श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा दुष्यन्तका शकुन्तलाके साथ वार्तालाप,
शकुन्तलाके द्वारा अपने जन्मका कारण बतलाना
तथा उसी प्रसंगमें विश्वामित्रकी तपस्यासे
इन्द्रका चिन्तित होकर
मेनकाको मुनिका तपोभंग करनेके लिये भेजना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽगच्छन्महाबाहुरेकोऽमात्यान् विसृज्य तान् ।
नापश्यच्चाश्रमे तस्मिंस्तमृषिं संशितव्रतम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततोऽगच्छन्महाबाहुरेकोऽमात्यान् विसृज्य तान् ।
नापश्यच्चाश्रमे तस्मिंस्तमृषिं संशितव्रतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर महाबाहु राजा दुष्यन्त साथ आये हुए अपने उन मन्त्रियोंको भी बाहर छोड़कर अकेले ही उस आश्रममें गये, किंतु वहाँ कठोर व्रतका पालन करनेवाले महर्षि नहीं दिखायी दिये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपश्यमानस्तमृषिं शून्यं दृष्ट्वा तथाऽऽश्रमम्।
उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं संनादयन्निव ॥ २ ॥
मूलम्
सोऽपश्यमानस्तमृषिं शून्यं दृष्ट्वा तथाऽऽश्रमम्।
उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं संनादयन्निव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि कण्वको न देखकर और आश्रमको सूना पाकर राजाने सम्पूर्ण वनको प्रतिध्वनित करते हुए-से पूछा—‘यहाँ कौन है?’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वाथ तस्य तं शब्दं कन्या श्रीरिव रूपिणी।
निश्चक्रामाश्रमात् तस्मात् तापसीवेषधारिणी ॥ ३ ॥
मूलम्
श्रुत्वाथ तस्य तं शब्दं कन्या श्रीरिव रूपिणी।
निश्चक्रामाश्रमात् तस्मात् तापसीवेषधारिणी ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्तके उस शब्दको सुनकर एक मूर्तिमती लक्ष्मी-सी सुन्दरी कन्या तापसीका वेष धारण किये आश्रमके भीतरसे निकली॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तं दृष्ट्वैव राजानं दुष्यन्तमसितेक्षणा।
(सुव्रताभ्यागतं तं तु पूज्यं प्राप्तमथेश्वरम्।
रूपयौवनसम्पन्ना शीलाचारवती शुभा ।
सा तमायतपद्माक्षं व्यूढोरस्कं सुसंहतम्॥
सिंहस्कन्धं दीर्घबाहुं सर्वलक्षणपूजितम् ।
विस्पष्टं मधुरां वाचं साब्रवीज्जनमेजय।)
स्वागतं त इति क्षिप्रमुवाच प्रतिपूज्य च ॥ ४ ॥
मूलम्
सा तं दृष्ट्वैव राजानं दुष्यन्तमसितेक्षणा।
(सुव्रताभ्यागतं तं तु पूज्यं प्राप्तमथेश्वरम्।
रूपयौवनसम्पन्ना शीलाचारवती शुभा ।
सा तमायतपद्माक्षं व्यूढोरस्कं सुसंहतम्॥
सिंहस्कन्धं दीर्घबाहुं सर्वलक्षणपूजितम् ।
विस्पष्टं मधुरां वाचं साब्रवीज्जनमेजय।)
स्वागतं त इति क्षिप्रमुवाच प्रतिपूज्य च ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! उत्तम व्रतका पालन करनेवाली वह सुन्दरी कन्या रूप, यौवन, शील और सदाचारसे सम्पन्न थी। राजा दुष्यन्तके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान सुशोभित थे। उनकी छाती चौड़ी, शरीरकी गठन सुन्दर, कंधे सिंहके सदृश और भुजाएँ लंबी थीं। वे समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्मानित थे। श्याम नेत्रोंवाली उस शुभलक्षणा कन्याने सम्मान्य राजा दुष्यन्तको देखते ही मधुर वाणीमें उनके प्रति सम्मानका भाव प्रदर्शित करते हुए शीघ्रतापूर्वक स्पष्ट शब्दोंमें कहा—‘अतिथिदेव! आपका स्वागत है’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसनेनार्चयित्वा च पाद्येनार्घ्येण चैव हि।
पप्रच्छानामयं राजन् कुशलं च नराधिपम् ॥ ५ ॥
मूलम्
आसनेनार्चयित्वा च पाद्येनार्घ्येण चैव हि।
