०७७ कच-देवयानी-शापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समावृतव्रतं तं तु विसृष्टं गुरुणा तदा।
प्रस्थितं त्रिदशावासं देवयान्यब्रवीदिदम् ॥ १ ॥
ऋषेरङ्गिरसः पौत्र वृत्तेनाभिजनेन च।
भ्राजसे विद्यया चैव तपसा च दमेन च ॥ २ ॥

मूलम्

समावृतव्रतं तं तु विसृष्टं गुरुणा तदा।
प्रस्थितं त्रिदशावासं देवयान्यब्रवीदिदम् ॥ १ ॥
ऋषेरङ्गिरसः पौत्र वृत्तेनाभिजनेन च।
भ्राजसे विद्यया चैव तपसा च दमेन च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जब कचका व्रत समाप्त हो गया और गुरुने उन्हें जानेकी आज्ञा दे दी, तब वे देवलोकको प्रस्थित हुए। उस समय देवयानीने उनसे इस प्रकार कहा—‘महर्षि अंगिराके पौत्र! आप सदाचार, उत्तम कुल, विद्या, तपस्या तथा इन्द्रियसंयम आदिसे बड़ी शोभा पा रहे हैं॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिर्यथाङ्गिरा मान्यः पितुर्मम महायशाः।
तथा मान्यश्च पूज्यश्च मम भूयो बृहस्पतिः ॥ ३ ॥

मूलम्

ऋषिर्यथाङ्गिरा मान्यः पितुर्मम महायशाः।
तथा मान्यश्च पूज्यश्च मम भूयो बृहस्पतिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महायशस्वी महर्षि अंगिरा जिस प्रकार मेरे पिताजीके लिये माननीय हैं, उसी प्रकार आपके पिता बृहस्पतिजी मेरे लिये आदरणीय तथा पूज्य हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ज्ञात्वा विजानीहि यद् ब्रवीमि तपोधन।
व्रतस्थे नियमोपेते यथा वर्ताम्यहं त्वयि ॥ ४ ॥

मूलम्

एवं ज्ञात्वा विजानीहि यद् ब्रवीमि तपोधन।
व्रतस्थे नियमोपेते यथा वर्ताम्यहं त्वयि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तपोधन! ऐसा जानकर मैं जो कहती हूँ उसपर विचार करें। आप जब व्रत और नियमोंके पालनमें लगे थे, उन दिनों मैंने आपके साथ जो बर्ताव किया है, उसे आप भूले नहीं होंगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समावृतविद्यो मां भक्तां भजितुमर्हसि।
गृहाण पाणिं विधिवन्मम मन्त्रपुरस्कृतम् ॥ ५ ॥

मूलम्

स समावृतविद्यो मां भक्तां भजितुमर्हसि।
गृहाण पाणिं विधिवन्मम मन्त्रपुरस्कृतम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब आप व्रत समाप्त करके अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त कर चुके हैं। मैं आपसे प्रेम करती हूँ, आप मुझे स्वीकार करें; वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक विधिवत् मेरा पाणिग्रहण कीजिये’॥५॥

मूलम् (वचनम्)

कच उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूज्यो मान्यश्च भगवान् यथा तव पिता मम।
तथा त्वमनवद्याङ्गि पूजनीयतरा मम ॥ ६ ॥

मूलम्

पूज्यो मान्यश्च भगवान् यथा तव पिता मम।
तथा त्वमनवद्याङ्गि पूजनीयतरा मम ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कचने कहा— निर्दोष अंगोंवाली देवयानी! जैसे तुम्हारे पिता भगवान् शुक्राचार्य मेरे लिये पूजनीय और माननीय हैं, वैसे ही तुम हो; बल्कि उनसे भी बढ़कर मेरी पूजनीया हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणेभ्योऽपि प्रियतरा भार्गवस्य महात्मनः।
त्वं भद्रे धर्मतः पूज्या गुरुपुत्री सदा मम ॥ ७ ॥

मूलम्

प्राणेभ्योऽपि प्रियतरा भार्गवस्य महात्मनः।
त्वं भद्रे धर्मतः पूज्या गुरुपुत्री सदा मम ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भद्रे! महात्मा भार्गवको तुम प्राणोंसे भी अधिक प्यारी हो, गुरुपुत्री होनेके कारण धर्मकी दृष्टिसे सदा मेरी पूजनीया हो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा मम गुरुर्नित्यं मान्यः शुक्रः पिता तव।
देवयानि तथैव त्वं नैवं मां वक्तुमर्हसि ॥ ८ ॥

