श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा उपरिचरका चरित्र तथा सत्यवती, व्यासादि प्रमुख पात्रोंकी संक्षिप्त जन्मकथा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपतिः।
बभूव मृगयां गन्तुं सदा किल धृतव्रतः ॥ १ ॥
मूलम्
राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपतिः।
बभूव मृगयां गन्तुं सदा किल धृतव्रतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पहले उपरिचर नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो नित्य-निरन्तर धर्ममें ही लगे रहते थे। साथ ही सदा हिंसक पशुओंके शिकारके लिये वनमें जानेका उनका नियम था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेदिविषयं रम्यं वसुः पौरवनन्दनः।
इन्द्रोपदेशाज्जग्राह रमणीयं महीपतिः ॥ २ ॥
मूलम्
स चेदिविषयं रम्यं वसुः पौरवनन्दनः।
इन्द्रोपदेशाज्जग्राह रमणीयं महीपतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पौरवनन्दन राजा उपरिचर वसुने इन्द्रके कहनेसे अत्यन्त रमणीय चेदिदेशका राज्य स्वीकार किया था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं निवसन्तं तपोनिधिम्।
देवाः शक्रपुरोगा वै राजानमुपतस्थिरे ॥ ३ ॥
इन्द्रत्वमर्हो राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै।
तं सान्त्वेन नृपं साक्षात् तपसः संन्यवर्तयन् ॥ ४ ॥
मूलम्
तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं निवसन्तं तपोनिधिम्।
देवाः शक्रपुरोगा वै राजानमुपतस्थिरे ॥ ३ ॥
इन्द्रत्वमर्हो राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै।
तं सान्त्वेन नृपं साक्षात् तपसः संन्यवर्तयन् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, राजा वसु अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग करके आश्रममें निवास करने लगे। उन्होंने बड़ा भारी तप किया, जिससे वे तपोनिधि माने जाने लगे। उस समय इन्द्र आदि देवता यह सोचकर कि यह राजा तपस्याके द्वारा इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है, उनके समीप गये। देवताओंने राजाको प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें शान्तिपूर्वक समझाया और तपस्यासे निवृत्त कर दिया॥३-४॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संकीर्येत धर्मोऽयं पृथिव्यां पृथिवीपते।
त्वया हि धर्मो विधृतः कृत्स्नं धारयते जगत् ॥ ५ ॥
मूलम्
न संकीर्येत धर्मोऽयं पृथिव्यां पृथिवीपते।
त्वया हि धर्मो विधृतः कृत्स्नं धारयते जगत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले— पृथ्वीपते! तुम्हें ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये जिससे इस भूमिपर वर्णसंकरता न फैलने पावे (तुम्हारे न रहनेसे अराजकता फैलनेका भय है, जिससे प्रजा स्वधर्ममें स्थित नहीं रह सकेगी। अतः तुम्हें तपस्या न करके इस वसुधाका संरक्षण करना चाहिये)। राजन्! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित धर्म ही सम्पूर्ण जगत्को धारण कर रहा है॥५॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोके धर्मं पालय त्वं नित्ययुक्तः समाहितः।
धर्मयुक्तस्ततो लोकान् पुण्यान् प्राप्स्यसि शाश्वतान् ॥ ६ ॥
मूलम्
लोके धर्मं पालय त्वं नित्ययुक्तः समाहितः।
धर्मयुक्तस्ततो लोकान् पुण्यान् प्राप्स्यसि शाश्वतान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— राजन्! तुम इस लोकमें सदा सावधान और प्रयत्नशील रहकर धर्मका पालन करो। धर्मयुक्त रहनेपर तुम सनातन पुण्यलोकोंको प्राप्त कर सकोगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखाभूतो मम प्रियः।
रम्यः पृथिव्यां यो देशस्तमावस नराधिप ॥ ७ ॥
मूलम्
दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखाभूतो मम प्रियः।
रम्यः पृथिव्यां यो देशस्तमावस नराधिप ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि मैं स्वर्गमें रहता हूँ और तुम भूमिपर; तथापि आजसे तुम मेरे प्रिय सखा हो गये। नरेश्वर! इस पृथ्वीपर जो सबसे सुन्दर एवं रमणीय देश हो, उसीमें तुम निवास करो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशव्यश्चैव पुण्यश्च प्रभूतधनधान्यवान् ।
स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्च भोग्यैर्भूमिगुणैर्युतः ॥ ८ ॥
अर्थवानेष देशो हि धनरत्नादिभिर्युतः।
वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप ॥ ९ ॥
धर्मशीला जनपदाः सुसंतोषाश्च साधवः।
न च मिथ्याप्रलापोऽत्र स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा ॥ १० ॥
न च पित्रा विभज्यन्ते पुत्रा गुरुहिते रताः।
युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशान् संधुक्षयन्ति च ॥ ११ ॥
सर्वे वर्णाः स्वधर्मस्थाः सदा चेदिषु मानद।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित् त्रिषु लोकेषु यद् भवेत् ॥ १२ ॥
मूलम्
पशव्यश्चैव पुण्यश्च प्रभूतधनधान्यवान् ।
स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्च भोग्यैर्भूमिगुणैर्युतः ॥ ८ ॥
अर्थवानेष देशो हि धनरत्नादिभिर्युतः।
वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप ॥ ९ ॥
धर्मशीला जनपदाः सुसंतोषाश्च साधवः।
न च मिथ्याप्रलापोऽत्र स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा ॥ १० ॥
न च पित्रा विभज्यन्ते पुत्रा गुरुहिते रताः।
युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशान् संधुक्षयन्ति च ॥ ११ ॥
सर्वे वर्णाः स्वधर्मस्थाः सदा चेदिषु मानद।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित् त्रिषु लोकेषु यद् भवेत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय चेदिदेश पशुओंके लिये हितकर, पुण्यजनक, प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न, स्वर्गके समान सुखद होनेके कारण रक्षणीय, सौम्य तथा भोग्य पदार्थों और भूमिसम्बन्धी उत्तम गुणोंसे युक्त है। यह देश अनेक पदार्थोंसे युक्त और धन-रत्न आदिसे सम्पन्न है। यहाँकी वसुधा वास्तवमें वसु (धन-सम्पत्ति)-से भरी-पूरी है। अतः तुम चेदिदेशके पालक होकर उसीमें निवास करो। यहाँके जनपद धर्मशील, संतोषी और साधु हैं। यहाँ हास-परिहासमें भी कोई झूठ नहीं बोलता, फिर अन्य अवसरोंपर तो बोल ही कैसे सकता है। पुत्र सदा गुरुजनोंके हितमें लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बँटवारा नहीं करते। यहाँके लोग बैलोंको भार ढोनेमें नहीं लगाते और दीनों एवं अनाथोंका पोषण करते हैं। मानद! चेदिदेशमें सब वर्णोंके लोग सदा अपने-अपने धर्ममें स्थित रहते हैं। तीनों लोकोंमें जो कोई घटना होगी, वह सब यहाँ रहते हुए भी तुमसे छिपी न रहेगी—तुम सर्वज्ञ बने रहोगे॥८—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत्।
आकाशगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
देवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत्।
आकाशगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवताओंके उपभोगमें आने योग्य है, ऐसा स्फटिक मणिका बना हुआ एक दिव्य, आकाशचारी एवं विशाल विमान मैंने तुम्हें भेंट किया है। वह आकाशमें तुम्हारी सेवाके लिये सदा उपस्थित रहेगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेकः सर्वमर्त्येषु विमानवरमास्थितः ।
चरिष्यस्युपरिस्थो हि देवो विग्रहवानिव ॥ १४ ॥
मूलम्
त्वमेकः सर्वमर्त्येषु विमानवरमास्थितः ।
चरिष्यस्युपरिस्थो हि देवो विग्रहवानिव ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण मनुष्योंमें एक तुम्हीं इस श्रेष्ठ विमानपर बैठकर मूर्तिमान् देवताकी भाँति सबके ऊपर-ऊपर विचरोगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददामि ते वैजयन्तीं मालामम्लानपंकजाम्।
धारयिष्यति संग्रामे या त्वां शस्त्रैरविक्षतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
ददामि ते वैजयन्तीं मालामम्लानपंकजाम्।
धारयिष्यति संग्रामे या त्वां शस्त्रैरविक्षतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हें यह वैजयन्ती माला देता हूँ, जिसमें पिरोये हुए कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं। इसे धारण कर लेनेपर यह माला संग्राममें तुम्हें अस्त्र-शस्त्रोंके आघातसे बचायेगी॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप।
इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत् ॥ १६ ॥
मूलम्
लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप।
इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! यह माला ही इन्द्रमालाके नामसे विख्यात होकर इस जगत्में तुम्हारी पहचान करानेके लिये परम धन्य एवं अनुपम चिह्न होगी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदनः।
इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां प्रतिपालिनीम् ॥ १७ ॥
मूलम्
यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदनः।
इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां प्रतिपालिनीम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वृत्रासुरका नाश करनेवाले इन्द्रने राजाको प्रेमोपहारस्वरूप बाँसकी एक छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषोंकी रक्षा करनेवाली थी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याः शक्रस्य पूजार्थं भूमौ भूमिपतिस्तदा।
प्रवेशं कारयामास गते संवत्सरे तदा ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्याः शक्रस्य पूजार्थं भूमौ भूमिपतिस्तदा।
प्रवेशं कारयामास गते संवत्सरे तदा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक वर्ष बीतनेपर भूपाल वसुने इन्द्रकी पूजाके लिये उस छड़ीको भूमिमें गाड़ दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रभृति चाद्यापि यष्टेः क्षितिपसत्तमैः।
प्रवेशः क्रियते राजन् यथा तेन प्रवर्तितः ॥ १९ ॥
मूलम्
ततः प्रभृति चाद्यापि यष्टेः क्षितिपसत्तमैः।
प्रवेशः क्रियते राजन् यथा तेन प्रवर्तितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तबसे लेकर आजतक श्रेष्ठ राजाओंद्वारा छड़ी धरतीमें गाड़ी जाती है। वसुने जो प्रथा चला दी, वह अबतक चली आती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरेद्युस्ततस्तस्याः क्रियतेऽत्युच्छ्रयो नृपैः ।
अलंकृतायाः पिटकैर्गन्धमाल्यैश्च भूषणैः ॥ २० ॥
माल्यदामपरिक्षिप्ता विधिवत् क्रियतेऽपि च।
भगवान् पूज्यते चात्र हंसरूपेण चेश्वरः ॥ २१ ॥
मूलम्
अपरेद्युस्ततस्तस्याः क्रियतेऽत्युच्छ्रयो नृपैः ।
अलंकृतायाः पिटकैर्गन्धमाल्यैश्च भूषणैः ॥ २० ॥
माल्यदामपरिक्षिप्ता विधिवत् क्रियतेऽपि च।
भगवान् पूज्यते चात्र हंसरूपेण चेश्वरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे दिन अर्थात् नवीन संवत्सरके प्रथम दिन प्रति-पदाको वह छड़ी वहाँसे निकालकर बहुत ऊँचे स्थानमें रखी जाती है; फिर कपड़ेकी पेटी, चन्दन, माला और आभूषणोंसे उसको सजाया जाता है। उसमें विधिपूर्वक फूलोंके हार और सूत लपेटे जाते हैं। तत्पश्चात् उसी छड़ीपर देवेश्वर भगवान् इन्द्रका हंसरूपसे पूजन किया जाता है॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमेव गृहीतेन वसोः प्रीत्या महात्मनः।
स तां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्ट्वा देवः कृतां शुभाम्॥२२॥
वसुना राजमुख्येन प्रीतिमानब्रवीत् प्रभुः।
ये पूजयिष्यन्ति नरा राजानश्च महं मम ॥ २३ ॥
कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृटपः।
तेषां श्रीर्विजयश्चैव सराष्ट्राणां भविष्यति ॥ २४ ॥
मूलम्
स्वयमेव गृहीतेन वसोः प्रीत्या महात्मनः।
स तां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्ट्वा देवः कृतां शुभाम्॥२२॥
वसुना राजमुख्येन प्रीतिमानब्रवीत् प्रभुः।
ये पूजयिष्यन्ति नरा राजानश्च महं मम ॥ २३ ॥
कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृटपः।
तेषां श्रीर्विजयश्चैव सराष्ट्राणां भविष्यति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने महात्मा वसुके प्रेमवश स्वयं हंसका रूप धारण करके वह पूजा ग्रहण की। नृपश्रेष्ठ वसुके द्वारा की हुई उस शुभ पूजाको देखकर प्रभावशाली भगवान् महेन्द्र प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले—‘चेदिदेशके अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करते हैं, उसी तरह जो मनुष्य तथा राजा मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्सवको रचायेंगे, उनको और उनके समूचे राष्ट्रको लक्ष्मी एवं विजयकी प्राप्ति होगी॥२२—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति।
एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप ॥ २५ ॥
वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः।
उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नराः ॥ २६ ॥
भूमिरत्नादिभिर्दानैस्तथा पूज्या भवन्ति ते।
वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन च ॥ २७ ॥
मूलम्
तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति।
एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप ॥ २५ ॥
वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः।
उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नराः ॥ २६ ॥
भूमिरत्नादिभिर्दानैस्तथा पूज्या भवन्ति ते।
वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन च ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नतिशील और प्रसन्न होगा।’ राजन्! इस प्रकार महात्मा महेन्द्रने, जिन्हें मघवा भी कहते हैं, प्रेमपूर्वक महाराज वसुका भलीभाँति सत्कार किया। जो मनुष्य भूमि तथा रत्न आदिका दान करते हुए सदा देवराज इन्द्रका उत्सव रचायेंगे, वे इन्द्रोत्सवद्वारा इन्द्रका वरदान पाकर उसी उत्तम गतिको पा जायँगे, जिसे भूमिदान आदिके पुण्योंसे युक्त मानव प्राप्त करते हैं॥२५—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृपः।
पालयामास धर्मेण चेदिस्थः पृथिवीमिमाम् ॥ २८ ॥
मूलम्
सम्पूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृपः।
पालयामास धर्मेण चेदिस्थः पृथिवीमिमाम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके द्वारा उपर्युक्त रूपसे सम्मानित चेदिराज वसुने चेदिदेशमें ही रहकर इस पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रप्रीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः ।
पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः ॥ २९ ॥
मूलम्
इन्द्रप्रीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः ।
पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये चेदिराज वसु प्रतिवर्ष इन्द्रोत्सव मनाया करते थे। उनके अनन्त बलशाली महापराक्रमी पाँच पुत्र थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाराज्येषु च सुतान् स सम्राडभ्यषेचयत्।
महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः ॥ ३० ॥
मूलम्
नानाराज्येषु च सुतान् स सम्राडभ्यषेचयत्।
महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्राट् वसुने विभिन्न राज्योंपर अपने पुत्रोंको अभिषिक्त कर दिया। उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देशका विख्यात राजा हुआ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम् ।
मावेल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम् ।
मावेल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे पुत्रका नाम प्रत्यग्रह था, तीसरा कुशाम्ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा मावेल्ल था। पाँचवाँ राजकुमार यदु था, जो युद्धमें किसीसे पराजित नहीं होता था॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते तस्य सुता राजन् राजर्षेर्भूरितेजसः।
न्यवासयन् नामभिः स्वैस्ते देशांश्च पुराणि च ॥ ३२ ॥
मूलम्
एते तस्य सुता राजन् राजर्षेर्भूरितेजसः।
न्यवासयन् नामभिः स्वैस्ते देशांश्च पुराणि च ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जनमेजय! महातेजस्वी राजर्षि वसुके इन पुत्रोंने अपने-अपने नामसे देश और नगर बसाये॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासवाः पञ्च राजानः पृथग्वंशाश्च शाश्वताः।
वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम् ॥ ३३ ॥
उपतस्थुर्महात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम् ।
राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
वासवाः पञ्च राजानः पृथग्वंशाश्च शाश्वताः।
वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम् ॥ ३३ ॥
उपतस्थुर्महात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम् ।
राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचों वसुपुत्र भिन्न-भिन्न देशोंके राजा थे और उन्होंने पृथक्-पृथक् अपनी सनातन वंशपरम्परा चलायी। चेदिराज वसु इन्द्रके दिये हुए स्फटिक मणिमय विमानमें रहते हुए आकाशमें ही निवास करते थे। उस समय उन महात्मा नरेशकी सेवामें गन्धर्व और अप्सराएँ उपस्थित होती थीं। सदा ऊपर-ही-ऊपर चलनेके कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रूपमें विख्यात हो गया॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तिमतीं गिरिः।
