श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुःषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणोंद्वारा क्षत्रियवंशकी उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समयके धार्मिक राज्यका वर्णन; असुरोंका जन्म और उनके भारसे पीड़ित पृथ्वीका ब्रह्माजीकी शरणमें जाना तथा ब्रह्माजीका देवताओंको अपने अंशसे पृथ्वीपर जन्म लेनेका आदेश
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एते कीर्तिता ब्रह्मन् ये चान्ये नानुकीर्तिताः।
सम्यक् ताञ्छ्रोतुमिच्छामि राज्ञश्चान्यान् सहस्रशः ॥ १ ॥
मूलम्
य एते कीर्तिता ब्रह्मन् ये चान्ये नानुकीर्तिताः।
सम्यक् ताञ्छ्रोतुमिच्छामि राज्ञश्चान्यान् सहस्रशः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय बोले— ब्रह्मन्! आपने यहाँ जिन राजाओंके नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशोंके नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओंका मैं भलीभाँति परिचय सुनना चाहता हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थमिह सम्भूता देवकल्पा महारथाः।
भुवि तन्मे महाभाग सम्यगाख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
यदर्थमिह सम्भूता देवकल्पा महारथाः।
भुवि तन्मे महाभाग सम्यगाख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वीपर जिस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत् वर्णन कीजिये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहस्यं खल्विदं राजन् देवानामिति नः श्रुतम्।
तत्तु ते कथयिष्यामि नमस्कृत्य स्वयम्भुवे ॥ ३ ॥
मूलम्
रहस्यं खल्विदं राजन् देवानामिति नः श्रुतम्।
तत्तु ते कथयिष्यामि नमस्कृत्य स्वयम्भुवे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! यह देवताओंका रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। स्वयम्भू ब्रह्माजीको नमस्कार करके आज उसी रहस्यका तुमसे वर्णन करूँगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ॥ ४ ॥
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन् सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः ॥ ५ ॥
मूलम्
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ॥ ४ ॥
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन् सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें जमदग्निनन्दन परशुरामने इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियरहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्रपर तपस्या की थी। उस समय जब भृगुनन्दनने इस लोकको क्षत्रियशून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियोंने पुत्रकी अभिलाषासे ब्राह्मणोंकी शरण ग्रहण की थी॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नररत्न! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकालमें ही उनके साथ मिलते थे; न तो कामवश और न बिना ऋतुकालके ही॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन् क्षत्रियान् वीर्यवत्तरान् ॥ ७ ॥
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
एवं तद् ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः ॥ ८ ॥
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः ॥ ९ ॥
मूलम्
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन् क्षत्रियान् वीर्यवत्तरान् ॥ ७ ॥
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
एवं तद् ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः ॥ ८ ॥
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन सहस्रों क्षत्राणियोंने ब्राह्मणोंसे गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रियकुलकी वृद्धिके लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों तथा कुमारियोंको जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणोंद्वारा क्षत्राणियोंके गर्भसे धर्मपूर्वक क्षत्रिय-संतानकी उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थीं। तदनन्तर जगत्में पुनः ब्राह्मणप्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि ॥ १० ॥
ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत् तथा भरतर्षभ।
ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः ॥ ११ ॥
मूलम्
अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि ॥ १० ॥
ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत् तथा भरतर्षभ।
ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सब लोग ऋतुकालमें ही पत्नीसमागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकालके बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदिकी योनिमें पड़े हुए जीव भी ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रियोंसे संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ! उस समय धर्मका आश्रय लेनेसे सब लोग सहस्र एवं शत वर्षोंतक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः ॥ १२ ॥
मूलम्
ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! उस समयकी प्रजा धर्म एवं व्रतके पालनमें तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओंसे मुक्त रहते थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथेमां सागरापाङ्गीं गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
अध्यतिष्ठत् पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अथेमां सागरापाङ्गीं गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
अध्यतिष्ठत् पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गजराजके समान गमन करनेवाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्रसे घिरी हुई पर्वत, वन और नगरोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर पुनः क्षत्रियजातिका ही अधिकार हो गया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशासति पुनः क्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम् ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रशासति पुनः क्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णोंको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामक्रोधोद्भवान् दोषान् निरस्य च नराधिपाः।
धर्मेण दण्डं दण्ड्येषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन् ॥ १५ ॥
मूलम्
कामक्रोधोद्भवान् दोषान् निरस्य च नराधिपाः।
धर्मेण दण्डं दण्ड्येषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों राजालोग काम और क्रोधजनित दोषोंको दूर करके दण्डनीय अपराधियोंको धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वीका पालन करते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
स्वादु देशे च काले च वर्षेणापालयत् प्रजाः ॥ १६ ॥
मूलम्
तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
स्वादु देशे च काले च वर्षेणापालयत् प्रजाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियोंके शासनमें सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। उस समय सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्र समयपर वर्षा करके प्रजाओंका पालन करते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
न च स्त्रियं प्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनः ॥ १७ ॥
मूलम्
न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
न च स्त्रियं प्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्थामें नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुखका अनुभव नहीं करता था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ ।
इयं सागरपर्यन्ता समापूर्यत मेदिनी ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ ।
इयं सागरपर्यन्ता समापूर्यत मेदिनी ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जानेसे समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकालतक जीवित रहनेवाली प्रजाओंसे भर गयी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
साङ्गोपनिषदान् वेदान् विप्राश्चाधीयते तदा ॥ १९ ॥
मूलम्
ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
साङ्गोपनिषदान् वेदान् विप्राश्चाधीयते तदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियलोग बहुत-सी दक्षिणावाले बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करते थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च विक्रीणते ब्रह्म ब्राह्मणाश्च तदा नृप।