पप्रच्छानामयं राजन् कुशलं च नराधिपम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! फिर आसन, पाद्य और अर्घ्य अर्पण करके उनका समादर करनेके पश्चात् उसने राजासे पूछा—‘आपका शरीर नीरोग है न? घरपर कुशल तो है?’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावदर्चयित्वाथ पृष्ट्वा चानामयं तदा।
उवाच स्मयमानेव किं कार्यं क्रियतामिति ॥ ६ ॥
मूलम्
यथावदर्चयित्वाथ पृष्ट्वा चानामयं तदा।
उवाच स्मयमानेव किं कार्यं क्रियतामिति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके आरोग्य और कुशल पूछकर वह तपस्विनी कन्या मुसकराती हुई-सी बोली—‘कहिये आपकी क्या सेवा की जाय?’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(आश्रमस्याभिगमने किं त्वं कार्यं चिकीर्षसि।
कस्त्वमद्येह सम्प्राप्तो महर्षेराश्रमं शुभम्॥)
मूलम्
(आश्रमस्याभिगमने किं त्वं कार्यं चिकीर्षसि।
कस्त्वमद्येह सम्प्राप्तो महर्षेराश्रमं शुभम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके आश्रमकी ओर पधारनेका क्या कारण है? आप यहाँ कौन-सा कार्य सिद्ध करना चाहते हैं? आपका परिचय क्या है? आप कौन हैं? और आज यहाँ महर्षिके इस शुभ आश्रमपर (किस उद्देश्यसे) आये हैं?’
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामब्रवीत् ततो राजा कन्यां मधुरभाषिणीम्।
दृष्ट्वा चैवानवद्याङ्गीं यथावत् प्रतिपूजितः ॥ ७ ॥
मूलम्
तामब्रवीत् ततो राजा कन्यां मधुरभाषिणीम्।
दृष्ट्वा चैवानवद्याङ्गीं यथावत् प्रतिपूजितः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके द्वारा विधिवत् किये हुए आतिथ्य सत्कारको ग्रहण करके राजाने उस सर्वांगसुन्दरी एवं मधुरभाषिणी कन्याकी ओर देखकर कहा॥७॥
मूलम् (वचनम्)
(दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजर्षेरस्मि पुत्रोऽहमिलिलस्य महात्मनः ।
मूलम्
राजर्षेरस्मि पुत्रोऽहमिलिलस्य महात्मनः ।
Misc Detail
दुष्यन्त इति मे नाम सत्यं पुष्करलोचने॥ )
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतोऽहं महाभागमृषिं कण्वमुपासितुम् ।
क्व गतो भगवान् भद्रे तन्ममाचक्ष्व शोभने ॥ ८ ॥
मूलम्
आगतोऽहं महाभागमृषिं कण्वमुपासितुम् ।
क्व गतो भगवान् भद्रे तन्ममाचक्ष्व शोभने ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— कमललोचने! मैं राजर्षि महात्मा इलिल1 का पुत्र हूँ और मेरा नाम दुष्यन्त है। मैं यह सत्य कहता हूँ। भद्रे! मैं परम भाग्यशाली महर्षि कण्वकी उपासना करने—उनके सत्संगका लाभ लेनेके लिये आया हूँ। शोभने! बताओ तो, भगवान् कण्व कहाँ गये हैं?॥८॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतः पिता मे भगवान् फलान्याहर्तुमाश्रमात्।
मुहूर्तं सम्प्रतीक्षस्व द्रष्टास्येनमुपागतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
गतः पिता मे भगवान् फलान्याहर्तुमाश्रमात्।
मुहूर्तं सम्प्रतीक्षस्व द्रष्टास्येनमुपागतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तला बोली— अभ्यागत! मेरे पूज्य पिताजी फल लानेके लिये आश्रमसे बाहर गये हैं। अतः दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये। लौटनेपर उनसे मिलियेगा॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यमानस्तमृषिं तथा चोक्तस्तया च सः।
तां दृष्ट्वा च वरारोहां श्रीमतीं चारुहासिनीम् ॥ १० ॥
विभ्राजमानां वपुषा तपसा च दमेन च।
रूपयौवनसम्पन्नामित्युवाच महीपतिः ॥ ११ ॥
मूलम्
अपश्यमानस्तमृषिं तथा चोक्तस्तया च सः।
तां दृष्ट्वा च वरारोहां श्रीमतीं चारुहासिनीम् ॥ १० ॥
विभ्राजमानां वपुषा तपसा च दमेन च।
