श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शकुन्तलाके पुत्रका जन्म,
उसकी अद्भुत शक्ति,
पुत्रसहित शकुन्तलाका दुष्यन्तके यहाँ जाना,
दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद,
आकाशवाणीद्वारा शकुन्तलाकी शुद्धिका समर्थन
और भरतका राज्याभिषेक
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञाय तु दुष्यन्ते प्रतियाते शकुन्तलाम्।
(गर्भश्च ववृधे तस्यां राजपुत्र्यां महात्मनः।
शकुन्तला चिन्तयन्ती राजानं कार्यगौरवात्॥
दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता ॥
राजप्रेषणिका विप्राश्चतुरङ्गबलैः सह ।
अद्य श्वो वा परश्वो वा समायान्तीति निश्चिता॥
दिवसान् पक्षानृतून् मासानयनानि च सर्वशः।
गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत॥)
मूलम्
प्रतिज्ञाय तु दुष्यन्ते प्रतियाते शकुन्तलाम्।
(गर्भश्च ववृधे तस्यां राजपुत्र्यां महात्मनः।
शकुन्तला चिन्तयन्ती राजानं कार्यगौरवात्॥
दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता ॥
राजप्रेषणिका विप्राश्चतुरङ्गबलैः सह ।
अद्य श्वो वा परश्वो वा समायान्तीति निश्चिता॥
दिवसान् पक्षानृतून् मासानयनानि च सर्वशः।
गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब शकुन्तलासे पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके राजा दुष्यन्त चले गये, तब क्षत्रियकन्या शकुन्तलाके उदरमें उन महात्मा दुष्यन्तके द्वारा स्थापित किया हुआ गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने और पुष्ट होने लगा। शकुन्तला कार्यकी गुरुतापर दृष्टि रखकर निरन्तर राजा दुष्यन्तका ही चिन्तन करती रहती थी। उसे न तो दिनमें नींद आती थी और न रातमें ही। उसका स्नान और भोजन छूट गया था। उसे यह दृढ़ विश्वास था कि राजाके भेजे हुए ब्राह्मण चतुरंगिणी सेनाके साथ आज, कल या परसोंतक मुझे लेनेके लिये अवश्य आ जायँगे। भरतनन्दन! शकुन्तलाको दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन तथा वर्ष—इन सबकी गणना करते-करते तीन वर्ष बीत गये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्भं सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम् ॥ १ ॥
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम्।
रूपौदार्यगुणोपेतं दौष्यन्तिं जनमेजय ॥ २ ॥
मूलम्
गर्भं सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम् ॥ १ ॥
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम्।
रूपौदार्यगुणोपेतं दौष्यन्तिं जनमेजय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! तदनन्तर पूरे तीन वर्ष व्यतीत होनेके बाद सुन्दर जाँघोंवाली शकुन्तलाने अपने गर्भसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी, रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न, अमित पराक्रमी कुमारको जन्म दिया, जो दुष्यन्तके वीर्यसे उत्पन्न हुआ था॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तस्मै तदान्तरिक्षात् तु पुष्पवृष्टिः पपात ह।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥
गायन्त्यो मधुरं तत्र देवैः शक्रोऽभ्युवाच ह।
मूलम्
(तस्मै तदान्तरिक्षात् तु पुष्पवृष्टिः पपात ह।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥
गायन्त्यो मधुरं तत्र देवैः शक्रोऽभ्युवाच ह।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशसे उस बालकके लिये फूलोंकी वर्षा हुई, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और अप्सराएँ मधुर स्वरमें गाती हुई नृत्य करने लगीं। उस अवसरपर वहाँ देवताओंसहित इन्द्रने आकर कहा।
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति॥
बलं तेजश्च रूपं च न समं भुवि केनचित्।
आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरवः॥
अनेकानि सहस्राणि राजसूयादिभिर्मखैः ।
स्वार्थं ब्राह्मणसात् कृत्वा दक्षिणाममितां ददात्॥
मूलम्
शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति॥
बलं तेजश्च रूपं च न समं भुवि केनचित्।
आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरवः॥
अनेकानि सहस्राणि राजसूयादिभिर्मखैः ।
स्वार्थं ब्राह्मणसात् कृत्वा दक्षिणाममितां ददात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले— शकुन्तले! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् होगा। पृथ्वीपर कोई भी इसके बल, तेज तथा रूपकी समानता नहीं कर सकता। यह पूरुवंशका रत्न सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञोंद्वारा सहस्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणोंके अधीन करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतानां वचः श्रुत्वा कण्वाश्रमनिवासिनः।
सभाजयन्त कण्वस्य सुतां सर्वे महर्षयः॥
शकुन्तला च तच्छ्रुत्वा परं हर्षमवाप सा।
द्विजानाहूय मुनिभिः सत्कृत्य च महायशाः॥)
जातकर्मादिसंस्कारं कण्वः पुण्यकृतां वरः।
विधिवत् कारयामास वर्धमानस्य धीमतः ॥ ३ ॥
मूलम्
देवतानां वचः श्रुत्वा कण्वाश्रमनिवासिनः।
सभाजयन्त कण्वस्य सुतां सर्वे महर्षयः॥
शकुन्तला च तच्छ्रुत्वा परं हर्षमवाप सा।
द्विजानाहूय मुनिभिः सत्कृत्य च महायशाः॥)
जातकर्मादिसंस्कारं कण्वः पुण्यकृतां वरः।
विधिवत् कारयामास वर्धमानस्य धीमतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— इन्द्रादि देवताओंका यह वचन सुनकर कण्वके आश्रममें रहनेवाले सभी महर्षि कण्वकन्या शकुन्तलाके सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह सब सुनकर शकुन्तलाको भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ महायशस्वी कण्वने मुनियोंसे ब्राह्मणोंको बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालकका विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराया। वह बुद्धिमान् बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दन्तैः शुक्लैः शिखरिभिः सिंहसंहननो महान्।
चक्राङ्कितकरः श्रीमान् महामूर्धा महाबलः ॥ ४ ॥
मूलम्
दन्तैः शुक्लैः शिखरिभिः सिंहसंहननो महान्।
चक्राङ्कितकरः श्रीमान् महामूर्धा महाबलः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सफेद और नुकीले दाँतोंसे शोभा पा रहा था। उसके शरीरका गठन सिंहके समान था। वह ऊँचे कदका था। उसके हाथोंमें चक्रके चिह्न थे। वह अद्भुत शोभासे सम्पन्न, विशाल मस्तकवाला और महान् बलवान् था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमारो देवगर्भाभः स तत्राशु व्यवर्धत।
षड्वर्ष एव बालः स कण्वाश्रमपदं प्रति ॥ ५ ॥
सिंहव्याघ्रान् वराहांश्च महिषांश्च गजांस्तथा।
बबन्ध वृक्षे बलवानाश्रमस्य समीपतः ॥ ६ ॥
मूलम्
कुमारो देवगर्भाभः स तत्राशु व्यवर्धत।
षड्वर्ष एव बालः स कण्वाश्रमपदं प्रति ॥ ५ ॥
सिंहव्याघ्रान् वराहांश्च महिषांश्च गजांस्तथा।
बबन्ध वृक्षे बलवानाश्रमस्य समीपतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके बालक-सा प्रतीत होनेवाला वह तेजस्वी कुमार वहाँ शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगा। छः वर्षकी अवस्थामें ही वह बलवान् बालक कण्वके आश्रममें सिंहों, व्याघ्रों, वराहों, भैंसों और हाथियोंको पकड़कर खींच लाता और आश्रमके समीपवर्ती वृक्षोंमें बाँध देता था॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरोहन् दमयंश्चैव क्रीडंश्च परिधावति।
(ततश्च राक्षसान् सर्वान् पिशाचांश्च रिपून् रणे।
मुष्टियुद्धेन ताञ्जित्वा ऋषीनाराधयत् तदा॥
कश्चिद् दितिसुतस्तं तु हन्तुकामो महाबलः।
वध्यमानांस्तु दैतेयानमर्षी तं समभ्ययात्॥
तमागतं प्रहस्यैव बाहुभ्यां परिगृह्य च।
दृढं चाबध्य बाहुभ्यां पीडयामास तं तदा॥
मर्दितो न शशाकास्य मोचितुं बलवत्तया।
प्राक्रोशद् भैरवं तत्र द्वारेभ्यो निःसृतं त्वसृक्॥
तेन शब्देन वित्रस्ता मृगाः सिंहादयो गणाः।
सुस्रुवुश्च शकृन्मूत्रमाश्रमस्थाश्च सुस्रुवुः ॥
निरसुं जानुभिः कृत्वा विससर्ज च सोऽपतत्।
तं दृष्ट्वा विस्मयं चक्रुः कुमारस्य विचेष्टितम्॥
नित्यकालं वध्यमाना दैतेया राक्षसैः सह।
कुमारस्य भयादेव नैव जग्मुस्तदाश्रमम्॥)
ततोऽस्य नाम चक्रुस्ते कण्वाश्रमनिवासिनः ॥ ७ ॥
मूलम्
आरोहन् दमयंश्चैव क्रीडंश्च परिधावति।
(ततश्च राक्षसान् सर्वान् पिशाचांश्च रिपून् रणे।
मुष्टियुद्धेन ताञ्जित्वा ऋषीनाराधयत् तदा॥
कश्चिद् दितिसुतस्तं तु हन्तुकामो महाबलः।
वध्यमानांस्तु दैतेयानमर्षी तं समभ्ययात्॥
तमागतं प्रहस्यैव बाहुभ्यां परिगृह्य च।
दृढं चाबध्य बाहुभ्यां पीडयामास तं तदा॥
मर्दितो न शशाकास्य मोचितुं बलवत्तया।
प्राक्रोशद् भैरवं तत्र द्वारेभ्यो निःसृतं त्वसृक्॥
तेन शब्देन वित्रस्ता मृगाः सिंहादयो गणाः।
सुस्रुवुश्च शकृन्मूत्रमाश्रमस्थाश्च सुस्रुवुः ॥
निरसुं जानुभिः कृत्वा विससर्ज च सोऽपतत्।
तं दृष्ट्वा विस्मयं चक्रुः कुमारस्य विचेष्टितम्॥
नित्यकालं वध्यमाना दैतेया राक्षसैः सह।
कुमारस्य भयादेव नैव जग्मुस्तदाश्रमम्॥)
ततोऽस्य नाम चक्रुस्ते कण्वाश्रमनिवासिनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह सबका दमन करते हुए उनकी पीठपर चढ़ जाता और क्रीड़ा करते हुए उन्हें सब ओर दौड़ाता हुआ दौड़ता था। वहाँ सब राक्षस और पिशाच आदि शत्रुओंको युद्धमें मुष्टिप्रहारके द्वारा परास्त करके वह राजकुमार ऋषि-मुनियोंकी आराधनामें लगा रहता था। एक दिन कोई महाबली दैत्य उसे मार डालनेकी इच्छासे उस वनमें आया। वह उसके द्वारा प्रतिदिन सताये जाते हुए दूसरे दैत्योंकी दशा देखकर अमर्षमें भरा हुआ था। उसके आते ही राजकुमारने हँसकर उसे दोनों हाथोंसे पकड़ लिया और अपनी बाँहोंमें दृढ़तापूर्वक कसकर दबाया। वह बहुत जोर लगानेपर भी अपनेको उस बालकके चंगुलसे छुड़ा न सका, अतः भयंकर स्वरसे चीत्कार करने लगा। उस समय दबावके कारण उसकी इन्द्रियोंसे रक्त बह चला। उसकी चीत्कारसे भयभीत हो मृग और सिंह आदि जंगली जीव मल-मूत्र करने लगे तथा आश्रमपर रहनेवाले प्राणियोंकी भी यही दशा हुई। दुष्यन्तकुमारने घुटनोंसे मार-मारकर उस दैत्यके प्राण ले लिये; तत्पश्चात् उसे छोड़ दिया। उसके हाथसे छूटते ही वह दैत्य गिर पड़ा। उस बालकका यह पराक्रम देखकर सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। कितने ही दैत्य और राक्षस प्रतिदिन उस दुष्यन्तकुमारके हाथों मारे जाते थे। कुमारके भयसे ही उन्होंने कण्वके आश्रमपर जाना छोड़ दिया। यह देख कण्वके आश्रममें रहनेवाले ऋषियोंने उसका नया नामकरण किया—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्वयं सर्वदमनः सर्वं हि दमयत्यसौ।
स सर्वदमनो नाम कुमारः समपद्यत ॥ ८ ॥
विक्रमेणौजसा चैव बलेन च समन्वितः।
मूलम्
अस्त्वयं सर्वदमनः सर्वं हि दमयत्यसौ।
स सर्वदमनो नाम कुमारः समपद्यत ॥ ८ ॥
विक्रमेणौजसा चैव बलेन च समन्वितः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सब जीवोंका दमन करता है, इसलिये ‘सर्वदमन’ नामसे प्रसिद्ध हो।’ तबसे उस कुमारका नाम सर्वदमन हो गया। वह पराक्रम, तेज और बलसे सम्पन्न था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अप्रेषयति दुष्यन्ते महिष्यास्तनयस्य च।
पाण्डुभावपरीताङ्गीं चिन्तया समभिप्लुताम् ॥
लम्बालकां कृशां दीनां तथा मलिनवाससम्।
शकुन्तलां च सम्प्रेक्ष्य प्रदध्यौ स मुनिस्तदा॥
शास्त्राणि सर्ववेदाश्च द्वादशाब्दस्य चाभवन्॥)
मूलम्
(अप्रेषयति दुष्यन्ते महिष्यास्तनयस्य च।
पाण्डुभावपरीताङ्गीं चिन्तया समभिप्लुताम् ॥
लम्बालकां कृशां दीनां तथा मलिनवाससम्।
शकुन्तलां च सम्प्रेक्ष्य प्रदध्यौ स मुनिस्तदा॥
शास्त्राणि सर्ववेदाश्च द्वादशाब्दस्य चाभवन्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुष्यन्तने अपनी रानी और पुत्रको बुलानेके लिये जब किसी भी मनुष्यको नहीं भेजा, तब शकुन्तला चिन्तामग्न हो गयी। उसके सारे अंग सफेद पड़ने लगे। उसके खुले हुए लंबे केश लटक रहे थे, वस्त्र मैले हो गये थे, वह अत्यन्त दुर्बल और दीन दिखायी देती थी। शकुन्तलाको इस दयनीय दशामें देखकर कण्व मुनिने कुमार सर्वदमनके लिये विद्याका चिन्तन किया। इससे उस बारह वर्षके ही बालकके हृदयमें समस्त शास्त्रों और सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्रकाशित हो गया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं कुमारमृषिर्दृष्ट्वा कर्म चास्यातिमानुषम् ॥ ९ ॥
समयो यौवराज्यायेत्यब्रवीच्च शकुन्तलाम् ।
मूलम्
तं कुमारमृषिर्दृष्ट्वा कर्म चास्यातिमानुषम् ॥ ९ ॥
समयो यौवराज्यायेत्यब्रवीच्च शकुन्तलाम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि कण्वने उस कुमार और उसके लोकोत्तर कर्मको देखकर शकुन्तलासे कहा—‘अब इसके युवराज-पदपर अभिषिक्त होनेका समय आया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शृणु भद्रे मम सुते मम वाक्यं शुचिस्मिते।
पतिव्रतानां नारीणां विशिष्टमिति चोच्यते॥
मूलम्
(शृणु भद्रे मम सुते मम वाक्यं शुचिस्मिते।
पतिव्रतानां नारीणां विशिष्टमिति चोच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी कल्याणमयी पुत्री! मेरा यह वचन सुनो। पवित्र मुसकानवाली शकुन्तले! पतिव्रता स्त्रियोंके लिये यह विशेष ध्यान देनेयोग्य बात है; इसलिये बता रहा हूँ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिशुश्रूषणं पूर्वं मनोवाक्कायचेष्टितैः ।
अनुज्ञाता मया पूर्वं पूजयैतद् व्रतं तव॥
एतेनैव च वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्।
मूलम्
पतिशुश्रूषणं पूर्वं मनोवाक्कायचेष्टितैः ।
अनुज्ञाता मया पूर्वं पूजयैतद् व्रतं तव॥
