श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुएँमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यजीके साथ वार्तालाप
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतविद्ये कचे प्राप्ते हृष्टरूपा दिवौकसः।
कचादधीत्य तां विद्यां कृतार्था भरतर्षभ ॥ १ ॥
मूलम्
कृतविद्ये कचे प्राप्ते हृष्टरूपा दिवौकसः।
कचादधीत्य तां विद्यां कृतार्था भरतर्षभ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब कच मृतसंजीवनी विद्या सीखकर आ गये, तब देवताओंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कचसे उस विद्याको पढ़कर कृतार्थ हो गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एव समागम्य शतक्रतुमथाब्रुवन्।
कालस्ते विक्रमस्याद्य जहि शत्रून् पुरन्दर ॥ २ ॥
मूलम्
सर्व एव समागम्य शतक्रतुमथाब्रुवन्।
कालस्ते विक्रमस्याद्य जहि शत्रून् पुरन्दर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सबने मिलकर इन्द्रसे कहा—‘पुरन्दर! अब आपके लिये पराक्रम करनेका समय आ गया है, अपने शत्रुओंका संहार कीजिये’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु सहितैस्त्रिदशैर्मघवांस्तदा ।
तथेत्युक्त्वा प्रचक्राम सोऽपश्यत वने स्त्रियः ॥ ३ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु सहितैस्त्रिदशैर्मघवांस्तदा ।
तथेत्युक्त्वा प्रचक्राम सोऽपश्यत वने स्त्रियः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संगठित होकर आये हुए देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्र ‘बहुत अच्छा’ कहकर भूलोकमें आये। वहाँ एक वनमें उन्होंने बहुत-सी स्त्रियोंको देखा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडन्तीनां तु कन्यानां वने चैत्ररथोपमे।
वायुभूतः स वस्त्राणि सर्वाण्येव व्यमिश्रयत् ॥ ४ ॥
मूलम्
क्रीडन्तीनां तु कन्यानां वने चैत्ररथोपमे।
वायुभूतः स वस्त्राणि सर्वाण्येव व्यमिश्रयत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह वन चैत्ररथ नामक देवोद्यानके समान मनोहर था। उसमें वे कन्याएँ जलक्रीड़ा कर रही थीं। इन्द्रने वायुका रूप धारण करके उनके सारे कपड़े परस्पर मिला दिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जलात् समुत्तीर्य कन्यास्ताः सहितास्तदा।
वस्त्राणि जगृहुस्तानि यथासन्नान्यनेकशः ॥ ५ ॥
तत्र वासो देवयान्याः शर्मिष्ठा जगृहे तदा।
व्यतिमिश्रमजानन्ती दुहिता वृषपर्वणः ॥ ६ ॥
मूलम्
ततो जलात् समुत्तीर्य कन्यास्ताः सहितास्तदा।
वस्त्राणि जगृहुस्तानि यथासन्नान्यनेकशः ॥ ५ ॥
तत्र वासो देवयान्याः शर्मिष्ठा जगृहे तदा।
व्यतिमिश्रमजानन्ती दुहिता वृषपर्वणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे सभी कन्याएँ एक साथ जलसे निकलकर अपने-अपने अनेक प्रकारके वस्त्र, जो निकट ही रखे हुए थे; लेने लगीं। उस सम्मिश्रणमें शर्मिष्ठाने देवयानीका वस्त्र ले लिया। शर्मिष्ठा वृषपर्वाकी पुत्री थी; दोनोंके वस्त्र मिल गये हैं, इस बातका उसे पता नहीं था॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तयोर्मिथस्तत्र विरोधः समजायत ।
देवयान्याश्च राजेन्द्र शर्मिष्ठायाश्च तत्कृते ॥ ७ ॥
मूलम्
ततस्तयोर्मिथस्तत्र विरोधः समजायत ।
देवयान्याश्च राजेन्द्र शर्मिष्ठायाश्च तत्कृते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस समय वस्त्रोंकी अदला-बदलीको लेकर देवयानी और शर्मिष्ठा दोनोंमें वहाँ परस्पर बड़ा भारी विरोध खड़ा हो गया॥७॥
