श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजाका आस्तीकको वर देनेके लिये तैयार होना, तक्षक नागकी व्याकुलता तथा आस्तीकका वर माँगना
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालोऽप्ययं स्थविर इवावभाषते
नायं बालः स्थविरोऽयं मतो मे।
इच्छाम्यहं वरमस्मै प्रदातुं
तन्मे विप्राः संविदध्वं यथावत् ॥ १ ॥
मूलम्
बालोऽप्ययं स्थविर इवावभाषते
नायं बालः स्थविरोऽयं मतो मे।
इच्छाम्यहं वरमस्मै प्रदातुं
तन्मे विप्राः संविदध्वं यथावत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने कहा— ब्राह्मणो! यह बालक है तो भी वृद्ध पुरुषोंके समान बात करता है, इसलिये मैं इसे बालक नहीं, वृद्ध मानता हूँ और इसको वर देना चाहता हूँ। इस विषयमें आपलोग अच्छी तरह विचार करके अपनी सम्मति दें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
सदस्या ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालोऽपि विप्रो मान्य एवेह राज्ञां
विद्वान् यो वै स पुनर्वै यथावत्।
सर्वान् कामांस्त्वत्त एवार्हतेऽद्य
यथा च नस्तक्षक एति शीघ्रम् ॥ २ ॥
मूलम्
बालोऽपि विप्रो मान्य एवेह राज्ञां
विद्वान् यो वै स पुनर्वै यथावत्।
सर्वान् कामांस्त्वत्त एवार्हतेऽद्य
यथा च नस्तक्षक एति शीघ्रम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदस्योंने कहा— ब्राह्मण यदि बालक हो तो भी यहाँ राजाओंके लिये सम्माननीय ही है। यदि वह विद्वान् हो तब तो कहना ही क्या है? अतः यह ब्राह्मण बालक आज आपसे यथोचित रीतिसे अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको पानेके योग्य है, किंतु वर देनेसे पहले तक्षक नाग चाहे जैसे भी शीघ्रतापूर्वक हमारे पास आ पहुँचे, वैसा उपाय करना चाहिये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याहर्तुकामे वरदे नृपे द्विजं
वरं वृणीष्वेति ततोऽभ्युवाच ।
होता वाक्यं नातिहृष्टान्तरात्मा
कर्मण्यस्मिंस्तक्षको नैति तावत् ॥ ३ ॥
मूलम्
व्याहर्तुकामे वरदे नृपे द्विजं
वरं वृणीष्वेति ततोऽभ्युवाच ।
होता वाक्यं नातिहृष्टान्तरात्मा
कर्मण्यस्मिंस्तक्षको नैति तावत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनक! तदनन्तर वर देनेके लिये उद्यत राजा जनमेजय विप्रवर आस्तीकसे यह कहना ही चाहते थे कि ‘तुम मुँहमाँगा वर माँग लो।’ इतनेमें ही होता, जिसका मन अधिक प्रसन्न नहीं था, बोल उठा—‘हमारे इस यज्ञकर्ममें तक्षक नाग तो अभीतक आया ही नहीं’॥३॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चेदं कर्म समाप्यते मे
यथा च वै तक्षक एति शीघ्रम्।
तथा भवन्तः प्रयतन्तु सर्वे
परं शक्त्या स हि मे विद्विषाणः ॥ ४ ॥
मूलम्
यथा चेदं कर्म समाप्यते मे
यथा च वै तक्षक एति शीघ्रम्।
तथा भवन्तः प्रयतन्तु सर्वे
परं शक्त्या स हि मे विद्विषाणः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने कहा— ब्राह्मणो! जैसे भी यह कर्म पूरा हो जाय और जिस प्रकार भी तक्षक नाग शीघ्र यहाँ आ जाय, आपलोग पूरी शक्ति लगाकर वैसा ही प्रयत्न कीजिये; क्योंकि मेरा असली शत्रु तो वही है॥४॥
मूलम् (वचनम्)
ऋत्विज ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शास्त्राणि नः प्राहुर्यथा शंसति पावकः।
इन्द्रस्य भवने राजंस्तक्षको भयपीडितः ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा शास्त्राणि नः प्राहुर्यथा शंसति पावकः।
इन्द्रस्य भवने राजंस्तक्षको भयपीडितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋत्विज बोले— राजन्! हमारे शास्त्र जैसा कहते हैं तथा अग्निदेव जैसी बात बता रहे हैं, उसके अनुसार तो तक्षक नाग भयसे पीड़ित हो इन्द्रके भवनमें छिपा हुआ है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सूतो लोहिताक्षो महात्मा
पौराणिको वेदितवान् पुरस्तात् ।
स राजानं प्राह पृष्टस्तदानीं
यथाहुर्विप्रास्तद्वदेतन्नृदेव ॥ ६ ॥
मूलम्
यथा सूतो लोहिताक्षो महात्मा
पौराणिको वेदितवान् पुरस्तात् ।
स राजानं प्राह पृष्टस्तदानीं
यथाहुर्विप्रास्तद्वदेतन्नृदेव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लाल नेत्रोंवाले पुराणवेत्ता महात्मा सूतजीने पहले ही यह बात सूचित कर दी थी। तब राजाने सूतजीसे इसके विषयमें पूछा। पूछनेपर उन्होंने राजासे कहा—‘नरदेव! ब्राह्मणलोग जैसी बात कह रहे हैं, वह ठीक वैसी ही है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराणमागम्य ततो ब्रवीम्यहं
दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन्।
वसेह त्वं मत्सकाशे सुगुप्तो
