षन्तव्यं बुभूषता।
तस्मात् संकीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जो शिष्य होकर भी शिष्योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहनेवाले गुरुको उसकी धृष्टता क्षमा नहीं करनी चाहिये। इसलिये इन संकीर्ण आचार-विचारवाले दानवोंके बीच निवास करना अब मुझे अच्छा नहीं लगता॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुमांसो ये हि निन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च।
न तेषु निवसेत् प्राज्ञः श्रेयोऽर्थी पापबुद्धिषु ॥ १० ॥
मूलम्
पुमांसो ये हि निन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च।
न तेषु निवसेत् प्राज्ञः श्रेयोऽर्थी पापबुद्धिषु ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष दूसरोंके सदाचार और कुलकी निन्दा करते हैं, उन पापपूर्ण विचारवाले मनुष्योंमें कल्याणकी इच्छावाले विद्वान् पुरुषको नहीं रहना चाहिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वेनमभिजानन्ति वृत्तेनाभिजनेन वा।
तेषु साधुषु वस्तव्यं स वासः श्रेष्ठ उच्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
ये त्वेनमभिजानन्ति वृत्तेनाभिजनेन वा।
तेषु साधुषु वस्तव्यं स वासः श्रेष्ठ उच्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग आचार, व्यवहार अथवा कुलीनताकी प्रशंसा करते हों, उन साधु पुरुषोंमें ही निवास करना चाहिये और वही निवास श्रेष्ठ कहा जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सुयन्त्रिता वरा नित्यं विहीनाश्च धनैर्नराः।
दुर्वृत्ताः पापकर्माणश्चाण्डाला धनिनोऽपि वा॥
अकारणाद् ये द्विषन्ति परिवादं वदन्ति च।
न तत्रास्य निवासोऽस्ति पाप्मभिः पापतां व्रजेत्॥
सुकृते दुष्कृते वापि यत्र सज्जति यो नरः।
ध्रुवं रतिर्भवेत् तत्र तस्माद् दोषं न रोचयेत्॥)
वाग् दुरुक्तं महाघोरं दुहितुर्वृषपर्वणः।
मम मथ्नाति हृदयमग्निकाम इवारणिम् ॥ १२ ॥
मूलम्
(सुयन्त्रिता वरा नित्यं विहीनाश्च धनैर्नराः।
दुर्वृत्ताः पापकर्माणश्चाण्डाला धनिनोऽपि वा॥
अकारणाद् ये द्विषन्ति परिवादं वदन्ति च।
न तत्रास्य निवासोऽस्ति पाप्मभिः पापतां व्रजेत्॥
सुकृते दुष्कृते वापि यत्र सज्जति यो नरः।
ध्रुवं रतिर्भवेत् तत्र तस्माद् दोषं न रोचयेत्॥)
वाग् दुरुक्तं महाघोरं दुहितुर्वृषपर्वणः।
मम मथ्नाति हृदयमग्निकाम इवारणिम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनहीन मनुष्य भी यदि सदा अपने मनपर संयम रखें तो वे श्रेष्ठ हैं और धनवान् भी यदि दुराचारी तथा पापकर्मी हों, तो वे चाण्डालके समान हैं। जो अकारण किसीके साथ द्वेष करते हैं और दूसरोंकी निन्दा करते रहते हैं, उनके बीचमें सत्पुरुषका निवास नहीं होना चाहिये; क्योंकि पापियोंके संगसे मनुष्य पापात्मा हो जाता है। मनुष्य पाप अथवा पुण्य जिसमें भी आसक्त होता है, उसीमें उसकी दृढ़ प्रीति हो जाती है, इसलिये पापकर्ममें प्रीति नहीं करनी चाहिये। तात! वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने जो अत्यन्त भयंकर दुर्वचन कहा है, वह मेरे हृदयको मथ रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे अग्नि प्रकट करनेकी इच्छावाला पुरुष अरणीकाष्ठका मन्थन करता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यतो दुष्करतरं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु।
(निःसंशयो विशेषेण परुषं मर्मकृन्तनम्।
सुहृन्मित्रजनास्तेषु सौहृदं न च कुर्वते॥)
यः सपत्नश्रियं दीप्तां हीनश्रीः पर्युपासते।
मरणं शोभनं तस्य इति विद्वज्जना विदुः ॥ १३ ॥
मूलम्
न ह्यतो दुष्करतरं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु।
(निःसंशयो विशेषेण परुषं मर्मकृन्तनम्।
सुहृन्मित्रजनास्तेषु सौहृदं न च कुर्वते॥)
यः सपत्नश्रियं दीप्तां हीनश्रीः पर्युपासते।
मरणं शोभनं तस्य इति विद्वज्जना विदुः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे बढ़कर महान् दुःखकी बात मैं अपने लिये तीनों लोकोंमें और कुछ नहीं मानती हूँ। इसमें संदेह नहीं कि कटुवचन मर्मस्थलोंको विदीर्ण करनेवाला होता है। कटुवादी मनुष्योंसे उनके सगे-सम्बन्धी और मित्र भी प्रेम नहीं करते हैं। जो श्रीहीन होकर शत्रुओंकी चमकती हुई लक्ष्मीकी उपासना करता है, उस मनुष्यका तो मर जाना ही अच्छा है; ऐसा विद्वान् पुरुष अनुभव करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अवमानमवाप्नोति शनैर्नीचेषु सङ्गतः ।
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
शनैर्दुःखं शस्त्रविषाग्निजातं
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु॥
संरोहति शरैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्॥)
मूलम्
(अवमानमवाप्नोति शनैर्नीचेषु सङ्गतः ।
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
शनैर्दुःखं शस्त्रविषाग्निजातं
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु॥
संरोहति शरैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
नीच पुरुषोंके संगसे मनुष्य धीरे-धीरे अपमानित हो जाता है। मुखसे जो कटुवचनरूपी बाण छूटते हैं, उनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोकमें डूबा रहता है। शस्त्र, विष और अग्निसे प्राप्त होनेवाला दुःख शनैः-शनैः अनुभवमें आता है (परंतु कटुवचन तत्काल ही अत्यन्त कष्ट देने लगता है)। अतः विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह दूसरोंपर वाग्बाण न छोड़े। बाणसे बिंधा हुआ वृक्ष और फरसेसे काटा हुआ जंगल फिर पनप जाता है, परंतु वाणीद्वारा जो भयानक कटु वचन निकलता है, उससे घायल हुए हृदयका घाव फिर नहीं भरता।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १० श्लोक मिलाकर कुल २३ श्लोक हैं)