श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्विसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मेनका-विश्वामित्र-मिलन, कन्याकी उत्पत्ति, शकुन्त पक्षियोंके द्वारा उसकी रक्षा और कण्वका उसे अपने आश्रमपर लाकर शकुन्तला नाम रखकर पालन करना
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तया शक्रः संदिदेश सदागतिम्।
प्रातिष्ठत तदा काले मेनका वायुना सह ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तया शक्रः संदिदेश सदागतिम्।
प्रातिष्ठत तदा काले मेनका वायुना सह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(शकुन्तला दुष्यन्तसे कहती है—) महर्षि कण्वने (पूर्वोक्त ऋषिसे शेष वृत्तान्त इस प्रकार) कहा— मेनकाके ऐसा कहनेपर इन्द्रदेवने वायुको उसके साथ जानेका आदेश दिया। तब मेनका वायुदेवके साथ समयानुसार वहाँसे प्रस्थित हुई॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापश्यद् वरारोहा तपसा दग्धकिल्बिषम्।
विश्वामित्रं तप्यमानं मेनका भीरुराश्रमे ॥ २ ॥
मूलम्
अथापश्यद् वरारोहा तपसा दग्धकिल्बिषम्।
विश्वामित्रं तप्यमानं मेनका भीरुराश्रमे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें पहुँचकर भीरु स्वभाववाली सुन्दरी मेनकाने एक आश्रममें विश्वामित्र मुनिको तप करते देखा। वे तपस्याद्वारा अपने समस्त पाप दग्ध कर चुके थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवाद्य ततः सा तं प्राक्रीडदृषिसंनिधौ।
अपोवाह च वासोऽस्या मारुतः शशिसंनिभम् ॥ ३ ॥
मूलम्
अभिवाद्य ततः सा तं प्राक्रीडदृषिसंनिधौ।
अपोवाह च वासोऽस्या मारुतः शशिसंनिभम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महर्षिको प्रणाम करके वह अप्सरा उनके समीपवर्ती स्थानमें ही भाँति-भाँतिकी क्रीड़ाएँ करने लगी। इतनेमें ही वायुने मेनकाका चन्द्रमाके समान उज्ज्वल वस्त्र उसके शरीरसे हटा दिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागच्छत् त्वरिता भूमिं वासस्तदभिलिप्सती।
स्मयमानेव सव्रीडं मारुतं वरवर्णिनी ॥ ४ ॥
मूलम्
सागच्छत् त्वरिता भूमिं वासस्तदभिलिप्सती।
स्मयमानेव सव्रीडं मारुतं वरवर्णिनी ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख सुन्दरी मेनका लजाकर वायुदेवको कोसती एवं मुसकराती हुई-सी वह वस्त्र लेनेकी इच्छासे तुरंत ही उस स्थानकी ओर दौड़ी गयी, जहाँ वह गिरा था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यतस्तस्य तत्रर्षेरप्यग्निसमतेजसः ।
विश्वामित्रस्ततस्तां तु विषमस्थामनिन्दिताम् ॥ ५ ॥
गृद्धां वाससि सम्भ्रान्तां मेनकां मुनिसत्तमः।
अनिर्देश्यवयोरूपामपश्यद् विवृतां तदा ॥ ६ ॥
मूलम्
पश्यतस्तस्य तत्रर्षेरप्यग्निसमतेजसः ।
विश्वामित्रस्ततस्तां तु विषमस्थामनिन्दिताम् ॥ ५ ॥
गृद्धां वाससि सम्भ्रान्तां मेनकां मुनिसत्तमः।
अनिर्देश्यवयोरूपामपश्यद् विवृतां तदा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निके समान तेजस्वी महर्षि विश्वामित्रके देखते-देखते वहाँ यह घटना घटित हुई। वह अनिन्द्य सुन्दरी विषम परिस्थितिमें पड़ गयी थी और घबराकर वस्त्र लेनेकी इच्छा कर रही थी। उसका रूप-सौन्दर्य अवर्णनीय था। तरुणावस्था भी अद्भुत थी। उस सुन्दरी अप्सराको मुनिवर विश्वामित्रने वहाँ नंगी देख लिया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या रूपगुणान् दृष्ट्वा स तु विप्रर्षभस्तदा।
चकार भावं संसर्गात् तया कामवशं गतः ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्या रूपगुणान् दृष्ट्वा स तु विप्रर्षभस्तदा।
चकार भावं संसर्गात् तया कामवशं गतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके रूप और गुणोंको देखते ही विप्रवर विश्वामित्र कामके अधीन हो गये। सम्पर्कमें आनेके कारण मेनकामें उनका अनुराग हो गया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यमन्त्रयत चाप्येनां सा चाप्यैच्छदनिन्दिता।