एतेनैव च वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सती स्त्रियोंके लिये सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वे मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओंद्वारा निरन्तर पतिकी सेवा करती रहें। मैंने पहले भी तुम्हें इसके लिये आदेश दिया है। तुम अपने इस व्रतका पालन करो। इस पतिव्रतोचित आचार-व्यवहारसे ही विशिष्ट शोभा प्राप्त कर सकोगी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् भद्रे प्रयातव्यं समीपं पौरवस्य ह॥
स्वयं नायाति मत्वा ते गतं कालं शुचिस्मिते।
गत्वाऽऽराधय राजानं दुष्यन्तं हितकाम्यया॥
मूलम्
तस्माद् भद्रे प्रयातव्यं समीपं पौरवस्य ह॥
स्वयं नायाति मत्वा ते गतं कालं शुचिस्मिते।
गत्वाऽऽराधय राजानं दुष्यन्तं हितकाम्यया॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! तुम्हें पूरुनन्दन दुष्यन्तके पास जाना चाहिये। वे स्वयं नहीं आ रहे हैं, ऐसा सोचकर तुमने बहुत-सा समय उनकी सेवासे दूर रहकर बिता दिया। शुचिस्मिते! अब तुम अपने हितकी इच्छासे स्वयं जाकर राजा दुष्यन्तकी आराधना करो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दौष्यन्तिं यौवराज्यस्थं दृष्ट्वा प्रीतिमवाप्स्यसि।
देवतानां गुरूणां च क्षत्रियाणां च भामिनि।
भर्तॄणां च विशेषेण हितं संगमनं सताम्॥
तस्मात् पुत्रि कुमारेण गन्तव्यं मत्प्रियेप्सया।
प्रतिवाक्यं न दद्यास्त्वं शापिता मम पादयोः॥
मूलम्
दौष्यन्तिं यौवराज्यस्थं दृष्ट्वा प्रीतिमवाप्स्यसि।
देवतानां गुरूणां च क्षत्रियाणां च भामिनि।
भर्तॄणां च विशेषेण हितं संगमनं सताम्॥
तस्मात् पुत्रि कुमारेण गन्तव्यं मत्प्रियेप्सया।
प्रतिवाक्यं न दद्यास्त्वं शापिता मम पादयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ दुष्यन्तकुमार सर्वदमनको युवराज-पदपर प्रतिष्ठित देख तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। देवता, गुरु, क्षत्रिय, स्वामी तथा साधु पुरुष—इनका संग विशेष हितकर है। अतः बेटी! तुम्हें मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे कुमारके साथ अवश्य अपने पतिके यहाँ जाना चाहिये। मैं अपने चरणोंकी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम मुझे मेरी इस आज्ञाके विपरीत कोई उत्तर न देना’।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा सुतां तत्र पौत्रं कण्वोऽभ्यभाषत।
परिष्वज्य च बाहुभ्यां मूर्ध्न्युपाघ्राय पौरवम्॥
मूलम्
एवमुक्त्वा सुतां तत्र पौत्रं कण्वोऽभ्यभाषत।
परिष्वज्य च बाहुभ्यां मूर्ध्न्युपाघ्राय पौरवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— पुत्रीसे ऐसा कहकर महर्षि कण्वने उसके पुत्र भरतको दोनों बाँहोंसे पकड़कर अंकमें भर लिया और उसका मस्तक सूँघकर कहा।
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमवंशोद्भवो राजा दुष्यन्तो नाम विश्रुतः।
तस्याग्रमहिषी चैषा तव माता शुचिव्रता॥
गन्तुकामा भर्तृवशं त्वया सह सुमध्यमा।
गत्वाभिवाद्य राजानं यौवराज्यमवाप्स्यसि ॥
स पिता तव राजेन्द्रस्तस्य त्वं वशगो भव।
पितृपैतामहं राज्यमनुतिष्ठस्व भावतः ॥
मूलम्
सोमवंशोद्भवो राजा दुष्यन्तो नाम विश्रुतः।
तस्याग्रमहिषी चैषा तव माता शुचिव्रता॥
गन्तुकामा भर्तृवशं त्वया सह सुमध्यमा।
गत्वाभिवाद्य राजानं यौवराज्यमवाप्स्यसि ॥
स पिता तव राजेन्द्रस्तस्य त्वं वशगो भव।
पितृपैतामहं राज्यमनुतिष्ठस्व भावतः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व बोले— वत्स! चन्द्रवंशमें दुष्यन्त नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं। पवित्र व्रतका पालन करनेवाली यह तुम्हारी माता उन्हींकी महारानी है। यह सुन्दरी तुम्हें साथ लेकर अब पतिकी सेवामें जाना चाहती है। तुम वहाँ जाकर राजाको प्रणाम करके युवराज-पद प्राप्त करोगे। वे महाराज दुष्यन्त ही तुम्हारे पिता हैं। तुम सदा उनकी आज्ञाके अधीन रहना और बाप-दादेके राज्यका प्रेमपूर्वक पालन करना।
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुन्तले शृणुष्वेदं हितं पथ्यं च भामिनि।
पतिव्रताभावगुणान् हित्वा साध्यं न किञ्चन॥
पतिव्रतानां देवा वै तुष्टाः सर्ववरप्रदाः।
प्रसादं च करिष्यन्ति ह्यापदर्थे च भामिनि॥
पतिप्रसादात् पुण्यगतिं प्राप्नुवन्ति न चाशुभम्।
तस्माद् गत्वा तु राजानमाराधय शुचिस्मिते॥)
मूलम्
शकुन्तले शृणुष्वेदं हितं पथ्यं च भामिनि।
पतिव्रताभावगुणान् हित्वा साध्यं न किञ्चन॥
पतिव्रतानां देवा वै तुष्टाः सर्ववरप्रदाः।
प्रसादं च करिष्यन्ति ह्यापदर्थे च भामिनि॥
पतिप्रसादात् पुण्यगतिं प्राप्नुवन्ति न चाशुभम्।
तस्माद् गत्वा तु राजानमाराधय शुचिस्मिते॥)
अनुवाद (हिन्दी)
(फिर कण्व शकुन्तलासे बोले—) ‘भामिनि! शकुन्तले! यह मेरी हितकर एवं लाभप्रद बात सुनो। पतिव्रताभाव-सम्बन्धी गुणोंको छोड़कर तुम्हारे लिये और कोई वस्तु साध्य नहीं है। पतिव्रताओंपर सम्पूर्ण वरोंको देनेवाले देवतालोग भी संतुष्ट रहते हैं। भामिनि! वे आपत्तिके निवारणके लिये अपने कृपा-प्रसादका भी परिचय देंगे। शुचिस्मिते! पतिव्रता देवियाँ पतिके प्रसादसे पुण्यगतिको ही प्राप्त होती हैं; अशुभ गतिको नहीं। अतः तुम जाकर राजाकी आराधना करो’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् बलमाज्ञाय कण्वः शिष्यानुवाच ह ॥ १० ॥
शकुन्तलामिमां शीघ्रं सहपुत्रामितो गृहात्।
भर्तुः प्रापयतागारं सर्वलक्षणपूजिताम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्य तद् बलमाज्ञाय कण्वः शिष्यानुवाच ह ॥ १० ॥
शकुन्तलामिमां शीघ्रं सहपुत्रामितो गृहात्।
भर्तुः प्रापयतागारं सर्वलक्षणपूजिताम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उस बालकके बलको समझकर कण्वने अपने शिष्योंसे कहा—‘तुमलोग समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्मानित मेरी पुत्री शकुन्तला और इसके पुत्रको शीघ्र ही इस घरसे ले जाकर पतिके घरमें पहुँचा दो॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते।
कीर्तिचारित्रधर्मघ्नस्तस्मान्नयत मा चिरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते।
कीर्तिचारित्रधर्मघ्नस्तस्मान्नयत मा चिरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रियोंका अपने भाई-बन्धुओंके यहाँ अधिक दिनोंतक रहना अच्छा नहीं होता। वह उनकी कीर्ति, शील तथा पातिव्रत्य धर्मका नाश करनेवाला होता है। अतः इसे अविलम्ब पतिके घरमें पहुँचा दो’॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
(वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माभिपूजितं पुत्रं काश्यपेन निशाम्य तु।
काश्यपात् प्राप्य चानुज्ञां मुमुदे च शकुन्तला॥
मूलम्
धर्माभिपूजितं पुत्रं काश्यपेन निशाम्य तु।
काश्यपात् प्राप्य चानुज्ञां मुमुदे च शकुन्तला॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कश्यपनन्दन कण्वने धर्मानुसार मेरे पुत्रका बड़ा आदर किया है, यह देखकर तथा उनकी ओरसे पतिके घर जानेकी आज्ञा पाकर शकुन्तला मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कण्वस्य वचनं श्रुत्वा प्रतिगच्छेति चासकृत्।
तथेत्युक्त्वा तु कण्वं च मातरं पौरवोऽब्रवीत्॥
किं चिरायसि मातस्त्वं गमिष्यामो नृपालयम्।
मूलम्
कण्वस्य वचनं श्रुत्वा प्रतिगच्छेति चासकृत्।
तथेत्युक्त्वा तु कण्वं च मातरं पौरवोऽब्रवीत्॥
किं चिरायसि मातस्त्वं गमिष्यामो नृपालयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कण्वके मुखसे बारंबार ‘जाओ-जाओ’ यह आदेश सुनकर पूरुनन्दन सर्वदमनने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और मातासे कहा—‘माँ! तुम क्यों विलम्ब करती हो, चलो राजमहल चलें’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु तां देवीं दुष्यन्तस्य महात्मनः॥
अभिवाद्य मुनेः पादौ गन्तुमैच्छत् स पौरवः।
मूलम्
एवमुक्त्वा तु तां देवीं दुष्यन्तस्य महात्मनः॥
अभिवाद्य मुनेः पादौ गन्तुमैच्छत् स पौरवः।
अनुवाद (हिन्दी)
देवी शकुन्तलासे ऐसा कहकर पौरवराजकुमारने मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर महात्मा राजा दुष्यन्तके यहाँ जानेका विचार किया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुन्तला च पितरमभिवाद्य कृताञ्जलिः॥
प्रदक्षिणीकृत्य तदा पितरं वाक्यमब्रवीत्।
अज्ञानान्मे पिता चेति दुरुक्तं वापि चानृतम्॥
अकार्यं वाप्यनिष्टं वा क्षन्तुमर्हति काश्यप।
मूलम्
शकुन्तला च पितरमभिवाद्य कृताञ्जलिः॥
प्रदक्षिणीकृत्य तदा पितरं वाक्यमब्रवीत्।
अज्ञानान्मे पिता चेति दुरुक्तं वापि चानृतम्॥
अकार्यं वाप्यनिष्टं वा क्षन्तुमर्हति काश्यप।
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने भी हाथ जोड़कर पिताको प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके उस समय यह बात कही—‘भगवन्! काश्यप! आप मेरे पिता हैं, यह समझकर मैंने अज्ञानवश यदि कोई कठोर या असत्य बात कह दी हो अथवा न करनेयोग्य या अप्रिय कार्य कर डाला हो, तो उसे आप क्षमा कर देंगे’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो नतशिरा मुनिर्नोवाच किञ्चन॥
मनुष्यभावात् कण्वोऽपि मुनिरश्रूण्यवर्तयत् ।
मूलम्
एवमुक्तो नतशिरा मुनिर्नोवाच किञ्चन॥
मनुष्यभावात् कण्वोऽपि मुनिरश्रूण्यवर्तयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाके ऐसा कहनेपर सिर झुकाकर बैठे हुए कण्व मुनि कुछ बोल न सके; मानव-स्वभावके अनुसार करुणाका उदय हो जानेसे नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्भक्षान् वायुभक्षांश्च शीर्णपर्णाशनान् मुनीन्॥
फलमूलाशिनो दान्तान् कृशान् धमनिसंततान्।
व्रतिनो जटिलान् मुण्डान् वल्कलाजिनसंवृतान्॥
मूलम्
अब्भक्षान् वायुभक्षांश्च शीर्णपर्णाशनान् मुनीन्॥
फलमूलाशिनो दान्तान् कृशान् धमनिसंततान्।
व्रतिनो जटिलान् मुण्डान् वल्कलाजिनसंवृतान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके आश्रममें बहुत-से ऐसे मुनि रहते थे, जो जल पीकर, वायु पीकर अथवा सूखे पत्ते खाकर तपस्या करते थे। फल-मूल खाकर रहनेवाले भी बहुत थे। वे सब-के-सब जितेन्द्रिय एवं दुर्बल शरीरवाले थे। उनके शरीरकी नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले उन महर्षियोंमेंसे कितने ही सिरपर जटा धारण करते थे और कितने ही सिर मुड़ाये रहते थे। कोई वल्कल धारण करते थे और कोई मृगचर्म लपेटे रहते थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाहूय मुनीन् कण्वः कारुण्यादिदमब्रवीत्॥
मया तु लालिता नित्यं मम पुत्री यशस्विनी।
वने जाता विवृद्धा च न च जानाति किञ्चन॥
अश्रमेण पथा सर्वैर्नीयतां क्षत्रियालयम्।)
मूलम्
समाहूय मुनीन् कण्वः कारुण्यादिदमब्रवीत्॥
मया तु लालिता नित्यं मम पुत्री यशस्विनी।
वने जाता विवृद्धा च न च जानाति किञ्चन॥
अश्रमेण पथा सर्वैर्नीयतां क्षत्रियालयम्।)
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि कण्वने उन मुनियोंको बुलाकर करुण भावसे कहा—‘महर्षियो! यह मेरी यशस्विनी पुत्री वनमें उत्पन्न हुई और यहीं पलकर इतनी बड़ी हुई है। मैंने सदा इसे लाड़-प्यार किया है। यह कुछ नहीं जानती है। विप्रगण! तुम सब लोग इसे ऐसे मार्गसे राजा दुष्यन्तके घर ले जाओ जिसमें अधिक श्रम न हो’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रातिष्ठन्त महौजसः।
शकुन्तलां पुरस्कृत्य दुष्यन्तस्य पुरं प्रति ॥ १३ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रातिष्ठन्त महौजसः।
शकुन्तलां पुरस्कृत्य दुष्यन्तस्य पुरं प्रति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत अच्छा’ कहकर वे सभी महातेजस्वी शिष्य (पुत्रसहित) शकुन्तलाको आगे करके दुष्यन्तके नगरकी ओर चले॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वामरगर्भामं पुत्रं कमललोचनम् ।
आजगाम ततः सुभ्रूर्दुष्यन्तं विदिताद् वनात् ॥ १४ ॥
मूलम्
गृहीत्वामरगर्भामं पुत्रं कमललोचनम् ।
आजगाम ततः सुभ्रूर्दुष्यन्तं विदिताद् वनात् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सुन्दर भौंहोंवाली शकुन्तला कमलके समान नेत्रोंवाले देवबालकके सदृश तेजस्वी पुत्रको साथ ले अपने परिचित तपोवनसे चलकर महाराज दुष्यन्तके यहाँ आयी॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिसृत्य च राजानं विदिता च प्रवेशिता।
सह तेनैव पुत्रेण बालार्कसमतेजसा ॥ १५ ॥
मूलम्
अभिसृत्य च राजानं विदिता च प्रवेशिता।
सह तेनैव पुत्रेण बालार्कसमतेजसा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके यहाँ पहुँचकर अपने आगमनकी सूचना दे अनुमति लेकर वह उसी बालसूर्यके समान तेजस्वी पुत्रके साथ राजसभामें प्रविष्ट हुई॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेदयित्वा ते सर्वे आश्रमं पुनरागताः।
पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीच्च शकुन्तला ॥ १६ ॥
मूलम्
निवेदयित्वा ते सर्वे आश्रमं पुनरागताः।
पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीच्च शकुन्तला ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब शिष्यगण राजाको महर्षिका संदेश सुनाकर पुनः आश्रमको लौट आये और शकुन्तला न्यायपूर्वक महाराजके प्रति सम्मानका भाव प्रकट करती हुई पुत्रसे बोली—॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अभिवादय राजानं पितरं ते दृढव्रतम्।
एवमुक्त्वा तु पुत्रं सा लज्जानतमुखी स्थिता॥
स्तम्भमालिङ्ग्य राजानं प्रसीदस्वेत्युवाच सा।
शाकुन्तलोऽपि राजानमभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥
हर्षेणोत्फुल्लनयनो राजानं चान्ववैक्षत ।