रूपयौवनसम्पन्नामित्युवाच महीपतिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा दुष्यन्तने देखा—महर्षि कण्व आश्रमपर नहीं हैं और वह तापसी कन्या उन्हें वहाँ ठहरनेके लिये कह रही है; साथ ही उनकी दृष्टि इस बातकी ओर भी गयी कि यह कन्या सर्वांगसुन्दरी, अपूर्व शोभासे सम्पन्न तथा मनोहर मुसकानसे सुशोभित है। इसका शरीर सौन्दर्यकी प्रभासे प्रकाशित हो रहा है, तपस्या तथा मन-इन्द्रियोंके संयमने इसमें अपूर्व तेज भर दिया है। यह अनुपम रूप और नयी जवानीसे उद्भासित हो रही है, यह सब सोचकर राजाने पूछा—॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का त्वं कस्यासि सुश्रोणि किमर्थं चागता वनम्।
एवंरूपगुणोपेता कुतस्त्वमसि शोभने ॥ १२ ॥
मूलम्
का त्वं कस्यासि सुश्रोणि किमर्थं चागता वनम्।
एवंरूपगुणोपेता कुतस्त्वमसि शोभने ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनोहर कटिप्रदेशसे सुशोभित सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसलिये इस वनमें आयी हो? शोभने! तुममें ऐसे अद्भुत रूप और गुणोंका विकास कैसे हुआ है?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शनादेव हि शुभे त्वया मेऽपहृतं मनः।
इच्छामि त्वामहं ज्ञातुं तन्ममाचक्ष्व शोभने ॥ १३ ॥
मूलम्
दर्शनादेव हि शुभे त्वया मेऽपहृतं मनः।
इच्छामि त्वामहं ज्ञातुं तन्ममाचक्ष्व शोभने ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! तुमने दर्शनमात्रसे मेरे मनको हर लिया है। कल्याणि! मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूँ, अतः मुझे सब कुछ ठीक-ठीक बताओ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शृणु मे नागनासोरु वचनं मत्तकाशिनि॥
राजर्षेरन्वये जातः पूरोरस्मि विशेषतः।
वृणे त्वामद्य सुश्रोणि दुष्यन्तो वरवर्णिनि॥
न मेऽन्यत्र क्षत्रियायां मनो जातु प्रवर्तते।
ऋषिपुत्रीषु चान्यासु नावर्णासु परासु वा॥
तस्मात् प्रणिहितात्मानं विद्धि मां कलभाषिणि।
तस्य मे त्वयि भावोऽस्ति क्षत्रिया ह्यसि का वद॥
न हि मे भीरु विप्रायांमनः प्रसहते गतिम्।
भजे त्वामायतापाङ्गि भक्तं भजितुमर्हसि॥
भुङ्क्ष्व राज्यं विशालाक्षि बुद्धिं मा त्वन्यथा कृथाः।)
मूलम्
(शृणु मे नागनासोरु वचनं मत्तकाशिनि॥
राजर्षेरन्वये जातः पूरोरस्मि विशेषतः।
वृणे त्वामद्य सुश्रोणि दुष्यन्तो वरवर्णिनि॥
न मेऽन्यत्र क्षत्रियायां मनो जातु प्रवर्तते।
ऋषिपुत्रीषु चान्यासु नावर्णासु परासु वा॥
तस्मात् प्रणिहितात्मानं विद्धि मां कलभाषिणि।
तस्य मे त्वयि भावोऽस्ति क्षत्रिया ह्यसि का वद॥
न हि मे भीरु विप्रायांमनः प्रसहते गतिम्।
भजे त्वामायतापाङ्गि भक्तं भजितुमर्हसि॥
भुङ्क्ष्व राज्यं विशालाक्षि बुद्धिं मा त्वन्यथा कृथाः।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाथीकी सूँड़के समान जाँघोंवाली मतवाली सुन्दरी! मेरी बात सुनो; मैं राजर्षि पूरुके वंशमें उत्पन्न राजा दुष्यन्त हूँ। आज मैं अपनी पत्नी बनानेके लिये तुम्हारा वरण करता हूँ। क्षत्रिय-कन्याके सिवा दूसरी किसी स्त्रीकी ओर मेरा मन कभी नहीं जाता। अन्यान्य ऋषिपुत्रियों, अपनेसे भिन्न वर्णकी कुमारियों तथा परायी स्त्रियोंकी ओर भी मेरे मनकी गति नहीं होती। मधुरभाषिणि! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं अपने मनको पूर्णतः संयममें रखता हूँ। ऐसा होनेपर भी तुमपर मेरा अनुराग हो रहा है, अतः तुम क्षत्रिय-कन्या ही हो। बताओ, तुम कौन हो? भीरु! ब्राह्मण-कन्याकी ओर आकृष्ट होना मेरे मनको कदापि सह्य नहीं है। विशाल नेत्रोंवाली सुन्दरी! मैं तुम्हारा भक्त हूँ; तुम्हारी सेवा चाहता हूँ; तुम मुझे स्वीकार करो। विशाललोचने! मेरा राज्य भोगो। मेरे प्रति अन्यथा विचार न करो, मुझे पराया न समझो’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु सा कन्या तेन राज्ञा तमाश्रमे।
