०६८ दुष्यन्तराज्यवर्णनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अष्टषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा दुष्यन्तकी अद्‌भुत शक्ति तथा राज्यशासनकी क्षमताका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तः श्रुतमिदं ब्रह्मन् देवदानवरक्षसाम्।
अंशावतरणं सम्यग् गन्धर्वाप्सरसां तथा ॥ १ ॥

मूलम्

त्वत्तः श्रुतमिदं ब्रह्मन् देवदानवरक्षसाम्।
अंशावतरणं सम्यग् गन्धर्वाप्सरसां तथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय बोले— ब्रह्मन्! मैंने आपके मुखसे देवता, दानव, राक्षस, गन्धर्व तथा अप्सराओंके अंशावतरणका वर्णन अच्छी तरह सुन लिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं तु भूय इच्छामि कुरूणां वंशमादितः।
कथ्यमानं त्वया विप्र विप्रर्षिगणसंनिधौ ॥ २ ॥

मूलम्

इमं तु भूय इच्छामि कुरूणां वंशमादितः।
कथ्यमानं त्वया विप्र विप्रर्षिगणसंनिधौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! अब इन ब्रह्मर्षियोंके समीप आपके द्वारा वर्णित कुरुवंशका वृत्तान्त पुनः आदिसे ही सुनना चाहता हूँ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरवाणां वंशकरो दुष्यन्तो नाम वीर्यवान्।
पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम ॥ ३ ॥

मूलम्

पौरवाणां वंशकरो दुष्यन्तो नाम वीर्यवान्।
पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— भरतवंशशिरोमणे! पूरुवंशका विस्तार करनेवाले एक राजा हो गये हैं, जिनका नाम था दुष्यन्त। वे महान् पराक्रमी तथा चारों समुद्रोंसे घिरी हुई समूची पृथ्वीके पालक थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भागं भुवः कृत्स्नं यो भुङ्क्ते मनुजेश्वरः।
समुद्रावरणांश्चापि देशान् स समितिंजयः ॥ ४ ॥
आम्लेच्छावधिकान् सर्वान् स भुङ्क्ते रिपुमर्दनः।
रत्नाकरसमुद्रान्तांश्चातुर्वर्ण्यजनावृतान् ॥ ५ ॥

मूलम्

चतुर्भागं भुवः कृत्स्नं यो भुङ्क्ते मनुजेश्वरः।
समुद्रावरणांश्चापि देशान् स समितिंजयः ॥ ४ ॥
आम्लेच्छावधिकान् सर्वान् स भुङ्क्ते रिपुमर्दनः।
रत्नाकरसमुद्रान्तांश्चातुर्वर्ण्यजनावृतान् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दुष्यन्त पृथ्वीके चारों भागोंका तथा समुद्रसे आवृत सम्पूर्ण देशोंका भी पूर्णरूपसे पालन करते थे। उन्होंने अनेक युद्धोंमें विजय पायी थी। रत्नाकर समुद्रतक फैले हुए, चारों वर्णके लोगोंसे भरे-पूरे तथा म्लेच्छ देशकी सीमासे मिले-जुले सम्पूर्ण भूभागोंका वे शत्रुमर्दन नरेश अकेले ही शासन तथा संरक्षण करते थे॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वर्णसंकरकरो न कृष्याकरकृज्जनः।
न पापकृत् कश्चिदासीत् तस्मिन् राजनि शासति ॥ ६ ॥

मूलम्

न वर्णसंकरकरो न कृष्याकरकृज्जनः।
न पापकृत् कश्चिदासीत् तस्मिन् राजनि शासति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राजाके शासनकालमें कोई मनुष्य वर्णसंकर संतान उत्पन्न नहीं करता था; पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अनाज पैदा करती थी और सारी भूमि ही रत्नोंकी खान बनी हुई थी, इसलिये कोई भी खेती करने या रत्नोंकी खानका पता लगानेकी चेष्टा नहीं करता था। पाप करनेवाला तो उस राज्यमें कोई था ही नहीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मे रतिं सेवमाना धर्मार्थावभिपेदिरे।
तदा नरा नरव्याघ्र तस्मिञ्जनपदेश्वरे ॥ ७ ॥
नासीच्चौरभयं तात न क्षुधाभयमण्वपि।
नासीद् व्याधिभयं चापि तस्मिञ्जनपदेश्वरे ॥ ८ ॥

मूलम्

धर्मे रतिं सेवमाना धर्मार्थावभिपेदिरे।
तदा नरा नरव्याघ्र तस्मिञ्जनपदेश्वरे ॥ ७ ॥
नासीच्चौरभयं तात न क्षुधाभयमण्वपि।
नासीद् व्याधिभयं चापि तस्मिञ्जनपदेश्वरे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! सभी लोग धर्ममें अनुराग रखते और उसीका सेवन करते थे। अतः धर्म और अर्थ दोनों ही उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाते थे। तात! राजा दुष्यन्त जब इस देशके शासक थे, उस समय कहीं चोरोंका भय नहीं था। भूखका भय तो नाममात्रको भी नहीं था। इस देशपर दुष्यन्तके शासनकालमें रोग-व्याधिका डर तो बिलकुल ही नहीं रह गया था॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मे रेमिरे वर्णा दैवे कर्मणि निःस्पृहाः।
तमाश्रित्य महीपालमासंश्चैवाकुतोभयाः ॥ ९ ॥