अरौत्सीच्चेतनायुक्तः कामात् कोलाहलः किल ॥ ३५ ॥
मूलम्
पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तिमतीं गिरिः।
अरौत्सीच्चेतनायुक्तः कामात् कोलाहलः किल ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी राजधानीके समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वतने कामवश उस दिव्यरूपधारिणी नदीको रोक लिया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिं कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत्।
निश्चक्राम ततस्तेन प्रहारविवरेण सा ॥ ३६ ॥
मूलम्
गिरिं कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत्।
निश्चक्राम ततस्तेन प्रहारविवरेण सा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके रोकनेसे नदीकी धारा रुक गयी। यह देख उपरिचर वसुने कोलाहल पर्वतपर अपने पैरसे प्रहार किया। प्रहार करते ही पर्वतमें दरार पड़ गयी, जिससे निकलकर वह नदी पहलेके समान बहने लगी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां नद्यामजनयन्मिथुनं पर्वतः स्वयम्।
तस्माद् विमोक्षणात् प्रीता नदी राज्ञे न्यवेदयत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
तस्यां नद्यामजनयन्मिथुनं पर्वतः स्वयम्।
तस्माद् विमोक्षणात् प्रीता नदी राज्ञे न्यवेदयत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर्वतने उस नदीके गर्भसे एक पुत्र और एक कन्या, जुड़वीं संतान उत्पन्न की थी। उसके अवरोधसे मुक्त करनेके कारण प्रसन्न हुई नदीने राजा उपरिचरको अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पुमानभवत् तत्र तं स राजर्षिसत्तमः।
वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिन्दमः ॥ ३८ ॥
मूलम्
यः पुमानभवत् तत्र तं स राजर्षिसत्तमः।
वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिन्दमः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओंका दमन करनेवाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसुने अपना सेनापति बना लिया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकार पत्नीं कन्यां तु तथा तां गिरिकां नृपः।
वसोः पत्नी तु गिरिका कामकालं न्यवेदयत् ॥ ३९ ॥
ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः।
तदहः पितरश्चैनमूचुर्जहि मृगानिति ॥ ४० ॥
तं राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वर।
स पितॄणां नियोगं तमनतिक्रम्य पार्थिवः ॥ ४१ ॥
चकार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन्।
अतीवरूपसम्पन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
चकार पत्नीं कन्यां तु तथा तां गिरिकां नृपः।
वसोः पत्नी तु गिरिका कामकालं न्यवेदयत् ॥ ३९ ॥
ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः।
तदहः पितरश्चैनमूचुर्जहि मृगानिति ॥ ४० ॥
तं राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वर।
स पितॄणां नियोगं तमनतिक्रम्य पार्थिवः ॥ ४१ ॥
चकार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन्।
अतीवरूपसम्पन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और जो कन्या थी उसे राजाने अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम था गिरिका। बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जनमेजय! एक दिन ऋतुकालको प्राप्त हो स्नानके पश्चात् शुद्ध हुई वसुपत्नी गिरिकाने पुत्र उत्पन्न होने योग्य समयमें राजासे समागमकी इच्छा प्रकट की। उसी दिन पितरोंने राजाओंमें श्रेष्ठ वसुपर प्रसन्न हो उन्हें आज्ञा दी—‘तुम हिंसक पशुओंका वध करो।’ तब राजा पितरोंकी आज्ञाका उल्लंघन न करके कामनावश साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान अत्यन्त रूप और सौन्दर्यके वैभवसे सम्पन्न गिरिकाका ही चिन्तन करते हुए हिंसक पशुओंको मारनेके लिये वनमें गये॥३९—४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशोकैश्चम्पकैश्चूतैरनेकैरतिमुक्तकैः ।
पुन्नागैः कर्णिकारैश्च वकुलैर्दिव्यपाटलैः ॥ ४३ ॥
पाटलैर्नारिकेलैश्च चन्दनैश्चार्जुनैस्तथा ।
एतै रम्यैर्महावृक्षैः पुण्यैः स्वादुफलैर्युतम् ॥ ४४ ॥
कोकिलाकुलसंनादं मत्तभ्रमरनादितम् ।
वसन्तकाले तत् तस्य वनं चैत्ररथोपमम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
अशोकैश्चम्पकैश्चूतैरनेकैरतिमुक्तकैः ।
पुन्नागैः कर्णिकारैश्च वकुलैर्दिव्यपाटलैः ॥ ४३ ॥
पाटलैर्नारिकेलैश्च चन्दनैश्चार्जुनैस्तथा ।
एतै रम्यैर्महावृक्षैः पुण्यैः स्वादुफलैर्युतम् ॥ ४४ ॥
कोकिलाकुलसंनादं मत्तभ्रमरनादितम् ।
वसन्तकाले तत् तस्य वनं चैत्ररथोपमम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाका वह वन देवताओंके चैत्ररथ नामक वनके समान शोभा पा रहा था। वसन्तका समय था; अशोक, चम्पा, आम, अतिमुक्तक (माधवीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, मौलसिरी, दिव्य पाटल, पाटल, नारियल, चन्दन तथा अर्जुन—से स्वादिष्ट फलोंसे युक्त, रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओंके कल-कूजनसे समस्त वन गूँज उठा था। चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे॥४३—४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्मथाभिपरीतात्मा नापश्यद् गिरिकां तदा।
अपश्यन् कामसंतप्तश्चरमाणो यदृच्छया ॥ ४६ ॥
मूलम्
मन्मथाभिपरीतात्मा नापश्यद् गिरिकां तदा।
अपश्यन् कामसंतप्तश्चरमाणो यदृच्छया ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजाका हृदय कामवेदनासे पीड़ित हो उठा। उस समय उन्हें अपनी रानी गिरिकाका दर्शन नहीं हुआ। उसे न देखकर कामाग्निसे संतप्त हो वे इच्छानुसार इधर-उधर घूमने लगे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पसंछन्नशाखाग्रं पल्लवैरुपशोभितम् ।
अशोकं स्तबकैश्छन्नं रमणीयमपश्यत ॥ ४७ ॥
मूलम्
पुष्पसंछन्नशाखाग्रं पल्लवैरुपशोभितम् ।
अशोकं स्तबकैश्छन्नं रमणीयमपश्यत ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घूमते-घूमते उन्होंने एक रमणीय अशोकका वृक्ष देखा, जो पल्लवोंसे सुशोभित और पुष्पके गुच्छोंसे आच्छादित था। उसकी शाखाओंके अग्रभाग फूलोंसे ढके हुए थे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधस्तात् तस्य छायायां सुखासीनो नराधिपः।
मधुगन्धैश्च संयुक्तं पुष्पगन्धमनोहरम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
अधस्तात् तस्य छायायां सुखासीनो नराधिपः।
मधुगन्धैश्च संयुक्तं पुष्पगन्धमनोहरम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा उसी वृक्षके नीचे उसकी छायामें सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्द और सुगन्धसे भरा था। फूलोंकी गन्धसे वह बरबस मनको मोह लेता था॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुना प्रेर्यमाणस्तु धूम्राय मुदमन्वगात्।
तस्य रेतः प्रचस्कन्द चरतो गहने वने ॥ ४९ ॥
मूलम्
वायुना प्रेर्यमाणस्तु धूम्राय मुदमन्वगात्।
तस्य रेतः प्रचस्कन्द चरतो गहने वने ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कामोद्दीपक वायुसे प्रेरित हो राजाके मनमें रतिके लिये स्त्रीविषयक प्रीति उत्पन्न हुई। इस प्रकार वनमें विचरनेवाले राजा उपरिचरका वीर्य स्खलित हो गया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्कन्नमात्रं च तद् रेतो वृक्षपत्रेण भूमिपः।
प्रतिजग्राह मिथ्या मे न पतेद् रेत इत्युत ॥ ५० ॥
मूलम्
स्कन्नमात्रं च तद् रेतो वृक्षपत्रेण भूमिपः।
प्रतिजग्राह मिथ्या मे न पतेद् रेत इत्युत ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके स्खलित होते ही राजाने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्यर्थ न जाय, उसे वृक्षके पत्तेपर उठा लिया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति।
ऋतुश्च तस्याः पत्न्या मे न मोघः स्यादिति प्रभुः॥५१॥
संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनः पुनः।
अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः ॥ ५२ ॥
मूलम्
इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति।
ऋतुश्च तस्याः पत्न्या मे न मोघः स्यादिति प्रभुः॥५१॥
संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनः पुनः।
अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने विचार किया, ‘मेरा यह स्खलित वीर्य व्यर्थ न हो, साथ ही मेरी पत्नी गिरिकाका ऋतुकाल भी व्यर्थ न जाय’ इस प्रकार बारम्बार विचारकर राजाओंमें श्रेष्ठ वसुने उस वीर्यको अमोघ बनानेका ही निश्चय किया॥५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्याः प्रसमीक्ष्य वै।