उवाच हसती वाक्यमिदं सुमधुराक्षरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु सा कन्या तेन राज्ञा तमाश्रमे।
उवाच हसती वाक्यमिदं सुमधुराक्षरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आश्रममें राजाके इस प्रकार पूछनेपर वह कन्या हँसती हुई मिठासभरे वचनोंमें उनसे इस प्रकार बोली—॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कण्वस्याहं भगवतो दुष्यन्त दुहिता मता।
तपस्विनो धृतिमतो धर्मज्ञस्य महात्मनः ॥ १५ ॥
मूलम्
कण्वस्याहं भगवतो दुष्यन्त दुहिता मता।
तपस्विनो धृतिमतो धर्मज्ञस्य महात्मनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज दुष्यन्त! मैं तपस्वी, धृतिमान्, धर्मज्ञ तथा महात्मा भगवान् कण्वकी पुत्री मानी जाती हूँ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अस्वतन्त्रास्मि राजेन्द्र काश्यपो मे गुरुः पिता।
तमेव प्रार्थय स्वार्थं नायुक्तं कर्तुमर्हसि॥)
मूलम्
(अस्वतन्त्रास्मि राजेन्द्र काश्यपो मे गुरुः पिता।
तमेव प्रार्थय स्वार्थं नायुक्तं कर्तुमर्हसि॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! मैं परतन्त्र हूँ। कश्यपनन्दन महर्षि कण्व मेरे गुरु और पिता हैं। उन्हींसे आप अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये प्रार्थना करें। आपको अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये’।
मूलम् (वचनम्)
दुष्यन्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वरेता महाभागे भगवाल्ँलोकपूजितः ।
चलेद्धि वृत्ताद् धर्मोऽपि न चलेत् संशितव्रतः ॥ १६ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वरेता महाभागे भगवाल्ँलोकपूजितः ।
चलेद्धि वृत्ताद् धर्मोऽपि न चलेत् संशितव्रतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्यन्त बोले— महाभागे! विश्ववन्द्य कण्व तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। वे बड़े कठोर व्रतका पालन करते हैं। साक्षात् धर्मराज भी अपने सदाचारसे विचलित हो सकते हैं, परंतु महर्षि कण्व नहीं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं त्वं तस्य दुहिता सम्भूता वरवर्णिनी।
संशयो मे महानत्र तन्मे छेत्तुमिहार्हसि ॥ १७ ॥
मूलम्
कथं त्वं तस्य दुहिता सम्भूता वरवर्णिनी।
संशयो मे महानत्र तन्मे छेत्तुमिहार्हसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी दशामें तुम-जैसी सुन्दरी देवी उनकी पुत्री कैसे हो सकती है? इस विषयमें मुझे बड़ा भारी संदेह हो रहा है। मेरे इस संदेहका निवारण तुम्हीं कर सकती हो॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
शकुन्तलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथायमागमो मह्यं
यथा चेदमभूत् पुरा।
शृणु राजन् यथातत्त्वं
यथास्मि दुहिता मुनेः ॥ १८ ॥
मूलम्
यथायमागमो मह्यं यथा चेदमभूत् पुरा।
शृणु राजन् यथातत्त्वं यथास्मि दुहिता मुनेः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुन्तलाने कहा— राजन्! ये सब बातें मुझे जिस प्रकार ज्ञात हुई हैं, मेरा यह जन्म आदि पूर्वकालमें जिस प्रकार हुआ है और मैं जिस प्रकार कण्व मुनिकी पुत्री हूँ, वह सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता रही हूँ; सुनिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अन्यथा सन्तम् आत्मानम्
अन्यथा सत्सु भाषते।
स पापेनावृतो मूर्खः
स्तेन आत्मापहारकः॥)
मूलम्
(अन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते।