मूलम्

यथा मम गुरुर्नित्यं मान्यः शुक्रः पिता तव।
देवयानि तथैव त्वं नैवं मां वक्तुमर्हसि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी! जैसे मेरे गुरुदेव तुम्हारे पिता शुक्राचार्य सदा मेरे माननीय हैं, उसी प्रकार तुम हो; अतः तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये॥८॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपुत्रस्य पुत्रो वै न त्वं पुत्रश्च मे पितुः।
तस्मात् पूज्यश्च मान्यश्च ममापि त्वं द्विजोत्तम ॥ ९ ॥
असुरैर्हन्यमाने च कच त्वयि पुनः पुनः।
तदा प्रभृति या प्रीतिस्तां त्वमद्य स्मरस्व मे ॥ १० ॥

मूलम्

गुरुपुत्रस्य पुत्रो वै न त्वं पुत्रश्च मे पितुः।
तस्मात् पूज्यश्च मान्यश्च ममापि त्वं द्विजोत्तम ॥ ९ ॥
असुरैर्हन्यमाने च कच त्वयि पुनः पुनः।
तदा प्रभृति या प्रीतिस्तां त्वमद्य स्मरस्व मे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी बोली— द्विजोत्तम! आप मेरे पिताके गुरुपुत्रके पुत्र हैं, मेरे पिताके नहीं; अतः मेरे लिये भी आप पूजनीय और माननीय हैं। कच! जब असुर आपको बार-बार मार डालते थे, तबसे लेकर आजतक आपके प्रति मेरा जो प्रेम रहा है, उसे आज याद कीजिये॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौहार्दे चानुरागे च वेत्थ मे भक्तिमुत्तमाम्।
न मामर्हसि धर्मज्ञ त्यक्तुं भक्तामनागसम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सौहार्दे चानुरागे च वेत्थ मे भक्तिमुत्तमाम्।
न मामर्हसि धर्मज्ञ त्यक्तुं भक्तामनागसम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौहार्द और अनुरागके अवसरपर मेरी उत्तम भक्तिका परिचय आपको मिल चुका है। आप धर्मके ज्ञाता हैं। मैं आपके प्रति भक्ति रखनेवाली निरपराध अबला हूँ। आपको मेरा त्याग करना उचित नहीं है॥११॥

मूलम् (वचनम्)

कच उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनियोज्ये नियोगे मां नियुनङ्‌क्षि शुभव्रते।
प्रसीद सुभ्रु त्वं मह्यं गुरोर्गुरुतरा शुभे ॥ १२ ॥
यत्रोषितं विशालाक्षि त्वया चन्द्रनिभानने।
तत्राहमुषितो भद्रे कुक्षौ काव्यस्य भामिनि ॥ १३ ॥
भगिनी धर्मतो मे त्वं मैवं वोचः सुमध्यमे।
सुखमस्म्युषितो भद्रे न मन्युर्विद्यते मम ॥ १४ ॥

मूलम्

अनियोज्ये नियोगे मां नियुनङ्‌क्षि शुभव्रते।
प्रसीद सुभ्रु त्वं मह्यं गुरोर्गुरुतरा शुभे ॥ १२ ॥
यत्रोषितं विशालाक्षि त्वया चन्द्रनिभानने।
तत्राहमुषितो भद्रे कुक्षौ काव्यस्य भामिनि ॥ १३ ॥
भगिनी धर्मतो मे त्वं मैवं वोचः सुमध्यमे।
सुखमस्म्युषितो भद्रे न मन्युर्विद्यते मम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कचने कहा— उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली सुन्दरी! तुम मुझे ऐसे कार्यमें लगा रही हो, जिसमें लगाना कदापि उचित नहीं है। शुभे! तुम मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। तुम मेरे लिये गुरुसे भी बढ़कर गुरुतर हो। विशाल नेत्र तथा चन्द्रमाके समान मुखवाली भामिनि! शुक्राचार्यके जिस उदरमें तुम रह चुकी हो, उसीमें मैं भी रहा हूँ। इसलिये भद्रे! धर्मकी दृष्टिसे तुम मेरी बहिन हो। अतः सुमध्यमे! मुझसे ऐसी बात न कहो। कल्याणी! मैं तुम्हारे यहाँ बड़े सुखसे रहा हूँ। तुम्हारे प्रति मेरे मनमें तनिक भी रोष नहीं है॥१२—१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपृच्छे त्वां गमिष्यामि शिवमाशंस मे पथि।
अविरोधेन धर्मस्य स्मर्तव्योऽस्मि कथान्तरे।
अप्रमत्तोत्थिता नित्यमाराधय गुरुं मम ॥ १५ ॥

मूलम्

आपृच्छे त्वां गमिष्यामि शिवमाशंस मे पथि।
अविरोधेन धर्मस्य स्मर्तव्योऽस्मि कथान्तरे।
अप्रमत्तोत्थिता नित्यमाराधय गुरुं मम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं जाऊँगा, इसलिये तुमसे पूछता हूँ—तुम्हारी आज्ञा चाहता हूँ, आशीर्वाद दो कि मार्गमें मेरा मंगल हो। धर्मकी अनुकूलता रखते हुए बातचीतके प्रसंगमें कभी मेरा भी स्मरण कर लेना और सदा सावधान एवं सजग रहकर मेरे गुरुदेवकी सेवामें लगी रहना॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

