श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शकुन्तला और दुष्यन्तका गान्धर्व विवाह और महर्षि कण्वके द्वारा उसका अनुमोदन
मूलम् (वचनम्)
दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे।
भार्या मे भव सुश्रोणि ब्रूहि किं करवाणि ते॥१॥
मूलम्
सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे।
भार्या मे भव सुश्रोणि ब्रूहि किं करवाणि ते॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— कल्याणि! तुम जैसी बातें कह चुकी हो, उनसे भलीभाँति स्पष्ट हो गया कि तुम क्षत्रिय-कन्या हो (क्योंकि विश्वामित्र मुनि जन्मसे तो क्षत्रिय ही हैं)। सुश्रोणि! मेरी पत्नी बन जाओ। बोलो, मैं तुम्हारी प्रसन्नताके लिये क्या करूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णमालां वासांसि कुण्डले परिहाटके।
नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्ने च शोभने ॥ २ ॥
आहरामि तवाद्याहं निष्कादीन्यजिनानि च।
सर्वं राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने ॥ ३ ॥
मूलम्
सुवर्णमालां वासांसि कुण्डले परिहाटके।
नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्ने च शोभने ॥ २ ॥
आहरामि तवाद्याहं निष्कादीन्यजिनानि च।
सर्वं राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेके हार, सुन्दर वस्त्र, तपाये हुए सुवर्णके दो कुण्डल, विभिन्न नगरोंके बने हुए सुन्दर और चमकीले मणिरत्ननिर्मित आभूषण, स्वर्णपदक और कोमल मृगचर्म आदि वस्तुएँ तुम्हारे लिये मैं अभी लाये देता हूँ। शोभने! अधिक क्या कहूँ, मेरा सारा राज्य आजसे तुम्हारा हो जाय, तुम मेरी महारानी बन जाओ॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धर्वेण च मां भीरु विवाहेनैहि सुन्दरि।
विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
गान्धर्वेण च मां भीरु विवाहेनैहि सुन्दरि।
विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीरु! सुन्दरि! गान्धर्व विवाहके द्वारा मुझे अंगीकार करो। रम्भोरु! विवाहोंमें गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहलाता है॥४॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलाहारो गतो राजन् पिता मे इत आश्रमात्।
मुहूर्तं सम्प्रतीक्षस्व स मां तुभ्यं प्रदास्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
फलाहारो गतो राजन् पिता मे इत आश्रमात्।
मुहूर्तं सम्प्रतीक्षस्व स मां तुभ्यं प्रदास्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— राजन्! मेरे पिता कण्व फल लानेके लिये इस आश्रमसे बाहर गये हैं। दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये। वे ही मुझे आपकी सेवामें समर्पित करेंगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पिता हि मे प्रभुर्नित्यं दैवतं परमं मतम्।
यस्य वा दास्यति पिता स मे भर्ता भविष्यति॥
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति॥
अमन्यमाना राजेन्द्र पितरं मे तपस्विनम्।
अधर्मेण हि धर्मिष्ठ कथं वरमुपास्महे॥
मूलम्
(पिता हि मे प्रभुर्नित्यं दैवतं परमं मतम्।
यस्य वा दास्यति पिता स मे भर्ता भविष्यति॥
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति॥
अमन्यमाना राजेन्द्र पितरं मे तपस्विनम्।
अधर्मेण हि धर्मिष्ठ कथं वरमुपास्महे॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! पिता ही मेरे प्रभु हैं। उन्हें ही मैं सदा अपना सर्वोत्कृष्ट देवता मानती हूँ। पिताजी मुझे जिसको सौंप देंगे, वही मेरा पति होगा। कुमारावस्थामें पिता, जवानीमें पति और बुढ़ापेमें पुत्र रक्षा करता है। अतः स्त्रीको कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। धर्मिष्ठ राजेन्द्र! मैं अपने तपस्वी पिताकी अवहेलना करके अधर्मपूर्वक पतिका वरण कैसे कर सकती हूँ?