स पापेनावृतो मूर्खः स्तेन आत्मापहारकः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका स्वरूप तो अन्य प्रकारका है, किंतु जो सत्पुरुषोंके सामने उसका अन्य प्रकारसे ही परिचय देता है, अर्थात् जो पापात्मा होते हुए भी अपनेको धर्मात्मा कहता है, वह मूर्ख, पापसे आवृत, चोर एवं आत्मवंचक है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिः कश्चिदिहागम्य मम जन्माभ्यचोदयत्।
(ऊर्ध्वरेता यथासि त्वं कुतस्त्येयं शकुन्तला।
पुत्री त्वत्तः कथं जाता सत्यं मे ब्रूहि काश्यप॥)
तस्मै प्रोवाच भगवान् यथा तच्छृणु पार्थिव ॥ १९ ॥
मूलम्
ऋषिः कश्चिदिहागम्य मम जन्माभ्यचोदयत्।
(ऊर्ध्वरेता यथासि त्वं कुतस्त्येयं शकुन्तला।
पुत्री त्वत्तः कथं जाता सत्यं मे ब्रूहि काश्यप॥)
तस्मै प्रोवाच भगवान् यथा तच्छृणु पार्थिव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! एक दिन किसी ऋषिने यहाँ आकर मेरे जन्मके सम्बन्धमें मुनिसे पूछा—‘कश्यपनन्दन! आप तो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी हैं, फिर यह शकुन्तला कहाँसे आयी? आपसे पुत्रीका जन्म कैसे हुआ? यह मुझे सच-सच बताइये।’ उस समय भगवान् कण्वने उससे जो बात बतायी, वही कहती हूँ, सुनिये॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
कण्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्यमानः किल पुरा विश्वामित्रो महत् तपः।
सुभृशं तापयामास शक्रं सुरगणेश्वरम् ॥ २० ॥
मूलम्
तप्यमानः किल पुरा विश्वामित्रो महत् तपः।
सुभृशं तापयामास शक्रं सुरगणेश्वरम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कण्व बोले— पहलेकी बात है, महर्षि विश्वामित्र बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। उन्होंने देवताओंके स्वामी इन्द्रको अपनी तपस्यासे अत्यन्त संतापमें डाल दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा दीप्तवीर्योऽयं स्थानान्मां च्यावयेदिति।
भीतः पुरंदरस्तस्मान्मेनकामिदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
मूलम्
तपसा दीप्तवीर्योऽयं स्थानान्मां च्यावयेदिति।
भीतः पुरंदरस्तस्मान्मेनकामिदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रको यह भय हो गया कि तपस्यासे अधिक शक्तिशाली होकर ये विश्वामित्र मुझे अपने स्थानसे भ्रष्ट कर देंगे, अतः उन्होंने मेनकासे इस प्रकार कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणैरप्सरसां दिव्यैर्मेनके त्वं विशिष्यसे।
श्रेयो मे कुरु कल्याणि यत् त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु॥२२॥
असावादित्यसंकाशो विश्वामित्रो महातपाः ।
तप्यमानस्तपो घोरं मम कम्पयते मनः ॥ २३ ॥
मूलम्
गुणैरप्सरसां दिव्यैर्मेनके त्वं विशिष्यसे।
श्रेयो मे कुरु कल्याणि यत् त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु॥२२॥
असावादित्यसंकाशो विश्वामित्रो महातपाः ।
तप्यमानस्तपो घोरं मम कम्पयते मनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेनके! अप्सराओंके जो दिव्य गुण हैं, वे तुममें सबसे अधिक हैं। कल्याणि! तुम मेरा भला करो और मैं तुमसे जो बात कहता हूँ, सुनो। वे सूर्यके समान तेजस्वी, महातपस्वी विश्वामित्र घोर तपस्यामें संलग्न हो मेरे मनको कम्पित कर रहे हैं॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेनके तव भारोऽयं विश्वामित्रः सुमध्यमे।
शंसितात्मा सुदुर्धर्ष उग्रे तपसि वर्तते ॥ २४ ॥
मूलम्
मेनके तव भारोऽयं विश्वामित्रः सुमध्यमे।
शंसितात्मा सुदुर्धर्ष उग्रे तपसि वर्तते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरी मेनके! उन्हें तपस्यासे विचलित करनेका यह महान् भार मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। विश्वामित्रका अन्तःकरण शुद्ध है। उन्हें पराजित करना अत्यन्त कठिन है और वे इस समय घोर तपस्यामें लगे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मां न च्यावयेत् स्थानात् तं वै गत्वा प्रलोभय।