अभिमन्त्र्याथ तच्छुक्रमारात् तिष्ठन्तमाशुगम् ॥ ५३ ॥
सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोऽब्रवीत्।
मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय ॥ ५४ ॥
गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै।
गृहीत्वा तत् तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान् ॥ ५५ ॥
मूलम्
शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्याः प्रसमीक्ष्य वै।
अभिमन्त्र्याथ तच्छुक्रमारात् तिष्ठन्तमाशुगम् ॥ ५३ ॥
सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोऽब्रवीत्।
मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय ॥ ५४ ॥
गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै।
गृहीत्वा तत् तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रानीके पास अपना वीर्य भेजनेका उपयुक्त अवसर देख उन्होंने उस वीर्यको पुत्रोत्पत्तिकारक मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित किया। राजा वसु धर्म और अर्थके सूक्ष्मतत्त्वको जाननेवाले थे। उन्होंने अपने विमानके समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्येन पक्षी (बाज)-के पास जाकर कहा—‘सौम्य! तुम मेरा प्रिय करनेके लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और महारानी गिरिकाको शीघ्र दे दो; क्योंकि आज ही उनका ऋतुकाल है।’ बाज वह वीर्य लेकर बड़े वेगके साथ तुरंत वहाँसे उड़ गया॥५३—५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।
तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथापरः ॥ ५६ ॥
मूलम्
जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।
तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथापरः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेगका आश्रय ले उड़ा जा रहा था, इतनेहीमें एक दूसरे बाजने उसे आते देखा॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया।
तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ सम्प्रचक्रतुः ॥ ५७ ॥
मूलम्
अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया।
तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ सम्प्रचक्रतुः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाजको देखते ही उसके पास मांस होनेकी आशंकासे दूसरा बाज तत्काल उसपर टूट पड़ा। फिर वे दोनों पक्षी आकाशमें एक-दूसरेको चोंचोंसे मारते हुए युद्ध करने लगे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यतोरपतद् रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि ।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद् वराप्सराः ॥ ५८ ॥
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी ।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद् वीर्यमथ वासवम् ॥ ५९ ॥
जग्राह तरसोपेत्य साद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः ॥ ६० ॥
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।
उज्जह्रुरुदरात् तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
युध्यतोरपतद् रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि ।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद् वराप्सराः ॥ ५८ ॥
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी ।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद् वीर्यमथ वासवम् ॥ ५९ ॥
जग्राह तरसोपेत्य साद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः ॥ ६० ॥
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।
उज्जह्रुरुदरात् तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके युद्ध करते समय वह वीर्य यमुनाजीके जलमें गिर पड़ा। अद्रिका नामसे विख्यात एक सुन्दरी अप्सरा ब्रह्माजीके शापसे मछली होकर वहीं यमुनाजीके जलमें रहती थी। बाजके पंजेसे छूटकर गिरे हुए वसुसम्बन्धी उस वीर्यको मत्स्यरूपधारिणी अद्रिकाने वेगपूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् दसवाँ मास आनेपर मत्स्यजीवी मल्लाहोंने उस मछलीको जालमें बाँध लिया और उसके उदरको चीरकर एक कन्या और एक पुरुष निकाला॥५८—६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्चर्यभूतं तद् गत्वा राज्ञेऽथ प्रत्यवेदयन्।
काये मत्स्या इमौ राजन् सम्भूतौ मानुषाविति ॥ ६२ ॥
मूलम्
आश्चर्यभूतं तद् गत्वा राज्ञेऽथ प्रत्यवेदयन्।
काये मत्स्या इमौ राजन् सम्भूतौ मानुषाविति ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह आश्चर्यजनक घटना देखकर मछेरोंने राजाके पास जाकर निवेदन किया—‘महाराज! मछलीके पेटसे ये दो मनुष्य बालक उत्पन्न हुए हैं’॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा।
स मत्स्यो नाम राजासीद् धार्मिकः सत्यसंगरः ॥ ६३ ॥
मूलम्
तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा।
स मत्स्यो नाम राजासीद् धार्मिकः सत्यसंगरः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मछेरोंकी बात सुनकर राजा उपरिचरने उस समय उन दोनों बालकोंमेंसे जो पुरुष था, उसे स्वयं ग्रहण कर लिया। वही मत्स्य नामक धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ राजा हुआ॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत।
या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा ॥ ६४ ॥
मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि।
ततः सा जनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिना ॥ ६५ ॥
संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च।
सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः ॥ ६६ ॥
मूलम्
साप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत।
या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा ॥ ६४ ॥
मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि।
ततः सा जनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिना ॥ ६५ ॥
संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च।
सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर वह शुभलक्षणा अप्सरा अद्रिका क्षणभरमें शापमुक्त हो गयी। भगवान् ब्रह्माजीने पहले ही उससे कह दिया था कि ‘तिर्यग्-योनिमें पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानोंको जन्म देकर शापसे छूट जाओगी।’ अतः मछली मारनेवाले मल्लाहने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकोंको जन्म देकर मछलीका रूप छोड़ दिव्य रूपको प्राप्त हो गयी। इस प्रकार वह सुन्दरी अप्सरा सिद्ध महर्षि और चारणोंके पथसे स्वर्गलोकमें चली गयी॥६४—६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी।
राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति ॥ ६७ ॥
मूलम्
सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी।
राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन जुड़वी संतानोंमें जो कन्या थी, मछलीकी पुत्री होनेसे उसके शरीरसे मछलीकी गन्ध आती थी। अतः राजाने उसे मल्लाहको सौंप दिया और कहा—‘यह तेरी पुत्री होकर रहे’॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपसत्त्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात् ॥ ६८ ॥
आसीत् सा मत्स्यगन्धैव कंचित् कालं शुचिस्मिता।
शुश्रूषार्थं पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम् ॥ ६९ ॥
तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद् वै पराशरः।
अतीवरूपसम्पन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम् ॥ ७० ॥
मूलम्
रूपसत्त्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात् ॥ ६८ ॥
आसीत् सा मत्स्यगन्धैव कंचित् कालं शुचिस्मिता।
शुश्रूषार्थं पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम् ॥ ६९ ॥
तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद् वै पराशरः।