मूलम् (वचनम्)
दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा मैवं वद सुश्रोणि तपोराशिं दयात्मकम्।
मूलम्
मा मैवं वद सुश्रोणि तपोराशिं दयात्मकम्।
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— सुन्दरी! ऐसा न कहो। तपोराशि महात्मा कण्व बड़े ही दयालु हैं।
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्युप्रहरणा विप्रा न विप्राः शस्त्रपाणयः॥
अग्निर्दहति तेजोभिः सूर्यो दहति रश्मिभिः।
राजा दहति दण्डेन ब्राह्मणो मन्युना दहेत्॥
क्रोधितो मन्युना हन्ति वज्रपाणिरिवासुरान्।)
मूलम्
मत्युप्रहरणा विप्रा न विप्राः शस्त्रपाणयः॥
अग्निर्दहति तेजोभिः सूर्यो दहति रश्मिभिः।
राजा दहति दण्डेन ब्राह्मणो मन्युना दहेत्॥
क्रोधितो मन्युना हन्ति वज्रपाणिरिवासुरान्।)
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— राजन्! ब्राह्मण क्रोधके द्वारा ही प्रहार करते हैं। वे हाथमें लोहेका हथियार नहीं धारण करते। अग्नि अपने तेजसे, सूर्य अपनी किरणोंसे, राजा दण्डसे और ब्राह्मण क्रोधसे दग्ध करते हैं। कुपित ब्राह्मण अपने क्रोधसे अपराधीको वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरोंको।
मूलम् (वचनम्)
दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छामि त्वां वरारोहे भजमानामनिन्दिते।
त्वदर्थं मां स्थितं विद्धि त्वद्गतं हि मनो मम॥६॥
मूलम्
इच्छामि त्वां वरारोहे भजमानामनिन्दिते।
त्वदर्थं मां स्थितं विद्धि त्वद्गतं हि मनो मम॥६॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— वरारोहे! तुम्हारा शील और स्वभाव प्रशंसाके योग्य है। मैं चाहता हूँ, तुम मुझे स्वेच्छासे स्वीकार करो। मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ ठहरा हूँ। मेरा मन तुममें ही लगा हुआ है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनो बन्धुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मनः।
आत्मनो मित्रमात्मैव तथाऽऽत्मा चात्मनः पिता।
आत्मनैवात्मनो दानं कर्तुमर्हसि धर्मतः ॥ ७ ॥
मूलम्
आत्मनो बन्धुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मनः।
आत्मनो मित्रमात्मैव तथाऽऽत्मा चात्मनः पिता।
आत्मनैवात्मनो दानं कर्तुमर्हसि धर्मतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा ही अपना बन्धु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है और वही अपना पिता है, अतः तुम स्वयं ही धर्मपूर्वक आत्मसमर्पण करनेयोग्य हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टावेव समासेन विवाहा धर्मतः स्मृताः।
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः ॥ ८ ॥
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमः स्मृतः।
तेषां धर्म्यान् यथापूर्वं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ ९ ॥
मूलम्
अष्टावेव समासेन विवाहा धर्मतः स्मृताः।
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः ॥ ८ ॥
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमः स्मृतः।
तेषां धर्म्यान् यथापूर्वं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे संक्षेपसे आठ प्रकारके ही विवाह माने गये हैं—ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा आठवाँ पैशाच।1 स्वायम्भुव मनुका कथन है कि इनमें बादवालोंकी अपेक्षा पहलेवाले विवाह धर्मानुकूल हैं॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशस्तांश्चतुरः पूर्वान् ब्राह्मणस्योपधारय ।