न च शूद्रसमभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत ॥ २० ॥
मूलम्
न च विक्रीणते ब्रह्म ब्राह्मणाश्च तदा नृप।
न च शूद्रसमभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय ब्राह्मण न तो वेदका विक्रय करते और न शूद्रोंके निकट वेदमन्त्रोंका उच्चारण ही करते थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारयन्तः कृषिं गोभिस्तथा वैश्याः क्षिताविह।
युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशाङ्गांश्चाप्यजीवयन् ॥ २१ ॥
मूलम्
कारयन्तः कृषिं गोभिस्तथा वैश्याः क्षिताविह।
युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशाङ्गांश्चाप्यजीवयन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्यगण बैलोंद्वारा इस पृथ्वीपर दूसरोंसे खेती कराते हुए भी स्वयं उनके कंधेपर जुआ नहीं रखते थे—उन्हें बोझ ढोनेमें नहीं लगाते थे और दुर्बल अंगोंवाले निकम्मे पशुओंको भी दाना-घास देकर उनके जीवनकी रक्षा करते थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फेनपांश्च तथा वत्सान् न दुहन्ति स्म मानवाः।
न कूटमानैर्वणिजः पाण्यं विक्रीणते तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
फेनपांश्च तथा वत्सान् न दुहन्ति स्म मानवाः।
न कूटमानैर्वणिजः पाण्यं विक्रीणते तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक बछड़े केवल दूधपर रहते, घास नहीं चरते, तबतक मनुष्य गौओंका दूध नहीं दुहते थे। व्यापारीलोग बेचने योग्य वस्तुओंका झूठे माप-तौलद्वारा विक्रय नहीं करते थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्माणि च नरव्याघ्र धर्मोपेतानि मानवाः।
धर्ममेवानुपश्यन्तश्चक्रुर्धर्मपरायणाः ॥ २३ ॥
मूलम्
कर्माणि च नरव्याघ्र धर्मोपेतानि मानवाः।
धर्ममेवानुपश्यन्तश्चक्रुर्धर्मपरायणाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! सब मनुष्य धर्मकी ही ओर दृष्टि रखकर धर्ममें ही तत्पर हो धर्मयुक्त कर्मोंका ही अनुष्ठान करते थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकर्मनिरताश्चासन् सर्वे वर्णा नराधिप।
एवं तदा नरव्याघ्र धर्मो न ह्रसते क्वचित् ॥ २४ ॥
मूलम्
स्वकर्मनिरताश्चासन् सर्वे वर्णा नराधिप।
एवं तदा नरव्याघ्र धर्मो न ह्रसते क्वचित् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय सब वर्णोंके लोग अपने-अपने कर्मके पालनमें लगे रहते थे। नरश्रेष्ठ! इस प्रकार उस समय कहीं भी धर्मका ह्रास नहीं होता था॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काले गावः प्रसूयन्ते नार्यश्च भरतर्षभ।
भवन्त्यृतुषु वृक्षाणां पुष्पाणि च फलानि च ॥ २५ ॥
मूलम्
काले गावः प्रसूयन्ते नार्यश्च भरतर्षभ।
भवन्त्यृतुषु वृक्षाणां पुष्पाणि च फलानि च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! गौएँ तथा स्त्रियाँ भी ठीक समयपर ही संतान उत्पन्न करती थीं। ऋतु आनेपर ही वृक्षोंमें फूल और फल लगते थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कृतयुगे सम्यग् वर्तमाने तदा नृप।
आपूर्यत मही कृत्स्ना प्राणिभिर्बहुभिर्भृशम् ॥ २६ ॥
मूलम्
एवं कृतयुगे सम्यग् वर्तमाने तदा नृप।
आपूर्यत मही कृत्स्ना प्राणिभिर्बहुभिर्भृशम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इस तरह उस समय सब ओर सत्ययुग छा रहा था। सारी पृथ्वी नाना प्रकारके प्राणियोंसे खूब भरी-पूरी रहती थी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं समुदिते लोके मानुषे भरतर्षभ।
असुरा जज्ञिरे क्षेत्रे राज्ञां तु मनुजेश्वर ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं समुदिते लोके मानुषे भरतर्षभ।
असुरा जज्ञिरे क्षेत्रे राज्ञां तु मनुजेश्वर ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जगत् बहुत प्रसन्न था। मनुजेश्वर! इसी समय असुरलोग राजपत्नियोंके गर्भसे जन्म लेने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यैर्हि तदा दैत्या बहुशो निर्जिता युधि।
ऐश्वर्याद् भ्रंशिताः स्वर्गात् सम्बभूवुः क्षिताविह ॥ २८ ॥
मूलम्
आदित्यैर्हि तदा दैत्या बहुशो निर्जिता युधि।