मूलम् (वचनम्)
देवयान्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्माद् गृह्णासि मे वस्त्रं शिष्या भूत्वा ममासुरि।
समुदाचारहीनाया न ते साधु भविष्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
कस्माद् गृह्णासि मे वस्त्रं शिष्या भूत्वा ममासुरि।
समुदाचारहीनाया न ते साधु भविष्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी बोली— अरी दानवकी बेटी! मेरी शिष्या होकर तू मेरा वस्त्र कैसे ले रही है? तू सज्जनोंके उत्तम आचारसे शून्य है, अतः तेरा भला न होगा॥८॥
मूलम् (वचनम्)
शर्मिष्ठोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीनं च शयानं च पिता ते पितरं मम।
स्तौति वन्दीव चाभीक्ष्णं नीचेः स्थित्वा विनीतवत् ॥ ९ ॥
मूलम्
आसीनं च शयानं च पिता ते पितरं मम।
स्तौति वन्दीव चाभीक्ष्णं नीचेः स्थित्वा विनीतवत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने कहा— अरी! मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों, उस समय तेरा पिता विनयशील सेवकके समान नीचे खड़ा होकर बार-बार वन्दीजनोंकी भाँति उनकी स्तुति करता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याचतस्त्वं हि दुहिता स्तुवतः प्रतिगृह्णतः।
सुताहं स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः ॥ १० ॥
आदुन्वस्व विदुन्वस्व द्रुह्य कुप्यस्व याचकि।
अनायुधा सायुधाया रिक्ता क्षुभ्यसि भिक्षुकि।
लप्स्यसे प्रतियोद्धारं न हि त्वां गणयाम्यहम् ॥ ११ ॥
मूलम्
याचतस्त्वं हि दुहिता स्तुवतः प्रतिगृह्णतः।
सुताहं स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः ॥ १० ॥
आदुन्वस्व विदुन्वस्व द्रुह्य कुप्यस्व याचकि।
अनायुधा सायुधाया रिक्ता क्षुभ्यसि भिक्षुकि।
लप्स्यसे प्रतियोद्धारं न हि त्वां गणयाम्यहम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू भिखमंगेकी बेटी है, तेरा बाप स्तुति करता और दान लेता है। मैं उनकी बेटी हूँ, जिनकी स्तुति की जाती है, जो दूसरोंको दान देते हैं और स्वयं किसीसे कुछ भी नहीं लेते हैं। अरी भिक्षुकि! तू छाती पीट-पीटकर रो अथवा धूलमें लोट-लोटकर कष्ट भोग। मुझसे द्रोह रख या क्रोध कर (इसकी परवा नहीं है)। भिखमंगिन! तू खाली हाथ है, तेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र भी नहीं है और देख ले, मेरे पास हथियार है। इसलिये तू मेरे ऊपर व्यर्थ ही क्रोध कर रही है। यदि लड़ना ही चाहती है, तो इधरसे भी डटकर सामना करनेवाला मुझ-जैसा योद्धा तुझे मिल जायगा। मैं तुझे कुछ भी नहीं गिनती॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(प्रतिकूलं वदसि चेदितः प्रभृति याचकि।
आकृष्य मम दासीभिः प्रस्थाप्यसि बहिर्बहिः॥)
मूलम्
(प्रतिकूलं वदसि चेदितः प्रभृति याचकि।
आकृष्य मम दासीभिः प्रस्थाप्यसि बहिर्बहिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षुकी! अबसे यदि मेरे विरुद्ध कोई बात कहेगी, तो अपनी दासियोंसे घसीटवाकर तुझे यहाँसे बाहर निकलवा दूँगी।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुच्छ्रयं देवयानीं गतां सक्तां च वाससि ॥ १२ ॥
शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे ततः स्वपुरमागमत्।
हतेयमिति विज्ञाय शर्मिष्ठा पापनिश्चया ॥ १३ ॥
