श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तपोवन और कण्वके आश्रमका वर्णन तथा राजा दुष्यन्तका उस आश्रममें प्रवेश
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मृगसहस्राणि हत्वा सबलवाहनः।
राजा मृगप्रसङ्गेन वनमन्यद् विवेश ह ॥ १ ॥
मूलम्
ततो मृगसहस्राणि हत्वा सबलवाहनः।
राजा मृगप्रसङ्गेन वनमन्यद् विवेश ह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर सेना और सवारियोंके साथ राजा दुष्यन्तने सहस्रों हिंसक पशुओंका वध करके एक हिंसक पशुका ही पीछा करते हुए दूसरे वनमें प्रवेश किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एवोत्तमबलः क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः ।
स वनस्यान्तमासाद्य महच्छून्यं समासदत् ॥ २ ॥
मूलम्
एक एवोत्तमबलः क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः ।
स वनस्यान्तमासाद्य महच्छून्यं समासदत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उत्तम बलसे युक्त महाराज दुष्यन्त अकेले ही थे तथा भूख, प्यास और थकावटसे शिथिल हो रहे थे। उस वनके दूसरे छोरमें पहुँचनेपर उन्हें एक बहुत बड़ा ऊसर मैदान मिला, जहाँ वृक्ष आदि नहीं थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चाप्यतीत्य नृपतिरुत्तमाश्रमसंयुतम् ।
मनःप्रह्लादजननं दृष्टिकान्तमतीव च ॥ ३ ॥
शीतमारुतसंयुक्तं जगामान्यन्महद् वनम् ।
पुष्पितैः पादपैः कीर्णमतीव सुखशाद्वलम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तच्चाप्यतीत्य नृपतिरुत्तमाश्रमसंयुतम् ।
मनःप्रह्लादजननं दृष्टिकान्तमतीव च ॥ ३ ॥
शीतमारुतसंयुक्तं जगामान्यन्महद् वनम् ।
पुष्पितैः पादपैः कीर्णमतीव सुखशाद्वलम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वृक्षशून्य ऊसर भूमिको लाँघकर महाराज दुष्यन्त दूसरे विशालवनमें जा पहुँचे, जो अनेक उत्तम आश्रमोंसे सुशोभित था। देखनेमें अत्यन्त सुन्दर होनेके साथ ही वह मनमें अद्भुत आनन्दोल्लासकी सृष्टि कर रहा था। उस वनमें शीतल वायु चल रही थी। वहाँके वृक्ष फूलोंसे भरे थे और वनमें सब ओर व्याप्त हो उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ अत्यन्त सुखद हरी-हरी कोमल घास उगी हुई थी॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विपुलं मधुरारावैर्नादितं विहगैस्तथा ।
पुंस्कोकिलनिनादैश्च झिल्लीकगणनादितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
विपुलं मधुरारावैर्नादितं विहगैस्तथा ।
पुंस्कोकिलनिनादैश्च झिल्लीकगणनादितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह वन बहुत बड़ा था और मीठी बोली बोलनेवाले विविध विहंगमोंके कलरवोंसे गूँज रहा था। उसमें कहीं कोकिलोंकी कुहू-कुहू सुन पड़ती थी तो कहीं झींगुरोंकी झीनी झनकार गूँज रही थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृद्धविटपैर्वृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् ।
षट्पदाघूर्णिततलं लक्ष्म्या परमया युतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रवृद्धविटपैर्वृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् ।