षडानुपूर्व्या क्षत्रस्य विद्धि धर्म्याननिन्दिते ॥ १० ॥
मूलम्
प्रशस्तांश्चतुरः पूर्वान् ब्राह्मणस्योपधारय ।
षडानुपूर्व्या क्षत्रस्य विद्धि धर्म्याननिन्दिते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकथित जो चार विवाह—ब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापात्य हैं, उन्हें ब्राह्मणके लिये उत्तम समझो। अनिन्दिते! ब्राह्मसे लेकर गान्धर्वतक क्रमशः छः विवाह क्षत्रियके लिये धर्मानुकूल जानो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञां तु राक्षसोऽप्युक्तो विट्शूद्रेष्वासुरः स्मृतः।
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या अधर्म्यौ द्वौ स्मृताविह ॥ ११ ॥
मूलम्
राज्ञां तु राक्षसोऽप्युक्तो विट्शूद्रेष्वासुरः स्मृतः।
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या अधर्म्यौ द्वौ स्मृताविह ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंके लिये तो राक्षस विवाहका भी विधान है। वैश्यों और शूद्रोंमें आसुर विवाह ग्राह्य माना गया है। अन्तिम पाँच विवाहोंमें तीन तो धर्मसम्मत हैं और दो अधर्मरूप माने गये हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पैशाच आसुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।
अनेन विधिना कार्यो धर्मस्यैषा गतिः स्मृता ॥ १२ ॥
मूलम्
पैशाच आसुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।
अनेन विधिना कार्यो धर्मस्यैषा गतिः स्मृता ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पैशाच और आसुर विवाह कदापि करनेयोग्य नहीं हैं। इस विधिके अनुसार विवाह करना चाहिये। यह धर्मका मार्ग बताया गया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धर्वराक्षसौ क्षत्रे धर्म्यौ तौ मा विशङ्किथाः।
पृथग् वा यदि वा मिश्रौ कर्तव्यौ नात्र संशयः॥१३॥
मूलम्
गान्धर्वराक्षसौ क्षत्रे धर्म्यौ तौ मा विशङ्किथाः।
पृथग् वा यदि वा मिश्रौ कर्तव्यौ नात्र संशयः॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धर्व और राक्षस—दोनों विवाह क्षत्रियजातिके लिये धर्मानुकूल ही हैं। अतः उनके विषयमें तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये। वे दोनों विवाह परस्पर मिले हों या पृथक्-पृथक् हों, क्षत्रियके लिये करनेयोग्य ही हैं, इसमें संशय नहीं है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा त्वं मम सकामस्य सकामा वरवर्णिनि।
गान्धर्वेण विवाहेन भार्या भवितुमर्हसि ॥ १४ ॥
मूलम्
सा त्वं मम सकामस्य सकामा वरवर्णिनि।
गान्धर्वेण विवाहेन भार्या भवितुमर्हसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः सुन्दरी! मैं तुम्हें पानेके लिये इच्छुक हूँ। तुम भी मुझे पानेकी इच्छा रखकर गान्धर्व विवाहके द्वारा मेरी पत्नी बन जाओ॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि धर्मपथस्त्वेष यदि चात्मा प्रभुर्मम।
प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो ॥ १५ ॥
मूलम्
यदि धर्मपथस्त्वेष यदि चात्मा प्रभुर्मम।