मूलम्
समुच्छ्रयं देवयानीं गतां सक्तां च वाससि ॥ १२ ॥
शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे ततः स्वपुरमागमत्।
हतेयमिति विज्ञाय शर्मिष्ठा पापनिश्चया ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवयानीने सच्ची बातें कहकर अपनी उच्चता और महत्ता सिद्ध कर दी और शर्मिष्ठाके शरीरसे अपने वस्त्रको खींचने लगी। यह देख शर्मिष्ठाने उसे कुएँमें ढकेल दिया और अब यह मर गयी होगी, ऐसा समझकर पापमय विचारवाली शर्मिष्ठा नगरको लौट आयी॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनवेक्ष्य ययौ वेश्म क्रोधवेगपरायणा।
अथ तं देशमभ्यागाद् ययातिर्नहुषात्मजः ॥ १४ ॥
मूलम्
अनवेक्ष्य ययौ वेश्म क्रोधवेगपरायणा।
अथ तं देशमभ्यागाद् ययातिर्नहुषात्मजः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह क्रोधके आवेशमें थी, अतः देवयानीकी ओर देखे बिना ही घर लौट गयी। तदनन्तर नहुषपुत्र ययाति उस स्थानपर आये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रान्तयुग्यः श्रान्तहयो मृगलिप्सुः पिपासितः।
स नाहुषः प्रेक्षमाण उदपानं गतोदकम् ॥ १५ ॥
मूलम्
श्रान्तयुग्यः श्रान्तहयो मृगलिप्सुः पिपासितः।
स नाहुषः प्रेक्षमाण उदपानं गतोदकम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके रथके वाहन तथा अन्य घोड़े भी थक गये थे। वे एक हिंसक पशुको पकड़नेके लिये उसके पीछे-पीछे आये थे और प्याससे कष्ट पा रहे थे। ययाति उस जलशून्य कूपको देखने लगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श राजा तां तत्र कन्यामग्निशिखामिव।
तामपृच्छत् स दृष्ट्वैव कन्याममरवर्णिनीम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ददर्श राजा तां तत्र कन्यामग्निशिखामिव।
तामपृच्छत् स दृष्ट्वैव कन्याममरवर्णिनीम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन्हें अग्नि-शिखाके समान तेजस्विनी एक कन्या दिखायी दी, जो देवांगनाके समान सुन्दरी थी। उसपर दृष्टि पड़ते ही राजाने उससे पूछा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्त्वयित्वा नृपश्रेष्ठः साम्ना परमवल्गुना।
का त्वं ताम्रनखी श्यामा सुमृष्टमणिकुण्डला ॥ १७ ॥
मूलम्
सान्त्वयित्वा नृपश्रेष्ठः साम्ना परमवल्गुना।
का त्वं ताम्रनखी श्यामा सुमृष्टमणिकुण्डला ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ ययातिने पहले परम मधुर वचनोंद्वारा शान्तभावसे उसे आश्वासन दिया और कहा—‘तुम कौन हो? तुम्हारे नख लाल-लाल हैं। तुम षोडशी जान पड़ती हो। तुम्हारे कानोंके मणिमय कुण्डल अत्यन्त सुन्दर और चमकीले हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घं ध्यायसि चात्यर्थं कस्माच्छोचसि चातुरा।
कथं च पतितास्यस्मिन् कूपे वीरुत्तृणावृते ॥ १८ ॥
दुहिता चैव कस्य त्वं वद सत्यं सुमध्यमे।
मूलम्
दीर्घं ध्यायसि चात्यर्थं कस्माच्छोचसि चातुरा।
कथं च पतितास्यस्मिन् कूपे वीरुत्तृणावृते ॥ १८ ॥
दुहिता चैव कस्य त्वं वद सत्यं सुमध्यमे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम किसी अत्यन्त घोर चिन्तामें पड़ी हो। आतुर होकर शोक क्यों कर रही हो? तृण और लताओंसे ढके हुए इस कुएँमें कैसे गिर पड़ी? तुम किसकी पुत्री हो? सुमध्यमे! ठीक-ठीक बताओ’॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