षट्पदाघूर्णिततलं लक्ष्म्या परमया युतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सब ओर बड़ी-बड़ी शाखाओंवाले विशाल वृक्ष अपनी सुखद शीतल छाया किये हुए थे और उन वृक्षोंके नीचे सब ओर भ्रमर मँड़रा रहे थे। इस प्रकार वहाँ सर्वत्र बड़ी भारी शोभा छा रही थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापुष्पः पादपः कश्चिन्नाफलो नापि कण्टकी।
षट्पदैर्नाप्यपाकीर्णस्तस्मिन् वै काननेऽभवत् ॥ ७ ॥
मूलम्
नापुष्पः पादपः कश्चिन्नाफलो नापि कण्टकी।
षट्पदैर्नाप्यपाकीर्णस्तस्मिन् वै काननेऽभवत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था, जिसमें फूल और फल न लगे हों तथा भौंरे न बैठे हों। काँटेदार वृक्ष तो वहाँ ढूँढ़नेपर भी नहीं मिलता था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विहगैर्नादितं पुष्पैरलंकृतमतीव च ।
सर्वर्तुकुसुमैर्वृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् ॥ ८ ॥
मूलम्
विहगैर्नादितं पुष्पैरलंकृतमतीव च ।
सर्वर्तुकुसुमैर्वृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओर अनेकानेक पक्षी चहक रहे थे। भाँति-भाँतिके पुष्प उस वनकी अत्यन्त शोभा बढ़ा रहे थे। सभी ऋतुओंमें फूल देनेवाले सुखद छायायुक्त वृक्ष वहाँ चारों ओर फैले हुए थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोरमं महेष्वासो विवेश वनमुत्तमम्।
मारुताकलितास्तत्र द्रुमाः कुसुमशाखिनः ॥ ९ ॥
पुष्पवृष्टिं विचित्रां तु व्यसृजंस्ते पुनः पुनः।
दिवःस्पृशोऽथ संघुष्टाः पक्षिभिर्मधुरस्वनैः ॥ १० ॥
मूलम्
मनोरमं महेष्वासो विवेश वनमुत्तमम्।
मारुताकलितास्तत्र द्रुमाः कुसुमशाखिनः ॥ ९ ॥
पुष्पवृष्टिं विचित्रां तु व्यसृजंस्ते पुनः पुनः।
दिवःस्पृशोऽथ संघुष्टाः पक्षिभिर्मधुरस्वनैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् धनुर्धर राजा दुष्यन्तने इस प्रकार मनको मोह लेनेवाले उस उत्तम वनमें प्रवेश किया। उस समय फूलोंसे भरी हुई डालियोंवाले वृक्ष वायुके झकोरोंसे हिल-हिलकर उनके ऊपर बार-बार अद्भुत पुष्प-वर्षा करने लगे। वे वृक्ष इतने ऊँचे थे, मानो आकाशको छू लेंगे। उनपर बैठे हुए मीठी बोली बोलनेवाले पक्षियोंके मधुर शब्द वहाँ गूँज रहे थे॥९—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरेजुः पादपास्तत्र विचित्रकुसुमाम्बराः ।
तेषां तत्र प्रवालेषु पुष्पभारावनामिषु ॥ ११ ॥
रुवन्ति रावान् मधुरान् षट्पदा मधुलिप्सवः।
तत्र प्रदेशांश्च बहून् कुसुमोत्करमण्डितान् ॥ १२ ॥
लतागृहपरिक्षिप्तान् मनसः प्रीतिवर्धनान् ।
सम्पश्यन् सुमहातेजा बभूव मुदितस्तदा ॥ १३ ॥
मूलम्
विरेजुः पादपास्तत्र विचित्रकुसुमाम्बराः ।
तेषां तत्र प्रवालेषु पुष्पभारावनामिषु ॥ ११ ॥
रुवन्ति रावान् मधुरान् षट्पदा मधुलिप्सवः।
तत्र प्रदेशांश्च बहून् कुसुमोत्करमण्डितान् ॥ १२ ॥
लतागृहपरिक्षिप्तान् मनसः प्रीतिवर्धनान् ।
सम्पश्यन् सुमहातेजा बभूव मुदितस्तदा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें पुष्परूपी विचित्र वस्त्र धारण करनेवाले वृक्ष अद्भुत शोभा पा रहे थे। फूलोंके भारसे झुके हुए उनके कोमल पल्लवोंपर बैठे हुए मधुलोभी भ्रमर मधुर गुंजार कर रहे थे। राजा दुष्यन्तने वहाँ बहुत-से ऐसे रमणीय प्रदेश देखे जो फूलोंके ढेरसे सुशोभित तथा लतामण्डपोंसे अलंकृत थे। मनकी प्रसन्नताको बढ़ानेवाले उन मनोहर प्रदेशोंका अवलोकन करके उस समय महातेजस्वी राजाको बड़ा हर्ष हुआ॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्पराश्लिष्टशाखैः पादपैः कुसुमान्वितैः ।