तौ तत्र सुचिरं कालमुभौ व्यहरतां तदा ॥ ८ ॥
रममाणौ यथाकामं यथैकदिवसं तथा।
(कामक्रोधावजितवान् मुनिर्नित्यं क्षमान्वितः ।
चिरार्जितस्य तपसः क्षयं स कृतवानृषिः॥
तपसः संक्षयादेव मुनिर्मोहं समाविशत्।
कामरागाभिभूतस्य मुनेः पार्श्वं जगाम सा॥)
जनयामास स मुनिर्मेनकायां शकुन्तलाम् ॥ ९ ॥
प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीमभितो नदीम्।
जातमुत्सृज्य तं गर्भं मेनका मालिनीमनु ॥ १० ॥
कृतकार्या ततस्तूर्णमगच्छच्छक्रसंसदम् ।
तं वने विजने गर्भं सिंहव्याघ्रसमाकुले ॥ ११ ॥
दृष्ट्वा शयानं शकुनाः समन्तात् पर्यवारयन्।
नेमां हिंस्युर्वने बालां क्रव्यादा मांसगृद्धिनः ॥ १२ ॥
मूलम्
न्यमन्त्रयत चाप्येनां सा चाप्यैच्छदनिन्दिता।
तौ तत्र सुचिरं कालमुभौ व्यहरतां तदा ॥ ८ ॥
रममाणौ यथाकामं यथैकदिवसं तथा।
(कामक्रोधावजितवान् मुनिर्नित्यं क्षमान्वितः ।
चिरार्जितस्य तपसः क्षयं स कृतवानृषिः॥
तपसः संक्षयादेव मुनिर्मोहं समाविशत्।
कामरागाभिभूतस्य मुनेः पार्श्वं जगाम सा॥)
जनयामास स मुनिर्मेनकायां शकुन्तलाम् ॥ ९ ॥
प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीमभितो नदीम्।
जातमुत्सृज्य तं गर्भं मेनका मालिनीमनु ॥ १० ॥
कृतकार्या ततस्तूर्णमगच्छच्छक्रसंसदम् ।
तं वने विजने गर्भं सिंहव्याघ्रसमाकुले ॥ ११ ॥
दृष्ट्वा शयानं शकुनाः समन्तात् पर्यवारयन्।
नेमां हिंस्युर्वने बालां क्रव्यादा मांसगृद्धिनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने मेनकाको अपने निकट आनेका निमन्त्रण दिया। अनिन्द्य सुन्दरी मेनका तो यह चाहती ही थी, उनसे सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये वह राजी हो गयी। तदनन्तर वे दोनों वहाँ सुदीर्घ कालतक इच्छानुसार विहार तथा रमण करते रहे। वह महान् काल उन्हें एक दिनके समान प्रतीत हुआ। काम और क्रोधपर विजय न पा सकनेवाले उन सदा क्षमाशील महर्षिने दीर्घकालसे उपार्जित की हुई तपस्याको नष्ट कर दिया। तपस्याका क्षय होनेसे मुनिके मनपर मोह छा गया। तब मेनका काम तथा रागके वशीभूत हुए मुनिके पास गयी। ब्रह्मन्! फिर मुनिने मेनकाके गर्भसे हिमालयके रमणीय शिखरपर मालिनी नदीके किनारे शकुन्तलाको जन्म दिया। मेनकाका काम पूरा हो चुका था; वह उस नवजात गर्भको मालिनीके तटपर छोड़कर तुरंत इन्द्र-लोकको चली गयी। सिंह और व्याघ्रोंसे भरे हुए निर्जन वनमें उस शिशुको सोते देख शकुन्तों (पक्षियों)-ने उसे सब ओरसे पाँखोंद्वारा ढक लिया; जिससे कच्चे मांस खानेवाले गीध आदि जीव वनमें इस कन्याकी हिंसा न कर सकें॥८—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यरक्षन्त तां तत्र शकुन्ता मेनकात्मजाम्।
उपस्प्रष्टुं गतश्चाहमपश्यं शयितामिमाम् ॥ १३ ॥
निर्जने विपिने रम्ये शकुन्तैः परिवारिताम्।
(मां दृष्ट्वैवान्वपद्यन्त पादयोः पतिता द्विजाः।
अब्रुवञ्छकुनाः सर्वे कलं मधुरभाषिणः॥
मूलम्
पर्यरक्षन्त तां तत्र शकुन्ता मेनकात्मजाम्।
उपस्प्रष्टुं गतश्चाहमपश्यं शयितामिमाम् ॥ १३ ॥
निर्जने विपिने रम्ये शकुन्तैः परिवारिताम्।
(मां दृष्ट्वैवान्वपद्यन्त पादयोः पतिता द्विजाः।
अब्रुवञ्छकुनाः सर्वे कलं मधुरभाषिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वहाँ शकुन्त ही मेनकाकुमारीकी रक्षा कर रहे थे। उसी समय आचमन करनेके लिये जब मैं मालिनीतटपर गया तो देखा—यह रमणीय निर्जन वनमें पक्षियोंसे घिरी हुई सो रही है। मुझे देखते ही वे सब मधुरभाषी पक्षी मेरे पैरोंपर गिर गये और सुन्दर वाणीमें इस प्रकार कहने लगे॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
द्विजा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रसुतां ब्रह्मन् न्यासभूतां भरस्व वै।