प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— पौरवश्रेष्ठ! यदि यह गान्धर्व विवाह धर्मका मार्ग है, यदि आत्मा स्वयं ही अपना दान करनेमें समर्थ है तो इसके लिये मैं तैयार हूँ; किंतु प्रभो! मेरी एक शर्त है, उसे सुन लीजिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं मे प्रतिजानीहि यथा वक्ष्याम्यहं रहः।
मयि जायेत यः पुत्रः स भवेत् त्वदनन्तरः ॥ १६ ॥
युवराजो महाराज सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।
यद्येतदेवं दुष्यन्त अस्तु मे सङ्गमस्त्वया ॥ १७ ॥
मूलम्
सत्यं मे प्रतिजानीहि यथा वक्ष्याम्यहं रहः।
मयि जायेत यः पुत्रः स भवेत् त्वदनन्तरः ॥ १६ ॥
युवराजो महाराज सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।
यद्येतदेवं दुष्यन्त अस्तु मे सङ्गमस्त्वया ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उसका पालन करनेके लिये मुझसे सच्ची प्रतिज्ञा कीजिये। वह शर्त क्या है, यह मैं एकान्तमें आपसे कह रही हूँ—महाराज दुष्यन्त! मेरे गर्भसे आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न हो, वही आपके बाद युवराज हो, ऐसी मेरी इच्छा है। यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ। यदि यह शर्त इसी रूपमें आपको स्वीकार हो तो आपके साथ मेरा समागम हो सकता है॥१६-१७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाविचारयन्।
अपि च त्वां हि नेष्यामि नगरं स्वं शुचिस्मिते॥१८॥
मूलम्
एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाविचारयन्।
अपि च त्वां हि नेष्यामि नगरं स्वं शुचिस्मिते॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शकुन्तलाकी यह बात सुनकर राजा दुष्यन्तने बिना कुछ सोचे-विचारे यह उत्तर दे दिया कि ‘ऐसा ही होगा।’ वे शकुन्तलासे बोले—‘शुचिस्मिते! मैं शीघ्र तुम्हें अपने नगरमें ले चलूँगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा त्वमर्हा सुश्रोणि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।
एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम् ॥ १९ ॥
जग्राह विधिवत् पाणायुवास च तया सह।
विश्वास्य चैनां स प्रायादब्रवीच्च पुनः पुनः ॥ २० ॥
प्रेषयिष्ये तवार्थाय वाहिनीं चतुरङ्गिणीम्।
तया त्वानाययिष्यामि निवासं स्वं शुचिस्मिते ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा त्वमर्हा सुश्रोणि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।
एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम् ॥ १९ ॥
जग्राह विधिवत् पाणायुवास च तया सह।
विश्वास्य चैनां स प्रायादब्रवीच्च पुनः पुनः ॥ २० ॥
प्रेषयिष्ये तवार्थाय वाहिनीं चतुरङ्गिणीम्।
तया त्वानाययिष्यामि निवासं स्वं शुचिस्मिते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुश्रोणि! तुम राजभवनमें ही रहनेयोग्य हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ।’ ऐसा कहकर राजर्षि दुष्यन्तने अनिन्द्यगामिनी शकुन्तलाका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया और उसके साथ एकान्तवास किया। फिर उसे विश्वास दिलाकर वहाँसे विदा हुए। जाते समय उन्होंने बार-बार कहा—‘पवित्र मुसकानवाली सुन्दरी! मैं तुम्हारे लिये चतुरंगिणी सेना भेजूँगा और उसीके साथ अपने राजभवनमें बुलवाऊँगा’॥१९—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम् ।
सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां स्मितपूर्वमुदैक्षत ॥
प्रदक्षिणीकृतां देवीं राजा सम्परिषस्वजे।
शकुन्तला ह्यश्रुमुखी पपात नृपपादयोः॥
तां देवीं पुनरुत्थाप्य मा शुचेति पुनः पुनः।
शपेयं सुकृतेनैव प्रापयिष्ये नृपात्मजे॥)
मूलम्
(एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम् ।
सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां स्मितपूर्वमुदैक्षत ॥
प्रदक्षिणीकृतां देवीं राजा सम्परिषस्वजे।
शकुन्तला ह्यश्रुमुखी पपात नृपपादयोः॥
तां देवीं पुनरुत्थाप्य मा शुचेति पुनः पुनः।
शपेयं सुकृतेनैव प्रापयिष्ये नृपात्मजे॥)
अनुवाद (हिन्दी)
अनिन्द्यगामिनी शकुन्तलासे ऐसा कहकर राजर्षि दुष्यन्तने उसे अपनी भुजाओंमें भर लिया और उसकी ओर मुसकराते हुए देखा। देवी शकुन्तला राजाकी परिक्रमा करके खड़ी थी। उस समय उन्होंने उसे हृदयसे लगा लिया। शकुन्तलाके मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली और वह नरेशके चरणोंमें गिर पड़ी। राजाने देवी शकुन्तलाको फिर उठाकर बार-बार कहा—‘राजकुमारी! चिन्ता न करो। मैं अपने पुण्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हें अवश्य बुला लूँगा।’
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तस्याः प्रतिश्रुत्य स नृपो जनमेजय।
मनसा चिन्तयन् प्रायात् काश्यपं प्रति पार्थिवः ॥ २२ ॥
भगवांस्तपसा युक्तः श्रुत्वा किं नु करिष्यति।
एवं स चिन्तयन्नेव प्रविवेश स्वकं पुरम् ॥ २३ ॥
मूलम्
इति तस्याः प्रतिश्रुत्य स नृपो जनमेजय।
मनसा चिन्तयन् प्रायात् काश्यपं प्रति पार्थिवः ॥ २२ ॥
भगवांस्तपसा युक्तः श्रुत्वा किं नु करिष्यति।
एवं स चिन्तयन्नेव प्रविवेश स्वकं पुरम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार शकुन्तलासे प्रतिज्ञा करके नरेश्वर राजा दुष्यन्त आश्रमसे चल दिये। उनके मनमें महर्षि कण्वकी ओरसे बड़ी चिन्ता थी कि तपस्वी भगवान् कण्व यह सब सुनकर न जाने क्या कर बैठेंगे? इस तरह चिन्ता करते हुए ही राजाने अपने नगरमें प्रवेश किया॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु कण्वोऽप्याश्रममागमत् ।
शकुन्तला च पितरं ह्रिया नोपजगाम तम् ॥ २४ ॥
मूलम्
मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु कण्वोऽप्याश्रममागमत् ।
शकुन्तला च पितरं ह्रिया नोपजगाम तम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके गये दो ही घड़ी बीती थी कि महर्षि कण्व भी आश्रमपर आ गये; परंतु शकुन्तला लज्जावश पहलेके समान पिताके समीप नहीं गयी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शङ्कितैव च विप्रर्षिमुपचक्राम सा शनैः।
ततोऽस्य राजञ्जग्राह आसनं चाप्यकल्पयत्॥
शकुन्तला च सव्रीडा तमृषिं नाभ्यभाषत।
तस्मात् स्वधर्मात् स्खलिता भीता सा भरतर्षभ॥
अभवद् दोषदर्शित्वाद् ब्रह्मचारिण्ययन्त्रिता ।
स तदा व्रीडितां दृष्ट्वा ऋषिस्तां प्रत्यभाषत॥
मूलम्
(शङ्कितैव च विप्रर्षिमुपचक्राम सा शनैः।
ततोऽस्य राजञ्जग्राह आसनं चाप्यकल्पयत्॥
शकुन्तला च सव्रीडा तमृषिं नाभ्यभाषत।
तस्मात् स्वधर्मात् स्खलिता भीता सा भरतर्षभ॥
अभवद् दोषदर्शित्वाद् ब्रह्मचारिण्ययन्त्रिता ।