अशोभत वनं तत् तु महेन्द्रध्वजसंनिभैः ॥ १४ ॥
मूलम्
परस्पराश्लिष्टशाखैः पादपैः कुसुमान्वितैः ।
अशोभत वनं तत् तु महेन्द्रध्वजसंनिभैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फूलोंसे लदे हुए वृक्ष एक-दूसरेसे अपनी डालियोंको सटाकर मानो गले मिल रहे थे। वे गगनचुम्बी वृक्ष इन्द्रकी ध्वजाके समान जान पड़ते थे और उनके कारण उस वनकी बड़ी शोभा हो रही थी॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धचारणसंघैश्च गन्धर्वाप्सरसां गणैः ।
सेवितं वनमत्यर्थं मत्तवानरकिन्नरम् ॥ १५ ॥
मूलम्
सिद्धचारणसंघैश्च गन्धर्वाप्सरसां गणैः ।
सेवितं वनमत्यर्थं मत्तवानरकिन्नरम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिद्ध-चारणसमुदाय तथा गन्धर्व और अप्सराओंके समूह भी उस वनका अत्यन्त सेवन करते थे। वहाँ मतवाले वानर और किन्नर निवास करते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखः शीतः सुगन्धी च पुष्परेणुवहोऽनिलः।
परिक्रामन् वने वृक्षानुपैतीव रिरंसया ॥ १६ ॥
मूलम्
सुखः शीतः सुगन्धी च पुष्परेणुवहोऽनिलः।
परिक्रामन् वने वृक्षानुपैतीव रिरंसया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें शीतल, सुगन्ध, सुखदायिनी मन्द वायु फूलोंके पराग वहन करती हुई मानो रमणकी इच्छासे बार-बार वृक्षोंके समीप आती थी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंगुणसमायुक्तं ददर्श स वनं नृपः।
नदीकच्छोद्भवं कान्तमुच्छ्रितध्वजसंनिभम् ॥ १७ ॥
मूलम्
एवंगुणसमायुक्तं ददर्श स वनं नृपः।
नदीकच्छोद्भवं कान्तमुच्छ्रितध्वजसंनिभम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह वन मालिनी नदीके कछारमें फैला हुआ था और ऊँची ध्वजाओंके समान ऊँचे वृक्षोंसे भरा होनेके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। राजाने इस प्रकार उत्तम गुणोंसे युक्त उस वनका भलीभाँति अवलोकन किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेक्षमाणो वनं तत् तु सुप्रहृष्टविहङ्गमम्।
आश्रमप्रवरं रम्यं ददर्श च मनोरमम् ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रेक्षमाणो वनं तत् तु सुप्रहृष्टविहङ्गमम्।
आश्रमप्रवरं रम्यं ददर्श च मनोरमम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार राजा अभी वनकी शोभा देख ही रहे थे कि उनकी दृष्टि एक उत्तम आश्रमपर पड़ी, जो अत्यन्त रमणीय और मनोरम था। वहाँ बहुत-से पक्षी हर्षोल्लासमें भरकर चहक रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानावृक्षसमाकीर्णं सम्प्रज्वलितपावकम् ।
तं तदाप्रतिमं श्रीमानाश्रमं प्रत्यपूजयत् ॥ १९ ॥
मूलम्
नानावृक्षसमाकीर्णं सम्प्रज्वलितपावकम् ।
तं तदाप्रतिमं श्रीमानाश्रमं प्रत्यपूजयत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारके वृक्षोंसे भरपूर उस वनमें स्थान-स्थानपर अग्निहोत्रकी आग प्रज्वलित हो रही थी। इस प्रकार उस अनुपम आश्रमका श्रीमान् दुष्यन्त नरेशने मन-ही-मन बड़ा सम्मान किया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतिभिर्वालखिल्यैश्च वृतं मुनिगणान्वितम् ।
अग्न्यगारैश्च बहुभिः पुष्पसंस्तरसंस्तृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