कामक्रोधावजितवान् सखा ते कौशिकीं गतः॥
तस्मात् पोषय तत्पुत्रीं दयावानिति तेऽब्रुवन्।
मूलम्
विश्वामित्रसुतां ब्रह्मन् न्यासभूतां भरस्व वै।
कामक्रोधावजितवान् सखा ते कौशिकीं गतः॥
तस्मात् पोषय तत्पुत्रीं दयावानिति तेऽब्रुवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
पक्षी बोले— ब्रह्मन्! यह विश्वामित्रकी कन्या आपके यहाँ धरोहरके रूपमें आयी है। आप इसका पालन-पोषण कीजिये। कौशिकीके तटपर गये हुए आपके सखा विश्वामित्र काम और क्रोधको नहीं जीत सके थे। आप दयालु हैं; इसलिये उनकी पुत्रीका पालन कीजिये। इस प्रकार पक्षियोंने कहा।
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतरुतज्ञोऽहं दयावान् सर्वजन्तुषु ।
निर्जनेऽपि महारण्ये शकुनैः परिवारिताम्॥)
आनयित्वा ततश्चैनां दुहितृत्वे न्यवेशयम् ॥ १४ ॥
मूलम्
सर्वभूतरुतज्ञोऽहं दयावान् सर्वजन्तुषु ।
निर्जनेऽपि महारण्ये शकुनैः परिवारिताम्॥)
आनयित्वा ततश्चैनां दुहितृत्वे न्यवेशयम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व मुनि कहते हैं— ब्रह्मन्! मैं समस्त प्राणियोंकी बोली समझता हूँ और सब जीवोंके प्रति दयाभाव रखता हूँ। अतः उस निर्जन महावनमें पक्षियोंसे घिरी हुई इस कन्याको वहाँसे लाकर मैंने इसे अपनी पुत्रीके पदपर प्रतिष्ठित किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरकृत् प्राणदाता यस्य चान्नानि भुञ्जते।
क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने ॥ १५ ॥
मूलम्
शरीरकृत् प्राणदाता यस्य चान्नानि भुञ्जते।
क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो गर्भाधानके द्वारा शरीरका निर्माण करता है, जो अभयदान देकर प्राणोंकी रक्षा करता है और जिसका अन्न भोजन किया जाता है, धर्मशास्त्रमें क्रमशः ये तीनों पुरुष पिता कहे गये हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्जने तु वने यस्माच्छकुन्तैः परिवारिता।
शकुन्तलेति नामास्याः कृतं चापि ततो मया ॥ १६ ॥
मूलम्
निर्जने तु वने यस्माच्छकुन्तैः परिवारिता।
शकुन्तलेति नामास्याः कृतं चापि ततो मया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्जन वनमें इसे शकुन्तोंने घेर रखा था, इसलिये ‘शकुन्तान् लाति रक्षकत्वेन गृह्णाति’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार इस कन्याका नाम मैंने ‘शकुन्तला’ रख दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दुहितरं विद्धि मम विप्र शकुन्तलाम्।
शकुन्तला च पितरं मन्यते मामनिन्दिता ॥ १७ ॥
मूलम्
एवं दुहितरं विद्धि मम विप्र शकुन्तलाम्।
शकुन्तला च पितरं मन्यते मामनिन्दिता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! इस प्रकार शकुन्तला मेरी बेटी हुई, आप यह जान लें। प्रशंसनीय शील-स्वभाववाली शकुन्तला भी मुझे अपना पिता मानती है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदाचष्ट पृष्टः सन् मम जन्म महर्षये।
सुतां कण्वस्य मामेवं विद्धि त्वं मनुजाधिप ॥ १८ ॥
कण्वं हि पितरं मन्ये पितरं स्वमजानती।
इति ते कथितं राजन् यथावृत्तं श्रुतं मया ॥ १९ ॥
मूलम्
एतदाचष्ट पृष्टः सन् मम जन्म महर्षये।
सुतां कण्वस्य मामेवं विद्धि त्वं मनुजाधिप ॥ १८ ॥
कण्वं हि पितरं मन्ये पितरं स्वमजानती।
इति ते कथितं राजन् यथावृत्तं श्रुतं मया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तला कहती है— राजन्! उन महर्षिके पूछनेपर पिता कण्वने मेरे जन्मका यह वृत्तान्त उन्हें बताया था। इस तरह आप मुझे कण्वकी ही पुत्री समझिये। मैं अपने जन्मदाता पिताको तो जानती नहीं, कण्वको ही पिता मानती हूँ। महाराज! इस प्रकार जो वृत्तान्त मैंने सुन रखा था, वह सब आपको बता दिया॥१८-१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)