स तदा व्रीडितां दृष्ट्वा ऋषिस्तां प्रत्यभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वह डरती हुई ब्रह्मर्षिके निकट धीरे-धीरे गयी। फिर उसने उनके लिये आसन लेकर बिछाया। शकुन्तला इतनी लज्जित हो गयी थी कि महर्षिसे कोई बाततक न कर सकी। भरतश्रेष्ठ! वह अपने धर्मसे गिर जानेके कारण भयभीत हो रही थी। जो कुछ समय पहलेतक स्वाधीन ब्रह्मचारिणी थी, वही उस समय अपना दोष देखनेके कारण घबरा गयी थी। शकुन्तलाको लज्जामें डूबी हुई देख महर्षि कण्वने उससे कहा।
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सव्रीडैव च दीर्घायुः पुरेव भविता न च।
वृत्तं कथय रम्भोरु मा त्रासं च प्रकल्पय॥
मूलम्
सव्रीडैव च दीर्घायुः पुरेव भविता न च।
वृत्तं कथय रम्भोरु मा त्रासं च प्रकल्पय॥
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व बोले— बेटी! तू सलज्ज रहकर ही दीर्घायु होगी। अब पहले जैसी चपल न रह सकेगी। शुभे! सारी बातें स्पष्ट बता; भय न कर।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृच्छ्रादतिशुभा सव्रीडा श्रीमती तदा।
सगद्गदमुवाचेदं काश्यपं सा शुचिस्मिता॥
मूलम्
ततः कृच्छ्रादतिशुभा सव्रीडा श्रीमती तदा।
सगद्गदमुवाचेदं काश्यपं सा शुचिस्मिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! पवित्र मुसकान-वाली वह सुन्दरी अत्यन्त सदाचारिणी थी; तो भी अपने व्यवहारसे लज्जाका अनुभव करती हुई महर्षि कण्वसे बड़ी कठिनाईके साथ गद्गदकण्ठ होकर बोली।
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा ताताजगामेह दुष्यन्त इलिलात्मजः।
मया पतिर्वृतो योऽसौ दैवयोगादिहागतः॥
तस्य तात प्रसीदस्व भर्ता मे सुमहायशाः।
अतः सर्वं तु यद् वृत्तं दिव्यज्ञानेन पश्यसि।
अभयं क्षत्रियकुले प्रसादं कर्तुमर्हसि॥)
मूलम्
राजा ताताजगामेह दुष्यन्त इलिलात्मजः।
मया पतिर्वृतो योऽसौ दैवयोगादिहागतः॥
तस्य तात प्रसीदस्व भर्ता मे सुमहायशाः।
अतः सर्वं तु यद् वृत्तं दिव्यज्ञानेन पश्यसि।
अभयं क्षत्रियकुले प्रसादं कर्तुमर्हसि॥)
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तला बोली— तात! इलिलकुमार महाराज दुष्यन्त इस वनमें आये थे। दैवयोगसे इस आश्रमपर भी उनका आगमन हुआ और मैंने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया। पिताजी! आप उनपर प्रसन्न हों। वे महायशस्वी नरेश अब मेरे स्वामी हैं। इसके बादका सारा वृत्तान्त आप दिव्य ज्ञानदृष्टिसे देख सकते हैं। क्षत्रियकुलको अभयदान देकर उनपर कृपादृष्टि करें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विज्ञायाथ च तां कण्वो दिव्यज्ञानो महातपाः।
उवाच भगवान् प्रीतः पश्यन् दिव्येन चक्षुषा ॥ २५ ॥
मूलम्
विज्ञायाथ च तां कण्वो दिव्यज्ञानो महातपाः।
उवाच भगवान् प्रीतः पश्यन् दिव्येन चक्षुषा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातपस्वी भगवान् कण्व दिव्यज्ञानसे सम्पन्न थे। वे दिव्य दृष्टिसे देखकर शकुन्तलाकी तात्कालिक अवस्थाको जान गये; अतः प्रसन्न होकर बोले—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयाद्य भद्रे रहसि मामनादृत्य यः कृतः।
पुंसा सह समायोगो न स धर्मोपघातकः ॥ २६ ॥
मूलम्
त्वयाद्य भद्रे रहसि मामनादृत्य यः कृतः।
पुंसा सह समायोगो न स धर्मोपघातकः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! आज तुमने मेरी अवहेलना करके जो एकान्तमें किसी पुरुषके साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह तुम्हारे धर्मका नाशक नहीं है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियस्य हि गान्धर्वो विवाहः श्रेष्ठ उच्यते।