अतीवरूपसम्पन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह रूप और सत्त्व (सत्य)-से संयुक्त तथा समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न होनेके कारण ‘सत्यवती’ नामसे प्रसिद्ध हुई। मछेरोंके आश्रयमें रहनेके कारण वह पवित्र मुसकानवाली कन्या कुछ कालतक मत्स्यगन्धा नामसे ही विख्यात रही। वह पिताकी सेवाके लिये यमुनाजीके जलमें नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थयात्राके उद्देश्यसे सब ओर विचरनेवाले महर्षि पराशरने उसे देखा। वह अतिशय रूप-सौन्दर्यसे सुशोभित थी। सिद्धोंके हृदयमें भी उसे पानेकी अभिलाषा जाग उठती थी॥६८—७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरुं मुनिपुङ्गवः ॥ ७१ ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरुं मुनिपुङ्गवः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी हँसी बड़ी मोहक थी, उसकी जाँघें कदलीकी-सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्य वसुकुमारीको देखकर परम बुद्धिमान् मुनिवर पराशरने उसके साथ समागमकी इच्छा प्रकट की॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत।
साब्रवीत् पश्य भगवन् पारावारे स्थितानृषीन् ॥ ७२ ॥
मूलम्
संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत।
साब्रवीत् पश्य भगवन् पारावारे स्थितानृषीन् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा—‘कल्याणी! मेरे साथ संगम करो।’ वह बोली—‘भगवन्! देखिये, नदीके आर-पार दोनों तटोंपर बहुत-से ऋषि खड़े हैं॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवयोर्दृष्टयोरेभिः कथं तु स्यात् समागमः।
एवं तयोक्तो भगवान् नीहारमसृजत् प्रभुः ॥ ७३ ॥
मूलम्
आवयोर्दृष्टयोरेभिः कथं तु स्यात् समागमः।
एवं तयोक्तो भगवान् नीहारमसृजत् प्रभुः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘और हम दोनोंको देख रहे हैं। ऐसी दशामें हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ उसके ऐसा कहनेपर शक्तिशाली भगवान् पराशरने कुहरेकी सृष्टि की॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्।
दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा ॥ ७४ ॥
विस्मिता साभवत् कन्या व्रीडिता च तपस्विनी।
मूलम्
येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्।
दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा ॥ ७४ ॥
विस्मिता साभवत् कन्या व्रीडिता च तपस्विनी।
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे वहाँका सारा प्रदेश अन्धकारसे आच्छादित-सा हो गया। महर्षिद्वारा कुहरेकी सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्या आश्चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी॥७४॥
मूलम् (वचनम्)
सत्यवत्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्धि मां भगवन् कन्यां सदा पितृवशानुगाम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
विद्धि मां भगवन् कन्यां सदा पितृवशानुगाम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवतीने कहा— भगवन्! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिताके अधीन रहनेवाली कुमारी कन्या हूँ॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममानघ।
कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम ॥ ७६ ॥
गृहं गन्तुमृषे चाहं धीमन् न स्थातुमुत्सहे।
एतत् संचिन्त्य भगवन् विधत्स्व यदनन्तरम् ॥ ७७ ॥
मूलम्
त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममानघ।
कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम ॥ ७६ ॥
गृहं गन्तुमृषे चाहं धीमन् न स्थातुमुत्सहे।
एतत् संचिन्त्य भगवन् विधत्स्व यदनन्तरम् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप महर्षे! आपके संयोगसे मेरा कन्याभाव (कुमारीपन) दूषित हो जायगा। द्विजश्रेष्ठ! कन्याभाव दूषित हो जानेपर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूँ। बुद्धिमान् मुनीश्वर! अपने कन्यापनके कलंकित हो जानेपर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन्! इस बातपर भलीभाँति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये॥७६-७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तवतीं तां तु प्रीतिमानृषिसत्तमः।
उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यसि ॥ ७८ ॥
वृणीष्व च वरं भीरु यं त्वमिच्छसि भामिनि।
वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते ॥ ७९ ॥
मूलम्
एवमुक्तवतीं तां तु प्रीतिमानृषिसत्तमः।
उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यसि ॥ ७८ ॥
वृणीष्व च वरं भीरु यं त्वमिच्छसि भामिनि।
वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवतीके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले—‘भीरु! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्या ही रहोगी। भामिनि! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर माँग लो। शुचिस्मिते! आजसे पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्यर्थ नहीं गया है’॥७८-७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्।
स चास्यै भगवान् प्रादान्मनसःकाङ्क्षितं भुवि ॥ ८० ॥
मूलम्
एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्।
स चास्यै भगवान् प्रादान्मनसःकाङ्क्षितं भुवि ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षिके ऐसा कहनेपर सत्यवतीने अपने शरीरमें उत्तम सुमन होनेका वरदान माँगा। भगवान् पराशरने इस भूतलपर उसे वह मनोवांछित वर दे दिया॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता।
जगाम सह संसर्गमृषिणाद्भुतकर्मणा ॥ ८१ ॥
तेन गन्धवतीत्येवं नामास्याः प्रथितं भुवि।
तस्यास्तु योजनाद् गन्धमाजिघ्रन्त नरा भुवि ॥ ८२ ॥
तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्।
मूलम्
ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता।
जगाम सह संसर्गमृषिणाद्भुतकर्मणा ॥ ८१ ॥
तेन गन्धवतीत्येवं नामास्याः प्रथितं भुवि।
तस्यास्तु योजनाद् गन्धमाजिघ्रन्त नरा भुवि ॥ ८२ ॥
तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती नारीपनके समागमोचित गुण (सद्यः ऋतुस्नान आदि)-से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशरके साथ समागम किया। उसके शरीरसे उत्तम गन्ध फैलनेके कारण पृथ्वीपर उसका गन्धवती नाम विख्यात हो गया। इस पृथ्वीपर एक योजन दूरके मनुष्य भी उसकी दिव्य सुगन्धका अनुभव करते थे। इस कारण उसका दूसरा नाम योजनगन्धा हो गया॥८१-८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम् ॥ ८३ ॥
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान् ॥ ८४ ॥
मूलम्
इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम् ॥ ८३ ॥
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार परम उत्तम वर पाकर हर्षोल्लाससे भरी हुई सत्यवतीने महर्षि पराशरका संयोग प्राप्त किया और तत्काल ही एक शिशुको जन्म दिया। यमुनाके द्वीपमें अत्यन्त शक्तिशाली पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए॥८३-८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत् ॥ ८५ ॥
मूलम्
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने मातासे यह कहा—‘आवश्यकता पड़नेपर तुम मेरा स्मरण करना। मैं अवश्य दर्शन दूँगा।’ इतना कहकर माताकी आज्ञा ले व्यासजीने तपस्यामें ही मन लगाया॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तो द्वीपे स यद् बालस्तस्माद् द्वैपायनः स्मृतः ॥ ८६ ॥
मूलम्
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तो द्वीपे स यद् बालस्तस्माद् द्वैपायनः स्मृतः ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे द्वैपायन व्यासजीका जन्म हुआ। वे बाल्यावस्थामें ही यमुनाके द्वीपमें छोड़ दिये गये, इसलिये ‘द्वैपायन’ नामसे प्रसिद्ध हुए॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ततः सत्यवती हृष्टा जगाम स्वं निवेशनम्।
तस्यास्त्वायोजनाद् गन्धमाजिघ्रन्ति नरा भुवि॥
दाशराजस्तु तद्गन्धमाजिघ्रन् प्रीतिमावहत् ।)
मूलम्
(ततः सत्यवती हृष्टा जगाम स्वं निवेशनम्।
तस्यास्त्वायोजनाद् गन्धमाजिघ्रन्ति नरा भुवि॥
दाशराजस्तु तद्गन्धमाजिघ्रन् प्रीतिमावहत् ।)
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सत्यवती प्रसन्नतापूर्वक अपने घरपर गयी। उस दिनसे भूमण्डलके मनुष्य एक योजन दूरसे ही उसकी दिव्य गन्धका अनुभव करने लगे। उसका पिता दाशराज भी उसकी गन्ध सूँघकर बहुत प्रसन्न हुआ।
मूलम् (वचनम्)
दाश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(त्वामाहुर्मत्स्यगन्धेति कथं बाले सुगन्धता।
अपास्य मत्स्यगन्धत्वं केन दत्ता सुगन्धता॥)
मूलम्
(त्वामाहुर्मत्स्यगन्धेति कथं बाले सुगन्धता।
अपास्य मत्स्यगन्धत्वं केन दत्ता सुगन्धता॥)
अनुवाद (हिन्दी)
दाशराजने पूछा— बेटी! तेरे शरीरसे मछलीकी-सी दुर्गन्ध आनेके कारण लोग तुझे ‘मत्स्यगन्धा’ कहा करते थे, फिर तुझमें यह सुगन्ध कहाँसे आ गयी? किसने यह मछलीकी दुर्गन्ध दूर कर तेरे शरीरको सुगन्ध प्रदान की है?