चर तस्य तपोविघ्नं कुरु मेऽविघ्नमुत्तमम् ॥ २५ ॥
मूलम्
स मां न च्यावयेत् स्थानात् तं वै गत्वा प्रलोभय।
चर तस्य तपोविघ्नं कुरु मेऽविघ्नमुत्तमम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः ऐसा करो, जिससे वे मुझे अपने स्थानसे भ्रष्ट न कर सकें। तुम उनके पास जाकर उन्हें लुभाओ, उनकी तपस्यामें विघ्न डाल दो और इस प्रकार मेरे विघ्नके निवारणका उत्तम साधन प्रस्तुत करो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपयौवनमाधुर्यचेष्टितस्मितभाषणैः ।
लोभयित्वा वरारोहे तपसस्तं निवर्तय ॥ २६ ॥
मूलम्
रूपयौवनमाधुर्यचेष्टितस्मितभाषणैः ।
लोभयित्वा वरारोहे तपसस्तं निवर्तय ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वरारोहे! अपने रूप, जवानी, मधुर स्वभाव, हाव-भाव, मन्द मुसकान और सरस वार्तालाप आदिके द्वारा मुनिको लुभाकर उन्हें तपस्यासे निवृत्त कर दो’॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
मेनकोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महातेजाः स भगवांस्तथैव च महातपाः।
कोपनश्च तथा ह्येनं जानाति भगवानपि ॥ २७ ॥
मूलम्
महातेजाः स भगवांस्तथैव च महातपाः।
कोपनश्च तथा ह्येनं जानाति भगवानपि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेनका बोली— देवराज! भगवान् विश्वामित्र बड़े भारी तेजस्वी और महान् तपस्वी हैं। वे क्रोधी भी बहुत हैं। उनके इस स्वभावको आप भी जानते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसस्तपसश्चैव कोपस्य च महात्मनः।
त्वमप्युद्विजसे यस्य नोद्विजेयमहं कथम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तेजसस्तपसश्चैव कोपस्य च महात्मनः।
त्वमप्युद्विजसे यस्य नोद्विजेयमहं कथम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महात्माके तेज, तप और क्रोधसे आप भी उद्विग्न हो उठते हैं, उनसे मैं कैसे नहीं डरूँगी?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभागं वसिष्ठं यः पुत्रैरिष्टैर्व्ययोजयत्।
क्षत्रजातश्च यः पूर्वमभवद् ब्राह्मणो बलात् ॥ २९ ॥
शौचार्थं यो नदीं चक्रे दुर्गमां बहुभिर्जलैः।
यां तां पुण्यतमां लोके कौशिकीति विदुर्जनाः ॥ ३० ॥
मूलम्
महाभागं वसिष्ठं यः पुत्रैरिष्टैर्व्ययोजयत्।
क्षत्रजातश्च यः पूर्वमभवद् ब्राह्मणो बलात् ॥ २९ ॥
शौचार्थं यो नदीं चक्रे दुर्गमां बहुभिर्जलैः।
यां तां पुण्यतमां लोके कौशिकीति विदुर्जनाः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र ऋषि वे ही हैं, जिन्होंने महाभाग महर्षि वसिष्ठका उनके प्यारे पुत्रोंसे सदाके लिये वियोग करा दिया; जो पहले क्षत्रियकुलमें उत्पन्न होकर भी तपस्याके बलसे ब्राह्मण बन गये; जिन्होंने अपने शौच-स्नानकी सुविधाके लिये अगाध जलसे भरी हुई उस दुर्गम नदीका निर्माण किया, जिसे लोकमें सब मनुष्य अत्यन्त पुण्यमयी कौशिकी नदीके नामसे जानते हैं॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभार यत्रास्य पुरा काले दुर्गे महात्मनः।
दारान्मतङ्गो धर्मात्मा राजर्षिर्व्याधतां गतः ॥ ३१ ॥
मूलम्
बभार यत्रास्य पुरा काले दुर्गे महात्मनः।
दारान्मतङ्गो धर्मात्मा राजर्षिर्व्याधतां गतः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र महर्षि वे ही हैं, जिनकी पत्नीका पूर्वकालमें संकटके समय शापवश व्याध बने हुए धर्मात्मा राजर्षि मतंगने भरण-पोषण किया था॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीतकाले दुर्भिक्षे अभ्येत्य पुनराश्रमम्।