यतिभिर्वालखिल्यैश्च वृतं मुनिगणान्वितम् ।
अग्न्यगारैश्च बहुभिः पुष्पसंस्तरसंस्तृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ बहुत-से त्यागी विरागी यति, बालखिल्य ऋषि तथा अन्य मुनिगण निवास करते थे। अनेकानेक अग्निहोत्रगृह उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ इतने फूल झड़कर गिरे थे कि उनके बिछौने-से बिछ गये थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाकच्छैर्बृहद्भिश्च विभ्राजितमतीव च ।
मालिनीमभितो राजन् नदीं पुण्यां सुखोदकाम् ॥ २१ ॥
मूलम्
महाकच्छैर्बृहद्भिश्च विभ्राजितमतीव च ।
मालिनीमभितो राजन् नदीं पुण्यां सुखोदकाम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े तूनके वृक्षोंसे उस आश्रमकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी। राजन्! बीचमें पुण्यसलिला मालिनी नदी बहती थी, जिसका जल बड़ा ही सुखद एवं स्वादिष्ट था। उसके दोनों तटोंपर वह आश्रम फैला हुआ था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैकपक्षिगणाकीर्णां तपोवनमनोरमाम् ।
तत्र व्यालमृगान् सौम्यान् पश्यन् प्रीतिमवाप सः ॥ २२ ॥
मूलम्
नैकपक्षिगणाकीर्णां तपोवनमनोरमाम् ।
तत्र व्यालमृगान् सौम्यान् पश्यन् प्रीतिमवाप सः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मालिनीमें अनेक प्रकारके जलपक्षी निवास करते थे तथा तटवर्ती तपोवनके कारण उसकी मनोहरता और बढ़ गयी थी। वहाँ विषधर सर्प और हिंसक वनजन्तु भी सौम्यभाव (हिंसाशून्य कोमलवृत्ति)-से रहते थे। यह सब देखकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चाप्रतिरथः श्रीमानाश्रमं प्रत्यपद्यत।
देवलोकप्रतीकाशं सर्वतः सुमनोहरम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तं चाप्रतिरथः श्रीमानाश्रमं प्रत्यपद्यत।
देवलोकप्रतीकाशं सर्वतः सुमनोहरम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमान् दुष्यन्त नरेश अप्रतिरथ वीर थे—उस समय उनकी समानता करनेवाला भूमण्डलमें दूसरा कोई रथी योद्धा नहीं था। वे उक्त आश्रमके समीप जा पहुँचे, जो देवताओंके लोक-सा प्रतीत होता था। वह आश्रम सब ओरसे अत्यन्त मनोहर था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीं चाश्रमसंश्लिष्टां पुण्यतोयां ददर्श सः।
सर्वप्राणभृतां तत्र जननीमिव धिष्ठिताम् ॥ २४ ॥
मूलम्
नदीं चाश्रमसंश्लिष्टां पुण्यतोयां ददर्श सः।
सर्वप्राणभृतां तत्र जननीमिव धिष्ठिताम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने आश्रमसे सटकर बहनेवाली पुण्यसलिला मालिनी नदीकी ओर भी दृष्टिपात किया; जो वहाँ समस्त प्राणियोंकी जननी-सी विराज रही थी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचक्रवाकपुलिनां पुष्पफेनप्रवाहिनीम् ।
सकिन्नरगणावासां वानरर्क्षनिषेविताम् ॥ २५ ॥
मूलम्
सचक्रवाकपुलिनां पुष्पफेनप्रवाहिनीम् ।
सकिन्नरगणावासां वानरर्क्षनिषेविताम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके तटपर चकवा-चकई किलोल कर रहे थे। नदीके जलमें बहुत-से फूल इस प्रकार बह रहे थे, मानो फेन हों। उसके तटप्रान्तमें किन्नरोंके निवास-स्थान थे। वानर और रीछ भी उस नदीका सेवन करते थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यस्वाध्यायसंघुष्टां पुलिनैरुपशोभिताम् ।