मूलम् (वचनम्)
सत्यवत्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शक्तेः पुत्रो महाप्राज्ञः पराशर इति स्मृतः॥
नावं वाहयमानाया मम दृष्ट्वा सुगर्हितम्।
अपास्य मत्स्यगन्धत्वं योजनाद् गन्धतां ददौ॥
ऋषेः प्रसादं दृष्ट्वा तु जनाः प्रीतिमुपागमन्।)
मूलम्
(शक्तेः पुत्रो महाप्राज्ञः पराशर इति स्मृतः॥
नावं वाहयमानाया मम दृष्ट्वा सुगर्हितम्।
अपास्य मत्स्यगन्धत्वं योजनाद् गन्धतां ददौ॥
ऋषेः प्रसादं दृष्ट्वा तु जनाः प्रीतिमुपागमन्।)
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवती बोली— पिताजी! महर्षि शक्तिके पुत्र महाज्ञानी पराशर हैं, (वे यमुनाजीके तटपर आये थे; उस समय) मैं नाव खे रही थी। उन्होंने मेरी दुर्गन्धताकी ओर लक्ष्य करके मुझपर कृपा की और मेरे शरीरसे मछलीकी गन्ध दूर करके ऐसी सुगन्ध दे दी, जो एक योजन दूरतक अपना प्रभाव रखती है। महर्षिका यह कृपाप्रसाद देखकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादापसारिणं धर्मं स तु विद्वान् युगे युगे।
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्य च ॥ ८७ ॥
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया।
विव्यास वेदान् यस्मात् स तस्माद् व्यास इति स्मृतः॥८८॥
मूलम्
पादापसारिणं धर्मं स तु विद्वान् युगे युगे।
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्य च ॥ ८७ ॥
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया।
विव्यास वेदान् यस्मात् स तस्माद् व्यास इति स्मृतः॥८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् द्वैपायनजीने देखा कि प्रत्येक युगमें धर्मका एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा है। मनुष्योंकी आयु और शक्ति क्षीण हो चली है और युगकी ऐसी दुरवस्था हो गयी है। यह सब देख-सुनकर उन्होंने वेद और ब्राह्मणोंपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे वेदोंका व्यास (विस्तार) किया। इसलिये वे व्यास नामसे विख्यात हुए॥८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान् ।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम् ॥ ८९ ॥
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशम्पायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः ॥ ९० ॥
मूलम्
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान् ।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम् ॥ ८९ ॥
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशम्पायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वश्रेष्ठ वरदायक भगवान् व्यासने चारों वेदों तथा पाँचवें वेद महाभारतका अध्ययन सुमन्तु, जैमिनि, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायनको कराया। फिर उन सबने पृथक्-पृथक् महाभारतकी संहिताएँ प्रकाशित कीं॥८९-९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा भीष्मः शान्तनवो गङ्गायाममितद्युतिः।
वसुवीर्यात् समभवन्महावीर्यो महायशाः ॥ ९१ ॥
मूलम्
तथा भीष्मः शान्तनवो गङ्गायाममितद्युतिः।
वसुवीर्यात् समभवन्महावीर्यो महायशाः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमिततेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म आठवें वसुके अंशसे तथा गंगाजीके गर्भसे उत्पन्न हुए। वे महान् पराक्रमी और अत्यन्त यशस्वी थे॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदार्थविच्च भगवानृषिर्विप्रो महायशाः ।
शूले प्रोतः पुराणर्षिरचौरश्चौरशङ्कया ॥ ९२ ॥
अणीमाण्डव्य इत्येवं विख्यातः स महायशाः।
स धर्ममाहूय पुरा महर्षिरिदमुक्तवान् ॥ ९३ ॥
मूलम्
वेदार्थविच्च भगवानृषिर्विप्रो महायशाः ।
शूले प्रोतः पुराणर्षिरचौरश्चौरशङ्कया ॥ ९२ ॥
अणीमाण्डव्य इत्येवं विख्यातः स महायशाः।
स धर्ममाहूय पुरा महर्षिरिदमुक्तवान् ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालकी बात है वेदार्थोंके ज्ञाता, महान् यशस्वी, पुरातन मुनि, ब्रह्मर्षि भगवान् अणीमाण्डव्य चोर न होते हुए भी चोरके संदेहसे शूलीपर चढ़ा दिये गये। परलोकमें जानेपर उन महायशस्वी महर्षिने पहले धर्मको बुलाकर इस प्रकार कहा—॥९२-९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इषीकया मया बाल्याद् विद्धा ह्येका शकुन्तिका।
तत् किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत् पापमहं स्मरे ॥ ९४ ॥
मूलम्
इषीकया मया बाल्याद् विद्धा ह्येका शकुन्तिका।
तत् किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत् पापमहं स्मरे ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मराज! पहले कभी मैंने बाल्यावस्थाके कारण सींकसे एक चिड़ियेके बच्चेको छेद दिया था। वही एक पाप मुझे याद आ रहा है। अपने दूसरे किसी पापका मुझे स्मरण नहीं है॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्मे सहस्रममितं कस्मान्नेहाजयत् तपः।
गरीयान् ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधाद् यतः ॥ ९५ ॥
मूलम्
तन्मे सहस्रममितं कस्मान्नेहाजयत् तपः।
गरीयान् ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधाद् यतः ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने अगणित सहस्रगुना तप किया है। फिर उस तपने मेरे छोटे-से पापको क्यों नहीं नष्ट कर दिया। ब्राह्मणका वध समस्त प्राणियोंके वधसे बड़ा है॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वं किल्बिषी धर्म शूद्रयोनौ जनिष्यसि।
तेन शापेन धर्मोऽपि शूद्रयोनावजायत ॥ ९६ ॥
मूलम्
तस्मात् त्वं किल्बिषी धर्म शूद्रयोनौ जनिष्यसि।
तेन शापेन धर्मोऽपि शूद्रयोनावजायत ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘(तुमने मुझे शूलीपर चढ़वाकर वही पाप किया है) इसलिये तुम पापी हो। अतः पृथ्वीपर शूद्रकी योनिमें तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा।’ अणीमाण्डव्यके उस शापसे धर्म भी शूद्रकी योनिमें उत्पन्न हुए॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्वान् विदुररूपेण धार्मी तनुरकिल्बिषी।
संजयो मुनिकल्पस्तु जज्ञे सूतो गवल्गणात् ॥ ९७ ॥
मूलम्
विद्वान् विदुररूपेण धार्मी तनुरकिल्बिषी।
संजयो मुनिकल्पस्तु जज्ञे सूतो गवल्गणात् ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापरहित विद्वान् विदुरके रूपमें धर्मराजका शरीर ही प्रकट हुआ था। उसी समय गवल्गणसे संजय नामक सूतका जन्म हुआ, जो मुनियोंके समान ज्ञानी और धर्मात्मा थे॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्याच्च कुन्तिकन्याया जज्ञे कर्णो महाबलः।
सहजं कवचं बिभ्रत् कुण्डलो द्योतिताननः ॥ ९८ ॥
मूलम्
सूर्याच्च कुन्तिकन्याया जज्ञे कर्णो महाबलः।
सहजं कवचं बिभ्रत् कुण्डलो द्योतिताननः ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा कुन्तिभोजकी कन्या कुन्तीके गर्भसे सूर्यके अंशसे महाबली कर्णकी उत्पत्ति हुई। वह बालक जन्मके साथ ही कवचधारी था। उसका मुख शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए कुण्डलकी प्रभासे प्रकाशित होता था॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोकनमस्कृतः ।