देवयान्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ देवैर्हतान् दैत्यानुत्थापयति विद्यया ॥ १९ ॥
तस्य शुक्रस्य कन्याहं स मां नूनं न बुध्यते।
मूलम्
योऽसौ देवैर्हतान् दैत्यानुत्थापयति विद्यया ॥ १९ ॥
तस्य शुक्रस्य कन्याहं स मां नूनं न बुध्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी बोली— जो देवताओंद्वारा मारे गये दैत्योंको अपनी विद्याके बलसे जिलाया करते हैं, उन्हीं शुक्राचार्यकी मैं पुत्री हूँ। निश्चय ही उन्हें इस बातका पता नहीं होगा कि मैं इस दुरवस्थामें पड़ी हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पृच्छसे मां कस्त्वमसि रूपवीर्यबलान्वितः।
ब्रूह्यत्रागमनं किं वा श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥
मूलम्
(पृच्छसे मां कस्त्वमसि रूपवीर्यबलान्वितः।
ब्रूह्यत्रागमनं किं वा श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूप, वीर्य और बलसे सम्पन्न तुम कौन हो, जो मेरा परिचय पूछते हो। यहाँ तुम्हारे आगमनका क्या कारण है, बताओ। मैं यह सब ठीक-ठीक सुनना चाहती हूँ।
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिर्नाहुषोऽहं तु श्रान्तोऽद्य मृगलिप्सया।
कूपे तृणावृते भद्रे दृष्टवानस्मि त्वामिह॥)
मूलम्
ययातिर्नाहुषोऽहं तु श्रान्तोऽद्य मृगलिप्सया।
कूपे तृणावृते भद्रे दृष्टवानस्मि त्वामिह॥)
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिने कहा— भद्रे! मैं राजा नहुषका पुत्र ययाति हूँ। एक हिंसक पशुको मारनेकी इच्छासे इधर आ निकला। थका-माँदा प्यास बुझानेके लिये यहाँ आया और तिनकोंसे ढके हुए इस कूपमें गिरी हुई तुमपर मेरी दृष्टि पड़ गयी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मे दक्षिणो राजन् पाणिस्ताम्रनखाङ्गुलिः ॥ २० ॥
समुद्धर गृहीत्वा मां कुलीनस्त्वं हि मे मतः।
जानामि त्वां हि संशान्तं वीर्यवन्तं यशस्विनम् ॥ २१ ॥
तस्मान्मां पतितामस्मात् कूपादुद्धर्तुमर्हसि ।
मूलम्
एष मे दक्षिणो राजन् पाणिस्ताम्रनखाङ्गुलिः ॥ २० ॥
समुद्धर गृहीत्वा मां कुलीनस्त्वं हि मे मतः।
जानामि त्वां हि संशान्तं वीर्यवन्तं यशस्विनम् ॥ २१ ॥
तस्मान्मां पतितामस्मात् कूपादुद्धर्तुमर्हसि ।
अनुवाद (हिन्दी)
(देवयानी बोली—) महाराज! लाल नख और अंगुलियोंसे युक्त यह मेरा दाहिना हाथ है। इसे पकड़कर आप इस कुएँसे मेरा उद्धार कीजिये। मैं जानती हूँ, आप उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए नरेश हैं। मुझे यह भी मालूम है कि आप परम शान्त स्वभाववाले, पराक्रमी तथा यशस्वी वीर हैं। इसलिये इस कुएँमें गिरी हुई मुझ अबलाका आप यहाँसे उद्धार कीजिये॥२०-२१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामथो ब्राह्मणीं राजा विज्ञाय नहुषात्मजः ॥ २२ ॥
गृहीत्वा दक्षिणे पाणावुज्जहार ततोऽवटात्।
उद्धृत्य चैनां तरसा तस्मात् कूपान्नराधिपः ॥ २३ ॥
(गच्छ भद्रे यथाकामं न भयं विद्यते तव।
इत्युच्यमाना नृपतिं देवयानी तमुत्तरम्॥
उवाच मां त्वमादाय गच्छ शीघ्रं प्रियो हि मे।
गृहीताहं त्वया पाणौ तस्माद् भर्त्ता भविष्यसि॥
इत्येवमुक्तो नृपतिराह क्षत्रकुलोद्भवः ।
त्वं भद्रे ब्राह्मणी तस्मान्मया नार्हसि सङ्गमम्॥
सर्वलोकगुरुः काव्यस्त्वं तस्य दुहितासि वै।
तस्मादपि भयं मेऽद्य तस्मात् कल्याणि नार्हसि॥
मूलम्
तामथो ब्राह्मणीं राजा विज्ञाय नहुषात्मजः ॥ २२ ॥
गृहीत्वा दक्षिणे पाणावुज्जहार ततोऽवटात्।