मत्तवारणशार्दूलभुजगेन्द्रनिषेविताम् ॥ २६ ॥
मूलम्
पुण्यस्वाध्यायसंघुष्टां पुलिनैरुपशोभिताम् ।
मत्तवारणशार्दूलभुजगेन्द्रनिषेविताम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेक सुन्दर पुलिन मालिनीकी शोभा बढ़ा रहे थे। वेद-शास्त्रोंके पवित्र स्वाध्यायकी ध्वनिसे उस सरिताका निकटवर्ती प्रदेश गूँज रहा था। मतवाले हाथी, सिंह और बड़े-बड़े सर्प भी मालिनीके तटका आश्रय लेकर रहते थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्तीरे भगवतः काश्यपस्य महात्मनः।
आश्रमप्रवरं रम्यं महर्षिगणसेवितम् ॥ २७ ॥
मूलम्
तस्यास्तीरे भगवतः काश्यपस्य महात्मनः।
आश्रमप्रवरं रम्यं महर्षिगणसेवितम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके तटपर ही कश्यपगोत्रीय महात्मा कण्वका वह उत्तम एवं रमणीय आश्रम था। वहाँ महर्षियोंके समुदाय निवास करते थे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीमाश्रमसम्बद्धां दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं तथा ।
चकाराभिप्रवेशाय मतिं स नृपतिस्तदा ॥ २८ ॥
मूलम्
नदीमाश्रमसम्बद्धां दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं तथा ।
चकाराभिप्रवेशाय मतिं स नृपतिस्तदा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मनोहर आश्रम और आश्रमसे सटी हुई नदीको देखकर राजाने उस समय उसमें प्रवेश करनेका विचार किया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलंकृतं द्वीपवत्या मालिन्या रम्यतीरया।
नरनारायणस्थानं गङ्गयेवोपशोभितम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अलंकृतं द्वीपवत्या मालिन्या रम्यतीरया।
नरनारायणस्थानं गङ्गयेवोपशोभितम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
टापुओंसे युक्त तथा सुरम्य तटवाली मालिनी नदीसे सुशोभित वह आश्रम गंगा नदीसे शोभायमान भगवान् नर-नारायणके आश्रम-सा जान पड़ता था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तबर्हिणसंघुष्टं प्रविवेश महद् वनम्।
तत् स चैत्ररथप्रख्यं समुपेत्य नरर्षभः ॥ ३० ॥
अतीवगुणसम्पन्नमनिर्देश्यं च वर्चसा ।
महर्षिं काश्यपं द्रष्टुमथ कण्वं तपोधनम् ॥ ३१ ॥
ध्वजिनीमश्वसम्बाधां पदातिगजसंकुलाम् ।
अवस्थाप्य वनद्वारि सेनामिदमुवाच सः ॥ ३२ ॥
मूलम्
मत्तबर्हिणसंघुष्टं प्रविवेश महद् वनम्।
तत् स चैत्ररथप्रख्यं समुपेत्य नरर्षभः ॥ ३० ॥
अतीवगुणसम्पन्नमनिर्देश्यं च वर्चसा ।
महर्षिं काश्यपं द्रष्टुमथ कण्वं तपोधनम् ॥ ३१ ॥
ध्वजिनीमश्वसम्बाधां पदातिगजसंकुलाम् ।
अवस्थाप्य वनद्वारि सेनामिदमुवाच सः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर नरश्रेष्ठ दुष्यन्तने अत्यन्त उत्तम गुणोंसे सम्पन्न कश्यपगोत्रीय महर्षि तपोधन कण्वका, जिनके तेजका वाणीद्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता था, दर्शन करनेके लिये कुबेरके चैत्ररथवनके समान मनोहर उस महान् वनमें प्रवेश किया, जहाँ मतवाले मयूर अपनी केकाध्वनि फैला रहे थे। वहाँ पहुँचकर नरेशने रथ, घोड़े, हाथी और पैदलोंसे भरी हुई अपनी चतुरंगिणी सेनाको उस तपोवनके किनारे ठहरा दिया और कहा—॥३०—३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिं विरजसं द्रष्टुं गमिष्यामि तपोधनम्।