सकामायाः सकामेन निर्मन्त्रो रहसि स्मृतः ॥ २७ ॥
मूलम्
क्षत्रियस्य हि गान्धर्वो विवाहः श्रेष्ठ उच्यते।
सकामायाः सकामेन निर्मन्त्रो रहसि स्मृतः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्षत्रियके लिये गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहा गया है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरेको चाहते हों, उस दशामें उन दोनोंका एकान्तमें जो मन्त्रहीन सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे गान्धर्व विवाह कहा गया है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मात्मा च महात्मा च दुष्यन्तः पुरुषोत्तमः।
अध्यगच्छः पतिं यत् त्वं भजमानं शकुन्तले ॥ २८ ॥
महात्मा जनिता लोके पुत्रस्तव महाबलः।
य इमां सागरापाङ्गीं कृत्स्नां भोक्ष्यति मेदिनीम् ॥ २९ ॥
मूलम्
धर्मात्मा च महात्मा च दुष्यन्तः पुरुषोत्तमः।
अध्यगच्छः पतिं यत् त्वं भजमानं शकुन्तले ॥ २८ ॥
महात्मा जनिता लोके पुत्रस्तव महाबलः।
य इमां सागरापाङ्गीं कृत्स्नां भोक्ष्यति मेदिनीम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शकुन्तले! महामना दुष्यन्त धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे तुम्हें चाहते थे। तुमने योग्य पतिके साथ सम्बन्ध स्थापित किया है; इसलिये लोकमें तुम्हारे गर्भसे एक महाबली और महात्मा पुत्र उत्पन्न होगा, जो समुद्रसे घिरी हुई इस समूची पृथ्वीका उपभोग करेगा॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं चाभिप्रयातस्य चक्रं तस्य महात्मनः।
भविष्यत्यप्रतिहतं सततं चक्रवर्तिनः ॥ ३० ॥
मूलम्
परं चाभिप्रयातस्य चक्रं तस्य महात्मनः।
भविष्यत्यप्रतिहतं सततं चक्रवर्तिनः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंपर आक्रमण करनेवाले उस महामना चक्रवर्ती नरेशकी सेना सदा अप्रतिहत होगी। उसकी गतिको कोई रोक नहीं सकेगा’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रक्षाल्य पादौ सा विश्रान्तं मुनिमब्रवीत्।
विनिधाय ततो भारं संनिधाय फलानि च ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततः प्रक्षाल्य पादौ सा विश्रान्तं मुनिमब्रवीत्।
विनिधाय ततो भारं संनिधाय फलानि च ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शकुन्तलाने उनके लाये हुए फलके भारको लेकर यथास्थान रख दिया। फिर उनके दोनों पैर धोये तथा जब वे भोजन और विश्राम कर चुके, तब वह मुनिसे इस प्रकार बोली॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया पतिर्वृतो राजा दुष्यन्तः पुरुषोत्तमः।
तस्मै ससचिवाय त्वं प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ ३२ ॥
मूलम्
मया पतिर्वृतो राजा दुष्यन्तः पुरुषोत्तमः।
तस्मै ससचिवाय त्वं प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— भगवन्! मैंने पुरुषोंमें श्रेष्ठ राजा दुष्यन्तका पतिरूपमें वरण किया है। अतः मन्त्रियोंसहित उन नरेशपर आपको कृपा करनी चाहिये॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्न एव तस्याहं त्वत्कृते वरवर्णिनि।
(ऋतवो बहवस्ते वै गता व्यर्थाः शुचिस्मिते।
सार्थकं साम्प्रतं ह्येतन्न च पापोऽस्ति तेऽनघे॥)