मूलम्

स्वधर्मे रेमिरे वर्णा दैवे कर्मणि निःस्पृहाः।
तमाश्रित्य महीपालमासंश्चैवाकुतोभयाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब वर्णोंके लोग अपने-अपने धर्मके पालनमें रत रहते थे। देवाराधन आदि कर्मोंको निष्कामभावसे ही करते थे। राजा दुष्यन्तका आश्रय लेकर समस्त प्रजा निर्भय हो गयी थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालवर्षी च पर्जन्यः सस्यानि रसवन्ति च।
सर्वरत्नसमृद्धा च मही पशुमती तथा ॥ १० ॥

मूलम्

कालवर्षी च पर्जन्यः सस्यानि रसवन्ति च।
सर्वरत्नसमृद्धा च मही पशुमती तथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघ समयपर पानी बरसाता और अनाज रसयुक्त होते थे। पृथ्वी सब प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न तथा पशु-धनसे परिपूर्ण थी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वकर्मनिरता विप्रा नानृतं तेषु विद्यते।
स चाद्भुतमहावीर्यो वज्रसंहननो युवा ॥ ११ ॥

मूलम्

स्वकर्मनिरता विप्रा नानृतं तेषु विद्यते।
स चाद्भुतमहावीर्यो वज्रसंहननो युवा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोंमें तत्पर थे। उनमें झूठ एवं छल-कपट आदिका अभाव था। राजा दुष्यन्त स्वयं भी नवयुवक थे। उनका शरीर वज्रके सदृश दृढ था। वे अद्‌भुत एवं महान् पराक्रमसे सम्पन्न थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यम्य मन्दरं दोर्भ्यां वहेत् सवनकाननम्।
चतुष्पथगदायुद्धे सर्वप्रहरणेषु च ॥ १२ ॥
नागपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च बभूव परिनिष्ठितः।
बले विष्णुसमश्चासीत् तेजसा भास्करोपमः ॥ १३ ॥

मूलम्

उद्यम्य मन्दरं दोर्भ्यां वहेत् सवनकाननम्।
चतुष्पथगदायुद्धे सर्वप्रहरणेषु च ॥ १२ ॥
नागपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च बभूव परिनिष्ठितः।
बले विष्णुसमश्चासीत् तेजसा भास्करोपमः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने दोनों हाथोंद्वारा उपवनों और काननोंसहित मन्दराचलको उठाकर ले जानेकी शक्ति रखते थे। गदायुद्धके प्रक्षेप1, विक्षेप[^२], परिक्षेप[^३], और अभिक्षेप[^४]—इन चारों प्रकारोंमें कुशल तथा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें अत्यन्त निपुण थे। घोड़े और हाथीकी पीठपर बैठनेकी कलामें वे अत्यन्त प्रवीण थे। बलमें भगवान् विष्णुके समान और तेजमें भगवान् सूर्यके सदृश थे॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षोभ्यत्वेऽर्णवसमः सहिष्णुत्वे धरासमः ।
सम्मतः स महीपालः प्रसन्नपुरराष्ट्रवान् ॥ १४ ॥
भूयो धर्मपरैर्भावैर्मुदितं जनमादिशत् ॥ १५ ॥

मूलम्

अक्षोभ्यत्वेऽर्णवसमः सहिष्णुत्वे धरासमः ।
सम्मतः स महीपालः प्रसन्नपुरराष्ट्रवान् ॥ १४ ॥
भूयो धर्मपरैर्भावैर्मुदितं जनमादिशत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे समुद्रके समान अक्षोभ्य और पृथ्वीके समान सहनशील थे। महाराज दुष्यन्तका सर्वत्र सम्मान था। उनके नगर तथा राष्ट्रके लोग सदा प्रसन्न रहते थे। वे अत्यन्त धर्मयुक्त भावनासे सदा प्रसन्न रहनेवाली प्रजाका शासन करते थे॥१४-१५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥


  1. दूरवर्ती शत्रुपर गदा फेंकना ‘प्रक्षेप’ कहलाता है। [^२]:समीपवर्ती शत्रुपर गदाकी कोटिसे प्रहार करना ‘विक्षेप’ कहा गया है। [^३]:जब शत्रु बहुत हों तो सब ओर गदाको घुमाते हुए शत्रुओंपर उसका प्रहार करना ‘परिक्षेप’ है। [^४]:गदाके अग्रभागसे मारना ‘अभिक्षेप’ कहलाता है। ↩︎