उद्धृत्य चैनां तरसा तस्मात् कूपान्नराधिपः ॥ २३ ॥
(गच्छ भद्रे यथाकामं न भयं विद्यते तव।
इत्युच्यमाना नृपतिं देवयानी तमुत्तरम्॥
उवाच मां त्वमादाय गच्छ शीघ्रं प्रियो हि मे।
गृहीताहं त्वया पाणौ तस्माद् भर्त्ता भविष्यसि॥
इत्येवमुक्तो नृपतिराह क्षत्रकुलोद्भवः ।
त्वं भद्रे ब्राह्मणी तस्मान्मया नार्हसि सङ्गमम्॥
सर्वलोकगुरुः काव्यस्त्वं तस्य दुहितासि वै।
तस्मादपि भयं मेऽद्य तस्मात् कल्याणि नार्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर नहुषपुत्र राजा ययातिने देवयानीको ब्राह्मणकन्या जानकर उसका दाहिना हाथ अपने हाथमें ले उसे उस कुएँसे बाहर निकाला। वेगपूर्वक कुएँसे बाहर करके राजा ययाति उससे बोले—‘भद्रे! अब जहाँ इच्छा हो जाओ। तुम्हें कोई भय नहीं है।’ राजा ययातिके ऐसा कहनेपर देवयानीने उन्हें उत्तर देते हुए कहा—‘तुम मुझे शीघ्र अपने साथ ले चलो; क्योंकि तुम मेरे प्रियतम हो। तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, अतः तुम्हीं मेरे पति होओगे।’ देवयानीके ऐसा कहनेपर राजा बोले—‘भद्रे! मैं क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुआ हूँ और तुम ब्राह्मणकन्या हो। अतः मेरे साथ तुम्हारा समागम नहीं होना चाहिये। कल्याणी! भगवान् शुक्राचार्य सम्पूर्ण जगत्के गुरु हैं और तुम उनकी पुत्री हो, अतः मुझे उनसे भी डर लगता है। तुम मुझ-जैसे तुच्छ पुरुषके योग्य कदापि नहीं हो’।
मूलम् (वचनम्)
देवयान्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मद्वचनादद्य मां नेच्छसि नराधिप।
त्वामेव वरये पित्रा पश्चाज्ज्ञास्यसि गच्छसि॥)
मूलम्
यदि मद्वचनादद्य मां नेच्छसि नराधिप।
त्वामेव वरये पित्रा पश्चाज्ज्ञास्यसि गच्छसि॥)
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी बोली— नरेश्वर! यदि तुम मेरे कहनेसे आज मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते, तो मैं पिताजीके द्वारा भी तुम्हारा ही वरण करूँगी। फिर तुम मुझे अपने योग्य मानोगे और साथ ले चलोगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमन्त्रयित्वा सुश्रोणीं ययातिः स्वपुरं ययौ।
गते तु नाहुषे तस्मिन् देवयान्यप्यनिन्दिता ॥ २४ ॥
(क्वचिदार्ता च रुदती वृक्षमाश्रित्य तिष्ठति।
ततश्चिरायमाणायां दुहितर्याह भार्गवः ॥
धात्रि त्वमानय क्षिप्रं देवयानीं शुचिस्मिताम्।
इत्युक्तमात्रे सा धात्री त्वरिताऽऽह्वयितुं गता॥
यत्र यत्र सखीभिः सा गता पदममार्गत।
सा ददर्श तथा दीनां श्रमार्तां रुदतीं स्थिताम्॥
मूलम्
आमन्त्रयित्वा सुश्रोणीं ययातिः स्वपुरं ययौ।
गते तु नाहुषे तस्मिन् देवयान्यप्यनिन्दिता ॥ २४ ॥
(क्वचिदार्ता च रुदती वृक्षमाश्रित्य तिष्ठति।
ततश्चिरायमाणायां दुहितर्याह भार्गवः ॥
धात्रि त्वमानय क्षिप्रं देवयानीं शुचिस्मिताम्।
इत्युक्तमात्रे सा धात्री त्वरिताऽऽह्वयितुं गता॥
यत्र यत्र सखीभिः सा गता पदममार्गत।
सा ददर्श तथा दीनां श्रमार्तां रुदतीं स्थिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वैशम्पायनजी कहते हैं—) तदनन्तर सुन्दरी देवयानीकी अनुमति लेकर राजा ययाति अपने नगरको चले गये। नहुषनन्दन ययातिके चले जानेपर सती-साध्वी देवयानी आर्त-भावसे रोती हुई कहीं किसी वृक्षका सहारा लेकर खड़ी रही। जब पुत्रीके घर लौटनेमें विलम्ब हुआ, तब शुक्राचार्यने धायसे कहा—‘धाय! तू पवित्र हास्यवाली मेरी बेटी देवयानीको शीघ्र यहाँ बुला ला।’ उनके इतना कहते ही धाय तुरंत उसे बुलाने चली गयी। जहाँ-जहाँ देवयानी सखियोंके साथ गयी थी, वहाँ-वहाँ उसका पदचिह्न खोजती हुई धाय गयी और उसने पूर्वोक्त रूपसे श्रमपीड़ित एवं दीन होकर रोती हुई देवयानीको देखा।