दुष्यन्तो धर्मबुद्ध्या तु चिन्तयन्नेव सोऽब्रवीत्॥
मूलम्
(अभिवादय राजानं पितरं ते दृढव्रतम्।
एवमुक्त्वा तु पुत्रं सा लज्जानतमुखी स्थिता॥
स्तम्भमालिङ्ग्य राजानं प्रसीदस्वेत्युवाच सा।
शाकुन्तलोऽपि राजानमभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥
हर्षेणोत्फुल्लनयनो राजानं चान्ववैक्षत ।
दुष्यन्तो धर्मबुद्ध्या तु चिन्तयन्नेव सोऽब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ये महाराज तुम्हारे पिता हैं; इन्हें प्रणाम करो।’ पुत्रसे ऐसा कहकर शकुन्तला लज्जासे मुख नीचा किये एक खंभेका सहारा लेकर खड़ी हो गयी और महाराजसे बोली—‘देव! प्रसन्न हों।’ शकुन्तलाका पुत्र भी हाथ जोड़कर राजाको प्रणाम करके उन्हींकी ओर देखने लगा। उसके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे। राजा दुष्यन्तने उस समय धर्मबुद्धिसे कुछ विचार करते हुए ही कहा।
मूलम् (वचनम्)
दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमागमनकार्यं ते ब्रूहि त्वं वरवर्णिनि।
करिष्यामि न संदेहः सपुत्राया विशेषतः॥
मूलम्
किमागमनकार्यं ते ब्रूहि त्वं वरवर्णिनि।
करिष्यामि न संदेहः सपुत्राया विशेषतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— सुन्दरि! यहाँ तुम्हारे आगमनका क्या उद्देश्य है? बताओ। विशेषतः उस दशामें, जबकि तुम पुत्रके साथ आयी हो, मैं तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध करूँगा; इसमें संदेह नहीं।
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीदस्व महाराज वक्ष्यामि पुरुषोत्तम॥)
मूलम्
प्रसीदस्व महाराज वक्ष्यामि पुरुषोत्तम॥)
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— महाराज! आप प्रसन्न हों। पुरुषोत्तम! मैं अपने आगमनका उद्देश्य बताती हूँ, सुनिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं पुत्रस्त्वया राजन् यौवराज्येऽभिषिच्यताम्।
त्वया ह्ययं सुतो राजन् मय्युत्पन्नः सुरोपमः।
यथासमयमेतस्मिन् वर्तस्व पुरुषोत्तम ॥ १७ ॥
मूलम्
अयं पुत्रस्त्वया राजन् यौवराज्येऽभिषिच्यताम्।
त्वया ह्ययं सुतो राजन् मय्युत्पन्नः सुरोपमः।
यथासमयमेतस्मिन् वर्तस्व पुरुषोत्तम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह आपका पुत्र है। इसे आप युवराज-पदपर अभिषिक्त कीजिये। महाराज! यह देवोपम कुमार आपके द्वारा मेरे गर्भसे उत्पन्न हुआ है। पुरुषोत्तम! इसके लिये आपने मेरे साथ जो शर्त कर रखी है, उसका पालन कीजिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मत्सङ्गमे पूर्वं यः कृतः समयस्त्वया।
तं स्मरस्व महाभाग कण्वाश्रमपदं प्रति ॥ १८ ॥
मूलम्
यथा मत्सङ्गमे पूर्वं यः कृतः समयस्त्वया।
तं स्मरस्व महाभाग कण्वाश्रमपदं प्रति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! आपने कण्वके आश्रमपर मेरे साथ समागमके समय पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसका इस समय स्मरण कीजिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽथ श्रुत्वैव तद् वाक्यं तस्या राजा स्मरन्नपि।
अब्रवीन्न स्मरामीति कस्य त्वं दुष्टतापसि ॥ १९ ॥
मूलम्
सोऽथ श्रुत्वैव तद् वाक्यं
तस्या राजा स्मरन्न् अपि।
अब्रवीन् “न स्मरामी"ति
“कस्य त्वं दुष्ट-तापसि” ॥ १९ ॥+++(5)+++
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुष्यन्तने शकुन्तलाका यह वचन सुनकर सब बातोंको याद रखते हुए भी उससे इस प्रकार कहा—‘दुष्ट तपस्विनि! मुझे कुछ भी याद नहीं है। तुम किसकी स्त्री हो?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म-कामार्थ-सम्बन्धं
न स्मरामि त्वया सह।
गच्छ वा तिष्ठ वा कामं
यद् वापीच्छसि तत् कुरु॥२०॥
मूलम्
धर्मकामार्थसम्बन्धं न स्मरामि त्वया सह।
गच्छ वा तिष्ठ वा कामं यद् वापीच्छसि तत् कुरु॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे साथ मेरा धर्म, काम अथवा अर्थको लेकर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुआ है, इस बातका मुझे तनिक भी स्मरण नहीं है। तुम इच्छानुसार जाओ या रहो अथवा जैसी तुम्हारी रुचि हो, वैसा करो’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवमुक्ता वरारोहा व्रीडितेव तपस्विनी।
निःसंज्ञेव च दुःखेन तस्थौ स्थूणेव निश्चला ॥ २१ ॥
मूलम्
सैवमुक्ता वरारोहा व्रीडितेव तपस्विनी।
निःसंज्ञेव च दुःखेन तस्थौ स्थूणेव निश्चला ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर अंगवाली तपस्विनी शकुन्तला दुष्यन्तके ऐसा कहनेपर लज्जित हो दुःखसे बेहोश-सी हो गयी और खंभेकी तरह निश्चलभावसे खड़ी रह गयी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संरम्भामर्ष-ताम्राक्षी स्फुरमाणौष्ठ-सम्पुटा ।
कटाक्षैर् निर्दहन्तीव
तिर्यग् राजानम् ऐक्षत ॥ २२ ॥
मूलम्
संरम्भामर्षताम्राक्षी स्फुरमाणौष्ठसम्पुटा ।
कटाक्षैर्निर्दहन्तीव तिर्यग् राजानमैक्षत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोध और अमर्षसे उसकी आँखें लाल हो गयीं, ओठ फड़कने लगे और मानो जला देगी, इस भावसे टेढ़ी चितवनद्वारा राजाकी ओर देखने लगी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकारं गूहमाना च
मन्युना च समीरिता।
तपसा सम्भृतं तेजो
धारयाम् आस वै तदा ॥ २३ ॥
मूलम्
आकारं गूहमाना च मन्युना च समीरिता।
तपसा सम्भृतं तेजो धारयामास वै तदा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोध उसे उत्तेजित कर रहा था, फिर भी उसने अपने आकारको छिपाये रखा और तपस्याद्वारा संचित किये हुए अपने तेजको वह अपने भीतर ही धारण किये रही॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा मुहूर्तम् इव ध्यात्वा दुःखामर्ष-समन्विता।
भर्तारम् अभिसम्प्रेक्ष्य
क्रुद्धा वचनम् अब्रवीत् ॥ २४ ॥
जानन्न् अपि महाराज
कस्माद् एवं प्रभाषसे।
न जानामीति निःशङ्कं
यथा ऽन्यः प्राकृतो जनः ॥ २५ ॥
मूलम्
सा मुहूर्तमिव ध्यात्वा दुःखामर्षसमन्विता।
भर्तारमभिसम्प्रेक्ष्य क्रुद्धा वचनमब्रवीत् ॥ २४ ॥
जानन्नपि महाराज कस्मादेवं प्रभाषसे।
न जानामीति निःशङ्कं यथान्यः प्राकृतो जनः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दो घड़ीतक कुछ सोच-विचार-सा करती रही, फिर दुःख और अमर्षमें भरकर पतिकी ओर देखती हुई क्रोधपूर्वक बोली—‘महाराज! आप जान-बूझकर भी दूसरे-दूसरे निम्न कोटिके मनुष्योंकी भाँति निःशंक होकर ऐसी बात क्यों कहते हैं कि ‘मैं नहीं जानता’॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते हृदयं वेद
सत्यस्यैवानृतस्य च।
कल्याणं वद साक्ष्येण
माऽऽत्मानम् अवमन्यथाः ॥ २६ ॥+++(5)+++
मूलम्
अत्र ते हृदयं वेद सत्यस्यैवानृतस्य च।
कल्याणं वद साक्ष्येण माऽऽत्मानमवमन्यथाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस विषयमें यहाँ क्या झूठ है और क्या सच, इस बातको आपका हृदय ही जानता होगा। उसीको साक्षी बनाकर—हृदयपर हाथ रखकर सही-सही बात कहिये, जिससे आपका कल्याण हो। आप अपने आत्माकी अवहेलना न कीजिये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽन्यथा सन्तम् आत्मानम्
अन्यथा प्रतिपद्यते+++(=आचरति)+++ ।
किं तेन न कृतं पापं
चौरेणात्मापहारिणा ॥ २७ ॥+++(5)+++
विश्वास-टिप्पनी
नम्पिळ्ळै-महात्मना ऽस्य काचिद् आध्यात्मिकी व्याख्या मधुक्रकवि-प्रथम-पद्य-व्याख्याने कृता।
न केवलम् अत्र कैमुतिक-न्यायः,
अपि तु कार्य-कारण-भाव इति -
यतो य आत्मानम् भगवद्-दासं प्रतिपद्येत,
स कुतः पापं चिकीर्षेत्।
मूलम्
योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘(आपका स्वरूप तो कुछ और है’ परंतु आप बन कुछ और रहे हैं।) जो अपने असली स्वरूपको छिपाकर अपनेको कुछ-का-कुछ दिखाता है, अपने आत्माका अपहरण करनेवाले उस चोरने कौन-सा पाप नहीं किया?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकोऽहमस्मीति च मन्यसे त्वं
न हृच्छयं वेत्सि मुनिं पुराणम्।
यो वेदिता कर्मणः पापकस्य
तस्यान्तिके त्वं वृजिनं करोषि ॥ २८ ॥
मूलम्
एकोऽहमस्मीति च मन्यसे त्वं
न हृच्छयं वेत्सि मुनिं पुराणम्।
यो वेदिता कर्मणः पापकस्य
तस्यान्तिके त्वं वृजिनं करोषि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था (कोई देखनेवाला नहीं था), परंतु आपको पता नहीं कि वह सनातन मुनि (परमात्मा) सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विद्यमान है। वह सबके पाप-पुण्यको जानता है और आप उसीके निकट रहकर पाप कर रहे हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(धर्म एव हि साधूनां सर्वेषां हितकारणम्।
नित्यं मिथ्याविहीनानां न च दुःखावहो भवेत्॥)
मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद् वेत्ति मामिति।
विदन्ति चैनं देवाश्च यश्चैवान्तरपूरुषः ॥ २९ ॥
मूलम्
(धर्म एव हि साधूनां सर्वेषां हितकारणम्।
नित्यं मिथ्याविहीनानां न च दुःखावहो भवेत्॥)
मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद् वेत्ति मामिति।
विदन्ति चैनं देवाश्च यश्चैवान्तरपूरुषः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा असत्यसे दूर रहनेवाले हैं, उन समस्त साधु पुरुषोंकी दृष्टिमें केवल धर्म ही हितकारक है। धर्म कभी दुःखदायक नहीं होता। मनुष्य पाप करके यह समझता है कि मुझे कोई नहीं जानता, किंतु उसका यह समझना भारी भूल है; क्योंकि सब देवता और अन्तर्यामी परमात्मा भी मनुष्यके उस पाप-पुण्यको देखते और जानते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यचन्द्रावनिलानलौ च
द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च ।
अहश्च रात्रिश्च उभे च संध्ये
धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम् ॥ ३० ॥
मूलम्
आदित्यचन्द्रावनिलानलौ च
द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च ।
अहश्च रात्रिश्च उभे च संध्ये
धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल, हृदय, यमराज, दिन, रात, दोनों संध्याएँ और धर्म—ये सभी मनुष्यके भले-बुरे आचार-व्यवहारको जानते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमो वैवस्वतस्तस्य निर्यातयति दुष्कृतम्।
हृदि स्थितः कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञो यस्य तुष्यति ॥ ३१ ॥
मूलम्
यमो वैवस्वतस्तस्य निर्यातयति दुष्कृतम्।
हृदि स्थितः कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञो यस्य तुष्यति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसपर हृदयस्थित कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञ परमात्मा संतुष्ट रहते हैं, सूर्यपुत्र यमराज उसके सभी पापोंको स्वयं नष्ट कर देते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु तुष्यति यस्यैष पुरुषस्य दुरात्मनः।
तं यमः पापकर्माणं वियातयति दुष्कृतम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
न तु तुष्यति यस्यैष पुरुषस्य दुरात्मनः।
तं यमः पापकर्माणं वियातयति दुष्कृतम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु जिस दुरात्मापर अन्तर्यामी संतुष्ट नहीं होते, यमराज उस पापीको उसके पापोंका स्वयं ही दण्ड देते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽवमन्यात्मनाऽऽत्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
न तस्य देवाः श्रेयांसो यस्यात्मापि न कारणम् ॥ ३३ ॥
स्वयं प्राप्तेति मामेवं मावमंस्थाः पतिव्रताम्।
अर्चार्हां नार्चयसि मां स्वयं भार्यामुपस्थिताम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
योऽवमन्यात्मनाऽऽत्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
न तस्य देवाः श्रेयांसो यस्यात्मापि न कारणम् ॥ ३३ ॥
स्वयं प्राप्तेति मामेवं मावमंस्थाः पतिव्रताम्।
अर्चार्हां नार्चयसि मां स्वयं भार्यामुपस्थिताम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो स्वयं अपने आत्माका तिरस्कार करके कुछ-का-कुछ समझता और करता है, देवता भी उसका भला नहीं कर सकते और उसका आत्मा भी उसके हितका साधन नहीं कर सकता। मैं स्वयं आपके पास आयी हूँ, ऐसा समझकर मुझ पतिव्रता पत्नीका तिरस्कार न कीजिये। मैं आपके द्वारा आदर पानेयोग्य हूँ और स्वयं आपके निकट आयी हुई आपहीकी पत्नी हूँ, तथापि आप मेरा आदर नहीं करते हैं॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं मां प्राकृतवदुपप्रेक्षसि संसदि।
न खल्वहमिदं शून्ये रौमि किं न शृणोषि मे॥३५॥
मूलम्
किमर्थं मां प्राकृतवदुपप्रेक्षसि संसदि।
न खल्वहमिदं शून्ये रौमि किं न शृणोषि मे॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप किसलिये नीच पुरुषकी भाँति भरी सभामें मुझे अपमानित कर रहे हैं? मैं सूने जंगलमें तो नहीं रो रही हूँ? फिर आप मेरी बात क्यों नहीं सुनते?॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मे याचमानाया वचनं न करिष्यसि।
दुष्यन्त शतधा मूर्धा ततस्तेऽद्य स्फुटिष्यति ॥ ३६ ॥
मूलम्
यदि मे याचमानाया वचनं न करिष्यसि।
दुष्यन्त शतधा मूर्धा ततस्तेऽद्य स्फुटिष्यति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज दुष्यन्त! यदि मेरे उचित याचना करनेपर भी आप मेरी बात नहीं मानेंगे, तो आज आपके सिरके सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्यां पतिः सम्प्रविश्य स यस्माज्जायते पुनः।
जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणाः कवयो विदुः ॥ ३७ ॥
मूलम्
भार्यां पतिः सम्प्रविश्य स यस्माज्जायते पुनः।
जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणाः कवयो विदुः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पति ही पत्नीके भीतर गर्भरूपसे प्रवेश करके पुत्ररूपमें जन्म लेता है। यही जाया (जन्म देनेवाली स्त्री)-का जायात्व है, जिसे पुराणवेत्ता विद्वान् जानते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदागमवतः पुंसस्तदपत्यं प्रजायते ।
तत् तारयति संतत्या पूर्वप्रेतान् पितामहान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
यदागमवतः पुंसस्तदपत्यं प्रजायते ।
तत् तारयति संतत्या पूर्वप्रेतान् पितामहान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शास्त्रके ज्ञाता पुरुषके इस प्रकार जो संतान उत्पन्न होती है, वह संततिकी परम्पराद्वारा अपने पहलेके मरे हुए पितामहोंका उद्धार कर देती है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ ३९ ॥
मूलम्
पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र’ ‘पुत्’ नामक नरकसे पिताका त्राण करता है, इसलिये साक्षात् ब्रह्माजीने उसे ‘पुत्र’ कहा है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते ।
अथ पौत्रस्य पुत्रेण मोदन्ते प्रपितामहाः॥)
मूलम्
(पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते ।
अथ पौत्रस्य पुत्रेण मोदन्ते प्रपितामहाः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य पुत्रसे पुण्यलोकोंपर विजय पाता है, पौत्रसे अक्षय सुखका भागी होता है तथा पौत्रके पुत्रसे प्रपितामहगण आनन्दके भागी होते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता॥४०॥
मूलम्
सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता॥४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वही भार्या है, जो घरके काम-काजमें कुशल हो। वही भार्या है, जो संतानवती हो। वही भार्या है, जो अपने पतिको प्राणोंके समान प्रिय मानती हो और वही भार्या है, जो पतिव्रता हो॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा।
भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं तरिष्यतः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा।
भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं तरिष्यतः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भार्या पुरुषका आधा अंग है। भार्या उसका सबसे उत्तम मित्र है। भार्या धर्म, अर्थ और कामका मूल है और संसार-सागरसे तरनेकी इच्छावाले पुरुषके लिये भार्या ही प्रमुख साधन है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः।
भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः श्रियान्विताः ॥ ४२ ॥
मूलम्
भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः।
भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः श्रियान्विताः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनके पत्नी है, वे ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं। सपत्नीक पुरुष ही सच्चे गृहस्थ हैं। पत्नीवाले पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं तथा जो पत्नीसे युक्त हैं, वे मानो लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं (क्योंकि पत्नी ही घरकी लक्ष्मी है)॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः।
पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः ॥ ४३ ॥
मूलम्
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः।
पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पत्नी ही एकान्तमें प्रिय वचन बोलनेवाली संगिनी या मित्र है। धर्मकार्योंमें ये स्त्रियाँ पिताकी भाँति पतिकी हितैषिणी होती हैं और संकटके समय माताकी भाँति दुःखमें हाथ बँटाती तथा कष्ट-निवारणकी चेष्टा करती हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कान्तारेष्वपि विश्रामो जनस्याध्वनिकस्य वै।
यः सदारः स विश्वास्यस्तस्माद् दाराः परा गतिः ॥ ४४ ॥
मूलम्
कान्तारेष्वपि विश्रामो जनस्याध्वनिकस्य वै।
यः सदारः स विश्वास्यस्तस्माद् दाराः परा गतिः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परदेशमें यात्रा करनेवाले पुरुषके साथ यदि उसकी स्त्री हो तो वह घोर-से-घोर जंगलमें भी विश्राम पा सकता है—सुखसे रह सकता है। लोक-व्यवहारमें भी जिसके स्त्री है, उसीपर सब विश्वास करते हैं। इसलिये स्त्री ही पुरुषकी श्रेष्ठ गति है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसरन्तमपि प्रेतं विषमेष्वेकपातिनम् ।
भार्यैवान्वेति भर्तारं सततं या पतिव्रता ॥ ४५ ॥
मूलम्
संसरन्तमपि प्रेतं विषमेष्वेकपातिनम् ।
भार्यैवान्वेति भर्तारं सततं या पतिव्रता ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पति संसारमें हो या मर गया हो अथवा अकेले ही नरकमें पड़ा हो; पतिव्रता स्त्री ही सदा उसका अनुगमन करती है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमं संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते।
पूर्वं मृतं च भर्तारं पश्चात् साध्व्यनुगच्छति ॥ ४६ ॥
मूलम्
प्रथमं संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते।
पूर्वं मृतं च भर्तारं पश्चात् साध्व्यनुगच्छति ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘साध्वी स्त्री यदि पहले मर गयी हो तो परलोकमें जाकर वह पतिकी प्रतीक्षा करती है और यदि पहले पति मर गया हो तो सती स्त्री पीछेसे उसका अनुसरण करती है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मात् कारणाद् राजन् पाणिग्रहणमिष्यते।
यदाप्नोति पतिर्भार्यामिहलोके परत्र च ॥ ४७ ॥
मूलम्
एतस्मात् कारणाद् राजन् पाणिग्रहणमिष्यते।
यदाप्नोति पतिर्भार्यामिहलोके परत्र च ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इसीलिये सुशीला स्त्रीका पाणिग्रहण करना सबके लिये अभीष्ट होता है; क्योंकि पति अपनी पतिव्रता स्त्रीको इहलोकमें तो पाता ही है, परलोकमें भी प्राप्त करता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्माऽऽत्मनैव जनितः पुत्र इत्युच्यते बुधैः।
तस्माद् भार्यां नरः पश्येन्मातृवत् पुत्रमातरम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
आत्माऽऽत्मनैव जनितः पुत्र इत्युच्यते बुधैः।
तस्माद् भार्यां नरः पश्येन्मातृवत् पुत्रमातरम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पत्नीके गर्भसे अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए आत्माको ही विद्वान् पुरुष पुत्र कहते हैं, इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपनी उस धर्मपत्नीको जो पुत्रकी माता बन चुकी है, माताके ही समान देखे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अन्तरात्मैव सर्वस्य पुत्रनाम्नोच्यते सदा।
गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च॥
पितॄणां यानि दृश्यन्ते पुत्राणां सन्ति तानि च।
तेषां शीलाचारगुणास्तत्सम्पर्काच्छुभाशुभाः ॥)
मूलम्
(अन्तरात्मैव सर्वस्य पुत्रनाम्नोच्यते सदा।
गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च॥
पितॄणां यानि दृश्यन्ते पुत्राणां सन्ति तानि च।
तेषां शीलाचारगुणास्तत्सम्पर्काच्छुभाशुभाः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘सबका अन्तरात्मा ही सदा पुत्र नामसे प्रतिपादित होता है। पिताकी जैसी चाल होती है, जैसे रूप, चेष्टा, आवर्त (भँवर) और लक्षण आदि होते हैं, पुत्रमें भी वैसी ही चाल और वैसे ही रूप-लक्षण आदि देखे जाते हैं। पिताके सम्पर्कसे ही पुत्रोंमें शुभ-अशुभ शील, गुण एवं आचार आदि आते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्यायां जनितं पुत्रमादर्शेष्विव चाननम्।
ह्लादते जनिता प्रेक्ष्य स्वर्गं प्राप्येव पुण्यकृत् ॥ ४९ ॥
मूलम्
भार्यायां जनितं पुत्रमादर्शेष्विव चाननम्।
ह्लादते जनिता प्रेक्ष्य स्वर्गं प्राप्येव पुण्यकृत् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे दर्पणमें अपना मुँह देखा जाता है, उसी प्रकार पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुए अपने आत्माको ही पुत्ररूपमें देखकर पिताको वैसा ही आनन्द होता है, जैसा पुण्यात्मा पुरुषको स्वर्गलोककी प्राप्ति हो जानेपर होता है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह्यमाना मनोदुःखैर्व्याधिभिश्चातुरा नराः ।
ह्लादन्ते स्वेषु दारेषु घर्मार्ताः सलिलेष्विव ॥ ५० ॥
मूलम्
दह्यमाना मनोदुःखैर्व्याधिभिश्चातुरा नराः ।
ह्लादन्ते स्वेषु दारेषु घर्मार्ताः सलिलेष्विव ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे धूपसे तपे हुए जीव जलमें स्नान कर लेनेपर शान्तिका अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जो मानसिक दुःख और चिन्ताओंकी आगमें जल रहे हैं तथा जो नाना प्रकारके रोगोंसे पीड़ित हैं, वे मानव अपनी पत्नीके समीप होनेपर आनन्दका अनुभव करते हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(विप्रवासकृशा दीना नरा मलिनवाससः।
तेऽपि स्वदारांस्तुष्यन्ति दरिद्रा धनलाभवत्॥)
मूलम्
(विप्रवासकृशा दीना नरा मलिनवाससः।
तेऽपि स्वदारांस्तुष्यन्ति दरिद्रा धनलाभवत्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो परदेशमें रहकर अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं, जो दीन और मलिन वस्त्र धारण करनेवाले हैं, वे दरिद्र मनुष्य भी अपनी पत्नीको पाकर ऐसे संतुष्ट होते हैं, मानो उन्हें कोई धन मिल गया हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुसंरब्धोऽपि रामाणां न कुर्यादप्रियं नरः।
रतिं प्रीतिं च धर्मं च तास्वायत्तमवेक्ष्य हि ॥ ५१ ॥
मूलम्
सुसंरब्धोऽपि रामाणां न कुर्यादप्रियं नरः।
रतिं प्रीतिं च धर्मं च तास्वायत्तमवेक्ष्य हि ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रति, प्रीति तथा धर्म पत्नीके ही अधीन हैं, ऐसा सोचकर पुरुषको चाहिये कि वह कुपित होनेपर भी पत्नीके साथ कोई अप्रिय बर्ताव न करे॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(आत्मनोऽर्धमिति श्रौतं सा रक्षति धनं प्रजाः।
शरीरं लोकयात्रां वै धर्मं स्वर्गमृषीन् पितॄन्॥)
मूलम्
(आत्मनोऽर्धमिति श्रौतं सा रक्षति धनं प्रजाः।
शरीरं लोकयात्रां वै धर्मं स्वर्गमृषीन् पितॄन्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘पत्नी अपना आधा अंग है, यह श्रुतिका वचन है। वह धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि तथा पितर—इन सबकी रक्षा करती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्यं रामाः सनातनम्।
ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजाम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्यं रामाः सनातनम्।
ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजाम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रियाँ पतिके आत्माके जन्म लेनेका सनातन पुण्य क्षेत्र हैं। ऋषियोंमें भी क्या शक्ति है कि बिना स्त्रीके संतान उत्पन्न कर सकें॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिपद्य यदा सूनुर्धरणीरेणुगुण्ठितः ।
पितुराश्लिष्यतेऽङ्गानि किमस्त्यभ्यधिकं ततः ॥ ५३ ॥
मूलम्
प्रतिपद्य यदा सूनुर्धरणीरेणुगुण्ठितः ।
पितुराश्लिष्यतेऽङ्गानि किमस्त्यभ्यधिकं ततः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब पुत्र धरतीकी धूलमें सना हुआ पास आता और पिताके अंगोंसे लिपट जाता है, उस समय जो सुख मिलता है, उससे बढ़कर और क्या हो सकता है?॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं स्वयमभिप्राप्तं साभिलाषमिमं सुतम्।
प्रेक्षमाणं कटाक्षेण किमर्थमवमन्यसे ॥ ५४ ॥
अण्डानि बिभ्रति स्वानि न भिन्दन्ति पिपीलिकाः।
न भरेथाः कथं नु त्वं धर्मज्ञः सन् स्वमात्मजम्॥५५॥
मूलम्
स त्वं स्वयमभिप्राप्तं साभिलाषमिमं सुतम्।
प्रेक्षमाणं कटाक्षेण किमर्थमवमन्यसे ॥ ५४ ॥
अण्डानि बिभ्रति स्वानि न भिन्दन्ति पिपीलिकाः।
न भरेथाः कथं नु त्वं धर्मज्ञः सन् स्वमात्मजम्॥५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखिये, आपका यह पुत्र स्वयं आपके पास आया है और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवनसे आपकी ओर देखता हुआ आपकी गोदमें बैठनेके लिये उत्सुक है; फिर आप किसलिये इसका तिरस्कार करते हैं। चींटियाँ भी अपने अण्डोंका पालन ही करती हैं; उन्हें फोड़तीं नहीं। फिर आप धर्मज्ञ होकर भी अपने पुत्रका भरण-पोषण क्यों नहीं करते?॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ममाण्डानीति वर्धन्ते कोकिलानपि वायसाः।
किं पुनस्त्वं न मन्येथाः सर्वज्ञः पुत्रमीदृशम्॥
मलयाच्चन्दनं जातमतिशीतं वदन्ति वै।
शिशोरालिङ्ग्यमानस्य चन्दनादधिकं भवेत् ॥)
मूलम्
(ममाण्डानीति वर्धन्ते कोकिलानपि वायसाः।
किं पुनस्त्वं न मन्येथाः सर्वज्ञः पुत्रमीदृशम्॥
मलयाच्चन्दनं जातमतिशीतं वदन्ति वै।
शिशोरालिङ्ग्यमानस्य चन्दनादधिकं भवेत् ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये मेरे अपने ही अण्डे हैं’ ऐसा समझकर कौए कोयलके अण्डोंका भी पालन-पोषण करते हैं; फिर आप सर्वज्ञ होकर अपनेसे ही उत्पन्न हुए ऐसे सुयोग्य पुत्रका सम्मान क्यों नहीं करते? लोग मलयगिरिके चन्दनको अत्यन्त शीतल बताते हैं, परंतु गोदमें सटाये हुए शिशुका स्पर्श चन्दनसे भी अधिक शीतल एवं सुखद होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वाससां न रामाणां नापां स्पर्शस्तथाविधः।
शिशोरालिङ्ग्यमानस्य स्पर्शः सूनोर्यथा सुखः ॥ ५६ ॥
मूलम्
न वाससां न रामाणां नापां स्पर्शस्तथाविधः।