काश्यपं स्थीयतामत्र यावदागमनं मम ॥ ३३ ॥
मूलम्
मुनिं विरजसं द्रष्टुं गमिष्यामि तपोधनम्।
काश्यपं स्थीयतामत्र यावदागमनं मम ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सेनापति! और सैनिको! मैं रजोगुणरहित तपस्वी महर्षि कश्यपनन्दन कण्वका दर्शन करनेके लिये उनके आश्रममें जाऊँगा। जबतक मैं वहाँसे लौट न आऊँ, तबतक तुमलोग यहीं ठहरो’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् वनं नन्दनप्रख्यमासाद्य मनुजेश्वरः।
क्षुत्पिपासे जहौ राजा मुदं चावाप पुष्कलाम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
तद् वनं नन्दनप्रख्यमासाद्य मनुजेश्वरः।
क्षुत्पिपासे जहौ राजा मुदं चावाप पुष्कलाम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आदेश दे नरेश्वर दुष्यन्तने नन्दनवनके समान सुशोभित उस तपोवनमें पहुँचकर भूख-प्यासको भुला दिया। वहाँ उन्हें बड़ा आनन्द मिला॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामात्यो राजलिङ्गानि सोऽपनीय नराधिपः।
पुरोहितसहायश्च जगामाश्रममुत्तमम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
सामात्यो राजलिङ्गानि सोऽपनीय नराधिपः।
पुरोहितसहायश्च जगामाश्रममुत्तमम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे नरेश मुकुट आदि राजचिह्नोंको हटाकर साधारण वेश-भूषामें मन्त्रियों और पुरोहितके साथ उस उत्तम आश्रमके भीतर गये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिदृक्षुस्तत्र तमृषिं तपोराशिमथाव्ययम् ।
ब्रह्मलोकप्रतीकाशमाश्रमं सोऽभिवीक्ष्य ह ।
षट्पदोद्गीतसंघुष्टं नानाद्विजगणायुतम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
दिदृक्षुस्तत्र तमृषिं तपोराशिमथाव्ययम् ।
ब्रह्मलोकप्रतीकाशमाश्रमं सोऽभिवीक्ष्य ह ।
षट्पदोद्गीतसंघुष्टं नानाद्विजगणायुतम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ ये तपस्याके भण्डार अविकारी महर्षि कण्वका दर्शन करना चाहते थे। राजाने उस आश्रमको देखा, मानो दूसरा ब्रह्मलोक हो। नाना प्रकारके पक्षी वहाँ कलरव कर रहे थे। भ्रमरोंके गुंजनसे सारा आश्रम गूँज रहा था॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋचो बह्वृचमुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।
शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु ॥ ३७ ॥
मूलम्
ऋचो बह्वृचमुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।
शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ ऋग्वेदी ब्राह्मण पद और क्रमपूर्वक ऋचाओंका पाठ कर रहे थे। नरश्रेष्ठ दुष्यन्तने अनेक प्रकारके यज्ञसम्बन्धी कर्मोंमें पढ़ी जाती हुई वैदिक ऋचाओंको सुना॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञविद्याङ्गविद्भिश्च यजुर्विद्भिश्च शोभितम् ।
मधुरैः सामगीतैश्च ऋषिभिर्नियतव्रतैः ॥ ३८ ॥
भारुण्डसामगीताभिरथर्वशिरसोद्गतैः ।
यतात्मभिः सुनियतैः शुशुभे स तदाश्रमः ॥ ३९ ॥
मूलम्
यज्ञविद्याङ्गविद्भिश्च यजुर्विद्भिश्च शोभितम् ।
मधुरैः सामगीतैश्च ऋषिभिर्नियतव्रतैः ॥ ३८ ॥
भारुण्डसामगीताभिरथर्वशिरसोद्गतैः ।