मुनिः पारेति नद्या वै नाम चक्रे तदा प्रभुः॥३२॥
मूलम्
अतीतकाले दुर्भिक्षे अभ्येत्य पुनराश्रमम्।
मुनिः पारेति नद्या वै नाम चक्रे तदा प्रभुः॥३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्भिक्ष बीत जानेपर उन शक्तिशाली मुनिने पुनः आश्रमपर आकर उस नदीका नाम ‘पारा’ रख दिया था॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मतङ्गं याजयाञ्चक्रे यत्र प्रीतमनाः स्वयम्।
त्वं च सोमं भयाद् यस्य गतः पातुं सुरेश्वर॥३३॥
मूलम्
मतङ्गं याजयाञ्चक्रे यत्र प्रीतमनाः स्वयम्।
त्वं च सोमं भयाद् यस्य गतः पातुं सुरेश्वर॥३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरेश्वर! उन्होंने मतंग मुनिके किये हुए उपकारसे प्रसन्न होकर स्वयं पुरोहित बनकर उनका यज्ञ कराया; जिसमें उनके भयसे आप भी सोमपान करनेके लिये पधारे थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकारान्यं च लोकं वै क्रुद्धो नक्षत्रसम्पदा।
प्रतिश्रवणपूर्वाणि नक्षत्राणि चकार यः।
गुरुशापहतस्यापि त्रिशङ्कोः शरणं ददौ ॥ ३४ ॥
मूलम्
चकारान्यं च लोकं वै क्रुद्धो नक्षत्रसम्पदा।
प्रतिश्रवणपूर्वाणि नक्षत्राणि चकार यः।
गुरुशापहतस्यापि त्रिशङ्कोः शरणं ददौ ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने ही कुपित होकर दूसरे लोककी सृष्टि की और नक्षत्र-सम्पत्तिसे रूठकर प्रतिश्रवण आदि नूतन नक्षत्रोंका निर्माण किया था। ये वे ही महात्मा हैं, जिन्होंने गुरुके शापसे हीनावस्थामें पड़े हुए राजा त्रिशंकुको भी शरण दी थी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ब्रह्मर्षिशापं राजर्षिः कथं मोक्ष्यति कौशिकः।
अवमत्य तदा देवैर्यज्ञाङ्गं तद् विनाशितम्॥
अन्यानि च महातेजा यज्ञाङ्गान्यसृजत् प्रभुः।
निनाय च तदा स्वर्गं त्रिशंकुं स महातपाः॥)
मूलम्
(ब्रह्मर्षिशापं राजर्षिः कथं मोक्ष्यति कौशिकः।
अवमत्य तदा देवैर्यज्ञाङ्गं तद् विनाशितम्॥
अन्यानि च महातेजा यज्ञाङ्गान्यसृजत् प्रभुः।
निनाय च तदा स्वर्गं त्रिशंकुं स महातपाः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय यह सोचकर कि ‘विश्वामित्र ब्रह्मर्षि वसिष्ठके शापको कैसे छुड़ा देंगे?’ देवताओंने उनकी अवहेलना करके त्रिशंकुके यज्ञकी वह सारी सामग्री नष्ट कर दी। परंतु महातेजस्वी शक्तिशाली विश्वामित्रने दूसरी यज्ञ-सामग्रियोंकी सृष्टि कर ली तथा उन महातपस्वीने त्रिशंकुको स्वर्गलोकमें पहुँचा ही दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतानि यस्य कर्माणि तस्याहं भृशमुद्विजे।
यथासौ न दहेत् क्रुद्धस्तथाऽऽज्ञापय मां विभो ॥ ३५ ॥
मूलम्
एतानि यस्य कर्माणि तस्याहं भृशमुद्विजे।
यथासौ न दहेत् क्रुद्धस्तथाऽऽज्ञापय मां विभो ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके ऐसे-ऐसे अद्भुत कर्म हैं, उन महात्मासे मैं बहुत डरती हूँ। प्रभो! जिससे वे कुपित हो मुझे भस्म न कर दें, ऐसे कार्यके लिये मुझे आज्ञा दीजिये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसा निर्दहेल्लोकान् कम्पयेद् धरणीं पदा।
संक्षिपेच्च महामेरुं तूर्णमावर्तयेद् दिशः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तेजसा निर्दहेल्लोकान् कम्पयेद् धरणीं पदा।
संक्षिपेच्च महामेरुं तूर्णमावर्तयेद् दिशः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने तेजसे सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर सकते हैं, पैरके आघातसे पृथ्वीको कँपा सकते हैं, विशाल मेरुपर्वतको छोटा बना सकते हैं और सम्पूर्ण दिशाओंमें तुरंत उलट-फेर कर सकते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तादृशं तपसा युक्तं प्रदीप्तमिव पावकम्।