शिशोरालिङ्ग्यमानस्य स्पर्शः सूनोर्यथा सुखः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने शिशु पुत्रको हृदयसे लगा लेनेपर उसका स्पर्श जितना सुखदायक जान पड़ता है, वैसा सुखद स्पर्श न तो कोमल वस्त्रोंका है, न रमणीय सुन्दरियोंका है और न शीतल जलका ही है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्।
गुरुर्गरीयसां श्रेष्ठः पुत्रः स्पर्शवतां वरः ॥ ५७ ॥
मूलम्
ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्।
गुरुर्गरीयसां श्रेष्ठः पुत्रः स्पर्शवतां वरः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, चतुष्पदों (चौपायों)-में गौ श्रेष्ठतम है, गौरवशाली व्यक्तियोंमें गुरु श्रेष्ठ है और स्पर्श करनेयोग्य वस्तुओंमें पुत्र ही सबसे श्रेष्ठ है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पृशतु त्वां समाश्लिष्य पुत्रोऽयं प्रियदर्शनः।
पुत्रस्पर्शात् सुखतरः स्पर्शो लोके न विद्यते ॥ ५८ ॥
मूलम्
स्पृशतु त्वां समाश्लिष्य पुत्रोऽयं प्रियदर्शनः।
पुत्रस्पर्शात् सुखतरः स्पर्शो लोके न विद्यते ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपका यह पुत्र देखनेमें कितना प्यारा है। यह आपके अंगोंसे लिपटकर आपका स्पर्श करे। संसारमें पुत्रके स्पर्शसे बढ़कर सुखदायक स्पर्श और किसीका नहीं है॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्रजाताहमरिंदम।
इमं कुमारं राजेन्द्र तव शोकविनाशनम् ॥ ५९ ॥
आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरव।
इति वागन्तरिक्षे मां सूतकेऽभ्यवदत् पुरा ॥ ६० ॥
मूलम्
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्रजाताहमरिंदम।
इमं कुमारं राजेन्द्र तव शोकविनाशनम् ॥ ५९ ॥
आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरव।
इति वागन्तरिक्षे मां सूतकेऽभ्यवदत् पुरा ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंका दमन करनेवाले सम्राट्! मैंने पूरे तीन वर्षोंतक अपने गर्भमें धारण करनेके पश्चात् आपके इस पुत्रको जन्म दिया है। यह आपके शोकका विनाश करनेवाला होगा। पौरव! पहले जब मैं सौरमें थी, उस समय आकाशवाणीने मुझसे कहा था कि यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला होगा॥५९-६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु नामाङ्कमारोप्य स्नेहाद् ग्रामान्तरं गताः।
मूर्ध्नि पुत्रानुपाघ्राय प्रतिनन्दन्ति मानवाः ॥ ६१ ॥
मूलम्
ननु नामाङ्कमारोप्य स्नेहाद् ग्रामान्तरं गताः।
मूर्ध्नि पुत्रानुपाघ्राय प्रतिनन्दन्ति मानवाः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रायः देखा जाता है कि दूसरे गाँवकी यात्रा करके लौटे हुए मनुष्य घर आनेपर बड़े स्नेहसे पुत्रोंको गोदमें उठा लेते हैं और उनके मस्तक सूँघकर आनन्दित होते हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदेष्वपि वदन्तीमें मन्त्रग्रामं द्विजातयः।
जातकर्मणि पुत्राणां तवापि विदितं तथा ॥ ६२ ॥
मूलम्
वेदेष्वपि वदन्तीमें मन्त्रग्रामं द्विजातयः।
जातकर्मणि पुत्राणां तवापि विदितं तथा ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्रोंके जातकर्म संस्कारके समय वेदज्ञ ब्राह्मण जिस वैदिक मन्त्रसमुदायका उच्चारण करते हैं, उसे आप भी जानते हैं॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे ।
आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे ।
आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘(उस मन्त्रसमुदायका भाव इस प्रकार है—) हे बालक! तुम मेरे अंग-अंगसे प्रकट हुए हो; हृदयसे उत्पन्न हुए हो। तुम पुत्र नामसे प्रसिद्ध मेरे आत्मा ही हो, अतः वत्स! तुम सौ वर्षोंतक जीवित रहो॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं त्वदधीनं मे संतानमपि चाक्षयम्।
तस्मात् त्वं जीव मे पुत्र सुसुखी शरदां शतम्॥६४॥
मूलम्
जीवितं त्वदधीनं मे संतानमपि चाक्षयम्।
तस्मात् त्वं जीव मे पुत्र सुसुखी शरदां शतम्॥६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा जीवन तथा अक्षय संतान-परम्परा भी तुम्हारे ही अधीन है, अतः पुत्र! तुम अत्यन्त सुखी होकर सौ वर्षोंतक जीवन धारण करो॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदङ्गेभ्यः प्रसूतोऽयं पुरुषात् पुरुषोऽपरः।
सरसीवामलेऽऽत्मानं द्वितीयं पश्य वै सुतम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
त्वदङ्गेभ्यः प्रसूतोऽयं पुरुषात् पुरुषोऽपरः।
सरसीवामलेऽऽत्मानं द्वितीयं पश्य वै सुतम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बालक आपके अंगोंसे उत्पन्न हुआ है; मानो एक पुरुषसे दूसरा पुरुष प्रकट हुआ है। निर्मल सरोवरमें दिखायी देनेवाले प्रतिबिम्बकी भाँति अपने द्वितीय आत्मारूप इस पुत्रको देखिये॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा ह्याहवनीयोऽग्निर्गार्हपत्यात् प्रणीयते ।
तथा त्वत्तः प्रसूतोऽयं त्वमेकः सन् द्विधा कृतः ॥ ६६ ॥
मृगावकृष्टेन पुरा मृगयां परिधावता।
अहमासादिता राजन् कुमारी पितुराश्रमे ॥ ६७ ॥
मूलम्
यथा ह्याहवनीयोऽग्निर्गार्हपत्यात् प्रणीयते ।
तथा त्वत्तः प्रसूतोऽयं त्वमेकः सन् द्विधा कृतः ॥ ६६ ॥
मृगावकृष्टेन पुरा मृगयां परिधावता।
अहमासादिता राजन् कुमारी पितुराश्रमे ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे गार्हपत्य अग्निसे आहवनीय अग्निका प्रणयन (प्राकट्य) होता है, उसी प्रकार यह बालक आपसे उत्पन्न हुआ है, मानो आप एक होकर भी अब दो रूपोंमें प्रकट हो गये हैं। राजन्! आजसे कुछ वर्ष पहले आप शिकार खेलने वनमें गये थे। वहाँ एक हिंसक पशुके पीछे आकृष्ट हो आप दौड़ते हुए मेरे पिताजीके आश्रमपर पहुँच गये, जहाँ मुझ कुमारी कन्याको आपने गान्धर्व विवाहद्वारा पत्नीरूपमें प्राप्त किया॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च सहजन्या च मेनका।
विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वराः ॥ ६८ ॥
मूलम्
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च सहजन्या च मेनका।
विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वराः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उर्वशी, पूर्वचित्ति, सहजन्या, मेनका, विश्वाची और घृताची—ये छः अप्सराएँ ही अन्य सब अप्सराओंसे श्रेष्ठ हैं॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां सा मेनका नाम ब्रह्मयोनिर्वराप्सराः।
दिवः सम्प्राप्य जगतीं विश्वामित्रादजीजनत् ॥ ६९ ॥
मूलम्
तासां सा मेनका नाम ब्रह्मयोनिर्वराप्सराः।
दिवः सम्प्राप्य जगतीं विश्वामित्रादजीजनत् ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन सबमें भी मेनका नामवाली अप्सरा श्रेष्ठ है, क्योंकि वह साक्षात् ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुई है। उसीने स्वर्गलोकसे भूतलपर आकर विश्वामित्रजीके सम्पर्कसे मुझे उत्पन्न किया था॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(श्रीमानृषिर्धर्मपरो वैश्वानर इवापरः ।
ब्रह्मयोनिः कुशो नाम विश्वामित्रपितामहः॥
कुशस्य पुत्रो बलवान् कुशनाभश्च धार्मिकः।
गाधिस्तस्य सुतो राजन् विश्वामित्रस्तु गाधिजः॥
एवंविधः पिता राजन् मेनका जननी वरा॥)
मूलम्
(श्रीमानृषिर्धर्मपरो वैश्वानर इवापरः ।
ब्रह्मयोनिः कुशो नाम विश्वामित्रपितामहः॥
कुशस्य पुत्रो बलवान् कुशनाभश्च धार्मिकः।
गाधिस्तस्य सुतो राजन् विश्वामित्रस्तु गाधिजः॥
एवंविधः पिता राजन् मेनका जननी वरा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! पूर्वकालमें कुश नामसे प्रसिद्ध एक धर्मपरायण तेजस्वी महर्षि हो गये हैं, जो दूसरे अग्निदेवके समान प्रतापी थे। उनकी उत्पत्ति ब्रह्माजीसे हुई थी। वे महर्षि विश्वामित्रके प्रपितामह थे। कुशके बलवान् पुत्रका नाम कुशनाभ था। वे बड़े धर्मात्मा थे। राजन्! कुशनाभके पुत्र गाधि हुए और गाधिसे विश्वामित्रका जन्म हुआ। ऐसे कुलीन महर्षि मेरे पिता हैं और मेनका मेरी श्रेष्ठ माता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा मां हिमवतः प्रस्थे सुषुवे मेनकाप्सराः।
अवकीर्य च मां याता परात्मजमिवासती ॥ ७० ॥
मूलम्
सा मां हिमवतः प्रस्थे सुषुवे मेनकाप्सराः।
अवकीर्य च मां याता परात्मजमिवासती ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस मेनका अप्सराने हिमालयके शिखरपर मुझे जन्म दिया; किंतु वह असद् व्यवहार करनेवाली अप्सरा मुझे परायी संतानकी तरह वहीं छोड़कर चली गयी॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पक्षिणः पुण्यवन्तस्ते सहिता धर्मतस्तदा।
पक्षैस्तैरभिगुप्ता च तस्मादस्मि शकुन्तला॥
ततोऽहमृषिणा दृष्टा काश्यपेन महात्मना।
जलार्थमग्निहोत्रस्य गतं दृष्ट्वा तु पक्षिणः॥
न्यासभूतामिव मुनेः प्रददुर्मां दयावतः।
स मारणिमिवादाय स्वमाश्रममुपागमत् ॥
सा वै सम्भाविता राजन्ननुक्रोशान्महर्षिणा।
तेनैव स्वसुतेवाहं राजन् वै परमर्षिणा॥
विश्वामित्रसुता चाहं वर्धिता मुनिना नृप।
यौवने वर्तमानां च दृष्टवानसि मां नृप॥
आश्रमे पर्णशालायां कुमारीं विजने वने।
धात्रा प्रचोदितां शून्ये पित्रा विरहितां मिथः॥
वाग्भिस्त्वं सूनृताभिर्मामपत्यार्थमचूचुदः ।
अकार्षीस्त्वाश्रमे वासं धर्मकामार्थनिश्चितम् ॥
गान्धर्वेण विवाहेन विधिना पाणिमग्रहीः।
साहं कुलं च शीलं च सत्यवादित्वमात्मनः॥
स्वधर्मं च पुरस्कृत्य त्वामद्य शरणं गता।
तस्मान्नार्हसि संश्रुत्य तथेति वितथं वचः॥
स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा परित्यक्तुमुपस्थिताम्।
त्वन्नाथां लोकनाथस्त्वं नार्हसि त्वमनागसम्॥)
मूलम्
(पक्षिणः पुण्यवन्तस्ते सहिता धर्मतस्तदा।
पक्षैस्तैरभिगुप्ता च तस्मादस्मि शकुन्तला॥
ततोऽहमृषिणा दृष्टा काश्यपेन महात्मना।
जलार्थमग्निहोत्रस्य गतं दृष्ट्वा तु पक्षिणः॥
न्यासभूतामिव मुनेः प्रददुर्मां दयावतः।
स मारणिमिवादाय स्वमाश्रममुपागमत् ॥
सा वै सम्भाविता राजन्ननुक्रोशान्महर्षिणा।
तेनैव स्वसुतेवाहं राजन् वै परमर्षिणा॥
विश्वामित्रसुता चाहं वर्धिता मुनिना नृप।
यौवने वर्तमानां च दृष्टवानसि मां नृप॥
आश्रमे पर्णशालायां कुमारीं विजने वने।
धात्रा प्रचोदितां शून्ये पित्रा विरहितां मिथः॥
वाग्भिस्त्वं सूनृताभिर्मामपत्यार्थमचूचुदः ।
अकार्षीस्त्वाश्रमे वासं धर्मकामार्थनिश्चितम् ॥
गान्धर्वेण विवाहेन विधिना पाणिमग्रहीः।
साहं कुलं च शीलं च सत्यवादित्वमात्मनः॥
स्वधर्मं च पुरस्कृत्य त्वामद्य शरणं गता।
तस्मान्नार्हसि संश्रुत्य तथेति वितथं वचः॥
स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा परित्यक्तुमुपस्थिताम्।
त्वन्नाथां लोकनाथस्त्वं नार्हसि त्वमनागसम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे पक्षी भी पुण्यवान् हैं, जिन्होंने एक साथ आकर उस समय धर्मपूर्वक अपने पंखोंसे मेरी रक्षा की। शकुन्तों (पक्षियों)-ने मेरी रक्षा की, इसलिये मेरा नाम शकुन्तला हो गया। तदनन्तर महात्मा कश्यपनन्दन कण्वकी दृष्टि मुझपर पड़ी। वे अग्निहोत्रके लिये जल लानेके हेतु उधर गये हुए थे। उन्हें देखकर पक्षियोंने उन दयालु महर्षिको मुझे धरोहरकी भाँति सौंप दिया। वे मुझे अरणी (शमी)-की भाँति लेकर अपने आश्रमपर आये। राजन्! महर्षिने कृपापूर्वक अपनी पुत्रीके समान मेरा पालन-पोषण किया। नरेश्वर! इस प्रकार मैं विश्वामित्र मुनिकी पुत्री हूँ और महात्मा कण्वने मुझे पाल-पोसकर बड़ी किया है। आपने युवावस्थामें मुझे देखा था। निर्जन वनमें आश्रमकी पर्णकुटीके भीतर सूने स्थानमें, जबकि मेरे पिता उपस्थित नहीं थे, विधाताकी प्रेरणासे प्रभावित मुझ कुमारी कन्याको आपने अपने मीठे वचनोंद्वारा संतानोत्पादनके निमित्त सहवासके लिये प्रेरित किया। धर्म, अर्थ एवं कामकी ओर दृष्टि रखकर मेरे साथ आश्रममें निवास किया। गान्धर्व विवाहकी विधिसे आपने मेरा पाणिग्रहण किया है। वही मैं आज अपने कुल, शील, सत्यवादिता और धर्मको आगे रखकर आपकी शरणमें आयी हूँ। इसलिये पूर्वकालमें वैसी प्रतिज्ञा करके अब उसे असत्य न कीजिये। आप जगत्के रक्षक हैं, मेरे प्राणनाथ हैं। मैं सर्वथा निरपराध हूँ और स्वयं आपकी सेवामें उपस्थित हूँ, अतः अपने धर्मको पीछे करके मेरा परित्याग न कीजिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु कर्माशुभं पूर्वं कृतवत्यन्यजन्मनि।
यदहं बान्धवैस्त्यक्ता बाल्ये सम्प्रति च त्वया ॥ ७१ ॥
मूलम्
किं नु कर्माशुभं पूर्वं कृतवत्यन्यजन्मनि।
यदहं बान्धवैस्त्यक्ता बाल्ये सम्प्रति च त्वया ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने पूर्व जन्मान्तरोंमें कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे बाल्यावस्थामें तो मेरे बान्धवोंने मुझे त्याग दिया और इस समय आप पतिदेवताके द्वारा भी मैं त्याग दी गयी॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं त्वया परित्यक्ता गमिष्यामि स्वमाश्रमम्।
इमं तु बालं संत्यक्तुं नार्हस्यात्मजमात्मनः ॥ ७२ ॥
मूलम्
कामं त्वया परित्यक्ता गमिष्यामि स्वमाश्रमम्।
इमं तु बालं संत्यक्तुं नार्हस्यात्मजमात्मनः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आपके द्वारा स्वेच्छासे त्याग दी जानेपर मैं पुनः अपने आश्रमको लौट जाऊँगी, किंतु अपने इस नन्हे-से पुत्रका त्याग आपको नहीं करना चाहिये’॥७२॥
मूलम् (वचनम्)
दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पुत्रमभिजानामि त्वयि जातं शकुन्तले।
असत्यवचना नार्यः कस्ते श्रद्धास्यते वचः ॥ ७३ ॥
मेनका निरनुक्रोशा बन्धकी जननी तव।
यया हिमवतः पृष्ठे निर्माल्यमिव चोज्झिता ॥ ७४ ॥
मूलम्
न पुत्रमभिजानामि त्वयि जातं शकुन्तले।