ऐश्वर्याद् भ्रंशिताः स्वर्गात् सम्बभूवुः क्षिताविह ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों अदितिके पुत्रों (देवताओं)-द्वारा दैत्यगण अनेक बार युद्धमें पराजित हो चुके थे। स्वर्गके ऐश्वर्यसे भ्रष्ट होनेपर वे इस पृथ्वीपर ही जन्म लेने लगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह देवत्वमिच्छन्तो मानुषेषु मनस्विनः।
जज्ञिरे भुवि भूतेषु तेषु तेष्वसुरा विभो ॥ २९ ॥
मूलम्
इह देवत्वमिच्छन्तो मानुषेषु मनस्विनः।
जज्ञिरे भुवि भूतेषु तेषु तेष्वसुरा विभो ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! यहीं रहकर देवत्व प्राप्त करनेकी इच्छासे वे मनस्वी असुर भूतलपर मनुष्यों तथा भिन्न-भिन्न प्राणियोंमें जन्म लेने लगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोष्वश्वेषु च राजेन्द्र खरोष्ट्रमहिषेषु च।
क्रव्यात्सु चैव भूतेषु गजेषु च मृगेषु च ॥ ३० ॥
जातैरिह महीपाल जायमानैश्च तैर्मही।
न शशाकात्मनाऽऽत्मानमियं धारयितुं धरा ॥ ३१ ॥
मूलम्
गोष्वश्वेषु च राजेन्द्र खरोष्ट्रमहिषेषु च।
क्रव्यात्सु चैव भूतेषु गजेषु च मृगेषु च ॥ ३० ॥
जातैरिह महीपाल जायमानैश्च तैर्मही।
न शशाकात्मनाऽऽत्मानमियं धारयितुं धरा ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! गौओं, घोड़ों, गदहों, ऊँटों, भैसों, कच्चे मांस खानेवाले पशुओं, हाथियों और मृगोंकी योनिमें भी यहाँ असुरोंने जन्म लिया और अभीतक वे जन्म धारण करते जा रहे थे। उन सबसे यह पृथ्वी इस प्रकार भर गयी कि अपने-आपको भी धारण करनेमें समर्थ न हो सकी॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ जाता महीपालाः केचिद् बहुमदान्विताः।
दितेः पुत्रा दनोश्चैव तदा लोक इह च्युताः ॥ ३२ ॥
वीर्यवन्तोऽवलिप्तास्ते नानारूपधरा महीम् ।
इमां सागरपर्यन्तां परीयुररिमर्दनाः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अथ जाता महीपालाः केचिद् बहुमदान्विताः।
दितेः पुत्रा दनोश्चैव तदा लोक इह च्युताः ॥ ३२ ॥
वीर्यवन्तोऽवलिप्तास्ते नानारूपधरा महीम् ।
इमां सागरपर्यन्तां परीयुररिमर्दनाः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गसे इस लोकमें गिरे हुए तथा राजाओंके रूपमें उत्पन्न हुए कितने ही दैत्य और दानव अत्यन्त मदसे उन्मत्त रहते थे। वे पराक्रमी होनेके साथ ही अहंकारी भी थे। अनेक प्रकारके रूप धारण कर अपने शत्रुओंका मान-मर्दन करते हुए समुद्रपर्यज सारी पृथ्वीपर विचरते रहते थे॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्याञ्छूद्रांश्चैवाप्यपीडयन् ।
अन्यानि चैव सत्त्वानि पीडयामासुरोजसा ॥ ३४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्याञ्छूद्रांश्चैवाप्यपीडयन् ।
अन्यानि चैव सत्त्वानि पीडयामासुरोजसा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रोंको भी सताया करते थे। अन्यान्य जीवोंको भी अपने बल और पराक्रमसे पीड़ा देते थे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रासयन्तोऽभिनिघ्नन्तः सर्वभूतगणांश्च ते ।
विचेरुः सर्वशो राजन् महीं शतसहस्रशः ॥ ३५ ॥
मूलम्
त्रासयन्तोऽभिनिघ्नन्तः सर्वभूतगणांश्च ते ।
विचेरुः सर्वशो राजन् महीं शतसहस्रशः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे असुर लाखोंकी संख्यामें उत्पन्न हुए थे और समस्त प्राणियोंको डराते-धमकाते तथा उनकी हिंसा करते हुए भूमण्डलमें सब ओर घूमते रहते थे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमस्थान् महर्षींश्च धर्षयन्तस्ततस्ततः ।
अब्रह्मण्या वीर्यमदा मत्ता मदबलेन च ॥ ३६ ॥
मूलम्
आश्रमस्थान् महर्षींश्च धर्षयन्तस्ततस्ततः ।
अब्रह्मण्या वीर्यमदा मत्ता मदबलेन च ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे वेद और ब्राह्मणके विरोधी, पराक्रमके नशेमें चूर तथा अहंकार और बलसे मतवाले होकर इधर-उधर आश्रमवासी महर्षियोंका भी तिरस्कार करने लगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वीर्यबलोत्सिक्तैर्भूरियत्नैर्महासुरैः ।
पीड्यमाना मही राजन् ब्रह्माणमुपचक्रमे ॥ ३७ ॥
मूलम्
एवं वीर्यबलोत्सिक्तैर्भूरियत्नैर्महासुरैः ।