कथमस्मद्विधा नारी जितेन्द्रियमभिस्पृशेत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
तादृशं तपसा युक्तं प्रदीप्तमिव पावकम्।
कथमस्मद्विधा नारी जितेन्द्रियमभिस्पृशेत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी, तपस्वी और जितेन्द्रिय महात्माका मुझ-जैसी नारी कैसे स्पर्श कर सकती है?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुताशनमुखं दीप्तं सूर्यचन्द्राक्षितारकम् ।
कालजिह्वं सुरश्रेष्ठ कथमस्मद्विधा स्पृशेत् ॥ ३८ ॥
मूलम्
हुताशनमुखं दीप्तं सूर्यचन्द्राक्षितारकम् ।
कालजिह्वं सुरश्रेष्ठ कथमस्मद्विधा स्पृशेत् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरश्रेष्ठ! अग्नि जिनका मुख है, सूर्य और चन्द्रमा जिनकी आँखोंके तारे हैं और काल जिनकी जिह्वा है, उन तेजस्वी महर्षिको मेरी-जैसी स्त्री कैसे छू सकती है?॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमश्च सोमश्च महर्षयश्च
साध्या विश्वे वालखिल्याश्च सर्वे।
एतेऽपि यस्योद्विजन्ते प्रभावात्
तस्मात् कस्मान्मादृशी नोद्विजेत ॥ ३९ ॥
मूलम्
यमश्च सोमश्च महर्षयश्च
साध्या विश्वे वालखिल्याश्च सर्वे।
एतेऽपि यस्योद्विजन्ते प्रभावात्
तस्मात् कस्मान्मादृशी नोद्विजेत ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराज, चन्द्रमा, महर्षिगण, साध्यगण, विश्वेदेव और सम्पूर्ण बालखिल्य ऋषि—ये भी जिनके प्रभावसे उद्विग्न रहते हैं, उन विश्वामित्र मुनिसे मेरी-जैसी स्त्री कैसे नहीं डरेगी?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयैवमुक्ता च कथं समीप-
मृषेर्न गच्छेयमहं सुरेन्द्र ।
रक्षां तु मे चिन्तय देवराज
यथा त्वदर्थं रक्षिताहं चरेयम् ॥ ४० ॥
मूलम्
त्वयैवमुक्ता च कथं समीप-
मृषेर्न गच्छेयमहं सुरेन्द्र ।
रक्षां तु मे चिन्तय देवराज
यथा त्वदर्थं रक्षिताहं चरेयम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरेन्द्र! आपके इस प्रकार वहाँ जानेका आदेश देनेपर मैं उन महर्षिके समीप कैसे नहीं जाऊँगी? किंतु देवराज! पहले मेरी रक्षाका कोई उपाय सोचिये; जिससे सुरक्षित रहकर मैं आपके कार्यकी सिद्धिके लिये चेष्टा कर सकूँ॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं तु मे मारुतस्तत्र वासः
प्रक्रीडिताया विवृणोतु देव ।
भवेच्च मे मन्मथस्तत्र कार्ये
सहायभूतस्तु तव प्रसादात् ॥ ४१ ॥
मूलम्
कामं तु मे मारुतस्तत्र वासः
प्रक्रीडिताया विवृणोतु देव ।
भवेच्च मे मन्मथस्तत्र कार्ये
सहायभूतस्तु तव प्रसादात् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! मैं वहाँ जाकर जब क्रीड़ामें निमग्न हो जाऊँ, उस समय वायुदेव आवश्यकता समझकर मेरा वस्त्र उड़ा दें और इस कार्यमें आपके प्रसादसे कामदेव भी मेरे सहायक हों॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनाच्च वायुः सुरभिः प्रवायात्
तस्मिन् काले तमृषिं लोभयन्त्याः।
तथेत्युक्त्वा विहिते चैव तस्मिं-
स्ततो ययौ साऽऽश्रमं कौशिकस्य ॥ ४२ ॥
मूलम्
वनाच्च वायुः सुरभिः प्रवायात्
तस्मिन् काले तमृषिं लोभयन्त्याः।
तथेत्युक्त्वा विहिते चैव तस्मिं-
स्ततो ययौ साऽऽश्रमं कौशिकस्य ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मैं ऋषिको लुभाने लगूँ, उस समय वनसे सुगन्धभरी वायु चलनी चाहिये। ‘तथास्तु’ कहकर इन्द्रने जब इस प्रकारकी व्यवस्था कर दी, तब मेनका विश्वामित्र मुनिके आश्रमपर गयी॥४२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ५७ श्लोक हैं)
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दुष्यन्तके पिताके ‘इलिल’ और ‘ईलिन’ दोनों ही नाम मिलते हैं। ↩︎