असत्यवचना नार्यः कस्ते श्रद्धास्यते वचः ॥ ७३ ॥
मेनका निरनुक्रोशा बन्धकी जननी तव।
यया हिमवतः पृष्ठे निर्माल्यमिव चोज्झिता ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— शकुन्तले! मैं तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न इस पुत्रको नहीं जानता। स्त्रियाँ प्रायः झूठ बोलनेवाली होती हैं। तुम्हारी बातपर कौन श्रद्धा करेगा? तुम्हारी माता वेश्या मेनका बड़ी क्रूरहृदया है, जिसने तुम्हें हिमालयके शिखरपर निर्माल्यकी तरह उतार फेंका है॥७३-७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चापि निरनुक्रोशः क्षत्रयोनिः पिता तव।
विश्वामित्रो ब्राह्मणत्वे लुब्धः कामवशं गतः ॥ ७५ ॥
मूलम्
स चापि निरनुक्रोशः क्षत्रयोनिः पिता तव।
विश्वामित्रो ब्राह्मणत्वे लुब्धः कामवशं गतः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तुम्हारे क्षत्रियजातीय पिता विश्वामित्र भी, जो ब्राह्मण बननेके लिये लालायित थे और मेनकाको देखते ही कामके अधीन हो गये थे, बड़े निर्दयी जान पड़ते हैं॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेनकाप्सरसां श्रेष्ठा महर्षीणां पिता च ते।
तयोरपत्यं कस्मात् त्वं पुंश्चलीव प्रभाषसे ॥ ७६ ॥
मूलम्
मेनकाप्सरसां श्रेष्ठा महर्षीणां पिता च ते।
तयोरपत्यं कस्मात् त्वं पुंश्चलीव प्रभाषसे ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेनका अप्सराओंमें श्रेष्ठ बतायी जाती है और तुम्हारे पिता विश्वामित्र भी महर्षियोंमें उत्तम समझे जाते हैं। तुम उन्हीं दोनोंकी संतान होकर व्यभिचारिणी स्त्रीके समान क्यों झूठी बातें बना रही हो॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रद्धेयमिदं वाक्यं कथयन्ती न लज्जसे।
विशेषतो मत्सकाशे दुष्टतापसि गम्यताम् ॥ ७७ ॥
मूलम्
अश्रद्धेयमिदं वाक्यं कथयन्ती न लज्जसे।
विशेषतो मत्सकाशे दुष्टतापसि गम्यताम् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी यह बात श्रद्धा करनेके योग्य नहीं है। इसे कहते समय तुम्हें लज्जा नहीं आती? विशेषतः मेरे समीप ऐसी बातें कहनेमें तुम्हें संकोच होना चाहिये। दुष्ट तपस्विनि! तुम चली जाओ यहाँसे॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व महर्षिः स चैवाग्र्यः साप्सराः क्व च मेनका।
क्व च त्वमेवं कृपणा तापसीवेषधारिणी ॥ ७८ ॥
मूलम्
क्व महर्षिः स चैवाग्र्यः साप्सराः क्व च मेनका।
क्व च त्वमेवं कृपणा तापसीवेषधारिणी ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहाँ वे मुनिशिरोमणि महर्षि विश्वामित्र, कहाँ अप्सराओंमें श्रेष्ठ मेनका और कहाँ तुम-जैसी तापसीका वेष धारण करनेवाली दीन-हीन नारी?॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिकायश्च ते पुत्रो बालोऽतिबलवानयम्।
कथमल्पेन कालेन शालस्तम्भ इवोद्गतः ॥ ७९ ॥
मूलम्
अतिकायश्च ते पुत्रो बालोऽतिबलवानयम्।
कथमल्पेन कालेन शालस्तम्भ इवोद्गतः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे इस पुत्रका शरीर बहुत बड़ा है। बाल्यावस्थामें ही यह अत्यन्त बलवान् जान पड़ता है। इतने थोड़े समयमें यह साखूके खंभे-जैसा लम्बा कैसे हो गया?॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनिकृष्टा च ते योनिः पुंश्चलीव प्रभाषसे।
यदृच्छया कामरागाज्जाता मेनकया ह्यसि ॥ ८० ॥
मूलम्
सुनिकृष्टा च ते योनिः पुंश्चलीव प्रभाषसे।
यदृच्छया कामरागाज्जाता मेनकया ह्यसि ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी जाति नीच है। तुम कुलटा-जैसी बातें करती हो। जान पड़ता है, मेनकाने अकस्मात् भोगासक्तिके वशीभूत होकर तुम्हें जन्म दिया है॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेतत् परोक्षं मे यत् त्वं वदसि तापसि।
नाहं त्वामभिजानामि यथेष्टं गम्यतां त्वया ॥ ८१ ॥
मूलम्
सर्वमेतत् परोक्षं मे यत् त्वं वदसि तापसि।
नाहं त्वामभिजानामि यथेष्टं गम्यतां त्वया ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम जो कुछ कहती हो, वह सब मेरी आँखोंके सामने नहीं हुआ है। तापसी! मैं तुम्हें नहीं पहचानता। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, वहीं चली जाओ॥८१॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि ॥ ८२ ॥
मूलम्
राजन् सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— राजन्! आप दूसरोंके सरसों बराबर दोषोंको तो देखते रहते हैं, किंतु अपने बेलके समान बड़े-बड़े दोषोंको देखकर भी नहीं देखते॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेनका त्रिदशेष्वेव त्रिदशाश्चानु मेनकाम्।
ममैवोद्रिच्यते जन्म दुष्यन्त तव जन्मनः ॥ ८३ ॥
मूलम्
मेनका त्रिदशेष्वेव त्रिदशाश्चानु मेनकाम्।
ममैवोद्रिच्यते जन्म दुष्यन्त तव जन्मनः ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेनका देवताओंमें रहती है और देवता मेनकाके पीछे चलते हैं—उसका आदर करते हैं (उसी मेनकासे मेरा जन्म हुआ है); अतः महाराज दुष्यन्त! आपके जन्म और कुलसे मेरा जन्म और कुल बढ़कर है॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षितावटसि राजेन्द्र अन्तरिक्षे चराम्यहम्।
आवयोरन्तरं पश्य मेरुसर्षपयोरिव ॥ ८४ ॥
मूलम्
क्षितावटसि राजेन्द्र अन्तरिक्षे चराम्यहम्।
आवयोरन्तरं पश्य मेरुसर्षपयोरिव ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! आप केवल पृथ्वीपर घूमते हैं, किंतु मैं आकाशमें भी चल सकती हूँ। तनिक ध्यानसे देखिये, मुझमें और आपमें सुमेरु पर्वत और सरसोंका-सा अन्तर है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेन्द्रस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च।
भवनान्यनुसंयामि प्रभावं पश्य मे नृप ॥ ८५ ॥
मूलम्
महेन्द्रस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च।
भवनान्यनुसंयामि प्रभावं पश्य मे नृप ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मेरे प्रभावको देख लो। मैं इन्द्र, कुबेर, यम और वरुण—सभीके लोकोंमें निरन्तर आने-जानेकी शक्ति रखती हूँ॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यश्चापि प्रवादोऽयं यं प्रवक्ष्यामि तेऽनघ।
निदर्शनार्थं न द्वेषाच्छ्रुत्वा तं क्षन्तुमर्हसि ॥ ८६ ॥
मूलम्
सत्यश्चापि प्रवादोऽयं यं प्रवक्ष्यामि तेऽनघ।
निदर्शनार्थं न द्वेषाच्छ्रुत्वा तं क्षन्तुमर्हसि ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! लोकमें एक कहावत प्रसिद्ध है और वह सत्य भी है, जिसे मैं दृष्टान्तके तौरपर आपसे कहूँगी; द्वेषके कारण नहीं। अतः उसे सुनकर क्षमा कीजियेगा॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरूपो यावदादर्शे नात्मनः पश्यते मुखम्।
मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम् ॥ ८७ ॥
मूलम्
विरूपो यावदादर्शे नात्मनः पश्यते मुखम्।
मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम् ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरूप मनुष्य जबतक आइनेमें अपना मुँह नहीं देख लेता, तबतक वह अपनेको दूसरोंसे अधिक रूपवान् समझता है॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा स्वमुखमादर्शे विकृतं सोऽभिवीक्षते।
तदान्तरं विजानीते आत्मानं चेतरं जनम् ॥ ८८ ॥
मूलम्
यदा स्वमुखमादर्शे विकृतं सोऽभिवीक्षते।
तदान्तरं विजानीते आत्मानं चेतरं जनम् ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जब कभी आइनेमें वह अपने विकृत मुखका दर्शन कर लेता है, तब अपने और दूसरोंमें क्या अन्तर है, यह उसकी समझमें आ जाता है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीवरूपसम्पन्नो न कंचिदवमन्यते ।
अतीव जल्पन् दुर्वाचो भवतीह विहेठकः ॥ ८९ ॥
मूलम्
अतीवरूपसम्पन्नो न कंचिदवमन्यते ।
अतीव जल्पन् दुर्वाचो भवतीह विहेठकः ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अत्यन्त रूपवान् है, वह किसी दूसरेका अपमान नहीं करता; परंतु जो रूपवान् न होकर भी अपने रूपकी प्रशंसामें अधिक बातें बनाता है, वह मुखसे खोटे वचन कहता और दूसरोंको पीड़ित करता है॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्खो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः।
अशुभं वाक्यमादत्ते पुरीषमिव सूकरः ॥ ९० ॥
मूलम्
मूर्खो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः।
अशुभं वाक्यमादत्ते पुरीषमिव सूकरः ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करनेवाले दूसरे लोगोंकी भली-बुरी बातें सुनकर उनमेंसे बुरी बातोंको ही ग्रहण करता है; ठीक वैसे ही, जैसे सूअर अन्य वस्तुओंके रहते हुए भी विष्ठाको ही अपना भोजन बनाता है॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्ञस्तु जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः।
गुणवद् वाक्यमादत्ते हंसः क्षीरमिवाम्भसः ॥ ९१ ॥
मूलम्
प्राज्ञस्तु जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः।
गुणवद् वाक्यमादत्ते हंसः क्षीरमिवाम्भसः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु विद्वान् पुरुष दूसरे वक्ताओंके शुभाशुभ वचनको सुनकर उनमेंसे गुणयुक्त बातोंको ही अपनाता है, ठीक उसी तरह, जैसे हंस पानीको छोड़कर केवल दूध ग्रहण कर लेता है॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यान् परिवदन् साधुर्यथा हि परितप्यते।
तथा परिवदन्नन्यांस्तुष्टो भवति दुर्जनः ॥ ९२ ॥
मूलम्
अन्यान् परिवदन् साधुर्यथा हि परितप्यते।
तथा परिवदन्नन्यांस्तुष्टो भवति दुर्जनः ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधु पुरुष दूसरोंकी निन्दाका अवसर आनेपर जैसे अत्यन्त संतप्त हो उठता है, ठीक उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य दूसरोंकी निन्दाका अवसर मिलनेपर बहुत संतुष्ट होता है॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवाद्य यथा वृद्धान् सन्तो गच्छन्ति निर्वृतिम्।
एवं सज्जनमाक्रुश्य मूर्खो भवति निर्वृतः ॥ ९३ ॥
सुखं जीवन्त्यदोषज्ञा मूर्खा दोषानुदर्शिनः।
यत्र वाच्याः परैः सन्तः परानाहुस्तथाविधान् ॥ ९४ ॥
मूलम्
अभिवाद्य यथा वृद्धान् सन्तो गच्छन्ति निर्वृतिम्।
एवं सज्जनमाक्रुश्य मूर्खो भवति निर्वृतः ॥ ९३ ॥
सुखं जीवन्त्यदोषज्ञा मूर्खा दोषानुदर्शिनः।
यत्र वाच्याः परैः सन्तः परानाहुस्तथाविधान् ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे साधु पुरुष बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम करके बड़े प्रसन्न होते हैं, वैसे ही मूर्ख मानव साधु पुरुषोंकी निन्दा करके संतोषका अनुभव करते हैं। साधु पुरुष दूसरोंके दोष न देखते हुए सुखसे जीवन बिताते हैं, किंतु मूर्ख मनुष्य सदा दूसरोंके दोष ही देखा करते हैं। जिन दोषोंके कारण दुष्टात्मा मनुष्य साधु पुरुषोंद्वारा निन्दाके योग्य समझे जाते हैं, दुष्टलोग वैसे ही दोषोंका साधु पुरुषोंपर आरोप करके उनकी निन्दा करते हैं॥९३-९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो हास्यतरं लोके किंचिदन्यन्न विद्यते।
यत्र दुर्जनमित्याह दुर्जनः सज्जनं स्वयम् ॥ ९५ ॥
मूलम्
अतो हास्यतरं लोके किंचिदन्यन्न विद्यते।
यत्र दुर्जनमित्याह दुर्जनः सज्जनं स्वयम् ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें इससे बढ़कर हँसीकी दूसरी कोई बात नहीं हो सकती कि जो दुर्जन हैं, वे स्वयं ही सज्जन पुरुषोंको दुर्जन कहते हैं॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यधर्मच्युतात् पुंसः क्रुद्धादाशीविषादिव ।
अनास्तिकोऽप्युद्विजते जनः किं पुनरास्तिकः ॥ ९६ ॥
मूलम्
सत्यधर्मच्युतात् पुंसः क्रुद्धादाशीविषादिव ।
अनास्तिकोऽप्युद्विजते जनः किं पुनरास्तिकः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सत्यरूपी धर्मसे भ्रष्ट है, वह पुरुष क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान भयंकर है। उससे नास्तिक भी भय खाता है; फिर आस्तिक मनुष्यके लिये तो कहना ही क्या है॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमुत्पाद्य वै पुत्रं सदृशं यो न मन्यते।
तस्य देवाः श्रियं घ्नन्ति न च लोकानुपाश्नते ॥ ९७ ॥
मूलम्
स्वयमुत्पाद्य वै पुत्रं सदृशं यो न मन्यते।
तस्य देवाः श्रियं घ्नन्ति न च लोकानुपाश्नते ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वयं ही अपने तुल्य पुत्र उत्पन्न करके उसका सम्मान नहीं करता, उसकी सम्पत्तिको देवता नष्ट कर देते हैं और वह उत्तम लोकोंमें नहीं जाता॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलवंशप्रतिष्ठां हि पितरः पुत्रमब्रुवन्।
उत्तमं सर्वधर्माणां तस्मात् पुत्रं न संत्यजेत् ॥ ९८ ॥
मूलम्
कुलवंशप्रतिष्ठां हि पितरः पुत्रमब्रुवन्।
उत्तमं सर्वधर्माणां तस्मात् पुत्रं न संत्यजेत् ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितरोंने पुत्रको कुल और वंशकी प्रतिष्ठा बताया है, अतः पुत्र सब धर्मोंमें उत्तम है। इसलिये पुत्रका त्याग नहीं करना चाहिये॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वपत्नीप्रभवान् पञ्च लब्धान् क्रीतान् विवर्धितान्।
कृतानन्यासु चोत्पन्नान् पुत्रान् वै मनुरब्रवीत् ॥ ९९ ॥
मूलम्
स्वपत्नीप्रभवान् पञ्च लब्धान् क्रीतान् विवर्धितान्।
कृतानन्यासु चोत्पन्नान् पुत्रान् वै मनुरब्रवीत् ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी पत्नीसे उत्पन्न एक और अन्य स्त्रियोंसे उत्पन्न लब्ध, क्रीत, पोषित तथा उपनयनादिसे संस्कृत—ये चार मिलाकर कुल पाँच प्रकारके पुत्र मनुजीने बताये हैं॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मकीर्त्यावहा नॄणां मनसः प्रीतिवर्धनाः।