गृहाण च वरं मत्तस्त्वं शुभे यदभीप्सितम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
प्रसन्न एव तस्याहं त्वत्कृते वरवर्णिनि।
(ऋतवो बहवस्ते वै गता व्यर्थाः शुचिस्मिते।
सार्थकं साम्प्रतं ह्येतन्न च पापोऽस्ति तेऽनघे॥)
गृहाण च वरं मत्तस्त्वं शुभे यदभीप्सितम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व बोले— उत्तम वर्णवाली पुत्री! मैं तुम्हारे भलेके लिये राजा दुष्यन्तपर भी प्रसन्न ही हूँ। शुचिस्मिते! अबतक तेरे बहुत-से ऋतु व्यर्थ बीत गये हैं। इस बार यह सार्थक हुआ है। अनघे! तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर मुझसे माँग लो॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धर्मिष्ठतां वव्रे राज्याच्चास्खलनं तथा।
शकुन्तला पौरवाणां दुष्यन्तहितकाम्यया ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततो धर्मिष्ठतां वव्रे राज्याच्चास्खलनं तथा।
शकुन्तला पौरवाणां दुष्यन्तहितकाम्यया ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब शकुन्तलाने दुष्यन्तके हितकी इच्छासे यह वर माँगा कि पुरुवंशी नरेश सदा धर्ममें स्थिर रहें और वे कभी राज्यसे भ्रष्ट न हों॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एवमस्त्विति तां प्राह कण्वो धर्मभृतां वरः।
पस्पर्श चापि पाणिभ्यां सुतां श्रीमिव रूपिणीम्॥
मूलम्
(एवमस्त्विति तां प्राह कण्वो धर्मभृतां वरः।
पस्पर्श चापि पाणिभ्यां सुतां श्रीमिव रूपिणीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ कण्वने उससे कहा—‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। यह कहकर उन्होंने मूर्तिमती लक्ष्मी-सी पुत्री शकुन्तलाका दोनों हाथोंसे स्पर्श किया और कहा।
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यप्रभृति देवी त्वं दुष्यन्तस्य महात्मनः।
पतिव्रतानां या वृत्तिस्तां वृत्तिमनुपालय॥)
मूलम्
अद्यप्रभृति देवी त्वं दुष्यन्तस्य महात्मनः।
पतिव्रतानां या वृत्तिस्तां वृत्तिमनुपालय॥)
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व बोले— बेटी! आजसे तू महात्मा राजा दुष्यन्तकी महारानी है। अतः पतिव्रता स्त्रियोंका जो बर्ताव तथा सदाचार है, उसका निरन्तर पालन कर।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने त्रिसप्ततितमोध्यायः ॥ ७३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १९ श्लोक मिलाकर कुल ५३ श्लोक हैं)
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कन्याको वस्त्र और आभूषणोंसे अलंकृत करके सजातीय योग्य वरके हाथमें देना ‘ब्राह्म’ विवाह कहलाता है। अपने घरपर देवयज्ञ करके यज्ञान्तमें ऋत्विज्को अपनी कन्याका दान करना ‘दैव’ विवाह कहा गया है। वरसे एक गाय और एक बैल शुल्कके रूपमें लेकर कन्यादान करना ‘आर्ष’ विवाह बताया गया है। वर और कन्या दोनों साथ रहकर धर्माचरण करें, इस बुद्धिसे कन्यादान करना ‘प्राजापत्य’ विवाह माना गया है। वरसे मूल्यके रूपमें बहुत-सा धन लेकर कन्या देना ‘आसुर’ विवाह माना गया है। वर और वधू दोनों एक-दूसरेको स्वेच्छासे स्वीकार कर लें, यह ‘गान्धर्व’ विवाह है। युद्ध करके मार-काट मचाकर रोती हुई कन्याको उसके रोते हुए भाई-बन्धुओंसे छीन लाना ‘राक्षस’ विवाह माना गया है। जब घरके लोग सोये हों अथवा असावधान हों, उस दशामें कन्याको चुरा लेना ‘पैशाच’ विवाह है। ↩︎