यतात्मभिः सुनियतैः शुशुभे स तदाश्रमः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञविद्या और उसके अंगोंकी जानकारी रखनेवाले यजुर्वेदी विद्वान् भी आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। नियमपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले सामवेदी महर्षियोंद्वारा वहाँ मधुरस्वरसे सामवेदका गान किया जा रहा था। मनको संयममें रखकर नियमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सामवेदी और अथर्ववेदी महर्षि भारुण्डसंज्ञक साममन्त्रोंके गीत गाते और अथर्ववेदके मन्त्रोंका उच्चारण करते थे; जिससे उस आश्रमकी बड़ी शोभा होती थी॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्ववेदप्रवराः पूगयज्ञियसामगाः ।
संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते ॥ ४० ॥
मूलम्
अथर्ववेदप्रवराः पूगयज्ञियसामगाः ।
संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ अथर्ववेदीय विद्वान् तथा पूगयज्ञिय नामक सामके गायक सामवेदी महर्षि पद और क्रमसहित अपनी-अपनी संहिताका पाठ करते थे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दसंस्कारसंयुक्तैर्ब्रुवद्भिश्चापरैर्द्विजैः ।
नादितः स बभौ श्रीमान् ब्रह्मलोक इवापरः ॥ ४१ ॥
मूलम्
शब्दसंस्कारसंयुक्तैर्ब्रुवद्भिश्चापरैर्द्विजैः ।
नादितः स बभौ श्रीमान् ब्रह्मलोक इवापरः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे द्विजबालक शब्द-संस्कारसे सम्पन्न थे—वे स्थान, करण और प्रयत्नका ध्यान रखते हुए संस्कृतवाक्योंका उच्चारण कर रहे थे। इन सबके तुमुल शब्दोंसे गूँजता हुआ वह सुन्दर आश्रम द्वितीय ब्रह्मलोकके समान सुशोभित होता था॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञसंस्तरविद्भिश्च क्रमशिक्षाविशारदैः ।
न्यायतत्त्वात्मविज्ञानसम्पन्नैर्वेदपारगैः ॥ ४२ ॥
नानावाक्यसमाहारसमवायविशारदैः ।
विशेषकार्यविद्भिश्च मोक्षधर्मपरायणैः ॥ ४३ ॥
स्थापनाक्षेपसिद्धान्तपरमार्थज्ञतां गतैः ।
शब्दच्छन्दोनिरुक्तज्ञैः कालज्ञानविशारदैः ॥ ४४ ॥
द्रव्यकर्मगुणज्ञैश्च कार्यकारणवेदिभिः ।
पक्षिवानररुतज्ञैश्च व्यासग्रन्थसमाश्रितैः ॥ ४५ ॥
नानाशास्त्रेषु मुख्यैश्च शुश्राव स्वनमीरितम्।
लोकायतिकमुख्यैश्च समन्तादनुनादितम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
यज्ञसंस्तरविद्भिश्च क्रमशिक्षाविशारदैः ।
न्यायतत्त्वात्मविज्ञानसम्पन्नैर्वेदपारगैः ॥ ४२ ॥
नानावाक्यसमाहारसमवायविशारदैः ।
विशेषकार्यविद्भिश्च मोक्षधर्मपरायणैः ॥ ४३ ॥
स्थापनाक्षेपसिद्धान्तपरमार्थज्ञतां गतैः ।
शब्दच्छन्दोनिरुक्तज्ञैः कालज्ञानविशारदैः ॥ ४४ ॥
द्रव्यकर्मगुणज्ञैश्च कार्यकारणवेदिभिः ।
पक्षिवानररुतज्ञैश्च व्यासग्रन्थसमाश्रितैः ॥ ४५ ॥
नानाशास्त्रेषु मुख्यैश्च शुश्राव स्वनमीरितम्।
लोकायतिकमुख्यैश्च समन्तादनुनादितम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञवेदीकी रचनाके ज्ञाता, क्रम और शिक्षामें कुशल, न्यायके तत्त्व और आत्मानुभवसे सम्पन्न, वेदोंके पारंगत, परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक वाक्योंकी एकवाक्यता करनेमें कुशल तथा विभिन्न शाखाओंकी गुणविधियोंका एक शाखामें उपसंहार करनेकी कलामें निपुण, उपासना आदि विशेषकार्योंके ज्ञाता, मोक्षधर्ममें तत्पर, अपने सिद्धान्तकी स्थापना करके उसमें शंका उठाकर उसके परिहारपूर्वक उस सिद्धान्तके समर्थनमें परम