त्रायन्ते नरकाज्जाताः पुत्रा धर्मप्लवाः पितॄन् ॥ १०० ॥
मूलम्
धर्मकीर्त्यावहा नॄणां मनसः प्रीतिवर्धनाः।
त्रायन्ते नरकाज्जाताः पुत्रा धर्मप्लवाः पितॄन् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सभी पुत्र मनुष्योंको धर्म और कीर्तिकी प्राप्ति करानेवाले तथा मनकी प्रसन्नताको बढ़ानेवाले होते हैं। पुत्र धर्मरूपी नौकाका आश्रय ले अपने पितरोंका नरकसे उद्धार कर देते हैं॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं नृपतिशार्दूल पुत्रं न त्यक्तुमर्हसि।
आत्मानं सत्यधर्मौ च पालयन् पृथिवीपते।
नरेन्द्रसिंह कपटं न वोढुं त्वमिहार्हसि ॥ १०१ ॥
मूलम्
स त्वं नृपतिशार्दूल पुत्रं न त्यक्तुमर्हसि।
आत्मानं सत्यधर्मौ च पालयन् पृथिवीपते।
नरेन्द्रसिंह कपटं न वोढुं त्वमिहार्हसि ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः नृपश्रेष्ठ! आप अपने पुत्रका परित्याग न करें। पृथ्वीपते! नरेन्द्रप्रवर! आप अपने आत्मा, सत्य और धर्मका पालन करते हुए अपने सिरपर कपटका बोझ न उठावें॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं कूपशताद् वापी वरं वापीशतात् क्रतुः।
वरं क्रतुशतात् पुत्रः सत्यं पुत्रशताद् वरम् ॥ १०२ ॥
मूलम्
वरं कूपशताद् वापी वरं वापीशतात् क्रतुः।
वरं क्रतुशतात् पुत्रः सत्यं पुत्रशताद् वरम् ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौ कुएँ खोदवानेकी अपेक्षा एक बावड़ी बनवाना उत्तम है। सौ बावड़ियोंकी अपेक्षा एक यज्ञ कर लेना उत्तम है। सौ यज्ञ करनेकी अपेक्षा एक पुत्रको जन्म देना उत्तम है और सौ पुत्रोंकी अपेक्षा भी सत्यका पालन श्रेष्ठ है॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ॥ १०३ ॥
मूलम्
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक हजार अश्वमेध यज्ञ एक ओर तथा सत्यभाषणका पुण्य दूसरी ओर यदि तराजूपर रखा जाय, तो हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका पलड़ा ही भारी होता है॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् ।
सत्यं च वचनं राजन् समं वा स्यान्न वा समम्॥१०४॥
मूलम्
सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् ।
सत्यं च वचनं राजन् समं वा स्यान्न वा समम्॥१०४॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन और समस्त तीर्थोंका स्नान भी सत्य वचनकी समानता कर सकेगा या नहीं, इसमें संदेह ही है (क्योंकि सत्य उनसे भी श्रेष्ठ है)॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति सत्यसमो धर्मो न सत्याद् विद्यते परम्।
न हि तीव्रतरं किंचिदनृतादिह विद्यते ॥ १०५ ॥
मूलम्
नास्ति सत्यसमो धर्मो न सत्याद् विद्यते परम्।
न हि तीव्रतरं किंचिदनृतादिह विद्यते ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यके समान कोई धर्म नहीं है। सत्यसे उत्तम कुछ भी नहीं है और झूठसे बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत्में दूसरा कोई नहीं है॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् सत्यं परं ब्रह्म सत्यं च समयः परः।
मा त्याक्षीः समयं राजन् सत्यं संगतमस्तु ते ॥ १०६ ॥
मूलम्
राजन् सत्यं परं ब्रह्म सत्यं च समयः परः।
मा त्याक्षीः समयं राजन् सत्यं संगतमस्तु ते ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सत्य परब्रह्म परमात्माका स्वरूप है। सत्य सबसे बड़ा नियम है। अतः महाराज! आप अपनी सत्य प्रतिज्ञाको न छोड़िये। सत्य आपका जीवनसंगी हो॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृते चेत् प्रसङ्गस्ते श्रद्दधासि न चेत् स्वयम्।
आत्मना हन्त गच्छामि त्वादृशे नास्ति संगतम् ॥ १०७ ॥
मूलम्
अनृते चेत् प्रसङ्गस्ते श्रद्दधासि न चेत् स्वयम्।
आत्मना हन्त गच्छामि त्वादृशे नास्ति संगतम् ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आपकी झूठमें ही आसक्ति है और मेरी बातपर श्रद्धा नहीं करते हैं तो मैं स्वयं ही चली जाती हूँ। आप-जैसेके साथ रहना मुझे उचित नहीं है॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पुत्रत्वे शङ्कमानस्य बुद्धिर्ज्ञापकदीपना ।
गतिः स्वरः स्मृतिः सत्त्वं शीलविज्ञानविक्रमाः॥
धृष्णुप्रकृतिभावौ च आवर्ता रोमराजयः।
समा यस्य यतः स्युस्ते तस्य पुत्रो न संशयः॥
सादृश्येनोद्धृतं बिम्बं तव देहाद् विशाम्पते।
तातेति भाषमाणं वै मा स्म राजन् वृथा कृथाः॥)
मूलम्
(पुत्रत्वे शङ्कमानस्य बुद्धिर्ज्ञापकदीपना ।
गतिः स्वरः स्मृतिः सत्त्वं शीलविज्ञानविक्रमाः॥
धृष्णुप्रकृतिभावौ च आवर्ता रोमराजयः।
समा यस्य यतः स्युस्ते तस्य पुत्रो न संशयः॥
सादृश्येनोद्धृतं बिम्बं तव देहाद् विशाम्पते।
तातेति भाषमाणं वै मा स्म राजन् वृथा कृथाः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
यह मेरा पुत्र है या नहीं, ऐसा संदेह होनेपर बुद्धि ही इसका निर्णय करनेवाली अथवा इस रहस्यपर प्रकाश डालनेवाली है। चाल-ढाल, स्वर, स्मरणशक्ति, उत्साह, शील-स्वभाव, विज्ञान, पराक्रम, साहस, प्रकृतिभाव, आवर्त (भँवर) तथा रोमावली—जिसकी ये सब वस्तुएँ जिससे सर्वथा मिलती-जुलती हों, वह उसीका पुत्र है, इसमें संशय नहीं है। राजन्! आपके शरीरसे पूर्ण समानता लेकर यह बिम्बकी भाँति प्रकट हुआ है और आपको ‘तात’ कहकर पुकार रहा है। आप इसकी आशा न तोड़ें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामृतेऽपि हि दुष्यन्त शैलराजावतंसकाम्।
चतुरन्तामिमामुर्वीं पुत्रो मे पालयिष्यति ॥ १०८ ॥
मूलम्
त्वामृतेऽपि हि दुष्यन्त शैलराजावतंसकाम्।
चतुरन्तामिमामुर्वीं पुत्रो मे पालयिष्यति ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज दुष्यन्त! मैं एक बात कहे देती हूँ, आपके सहयोगके बिना भी मेरा यह पुत्र चारों समुद्रोंसे घिरी हुई गिरिराज हिमालयरूपी मुकुटसे सुशोभित समूची पृथ्वीका शासन करेगा॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति।
एवमुक्तो महेन्द्रेण भविष्यति न चान्यथा॥
साक्षित्वे बहवोऽप्युक्ता देवदूतादयो मताः।
न ब्रुवन्ति यथा सत्यमुताहोऽप्यनृतं किल॥
असाक्षिणी मन्दभाग्या गमिष्यामि यथाऽऽगतम्।)
मूलम्
(शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति।
एवमुक्तो महेन्द्रेण भविष्यति न चान्यथा॥
साक्षित्वे बहवोऽप्युक्ता देवदूतादयो मताः।
न ब्रुवन्ति यथा सत्यमुताहोऽप्यनृतं किल॥
असाक्षिणी मन्दभाग्या गमिष्यामि यथाऽऽगतम्।)
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रका वचन है—‘शकुन्तले! तुम्हारा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् होगा।’ यह कभी मिथ्या नहीं हो सकता। यद्यपि देवदूत आदि बहुत-से साक्षी बताये गये हैं, तथापि इस समय वे क्या सत्य है और क्या असत्य—इसके विषयमें कुछ नहीं कह रहे हैं। अतः साक्षीके अभावमें यह भाग्यहीन शकुन्तला जैसे आयी है, वैसे ही लौट जायगी।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा राजानं प्रातिष्ठत शकुन्तला।
अथान्तरिक्षाद् दुष्यन्तं वागुवाचाशरीरिणी ॥ १०९ ॥
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मन्त्रिभिश्च वृतं तदा ।
मूलम्
एतावदुक्त्वा राजानं प्रातिष्ठत शकुन्तला।
अथान्तरिक्षाद् दुष्यन्तं वागुवाचाशरीरिणी ॥ १०९ ॥
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मन्त्रिभिश्च वृतं तदा ।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा दुष्यन्तसे इतनी बातें कहकर शकुन्तला वहाँसे चलनेको उद्यत हुई। इतनेमें ही ऋत्विज्, पुरोहित, आचार्य और मन्त्रियोंसे घिरे हुए दुष्यन्तको सम्बोधित करते हुए आकाशवाणी हुई॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भस्त्रा माता पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः॥११०॥
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम्।
(सर्वेभ्यो ह्यङ्गमङ्गेभ्यः साक्षादुत्पद्यते सुतः।
आत्मा चैष सुतो नाम तथैव तव पौरव॥
आहितं ह्यात्मनाऽऽत्मानं परिरक्ष इमं सुतम्।
अनन्यां स्वां प्रतीक्षस्व मावमंस्थाः शकुन्तलाम्॥
स्त्रियः पवित्रमतुलमेतद् दुष्यन्त धर्मतः।
मासि मासि रजो ह्यासां दुष्कृतान्यपकर्षति॥)
रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात् ॥ १११ ॥
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला।
जाया जनयते पुत्रमात्मनोऽङ्गं द्विधा कृतम् ॥ ११२ ॥
मूलम्
भस्त्रा माता पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः॥११०॥
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम्।
(सर्वेभ्यो ह्यङ्गमङ्गेभ्यः साक्षादुत्पद्यते सुतः।
आत्मा चैष सुतो नाम तथैव तव पौरव॥
आहितं ह्यात्मनाऽऽत्मानं परिरक्ष इमं सुतम्।
अनन्यां स्वां प्रतीक्षस्व मावमंस्थाः शकुन्तलाम्॥
स्त्रियः पवित्रमतुलमेतद् दुष्यन्त धर्मतः।
मासि मासि रजो ह्यासां दुष्कृतान्यपकर्षति॥)
रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात् ॥ १११ ॥
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला।
जाया जनयते पुत्रमात्मनोऽङ्गं द्विधा कृतम् ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुष्यन्त! माता तो केवल भाथी (धौंकनी)-के समान है। पुत्र पिताका ही होता है; क्योंकि जो जिसके द्वारा उत्पन्न होता है, वह उसीका स्वरूप है—इस न्यायसे पिता ही पुत्ररूपमें उत्पन्न होता है, अतः दुष्यन्त! तुम पुत्रका पालन करो। शकुन्तलाका अनादर मत करो। पौरव! पुत्र साक्षात् अपना ही शरीर है। वह पिताके सम्पूर्ण अंगोंसे उत्पन्न होता है। वास्तवमें वह पुत्र नामसे प्रसिद्ध अपना आत्मा ही है। ऐसा ही यह तुम्हारा पुत्र भी है। अपने द्वारा ही गर्भमें स्थापित किये हुए आत्मस्वरूप इस पुत्रकी तुम रक्षा करो। शकुन्तला तुम्हारे प्रति अनन्य अनुराग रखनेवाली धर्म-पत्नी है। इसे इसी दृष्टिसे देखो! उसका अनादर मत करो। दुष्यन्त! स्त्रियाँ अनुपम पवित्र वस्तु हैं, यह धर्मतः स्वीकार किया गया है। प्रत्येक मासमें इनके जो रजःस्राव होता है, वह इनके सारे दोषोंको दूर कर देता है। नरदेव! वीर्यका आधान करनेवाला पिता ही पुत्र बनता है और वह यमलोकसे अपने पितृगणका उद्धार करता है। तुमने ही इस गर्भका आधान किया था। शकुन्तला सत्य कहती है। जाया (पत्नी) दो भागोंमें विभक्त हुए पतिके अपने ही शरीरको पुत्ररूपमें उत्पन्न करती है॥११०—११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् भरस्व दुष्यन्त पुत्रं शाकुन्तलं नृप।
अभूतिरेषा यत् त्यक्त्वा जीवेज्जीवन्तमात्मजम् ॥ ११३ ॥
मूलम्
तस्माद् भरस्व दुष्यन्त पुत्रं शाकुन्तलं नृप।
अभूतिरेषा यत् त्यक्त्वा जीवेज्जीवन्तमात्मजम् ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये राजा दुष्यन्त! तुम शकुन्तलासे उत्पन्न हुए अपने पुत्रका पालन-पोषण करो। अपने जीवित पुत्रको त्यागकर जीवन धारण करना बड़े दुर्भाग्यकी बात है॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाकुन्तलं महात्मानं दौष्यन्तिं भर पौरव।
भर्तव्योऽयं त्वया यस्मादस्माकं वचनादपि ॥ ११४ ॥
तस्माद् भवत्वयं नाम्ना भरतो नाम ते सुतः।
मूलम्
शाकुन्तलं महात्मानं दौष्यन्तिं भर पौरव।
भर्तव्योऽयं त्वया यस्मादस्माकं वचनादपि ॥ ११४ ॥
तस्माद् भवत्वयं नाम्ना भरतो नाम ते सुतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पौरव! यह महामना बालक शकुन्तला और दुष्यन्त दोनोंका पुत्र है। हम देवताओंके कहनेसे तुम इसका भरण-पोषण करोगे, इसलिये तुम्हारा यह पुत्र भरतके नामसे विख्यात होगा’॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एवमुक्त्वा ततो देवा ऋषयश्च तपोधनाः।
पतिव्रतेति संहृष्टाः पुष्पवृष्टिं ववर्षिरे॥)
तच्छ्रुत्वा पौरवो राजा व्याहृतं त्रिदिवौकसाम् ॥ ११५ ॥
पुरोहितममात्यांश्च सम्प्रहृष्टोऽब्रवीदिदम् ।
शृण्वन्त्वेतद् भवन्तोऽस्य देवदूतस्य भाषितम् ॥ ११६ ॥
मूलम्
(एवमुक्त्वा ततो देवा ऋषयश्च तपोधनाः।
पतिव्रतेति संहृष्टाः पुष्पवृष्टिं ववर्षिरे॥)
तच्छ्रुत्वा पौरवो राजा व्याहृतं त्रिदिवौकसाम् ॥ ११५ ॥
पुरोहितममात्यांश्च सम्प्रहृष्टोऽब्रवीदिदम् ।
शृण्वन्त्वेतद् भवन्तोऽस्य देवदूतस्य भाषितम् ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वैशम्पायनजी कहते हैं—राजन्!) ऐसा कहकर देवता तथा तपस्वी ऋषि शकुन्तलाको पतिव्रता बतलाते हुए उसपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। पूरुवंशी राजा दुष्यन्त देवताओंकी यह बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और पुरोहित तथा मन्त्रियोंसे इस प्रकार बोले—‘आपलोग इस देवदूतका कथन भलीभाँति सुन लें॥११५-११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं चाप्येवमेवैनं जानामि स्वयमात्मजम्।
यद्यहं वचनादस्या गृह्णीयामि ममात्मजम् ॥ ११७ ॥
भवेद्धि शङ्क्यो लोकस्य नैव शुद्धो भवेदयम्।
मूलम्
अहं चाप्येवमेवैनं जानामि स्वयमात्मजम्।
यद्यहं वचनादस्या गृह्णीयामि ममात्मजम् ॥ ११७ ॥
भवेद्धि शङ्क्यो लोकस्य नैव शुद्धो भवेदयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं भी अपने इस पुत्रको इसी रूपमें जानता हूँ। यदि केवल शकुन्तलाके कहनेसे मैं इसे ग्रहण कर लेता, तो सब लोग इसपर संदेह करते और यह बालक विशुद्ध नहीं माना जाता’॥११७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विशोध्य तदा राजा देवदूतेन भारत।
हृष्टः प्रमुदितश्चापि प्रतिजग्राह तं सुतम् ॥ ११८ ॥
मूलम्
तं विशोध्य तदा राजा देवदूतेन भारत।