देवयान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मां धर्मकामार्थे प्रत्याख्यास्यसि याचितः।
ततः कच न ते विद्या सिद्धिमेषा गमिष्यति ॥ १६ ॥

मूलम्

यदि मां धर्मकामार्थे प्रत्याख्यास्यसि याचितः।
ततः कच न ते विद्या सिद्धिमेषा गमिष्यति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवयानी बोली— कच! मैंने धर्मानुकूल कामके लिये आपसे प्रार्थना की है। यदि आप मुझे ठुकरा देंगे, तो आपकी यह संजीवनी विद्या सिद्ध नहीं हो सकेगी॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

कच उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपुत्रीति कृत्वाहं प्रत्याचक्षे न दोषतः।
गुरुणा चाननुज्ञातः काममेवं शपस्व माम् ॥ १७ ॥

मूलम्

गुरुपुत्रीति कृत्वाहं प्रत्याचक्षे न दोषतः।
गुरुणा चाननुज्ञातः काममेवं शपस्व माम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कचने कहा— देवयानी! गुरुपुत्री समझकर ही मैंने तुम्हारे अनुरोधको टाल दिया है; तुममें कोई दोष देखकर नहीं। गुरुजीने भी इसके विषयमें मुझे कोई आज्ञा नहीं दी है। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, मुझे शाप दे दो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्षं धर्मं ब्रुवाणोऽहं देवयानि यथा त्वया।
शप्तो नार्होऽस्मि शापस्य कामतोऽद्य न धर्मतः ॥ १८ ॥
तस्माद् भवत्या यः कामो न तथा स भविष्यति।
ऋषिपुत्रो न ते कश्चिज्जातु पाणिं ग्रहीष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

आर्षं धर्मं ब्रुवाणोऽहं देवयानि यथा त्वया।
शप्तो नार्होऽस्मि शापस्य कामतोऽद्य न धर्मतः ॥ १८ ॥
तस्माद् भवत्या यः कामो न तथा स भविष्यति।
ऋषिपुत्रो न ते कश्चिज्जातु पाणिं ग्रहीष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहिन! मैं आर्ष धर्मकी बात बता रहा था। इस दशामें तुम्हारे द्वारा शाप पानेके योग्य नहीं था। तुमने मुझे धर्मके अनुसार नहीं, कामके वशीभूत होकर आज शाप दिया है, इसलिये तुम्हारे मनमें जो कामना है, वह पूरी नहीं होगी। कोई भी ऋषिपुत्र (ब्राह्मणकुमार) कभी तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलिष्यति न ते विद्या यत् त्वं मामात्थ तत् तथा।
अध्यापयिष्यामि तु यं तस्य विद्या फलिष्यति ॥ २० ॥

मूलम्

फलिष्यति न ते विद्या यत् त्वं मामात्थ तत् तथा।
अध्यापयिष्यामि तु यं तस्य विद्या फलिष्यति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने जो मुझे यह कहा कि तुम्हारी विद्या सफल नहीं होगी, सो ठीक है; किंतु मैं जिसे यह विद्या पढ़ा दूँगा, उसकी विद्या तो सफल होगी ही॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा द्विजश्रेष्ठो देवयानीं कचस्तदा।
त्रिदशेशालयं शीघ्रं जगाम द्विजसत्तमः ॥ २१ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा द्विजश्रेष्ठो देवयानीं कचस्तदा।
त्रिदशेशालयं शीघ्रं जगाम द्विजसत्तमः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! द्विजश्रेष्ठ कच देवयानीसे ऐसा कहकर तत्काल बड़ी उतावलीके साथ इन्द्रलोकको चले गये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमागतमभिप्रेक्ष्य देवा इन्द्रपुरोगमाः ।
बृहस्पतिं सभाज्येदं कचं वचनमब्रुवन् ॥ २२ ॥

मूलम्

तमागतमभिप्रेक्ष्य देवा इन्द्रपुरोगमाः ।
बृहस्पतिं सभाज्येदं कचं वचनमब्रुवन् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें आया देख इन्द्रादि देवता बृहस्पतिजीकी सेवामें उपस्थित हो कचसे यह वचन बोले॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वयास्मद्धितं कर्म कृतं वै परमाद्भुतम्।
न ते यशः प्रणशिता भागभाक् च भविष्यसि ॥ २३ ॥

मूलम्

यत् त्वयास्मद्धितं कर्म कृतं वै परमाद्भुतम्।
न ते यशः प्रणशिता भागभाक् च भविष्यसि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— ब्रह्मन्! तुमने हमारे हितके लिये यह बड़ा अद्‌भुत कार्य किया है, अतः तुम्हारे यशका कभी लोप नहीं होगा और तुम यज्ञमें भाग पानेके अधिकारी होओगे॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७७॥