पीड्यमाना मही राजन् ब्रह्माणमुपचक्रमे ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब इस प्रकार बल और पराक्रमके मदसे उन्मत्त महादैत्य विशेष यत्नपूर्वक इस पृथ्वीको पीड़ा देने लगे, तब यह ब्रह्माजीकी शरणमें जानेको उद्यत हुई॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यमी भूतसत्त्वौघाः पन्नगाः सनगां महीम्।
तदा धारयितुं शेकुः संक्रान्तां दानवैर्बलात् ॥ ३८ ॥
ततो मही महीपाल भारार्ता भयपीडिता।
जगाम शरणं देवं सर्वभूतपितामहम् ॥ ३९ ॥
सा संवृतं महाभागैर्देवद्विजमहर्षिभिः ।
ददर्श देवं ब्रह्माणं लोककर्तारमव्ययम् ॥ ४० ॥
मूलम्
न ह्यमी भूतसत्त्वौघाः पन्नगाः सनगां महीम्।
तदा धारयितुं शेकुः संक्रान्तां दानवैर्बलात् ॥ ३८ ॥
ततो मही महीपाल भारार्ता भयपीडिता।
जगाम शरणं देवं सर्वभूतपितामहम् ॥ ३९ ॥
सा संवृतं महाभागैर्देवद्विजमहर्षिभिः ।
ददर्श देवं ब्रह्माणं लोककर्तारमव्ययम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दानवोंने बलपूर्वक जिसपर अधिकार कर लिया था, पर्वतों और वृक्षोंसहित उस पृथ्वीको उस समय कच्छप और दिग्गज आदिकी संगठित शक्तियाँ तथा शेषनाग भी धारण करनेमें समर्थ न हो सके। महीपाल! तब असुरोंके भारसे आतुर तथा भयसे पीड़ित हुई पृथ्वी सम्पूर्ण भूतोंके पितामह भगवान् ब्रह्माजीकी शरणमें उपस्थित हुई। ब्रह्मलोकमें जाकर पृथ्वीने उन लोकस्रष्टा अविनाशी देव भगवान् ब्रह्माजीका दर्शन किया, जिन्हें महाभाग देवता, द्विज और महर्षि घेरे हुए थे॥३८—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वैरप्सतेभिश्च दैवकर्मसु निष्ठितैः ।
वन्द्यमानं मुदोपेतैर्ववन्दे चैनमेत्य सा ॥ ४१ ॥
मूलम्
गन्धर्वैरप्सतेभिश्च दैवकर्मसु निष्ठितैः ।
वन्द्यमानं मुदोपेतैर्ववन्दे चैनमेत्य सा ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवकर्ममें संलग्न रहनेवाले अप्सराएँ और गन्धर्व उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करते थे। पृथ्वीने उनके निकट जाकर प्रणाम किया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ विज्ञापयामास भूमिस्तं शरणार्थिनी।
संनिधौ लोकपालानां सर्वेषामेव भारत ॥ ४२ ॥
तत् प्रधानात्मनस्तस्य भूमेः कृत्यं स्वयम्भुवः।
पूर्वमेवाभवद् राजन् विदितं परमेष्ठिनः ॥ ४३ ॥
मूलम्
अथ विज्ञापयामास भूमिस्तं शरणार्थिनी।
संनिधौ लोकपालानां सर्वेषामेव भारत ॥ ४२ ॥
तत् प्रधानात्मनस्तस्य भूमेः कृत्यं स्वयम्भुवः।
पूर्वमेवाभवद् राजन् विदितं परमेष्ठिनः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तदनन्तर शरण चाहनेवाली भूमिने समस्त लोकपालोंके समीप अपना सारा दुःख ब्रह्माजीसे निवेदन किया। राजन्! स्वयम्भू ब्रह्मा सबके कारणरूप हैं, अतः पृथ्वीका जो आवश्यक कार्य था वह उन्हें पहलेसे ही ज्ञात हो गया था॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रष्टा हि जगतः कस्मान्न सम्बुध्येत भारत।
ससुरासुरलोकानामशेषेण मनोगतम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
स्रष्टा हि जगतः कस्मान्न सम्बुध्येत भारत।
ससुरासुरलोकानामशेषेण मनोगतम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! भला जो जगत्के स्रष्टा हैं, वे देवताओं और असुरोंसहित समस्त जगत्का सम्पूर्ण मनोगत भाव क्यों न समझ लें॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामुवाच महाराज भूमिं भूमिपतिः प्रभुः।
प्रभवः सर्वभूतानामीशः शम्भुः प्रजापतिः ॥ ४५ ॥
मूलम्
तामुवाच महाराज भूमिं भूमिपतिः प्रभुः।
प्रभवः सर्वभूतानामीशः शम्भुः प्रजापतिः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो इस भूमिके पालक और प्रभु हैं, सबकी उत्पत्तिके कारण तथा समस्त प्राणियोंके अधीश्वर हैं, वे कल्याणमय प्रजापति ब्रह्माजी उस समय भूमिसे इस प्रकार बोले॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थमभिसम्प्राप्ता मत्सकाशं वसुन्धरे ।
तदर्थं संनियोक्ष्यामि सर्वानेव दिवौकसः ॥ ४६ ॥
मूलम्
यदर्थमभिसम्प्राप्ता मत्सकाशं वसुन्धरे ।
तदर्थं संनियोक्ष्यामि सर्वानेव दिवौकसः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— वसुन्धरे! तुम जिस उद्देश्यसे मेरे पास आयी हो, उसकी सिद्धिके लिये मैं सम्पूर्ण देवताओंको नियुक्त कर रहा हूँ॥४६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स महीं देवो ब्रह्मा राजन् विसृज्य च।