वसुदेवात् तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः ॥ ९९ ॥
मूलम्
अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोकनमस्कृतः ।
वसुदेवात् तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं दिनों विश्ववन्दित महायशस्वी भगवान् विष्णु जगत्के जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये वसुदेवजीके द्वारा देवकीके गर्भसे प्रकट हुए॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादिनिधनो देवः स कर्ता जगतः प्रभुः।
अव्यक्तमक्षरं ब्रह्म प्रधानं त्रिगुणात्मकम् ॥ १०० ॥
मूलम्
अनादिनिधनो देवः स कर्ता जगतः प्रभुः।
अव्यक्तमक्षरं ब्रह्म प्रधानं त्रिगुणात्मकम् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भगवान् आदि-अन्तसे रहित, द्युतिमान्, सम्पूर्ण जगत्के कर्ता तथा प्रभु हैं। उन्हींको अव्यक्त अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म और त्रिगुणमय प्रधान कहते हैं॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमव्ययं चैव प्रकृतिं प्रभवं प्रभुम्।
पुरुषं विश्वकर्माणं सत्त्वयोगं ध्रुवाक्षरम् ॥ १०१ ॥
अनन्तमचलं देवं हंसं नारायणं प्रभुम्।
धातारमजमव्यक्तं यमाहुः परमव्ययम् ॥ १०२ ॥
कैवल्यं निर्गुणं विश्वमनादिमजमव्ययम् ।
पुरुषः स विभुः कर्ता सर्वभूतपितामहः ॥ १०३ ॥
मूलम्
आत्मानमव्ययं चैव प्रकृतिं प्रभवं प्रभुम्।
पुरुषं विश्वकर्माणं सत्त्वयोगं ध्रुवाक्षरम् ॥ १०१ ॥
अनन्तमचलं देवं हंसं नारायणं प्रभुम्।
धातारमजमव्यक्तं यमाहुः परमव्ययम् ॥ १०२ ॥
कैवल्यं निर्गुणं विश्वमनादिमजमव्ययम् ।
पुरुषः स विभुः कर्ता सर्वभूतपितामहः ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा, अव्यय, प्रकृति (उपादान), प्रभव (उत्पत्ति-कारण), प्रभु (अधिष्ठाता), पुरुष (अन्तर्यामी), विश्वकर्मा, सत्त्वगुणसे प्राप्त होने योग्य तथा प्रणवाक्षर भी वे ही हैं; उन्हींको अनन्त, अचल, देव, हंस, नारायण, प्रभु, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, पर, अव्यय, कैवल्य, निर्गुण, विश्वरूप, अनादि, जन्मरहित और अविकारी कहा गया है। वे सर्वव्यापी, परम पुरुष परमात्मा, सबके कर्ता और सम्पूर्ण भूतोंके पितामह हैं॥१०१—१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मसंवर्धनार्थाय प्रजज्ञेऽन्धकवृष्णिषु ।
अस्त्रज्ञौ तु महावीर्यौ सर्वशास्त्रविशारदौ ॥ १०४ ॥
मूलम्
धर्मसंवर्धनार्थाय प्रजज्ञेऽन्धकवृष्णिषु ।
अस्त्रज्ञौ तु महावीर्यौ सर्वशास्त्रविशारदौ ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने ही धर्मकी वृद्धिके लिये अन्धक और वृष्णिकुलमें बलराम और श्रीकृष्णरूपमें अवतार लिया था। वे दोनों भाई सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, महापराक्रमी और समस्त शास्त्रोंके ज्ञानमें परम प्रवीण थे॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिः कृतवर्मा च नारायणमनुव्रतौ।
सत्यकाद् हृदिकाच्चैव जज्ञातेऽस्त्रविशारदौ ॥ १०५ ॥
मूलम्
सात्यकिः कृतवर्मा च नारायणमनुव्रतौ।
सत्यकाद् हृदिकाच्चैव जज्ञातेऽस्त्रविशारदौ ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यकसे सात्यकि और हृदिकसे कृतवर्माका जन्म हुआ था। वे दोनों अस्त्रविद्यामें अत्यन्त निपुण और भगवान् श्रीकृष्णके अनुगामी थे॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरद्वाजस्य च स्कन्नं द्रोण्यां शुक्रमवर्धत।
महर्षेरुग्रतपसस्तस्माद् द्रोणो व्यजायत ॥ १०६ ॥
मूलम्
भरद्वाजस्य च स्कन्नं द्रोण्यां शुक्रमवर्धत।
महर्षेरुग्रतपसस्तस्माद् द्रोणो व्यजायत ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय उग्रतपस्वी महर्षि भरद्वाजका वीर्य किसी द्रोणी (पर्वतकी गुफा)-में स्खलित होकर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा। उसीसे द्रोणका जन्म हुआ॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौतमान्मिथुनं जज्ञे शरस्तम्बाच्छरद्वतः ।
अश्वत्थाम्नश्च जननी कृपश्चैव महाबलः ॥ १०७ ॥
मूलम्
गौतमान्मिथुनं जज्ञे शरस्तम्बाच्छरद्वतः ।
अश्वत्थाम्नश्च जननी कृपश्चैव महाबलः ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी समय गौतमगोत्रीय शरद्वान्का वीर्य सरकंडेके समूहपर गिरा और दो भागोंमें बँट गया। उसीसे एक कन्या और एक पुत्रका जन्म हुआ। कन्याका नाम कृपी था, जो अश्वत्थामाकी जननी हुई। पुत्र महाबली कृपके नामसे विख्यात हुआ॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा ततो जज्ञे द्रोणादेव महाबलः।
तथैव धृष्टद्युम्नोऽपि साक्षादग्निसमद्युतिः ॥ १०८ ॥
वैताने कर्मणि ततः पावकात् समजायत।
वीरो द्रोणविनाशाय धनुरादाय वीर्यवान् ॥ १०९ ॥
मूलम्
अश्वत्थामा ततो जज्ञे द्रोणादेव महाबलः।
तथैव धृष्टद्युम्नोऽपि साक्षादग्निसमद्युतिः ॥ १०८ ॥
वैताने कर्मणि ततः पावकात् समजायत।
वीरो द्रोणविनाशाय धनुरादाय वीर्यवान् ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर द्रोणाचार्यसे महाबली अश्वत्थामाका जन्म हुआ। इसी प्रकार यज्ञकर्मका अनुष्ठान होते समय प्रज्वलित अग्निसे धृष्टद्युम्नका प्रादुर्भाव हुआ, जो साक्षात् अग्निदेवके समान तेजस्वी था। पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्यका विनाश करनेके लिये धनुष लेकर प्रकट हुआ था॥१०८-१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैव वेद्यां कृष्णापि जज्ञे तेजस्विनी शुभा।
विभ्राजमाना वपुषा बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ ११० ॥
मूलम्
तत्रैव वेद्यां कृष्णापि जज्ञे तेजस्विनी शुभा।
विभ्राजमाना वपुषा बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी यज्ञकी वेदीसे शुभस्वरूपा तेजस्विनी द्रौपदी उत्पन्न हुई, जो परम उत्तम रूप धारण करके अपने सुन्दर शरीरसे अत्यन्त शोभा पा रही थी॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्रादशिष्यो नग्नजित् सुबलश्चाभवत् ततः।
तस्य प्रजा धर्महन्त्री जज्ञे देवप्रकोपनात् ॥ १११ ॥
गान्धारराजपुत्रोऽभूच्छकुनिः सौबलस्तथा ।
दुर्योधनस्य जननी जज्ञातेऽर्थविशारदौ ॥ ११२ ॥
मूलम्
प्रह्रादशिष्यो नग्नजित् सुबलश्चाभवत् ततः।
तस्य प्रजा धर्महन्त्री जज्ञे देवप्रकोपनात् ॥ १११ ॥
गान्धारराजपुत्रोऽभूच्छकुनिः सौबलस्तथा ।
दुर्योधनस्य जननी जज्ञातेऽर्थविशारदौ ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्रादका शिष्य नग्नजित् राजा सुबलके रूपमें प्रकट हुआ। देवताओंके कोपसे उसकी संतति (शकुनि) धर्मका नाश करनेवाली हुई। गान्धारराज सुबलका पुत्र शकुनि एवं सौबल नामसे विख्यात हुआ तथा उनकी पुत्री गान्धारी दुर्योधनकी माता थी। ये दोनों भाई-बहिन अर्थशास्त्रके ज्ञानमें निपुण थे॥१११-११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णद्वैपायनाज्जज्ञे धृतराष्ट्रो जनेश्वरः ।
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य पाण्डुश्चैव महाबलः ॥ ११३ ॥
धर्मार्थकुशलो धीमान् मेधावी धूतकल्मषः।
विदुरः शूद्रयोनौ तु जज्ञे द्वैपायनादपि ॥ ११४ ॥
पाण्डोस्तु जज्ञिरे पञ्च पुत्रा देवसमाः पृथक्।