मूलम् (वचनम्)
धात्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्तं ते किमिदं भद्रे शीघ्रं वद पिताऽऽह्वयत्।
धात्रीमाह समाहूय शर्मिष्ठावृजिनं कृतम्॥)
उवाच शोकसंतप्ता घूर्णिकामागतां पुरः।
मूलम्
वृत्तं ते किमिदं भद्रे शीघ्रं वद पिताऽऽह्वयत्।
धात्रीमाह समाहूय शर्मिष्ठावृजिनं कृतम्॥)
उवाच शोकसंतप्ता घूर्णिकामागतां पुरः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब धायने पूछा— भद्रे! यह तुम्हारा क्या हाल है? शीघ्र बताओ। तुम्हारे पिताजीने तुम्हें बुलाया है। इसपर देवयानीने धायको अपने निकट बुलाकर शर्मिष्ठाद्वारा किये हुए अपराधको बताया। वह शोकसे संतप्त हो अपने सामने आयी हुई धाय घूर्णिकासे बोली।
मूलम् (वचनम्)
देवयान्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वरितं घूर्णिके गच्छ शीघ्रमाचक्ष्व मे पितुः ॥ २५ ॥
नेदानीं सम्प्रवेक्ष्यामि नगरं वृषपर्वणः।
मूलम्
त्वरितं घूर्णिके गच्छ शीघ्रमाचक्ष्व मे पितुः ॥ २५ ॥
नेदानीं सम्प्रवेक्ष्यामि नगरं वृषपर्वणः।
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानीने कहा— घूर्णिके! तुम वेगपूर्वक जाओ और शीघ्र मेरे पिताजीसे कह दो—‘अब मैं वृषपर्वाके नगरमें पैर नहीं रखूँगी’॥२२-२५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तत्र त्वरितं गत्वा घूर्णिकासुरमन्दिरम् ॥ २६ ॥
दृष्ट्वा काव्यमुवाचेदं सम्भ्रमाविष्टचेतना ।
आचचक्षे महाप्राज्ञं देवयानीं वने हताम् ॥ २७ ॥
शर्मिष्ठया महाभाग दुहित्रा वृषपर्वणः।
श्रुत्वा दुहितरं काव्यस्तत्र शर्मिष्ठया हताम् ॥ २८ ॥
त्वरया निर्ययौ दुःखान्मार्गमाणः सुतां वने।
दृष्ट्वा दुहितरं काव्यो देवयानीं ततो वने ॥ २९ ॥
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य दुःखितो वाक्यमब्रवीत्।
आत्मदोषैर्नियच्छन्ति सर्वे दुःखसुखे जनाः ॥ ३० ॥
मन्ये दुश्चरितं तेऽस्ति यस्येयं निष्कृतिः कृता।
मूलम्
सा तत्र त्वरितं गत्वा घूर्णिकासुरमन्दिरम् ॥ २६ ॥
दृष्ट्वा काव्यमुवाचेदं सम्भ्रमाविष्टचेतना ।
आचचक्षे महाप्राज्ञं देवयानीं वने हताम् ॥ २७ ॥
शर्मिष्ठया महाभाग दुहित्रा वृषपर्वणः।
श्रुत्वा दुहितरं काव्यस्तत्र शर्मिष्ठया हताम् ॥ २८ ॥
त्वरया निर्ययौ दुःखान्मार्गमाणः सुतां वने।
दृष्ट्वा दुहितरं काव्यो देवयानीं ततो वने ॥ २९ ॥
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य दुःखितो वाक्यमब्रवीत्।
आत्मदोषैर्नियच्छन्ति सर्वे दुःखसुखे जनाः ॥ ३० ॥
मन्ये दुश्चरितं तेऽस्ति यस्येयं निष्कृतिः कृता।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवयानीकी बात सुनकर घूर्णिका तुरंत असुरराजके महलमें गयी और वहाँ शुक्राचार्यको देखकर सम्भ्रमपूर्ण चित्तसे वह बात बतला दी। महाभाग! उसने महाप्राज्ञ शुक्राचार्यको यह बताया कि ‘वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके द्वारा देवयानी वनमें मृततुल्य कर दी गयी है।’ अपनी पुत्रीको शर्मिष्ठा-द्वारा मृततुल्य की गयी सुनकर शुक्राचार्य बड़ी उतावलीके साथ निकले और दुःखी होकर उसे वनमें ढूँढ़ने लगे। तदनन्तर वनमें अपनी बेटी देवयानीको देखकर शुक्राचार्यने दोनों भुजाओंसे उठाकर उसे हृदयसे लगा लिया और दुःखी होकर कहा—‘बेटी! सब लोग अपने ही दोष और गुणोंसे—अशुभ या शुभ कर्मोंसे दुःख एवं सुखमें पड़ते हैं। मालूम होता है, तुमसे कोई बुरा कर्म बन गया था, जिसका बदला तुम्हें इस रूपमें मिला है’॥२६-३०॥