आदिदेश तदा सर्वान् विबुधान् भूतकृत् स्वयम् ॥ ४७ ॥
अस्या भूमेर्निरसितुं भारं भागैः पृथक् पृथक्।
अस्यामेव प्रसूयध्वं विरोधायेति चाब्रवीत् ॥ ४८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स महीं देवो ब्रह्मा राजन् विसृज्य च।
आदिदेश तदा सर्वान् विबुधान् भूतकृत् स्वयम् ॥ ४७ ॥
अस्या भूमेर्निरसितुं भारं भागैः पृथक् पृथक्।
अस्यामेव प्रसूयध्वं विरोधायेति चाब्रवीत् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीने ऐसा कहकर उस समय पृथ्वीको तो विदा कर दिया और समस्त देवताओंको यह आदेश दिया—‘देवताओ! तुम इस पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने-अपने अंशसे पृथ्वीके विभिन्न भागोंमें पृथक्-पृथक् जन्म ग्रहण करो। वहाँ असुरोंसे विरोध करके अभीष्ट उद्देश्यकी सिद्धि करनी होगी’॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव स समानीय गन्धर्वाप्सरसां गणान्।
उवाच भगवान् सर्वानिदं वचनमर्थवत् ॥ ४९ ॥
मूलम्
तथैव स समानीय गन्धर्वाप्सरसां गणान्।
उवाच भगवान् सर्वानिदं वचनमर्थवत् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार भगवान् ब्रह्माने सम्पूर्ण गन्धर्वों और अप्सराओंको भी बुलाकर यह अर्थसाधक वचन कहा॥४९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वैः स्वैरंशैः प्रसूयध्वं यथेष्टं मानुषेषु च।
अथ शक्रादयः सर्वे श्रुत्वा सुरगुरोर्वचः।
तव्यमर्थ्यं च पथ्यं च तस्य ते जगृहुस्तदा ॥ ५० ॥
मूलम्
स्वैः स्वैरंशैः प्रसूयध्वं यथेष्टं मानुषेषु च।
अथ शक्रादयः सर्वे श्रुत्वा सुरगुरोर्वचः।
तव्यमर्थ्यं च पथ्यं च तस्य ते जगृहुस्तदा ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले— तुम सब लोग अपने-अपने अंशसे मनुष्योंमें इच्छानुसार जन्म ग्रहण करो। तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवताओंने देवगुरु ब्रह्माजीकी सत्य, अर्थसाधक और हितकर बात सुनकर उस समय उसे शिरोधार्य कर लिया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ते सर्वशोंऽशैः स्वैर्गन्तुं भूमिं कृतक्षणाः।
नारायणममित्रघ्नं वैकुण्ठमुपचक्रमुः ॥ ५१ ॥
मूलम्
अथ ते सर्वशोंऽशैः स्वैर्गन्तुं भूमिं कृतक्षणाः।
नारायणममित्रघ्नं वैकुण्ठमुपचक्रमुः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वे अपने-अपने अंशोंसे भूलोकमें सब ओर जानेका निश्चय करके शत्रुओंका नाश करनेवाले भगवान् नारायणके समीप वैकुण्ठधाममें जानेको उद्यत हुए॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स चक्रगदापाणिः पीतवासाः शितिप्रभः।
पद्मनाभः सुरारिघ्नः पृथुचार्वञ्चितेक्षणः ॥ ५२ ॥
मूलम्
यः स चक्रगदापाणिः पीतवासाः शितिप्रभः।
पद्मनाभः सुरारिघ्नः पृथुचार्वञ्चितेक्षणः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने हाथोंमें चक्र और गदा धारण करते हैं, पीताम्बर पहनते हैं, जिनके अंगोंकी कान्ति श्याम रंगकी है, जिनकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव हुआ है, जो देव-शत्रुओंके नाशक तथा विशाल और मनोहर नेत्रोंसे युक्त हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिपतिर्देवः सुरनाथो महाबलः ।
श्रीवत्साङ्को हृषीकेशः सर्वदैवतपूजितः ॥ ५३ ॥
मूलम्
प्रजापतिपतिर्देवः सुरनाथो महाबलः ।
श्रीवत्साङ्को हृषीकेशः सर्वदैवतपूजितः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रजापतियोंके भी पति, दिव्यस्वरूप, देवताओंके रक्षक, महाबली, श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित, इन्द्रियोंके अधिष्ठाता तथा सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं भुवः शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम्।
अंशेनावतरेत्येवं तथेत्याह च तं हरिः ॥ ५४ ॥
मूलम्
तं भुवः शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम्।
अंशेनावतरेत्येवं तथेत्याह च तं हरिः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन भगवान् पुरुषोत्तमके पास जाकर इन्द्रने उनसे कहा—‘प्रभो! आप पृथ्वीका शोधन (भार-हरण) करनेके लिये अपने अंशसे अवतार ग्रहण करें।’ तब श्रीहरिने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली॥५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६४॥