द्वयोः स्त्रियोर्गुणज्येष्ठस्तेषामासीद् युधिष्ठिरः ॥ ११५ ॥
मूलम्
कृष्णद्वैपायनाज्जज्ञे धृतराष्ट्रो जनेश्वरः ।
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य पाण्डुश्चैव महाबलः ॥ ११३ ॥
धर्मार्थकुशलो धीमान् मेधावी धूतकल्मषः।
विदुरः शूद्रयोनौ तु जज्ञे द्वैपायनादपि ॥ ११४ ॥
पाण्डोस्तु जज्ञिरे पञ्च पुत्रा देवसमाः पृथक्।
द्वयोः स्त्रियोर्गुणज्येष्ठस्तेषामासीद् युधिष्ठिरः ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा विचित्रवीर्यकी क्षेत्रभूता अम्बिका और अम्बालिकाके गर्भसे कृष्णद्वैपायन व्यासद्वारा राजा धृतराष्ट्र और महाबली पाण्डुका जन्म हुआ। द्वैपायन व्याससे ही शूद्रजातीय स्त्रीके गर्भसे विदुरजीका भी जन्म हुआ था। वे धर्म और अर्थके ज्ञानमें निपुण, बुद्धिमान्, मेधावी और निष्पाप थे। पाण्डुसे दो स्त्रियोंके द्वारा पृथक्-पृथक् पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब-के-सब देवताओंके समान थे। उन सबमें बड़े युधिष्ठिर थे। वे उत्तम गुणोंमें भी सबसे बढ़-चढ़कर थे॥११३—११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माद् युधिष्ठिरो जज्ञे मारुताच्च वृकोदरः।
इन्द्राद् धनंजयः श्रीमान् सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ११६ ॥
जज्ञाते रूपसम्पन्नावश्विभ्यां च यमावपि।
नकुलः सहदेवश्च गुरुशुश्रूषणे रतौ ॥ ११७ ॥
मूलम्
धर्माद् युधिष्ठिरो जज्ञे मारुताच्च वृकोदरः।
इन्द्राद् धनंजयः श्रीमान् सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ११६ ॥
जज्ञाते रूपसम्पन्नावश्विभ्यां च यमावपि।
नकुलः सहदेवश्च गुरुशुश्रूषणे रतौ ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर धर्मसे, भीमसेन वायुदेवतासे, सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीमान् अर्जुन इन्द्रदेवसे तथा सुन्दर रूपवाले नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारोंसे उत्पन्न हुए थे। वे जुड़वें पैदा हुए थे। नकुल और सहदेव सदा गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर रहते थे॥११६-११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
दुर्योधनप्रभृतयो युयुत्सुः करणस्तथा ॥ ११८ ॥
मूलम्
तथा पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
दुर्योधनप्रभृतयो युयुत्सुः करणस्तथा ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए। इनके अतिरिक्त युयुत्सु भी उन्हींका पुत्र था। वह वैश्यजातीय मातासे उत्पन्न होनेके कारण ‘करण[^*]’ कहलाता था॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुःशासनश्चैव दुःसहश्चापि भारत।
दुर्मर्षणो विकर्णश्च चित्रसेनो विविंशतिः ॥ ११९ ॥
जयः सत्यव्रतश्चैव पुरुमित्रश्च भारत।
वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च एकादश महारथाः ॥ १२० ॥
मूलम्
ततो दुःशासनश्चैव दुःसहश्चापि भारत।
दुर्मर्षणो विकर्णश्च चित्रसेनो विविंशतिः ॥ ११९ ॥
जयः सत्यव्रतश्चैव पुरुमित्रश्च भारत।
वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च एकादश महारथाः ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी जनमेजय! धृतराष्ट्रके पुत्रोंमें दुर्योधन, दुःशासन, दुःसह, दुर्मर्षण, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति, जय, सत्यव्रत, पुरुमित्र तथा वैश्यापुत्र युयुत्सु—ये ग्यारह महारथी थे॥११९-१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमन्युः सुभद्रायामर्जुनादभ्यजायत ।
स्वस्रीयो वासुदेवस्य पौत्रः पाण्डोर्महात्मनः ॥ १२१ ॥
मूलम्
अभिमन्युः सुभद्रायामर्जुनादभ्यजायत ।
स्वस्रीयो वासुदेवस्य पौत्रः पाण्डोर्महात्मनः ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा सुभद्राके गर्भसे अभिमन्युका जन्म हुआ। वह महात्मा पाण्डुका पौत्र और भगवान् श्रीकृष्णका भानजा था॥१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवेभ्यो हि पाञ्चाल्यां द्रौपद्यां पञ्च जज्ञिरे।
कुमारा रूपसम्पन्नाः सर्वशास्त्रविशारदाः ॥ १२२ ॥
मूलम्
पाण्डवेभ्यो हि पाञ्चाल्यां द्रौपद्यां पञ्च जज्ञिरे।
कुमारा रूपसम्पन्नाः सर्वशास्त्रविशारदाः ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंद्वारा द्रौपदीके गर्भसे पाँच पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो बड़े ही सुन्दर और सब शास्त्रोंमें निपुण थे॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात् सुतसोमो वृकोदरात्।
अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः ॥ १२३ ॥
तथैव सहदेवाच्च श्रुतसेनः प्रतापवान्।
हिडिम्बायां च भीमेन वने जज्ञे घटोत्कचः ॥ १२४ ॥
मूलम्
प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात् सुतसोमो वृकोदरात्।
अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः ॥ १२३ ॥
तथैव सहदेवाच्च श्रुतसेनः प्रतापवान्।
हिडिम्बायां च भीमेन वने जज्ञे घटोत्कचः ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे सुतसोम, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे शतानीक तथा सहदेवसे प्रतापी श्रुतसेनका जन्म हुआ था। भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासे वनमें घटोत्कच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥ १२३-१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डी द्रुपदाज्जज्ञे कन्या पुत्रत्वमागता।
यां यक्षः पुरुषं चक्रे स्थूणः प्रियचिकीर्षया ॥ १२५ ॥
मूलम्
शिखण्डी द्रुपदाज्जज्ञे कन्या पुत्रत्वमागता।
यां यक्षः पुरुषं चक्रे स्थूणः प्रियचिकीर्षया ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा द्रुपदसे शिखण्डी नामकी एक कन्या हुई, जो आगे चलकर पुत्ररूपमें परिणत हो गयी। स्थूणाकर्ण नामक यक्षने उसका प्रिय करनेकी इच्छासे उसे पुरुष बना दिया था॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरूणां विग्रहे तस्मिन् समागच्छन् बहून् यथा।
राज्ञां शतसहस्राणि योत्स्यमानानि संयुगे ॥ १२६ ॥
तेषामपरिमेयानां नामधेयानि सर्वशः ।
न शक्यानि समाख्यातुं वर्षाणामयुतैरपि।
एते तु कीर्तिता मुख्या यैराख्यानमिदं ततम् ॥ १२७ ॥
मूलम्
कुरूणां विग्रहे तस्मिन् समागच्छन् बहून् यथा।
राज्ञां शतसहस्राणि योत्स्यमानानि संयुगे ॥ १२६ ॥
तेषामपरिमेयानां नामधेयानि सर्वशः ।
न शक्यानि समाख्यातुं वर्षाणामयुतैरपि।
एते तु कीर्तिता मुख्या यैराख्यानमिदं ततम् ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंके उस महासमरमें युद्ध करनेके लिये राजाओंके कई लाख योद्धा आये थे। दस हजार वर्षोंतक गिनती की जाय तो भी उन असंख्य योद्धाओंके नाम पूर्णतः नहीं बताये जा सकते। यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य राजाओंके नाम बताये गये हैं, जिनके चरित्रोंसे इस महाभारत-कथाका विस्तार हुआ है॥१२६-१२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि व्यासाद्युत्पत्तौ त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें व्यास आदिकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल १३१ श्लोक हैं)