मूलम् (वचनम्)
देवयान्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्कृतिर्मेऽस्तु वा मास्तु शृणुष्वावहितो मम ॥ ३१ ॥
मूलम्
निष्कृतिर्मेऽस्तु वा मास्तु शृणुष्वावहितो मम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी बोली— पिताजी! मुझे अपने कर्मोंका फल मिले या न मिले, आप मेरी बात ध्यान देकर सुनिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शर्मिष्ठया यदुक्तास्मि दुहित्रा वृषपर्वणः।
सत्यं किलैतत् सा प्राह दैत्यानामसि गायनः ॥ ३२ ॥
मूलम्
शर्मिष्ठया यदुक्तास्मि दुहित्रा वृषपर्वणः।
सत्यं किलैतत् सा प्राह दैत्यानामसि गायनः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने आज मुझसे जो कुछ कहा है, क्या यह सच है? वह कहती है—‘आप भाटोंकी तरह दैत्योंके गुण गाया करते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि मे कथयति शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
वचनं तीक्ष्णपरुषं क्रोधरक्तेक्षणा भृशम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवं हि मे कथयति शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
वचनं तीक्ष्णपरुषं क्रोधरक्तेक्षणा भृशम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृषपर्वाकी लाड़िली शर्मिष्ठा क्रोधसे लाल आँखें करके आज मुझसे इस प्रकार अत्यन्त तीखे और कठोर वचन कह रही थी—॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुवतो दुहिता नित्यं याचतः प्रतिगृह्णतः।
अहं तु स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
स्तुवतो दुहिता नित्यं याचतः प्रतिगृह्णतः।
अहं तु स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवयानी! तू स्तुति करनेवाले, नित्य भीख माँगनेवाले और दान लेनेवालेकी बेटी है और मैं तो उन महाराजकी पुत्री हूँ, जिनकी तुम्हारे पिता स्तुति करते हैं, जो स्वयं दान देते हैं और लेते एक धेला भी नहीं हैं’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं मामाह शर्मिष्ठा दुहिता वृषपर्वणः।
क्रोधसंरक्तनयना दर्पपूर्णा पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
मूलम्
इदं मामाह शर्मिष्ठा दुहिता वृषपर्वणः।
क्रोधसंरक्तनयना दर्पपूर्णा पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृषपर्वाकी बेटी शर्मिष्ठाने आज मुझसे ऐसी बात कही है। कहते समय उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। वह भारी घमंडसे भरी हुई थी और उसने एक बार ही नहीं, अपितु बार-बार उपर्युक्त बातें दुहरायी हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यहं स्तुवतस्तात दुहिता प्रतिगृह्णतः।
प्रसादयिष्ये शर्मिष्ठामित्युक्ता तु सखी मया ॥ ३६ ॥
मूलम्
यद्यहं स्तुवतस्तात दुहिता प्रतिगृह्णतः।
प्रसादयिष्ये शर्मिष्ठामित्युक्ता तु सखी मया ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! यदि सचमुच मैं स्तुति करनेवाले और दान लेनेवालेकी बेटी हूँ, तो मैं शर्मिष्ठाको अपनी सेवाओंद्वारा प्रसन्न करूँगी। यह बात मैंने अपनी सखीसे कह दी थी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(उक्ताप्येवं भृशं क्रुद्धा मां गृह्य विजने वने।