प्रवीण, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष तथा शिक्षा और कल्प—वेदके इन छहों अंगोंके विद्वान्, पदार्थ, शुभाशुभ कर्म, सत्त्व, रज, तम आदि गुणोंको जाननेवाले तथा कार्य (दृश्यवर्ग) और कारण (मूल प्रकृति)-के ज्ञाता, पशु-पक्षियोंकी बोली समझनेवाले, व्यासग्रन्थका आश्रय लेकर मन्त्रोंकी व्याख्या करनेवाले तथा विभिन्न शास्त्रोंके प्रमुख विद्वान् वहाँ रहकर जो शब्दोच्चारण कर रहे थे, उन सबको राजा दुष्यन्तने सुना। कुछ लोकरंजन करनेवाले लोगोंकी बातें भी उस आश्रममें चारों ओर सुनायी पड़ती थीं॥४२—४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र च विप्रेन्द्रान् नियतान् संशितव्रतान्।
जपहोमपरान् विप्रान् ददर्श परवीरहा ॥ ४७ ॥
मूलम्
तत्र तत्र च विप्रेन्द्रान् नियतान् संशितव्रतान्।
जपहोमपरान् विप्रान् ददर्श परवीरहा ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले दुष्यन्तने स्थान-स्थानपर नियमपूर्वक उत्तम एवं कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान् ब्राह्मणोंको जप और होममें लगे हुए देखा॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसनानि विचित्राणि रुचिराणि महीपतिः।
प्रयत्नोपहितानि स्म दृष्ट्वा विस्मयमागमत् ॥ ४८ ॥
मूलम्
आसनानि विचित्राणि रुचिराणि महीपतिः।
प्रयत्नोपहितानि स्म दृष्ट्वा विस्मयमागमत् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ प्रयत्नपूर्वक तैयार किये हुए बहुत सुन्दर एवं विचित्र आसन देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतायतनानां च प्रेक्ष्य पूजां कृतां द्विजैः।
ब्रह्मलोकस्थमात्मानं मेने स नृपसत्तमः ॥ ४९ ॥
मूलम्
देवतायतनानां च प्रेक्ष्य पूजां कृतां द्विजैः।
ब्रह्मलोकस्थमात्मानं मेने स नृपसत्तमः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजोंद्वारा की हुई देवालयोंकी पूजा-पद्धति देखकर नृपश्रेष्ठ दुष्यन्तने ऐसा समझा कि मैं ब्रह्मलोकमें आ पहुँचा हूँ॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स काश्यपतपोगुप्तमाश्रमप्रवरं शुभम् ।
नातृप्यत् प्रेक्षमाणो वै तपोवनगुणैर्युतम् ॥ ५० ॥
मूलम्
स काश्यपतपोगुप्तमाश्रमप्रवरं शुभम् ।
नातृप्यत् प्रेक्षमाणो वै तपोवनगुणैर्युतम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह श्रेष्ठ एवं शुभ आश्रम कश्यपनन्दन महर्षि कण्वकी तपस्यासे सुरक्षित तथा तपोवनके उत्तम गुणोंसे संयुक्त था। राजा उसे देखकर तृप्त नहीं होते थे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स काश्यपस्यायतनं महाव्रतै-
र्वृतं समन्तादृषिभिस्तपोधनैः ।
विवेश सामात्यपुरोहितोऽरिहा
विविक्तमत्यर्थमनोहरं शुभम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
स काश्यपस्यायतनं महाव्रतै-
र्वृतं समन्तादृषिभिस्तपोधनैः ।
विवेश सामात्यपुरोहितोऽरिहा
विविक्तमत्यर्थमनोहरं शुभम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि कण्वका वह आश्रम, जिसमें वे स्वयं रहते थे, सब ओरसे महान् व्रतका पालन करनेवाले तपस्वी महर्षियोंद्वारा घिरा हुआ था। वह अत्यन्त मनोहर, मंगलमय और एकान्त स्थान था। शत्रुनाशक राजा दुष्यन्तने मन्त्री और पुरोहितके साथ उसकी सीमामें प्रवेश किया॥५१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७०॥