हृष्टः प्रमुदितश्चापि प्रतिजग्राह तं सुतम् ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! इस प्रकार देवदूतके वचनसे उस बालककी शुद्धता प्रमाणित करके राजा दुष्यन्तने हर्ष और आनन्दमें मग्न हो उस समय अपने उस पुत्रको ग्रहण किया॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्य तदा राजा पितृकर्माणि सर्वशः।
कारयामास मुदितः प्रीतिमानात्मजस्य ह ॥ ११९ ॥
मूलम्
ततस्तस्य तदा राजा पितृकर्माणि सर्वशः।
कारयामास मुदितः प्रीतिमानात्मजस्य ह ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महाराज दुष्यन्तने पिताको जो-जो कार्य करने चाहिये, वे सब उपनयन आदि संस्कार बड़े आनन्द और प्रेमके साथ अपने उस पुत्रके लिये (शास्त्र और कुलकी मर्यादाके अनुसार) कराये॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय सस्नेहं परिषस्वजे।
सभाज्यमानो विप्रैश्च स्तूयमानश्च वन्दिभिः।
स मुदं परमां लेभे पुत्रसंस्पर्शजां नृपः ॥ १२० ॥
मूलम्
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय सस्नेहं परिषस्वजे।
सभाज्यमानो विप्रैश्च स्तूयमानश्च वन्दिभिः।
स मुदं परमां लेभे पुत्रसंस्पर्शजां नृपः ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उसका मस्तक सूँघकर अत्यन्त स्नेहपूर्वक उसे हृदयसे लगा लिया। उस समय ब्राह्मणोंने उन्हें आशीर्वाद दिया और वन्दीजनोंने उनके गुण गाये। महाराजने पुत्र-स्पर्शजनित परम आनन्दका अनुभव किया॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चैव भार्यां दुष्यन्तः पूजयामास धर्मतः।
अब्रवीच्चैव तां राजा सान्त्वपूर्वमिदं वचः ॥ १२१ ॥
मूलम्
तां चैव भार्यां दुष्यन्तः पूजयामास धर्मतः।
अब्रवीच्चैव तां राजा सान्त्वपूर्वमिदं वचः ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्तने अपनी पत्नी शकुन्तलाका भी धर्मपूर्वक आदर-सत्कार किया और उसे समझाते हुए कहा—॥१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतो लोकपरोक्षोऽयं सम्बन्धो वै त्वया सह।
तस्मादेतन्मया देवि त्वच्छुद्ध्यर्थं विचारितम् ॥ १२२ ॥
मूलम्
कृतो लोकपरोक्षोऽयं सम्बन्धो वै त्वया सह।
तस्मादेतन्मया देवि त्वच्छुद्ध्यर्थं विचारितम् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! मैंने तुम्हारे साथ जो विवाह-सम्बन्ध स्थापित किया था, उसे साधारण जनता नहीं जानती थी। अतः तुम्हारी शुद्धिके लिये ही मैंने यह उपाय सोचा था॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव पृथग्विधाः।
त्वां देवि पूजयिष्यन्ति निर्विशङ्कं पतिव्रताम्॥)
मूलम्
(ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव पृथग्विधाः।
त्वां देवि पूजयिष्यन्ति निर्विशङ्कं पतिव्रताम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! तुम निःसंदेह पतिव्रता हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—ये सभी पृथक्-पृथक् तुम्हारा पूजन (समादर) करेंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यते चैव लोकस्ते स्त्रीभावान्मयि संगतम्।
पुत्रश्चायं वृतो राज्ये मया तस्माद् विचारितम् ॥ १२३ ॥
मूलम्
मन्यते चैव लोकस्ते स्त्रीभावान्मयि संगतम्।
पुत्रश्चायं वृतो राज्ये मया तस्माद् विचारितम् ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि इस प्रकार तुम्हारी शुद्धि न होती तो लोग यही समझते कि तुमने स्त्री-स्वभावके कारण कामवश मुझसे सम्बन्ध स्थापित कर लिया और मैंने भी कामके अधीन होकर ही तुम्हारे पुत्रको राज्यपर बिठानेकी प्रतिज्ञा कर ली। हम दोनोंके धार्मिक सम्बन्धपर किसीका विश्वास नहीं होता; इसीलिये यह उपाय सोचा गया था॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च कोपितयात्यर्थं त्वयोक्तोऽस्म्यप्रियं प्रिये।
प्रणयिन्या विशालाक्षि तत् क्षान्तं ते मया शुभे ॥ १२४ ॥
मूलम्
यच्च कोपितयात्यर्थं त्वयोक्तोऽस्म्यप्रियं प्रिये।
प्रणयिन्या विशालाक्षि तत् क्षान्तं ते मया शुभे ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिये! विशाललोचने! तुमने भी कुपित होकर जो मेरे लिये अत्यन्त अप्रिय वचन कहे हैं, वे सब मेरे प्रति तुम्हारा अत्यन्त प्रेम होनेके कारण ही कहे गये हैं। अतः शुभे! मैंने वह सब अपराध क्षमा कर दिया है॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अनृतं वाप्यनिष्टं वा दुरुक्तं वापि दुष्कृतम्।
त्वयाप्येवं विशालाक्षि क्षन्तव्यं मम दुर्वचः॥
क्षान्त्या पतिकृते नार्यः पातिव्रत्यं व्रजन्ति ताः।)
मूलम्
(अनृतं वाप्यनिष्टं वा दुरुक्तं वापि दुष्कृतम्।
त्वयाप्येवं विशालाक्षि क्षन्तव्यं मम दुर्वचः॥
क्षान्त्या पतिकृते नार्यः पातिव्रत्यं व्रजन्ति ताः।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘विशाल नेत्रोंवाली देवि! इसी प्रकार तुम्हें भी मेरे कहे हुए असत्य, अप्रिय, कटु एवं पापपूर्ण दुर्वचनोंके लिये मुझे क्षमा कर देना चाहिये। पतिके लिये क्षमाभाव धारण करनेसे स्त्रियाँ पातिव्रत्य-धर्मको प्राप्त होती हैं’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामेवमुक्त्वा राजर्षिर्दुष्यन्तो महिषीं प्रियाम्।
वासोभिरन्नपानैश्च पूजयामास भारत ॥ १२५ ॥
मूलम्
तामेवमुक्त्वा राजर्षिर्दुष्यन्तो महिषीं प्रियाम्।
वासोभिरन्नपानैश्च पूजयामास भारत ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! अपनी प्यारी रानीसे ऐसी बात कहकर राजर्षि दुष्यन्तने अन्न, पान और वस्त्र आदिके द्वारा उसका आदर-सत्कार किया॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(स मातरमुपस्थाय रथन्तर्यामभाषत ।
मम पुत्रो वने जातस्तव शोकप्रणाशनः॥
ऋणादद्य विमुक्तोऽहमस्मि पौत्रेण ते शुभे।
विश्वामित्रसुता चेयं कण्वेन च विवर्धिता॥
स्नुषा तव महाभागे प्रसीदस्व शकुन्तलाम्।
पुत्रस्य वचनं श्रुत्वा पौत्रं सा परिषस्वजे॥
पादयोः पतितां तत्र रथन्तर्या शकुन्तलाम्।
परिष्वज्य च बाहुभ्यां हर्षादश्रूण्यवर्तयत्॥
उवाच वचनं सत्यं लक्षयल्ँलक्षणानि च।
तव पुत्रो विशालाक्षि चक्रवर्ती भविष्यति॥
तव भर्ता विशालाक्षि त्रैलोक्यविजयी भवेत्।
दिव्यान् भोगाननुप्राप्ता भव त्वं वरवर्णिनि॥
एवमुक्ता रथन्तर्या परं हर्षमवाप सा।
शकुन्तलां तदा राजा शास्त्रोक्तेनैव कर्मणा॥
ततोऽग्रमहिषीं कृत्वा सर्वाभरणभूषिताम् ।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सैनिकानां च भूपतिः॥)
मूलम्
(स मातरमुपस्थाय रथन्तर्यामभाषत ।
मम पुत्रो वने जातस्तव शोकप्रणाशनः॥
ऋणादद्य विमुक्तोऽहमस्मि पौत्रेण ते शुभे।
विश्वामित्रसुता चेयं कण्वेन च विवर्धिता॥
स्नुषा तव महाभागे प्रसीदस्व शकुन्तलाम्।
पुत्रस्य वचनं श्रुत्वा पौत्रं सा परिषस्वजे॥
पादयोः पतितां तत्र रथन्तर्या शकुन्तलाम्।
परिष्वज्य च बाहुभ्यां हर्षादश्रूण्यवर्तयत्॥
उवाच वचनं सत्यं लक्षयल्ँलक्षणानि च।
तव पुत्रो विशालाक्षि चक्रवर्ती भविष्यति॥
तव भर्ता विशालाक्षि त्रैलोक्यविजयी भवेत्।
दिव्यान् भोगाननुप्राप्ता भव त्वं वरवर्णिनि॥
एवमुक्ता रथन्तर्या परं हर्षमवाप सा।
शकुन्तलां तदा राजा शास्त्रोक्तेनैव कर्मणा॥
ततोऽग्रमहिषीं कृत्वा सर्वाभरणभूषिताम् ।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सैनिकानां च भूपतिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे अपनी माता रथन्तर्याके पास जाकर बोले—‘माँ! यह मेरा पुत्र है, जो वनमें उत्पन्न हुआ है। यह तुम्हारे शोकका नाश करनेवाला होगा। शुभे! तुम्हारे इस पौत्रको पाकर आज मैं पितृ-ऋणसे मुक्त हो गया। महाभागे! यह तुम्हारी पुत्र-वधू है। महर्षि विश्वामित्रने इसे जन्म दिया और महात्मा कण्वने पाला है। तुम शकुन्तलापर कृपादृष्टि रखो।’ पुत्रकी यह बात सुनकर राजमाता रथन्तर्याने पौत्रको हृदयसे लगा लिया और अपने चरणोंमें पड़ी हुई शकुन्तलाको दोनों भुजाओंमें भरकर वे हर्षके आँसू बहाने लगीं। साथ ही पौत्रके शुभ लक्षणोंकी ओर संकेत करती हुई बोलीं—‘विशालाक्षि! तेरा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् होगा। तेरे पतिको तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त हो। सुन्दरि! तुम्हें सदा दिव्य भोग प्राप्त होते रहें।’ यह कहकर राजमाता रथन्तर्या अत्यन्त हर्षसे विभोर हो उठीं। उस समय राजाने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार समस्त आभूषणोंसे विभूषित शकुन्तलाको पटरानीके पदपर अभिषिक्त करके ब्राह्मणों तथा सैनिकोंको बहुत धन अर्पित किया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्यन्तस्तु तदा राजा पुत्रं शाकुन्तलं तदा।
भरतं नामतः कृत्वा यौवराज्येऽभ्यषेचयत् ॥ १२६ ॥
मूलम्
दुष्यन्तस्तु तदा राजा पुत्रं शाकुन्तलं तदा।
भरतं नामतः कृत्वा यौवराज्येऽभ्यषेचयत् ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महाराज दुष्यन्तने शकुन्तलाकुमारका नाम भरत रखकर उसे युवराजके पदपर अभिषिक्त कर दिया॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भरते भारमावेश्य कृतकृत्योऽभवन्नृपः ।
ततो वर्षशतं पूर्णं राज्यं कृत्वा नराधिपः॥
कृत्वा दानानि दुष्यन्तः स्वर्गलोकमुपेयिवान्।)
मूलम्
(भरते भारमावेश्य कृतकृत्योऽभवन्नृपः ।
ततो वर्षशतं पूर्णं राज्यं कृत्वा नराधिपः॥
कृत्वा दानानि दुष्यन्तः स्वर्गलोकमुपेयिवान्।)
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भरतको राज्यका भार सौंपकर महाराज दुष्यन्त कृतकृत्य हो गये। वे पूरे सौ वर्षोंतक राज्य भोगकर विविध प्रकारके दान दे अन्तमें स्वर्गलोक सिधारे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तत् प्रथितं चक्रं प्रावर्तत महात्मनः।
भास्वरं दिव्यमजितं लोकसंनादनं महत् ॥ १२७ ॥
मूलम्
तस्य तत् प्रथितं चक्रं प्रावर्तत महात्मनः।
भास्वरं दिव्यमजितं लोकसंनादनं महत् ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा राजा भरतका विख्यात चक्र1 सब ओर घूमने लगा। वह अत्यन्त प्रकाशमान, दिव्य और अजेय था। वह महान् चक्र अपनी भारी आवाजसे सम्पूर्ण जगत्को प्रतिध्वनित करता चलता था॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विजित्य महीपालांश्चकार वशवर्तिनः।
चचार च सतां धर्मं प्राप चानुत्तमं यशः ॥ १२८ ॥
मूलम्
स विजित्य महीपालांश्चकार वशवर्तिनः।
चचार च सतां धर्मं प्राप चानुत्तमं यशः ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सब राजाओंको जीतकर अपने अधीन कर लिया तथा सत्पुरुषोंके धर्मका पालन और उत्तम यशका उपार्जन किया॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा चक्रवर्त्यासीत् सार्वभौमः प्रतापवान्।
ईजे च बहुभिर्यज्ञैर्यथा शक्रो मरुत्पतिः ॥ १२९ ॥
मूलम्
स राजा चक्रवर्त्यासीत् सार्वभौमः प्रतापवान्।
ईजे च बहुभिर्यज्ञैर्यथा शक्रो मरुत्पतिः ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज भरत समस्त भूमण्डलमें विख्यात, प्रतापी एवं चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्होंने देवराज इन्द्रकी भाँति बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याजयामास तं कण्वो विधिवद् भूरिदक्षिणम्।
श्रीमान् गोविततं नाम वाजिमेधमवाप सः।
यस्मिन् सहस्रं पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ ॥ १३० ॥
मूलम्
याजयामास तं कण्वो विधिवद् भूरिदक्षिणम्।
श्रीमान् गोविततं नाम वाजिमेधमवाप सः।
यस्मिन् सहस्रं पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि कण्वने आचार्य होकर भरतसे प्रचुर दक्षिणाओंसे युक्त ‘गोवितत’ नामक अश्वमेध यज्ञका विधिपूर्वक अनुष्ठान करवाया। श्रीमान् भरतने उस यज्ञका पूरा फल प्राप्त किया। उसमें महाराज भरतने आचार्य कण्वको एक सहस्र पद्म स्वर्णमुद्राएँ दक्षिणारूपमें दीं॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरताद् भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलम्।
अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुताः॥१३१॥
मूलम्
भरताद् भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलम्।
अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुताः॥१३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतसे ही इस भूखण्डका नाम भारत (अथवा भूमिका नाम भारती) हुआ। उन्हींसे यह कौरववंश भरतवंशके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उनके बाद उस कुलमें पहले तथा आज भी जो राजा हो गये हैं, वे भारत (भरतवंशी) कहे जाते हैं॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतस्यान्ववाये हि देवकल्पा महौजसः।
बभूवुर्ब्रह्मकल्पाश्च बहवो राजसत्तमाः ॥ १३२ ॥
येषामपरिमेयानि नामधेयानि सर्वशः ।
तेषां तु ते यथामुख्यं कीर्तयिष्यामि भारत।
महाभागान् देवकल्पान् सत्यार्जवपरायणान् ॥ १३३ ॥
मूलम्
भरतस्यान्ववाये हि देवकल्पा महौजसः।
बभूवुर्ब्रह्मकल्पाश्च बहवो राजसत्तमाः ॥ १३२ ॥
येषामपरिमेयानि नामधेयानि सर्वशः ।
तेषां तु ते यथामुख्यं कीर्तयिष्यामि भारत।
महाभागान् देवकल्पान् सत्यार्जवपरायणान् ॥ १३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतके कुलमें देवताओंके समान महापराक्रमी तथा ब्रह्माजीके समान तेजस्वी बहुत-से राजर्षि हो गये हैं; जिनके सम्पूर्ण नामोंकी गणना असम्भव है। जनमेजय! इनमें जो मुख्य हैं, उन्हींके नामोंका तुमसे वर्णन करूँगा। वे सभी महाभाग नरेश देवताओंके समान तेजस्वी तथा सत्य, सरलता आदि धर्मोंमें तत्पर रहनेवाले थे॥१३२-१३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८९ श्लोक मिलाकर कुल २२२ श्लोक हैं)
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चक्रके विशेषणोंसे यहाँ यही अनुमान होता है कि भरतके पास सुदर्शन चक्रके समान ही कोई चक्र था। ↩︎