कूपे प्रक्षेपयामास प्रक्षिप्यैव गृहं ययौ॥)
मूलम्
(उक्ताप्येवं भृशं क्रुद्धा मां गृह्य विजने वने।
कूपे प्रक्षेपयामास प्रक्षिप्यैव गृहं ययौ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे ऐसा कहनेपर भी अत्यन्त क्रोधमें भरी हुई शर्मिष्ठाने उस निर्जन वनमें मुझे पकड़कर कुएँमें ढकेल दिया, उसके बाद वह अपने घर चली गयी।
मूलम् (वचनम्)
शुक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुवतो दुहिता न त्वं याचतः प्रतिगृह्णतः।
अस्तोतुः स्तूयमानस्य दुहिता देवयान्यसि ॥ ३७ ॥
मूलम्
स्तुवतो दुहिता न त्वं याचतः प्रतिगृह्णतः।
अस्तोतुः स्तूयमानस्य दुहिता देवयान्यसि ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यने कहा— देवयानी! तू स्तुति करनेवाले, भीख माँगनेवाले या दान लेनेवालेकी बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मणकी पुत्री है, जो किसीकी स्तुति नहीं करता और जिसकी सब लोग स्तुति करते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृषपर्वैव तद् वेद शक्रो राजा च नाहुषः।
अचिन्त्यं ब्रह्म निर्द्वन्द्वमैश्वरं हि बलं मम ॥ ३८ ॥
मूलम्
वृषपर्वैव तद् वेद शक्रो राजा च नाहुषः।
अचिन्त्यं ब्रह्म निर्द्वन्द्वमैश्वरं हि बलं मम ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बातको वृषपर्वा, देवराज इन्द्र तथा राजा ययाति जानते हैं। निर्द्वन्द्व अचिन्त्य ब्रह्म ही मेरा ऐश्वर्ययुक्त बल है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च किंचित् सर्वगतं भूमौ वा यदि वा दिवि।
तस्याहमीश्वरो नित्यं तुष्टेनोक्तः स्वयम्भुवा ॥ ३९ ॥
मूलम्
यच्च किंचित् सर्वगतं भूमौ वा यदि वा दिवि।
तस्याहमीश्वरो नित्यं तुष्टेनोक्तः स्वयम्भुवा ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने संतुष्ट होकर मुझे वरदान दिया है; उसके अनुसार इस भूतलपर, देवलोकमें अथवा सब प्राणियोंमें जो कुछ भी है, उन सबका मैं सदा-सर्वदा स्वामी हूँ॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं जलं विमुञ्चामि प्रजानां हितकाम्यया।
पुष्णाम्योषधयः सर्वा इति सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ४० ॥
मूलम्
अहं जलं विमुञ्चामि प्रजानां हितकाम्यया।
पुष्णाम्योषधयः सर्वा इति सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ही प्रजाओंके हितके लिये पानी बरसाता हूँ और मैं ही सम्पूर्ण ओषधियोंका पोषण करता हूँ, यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ॥४०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विषादमापन्नां मन्युना सम्प्रपीडिताम्।
वचनैर्मधुरैः श्लक्ष्णैः सान्त्वयामास तां पिता ॥ ४१ ॥
मूलम्
एवं विषादमापन्नां मन्युना सम्प्रपीडिताम्।
वचनैर्मधुरैः श्लक्ष्णैः सान्त्वयामास तां पिता ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवयानी इस प्रकार विषादमें डूबकर क्रोध और ग्लानिसे अत्यन्त कष्ट पा रही थी, उस समय पिताने सुन्दर मधुर वचनोंद्वारा उसे समझाया॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्यानेऽष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १३ श्लोक मिलाकर कुल ५४ श्लोक हैं)