न पावकस्त्वां प्रदहिष्यतीति ॥ ७ ॥
मूलम्
पुराणमागम्य ततो ब्रवीम्यहं
दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन्।
वसेह त्वं मत्सकाशे सुगुप्तो
न पावकस्त्वां प्रदहिष्यतीति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! पुराणको जानकर मैं यह कह रहा हूँ कि इन्द्रने तक्षकको वर दिया है—‘नागराज! तुम यहाँ मेरे समीप सुरक्षित होकर रहो। सर्पसत्रकी आग तुम्हें नहीं जला सकेगी’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा दीक्षितस्तप्यमान
आस्ते होतारं चोदयन् कर्मकाले।
होता च यत्तोऽस्याजुहावाथ मन्त्रै-
रथो महेन्द्रः स्वयमाजगाम ॥ ८ ॥
विमानमारुह्य महानुभावः
सर्वैर्देवैः परिसंस्तूयमानः ।
बलाहकैश्चाप्यनुगम्यमानो
विद्याधरैरप्सरसां गणैश्च ॥ ९ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा दीक्षितस्तप्यमान
आस्ते होतारं चोदयन् कर्मकाले।
होता च यत्तोऽस्याजुहावाथ मन्त्रै-
रथो महेन्द्रः स्वयमाजगाम ॥ ८ ॥
विमानमारुह्य महानुभावः
सर्वैर्देवैः परिसंस्तूयमानः ।
बलाहकैश्चाप्यनुगम्यमानो
विद्याधरैरप्सरसां गणैश्च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करनेवाले यजमान राजा जनमेजय संतप्त हो उठे और कर्मके समय होता-को इन्द्रसहित तक्षक नागका आकर्षण करनेके लिये प्रेरित करने लगे। तब होताने एकाग्रचित्त होकर मन्त्रोंद्वारा इन्द्रसहित तक्षकका आवाहन किया। तब स्वयं देवराज इन्द्र विमानपर बैठकर आकाशमार्गसे चल पड़े। उस समय सम्पूर्ण देवता सब ओरसे घेरकर उन महानुभाव इन्द्रकी स्तुति कर रहे थे। अप्सराएँ, मेघ और विद्याधर भी उनके पीछे-पीछे आ रहे थे॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योत्तरीये निहितः स नागो
भयोद्विग्नः शर्म नैवाभ्यगच्छत् ।
ततो राजा मन्त्रविदोऽब्रवीत् पुनः
क्रुद्धो वाक्यं तक्षकस्यान्तमिच्छन् ॥ १० ॥
मूलम्
तस्योत्तरीये निहितः स नागो
भयोद्विग्नः शर्म नैवाभ्यगच्छत् ।
ततो राजा मन्त्रविदोऽब्रवीत् पुनः
क्रुद्धो वाक्यं तक्षकस्यान्तमिच्छन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तक्षक नाग उन्हींके उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे)-में छिपा था। भयसे उद्विग्न होनेके कारण तक्षकको तनिक भी चैन नहीं आता था। इधर राजा जनमेजय तक्षकका नाश चाहते हुए कुपित होकर पुनः मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंसे बोले॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रस्य भवने विप्रा यदि नागः स तक्षकः।
तमिन्द्रेणैव सहितं पातयध्वं विभावसौ ॥ ११ ॥
मूलम्
इन्द्रस्य भवने विप्रा यदि नागः स तक्षकः।
तमिन्द्रेणैव सहितं पातयध्वं विभावसौ ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने कहा— विप्रगण! यदि तक्षक नाग इन्द्रके विमानमें छिपा हुआ है तो उसे इन्द्रके साथ ही अग्निमें गिरा दो॥११॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमेजयेन राज्ञा तु नोदितस्तक्षकं प्रति।
होता जुहाव तत्रस्थं तक्षकं पन्नगं तथा ॥ १२ ॥
मूलम्
जनमेजयेन राज्ञा तु नोदितस्तक्षकं प्रति।
होता जुहाव तत्रस्थं तक्षकं पन्नगं तथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— राजा जनमेजयके द्वारा इस प्रकार तक्षककी आहुतिके लिये प्रेरित हो होताने इन्द्रके समीपवर्ती तक्षक नागका अग्निमें आवाहन किया—उसके नामकी आहुति डाली॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हूयमाने तथा चैव तक्षकः सपुरन्दरः।
आकाशे ददृशे चैव क्षणेन व्यथितस्तदा ॥ १३ ॥
मूलम्
हूयमाने तथा चैव तक्षकः सपुरन्दरः।
आकाशे ददृशे चैव क्षणेन व्यथितस्तदा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आहुति दी जानेपर क्षणभरमें इन्द्रसहित तक्षक नाग आकाशमें दिखायी दिया। उस समय उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरन्दरस्तु तं यज्ञं दृष्ट्वोरुभयमाविशत्।
हित्वा तु तक्षकं त्रस्तः स्वमेव भवनं ययौ ॥ १४ ॥
मूलम्
पुरन्दरस्तु तं यज्ञं दृष्ट्वोरुभयमाविशत्।
हित्वा तु तक्षकं त्रस्तः स्वमेव भवनं ययौ ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यज्ञको देखते ही इन्द्र अत्यन्त भयभीत हो उठे और तक्षक नागको वहीं छोड़कर बड़ी घबराहटके साथ अपने भवनको ही चलते बने॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रे गते तु नागेन्द्रस्तक्षको भयमोहितः।
मन्त्रशक्त्या पावकार्चिः समीपमवशो गतः ॥ १५ ॥
मूलम्
इन्द्रे गते तु नागेन्द्रस्तक्षको भयमोहितः।
मन्त्रशक्त्या पावकार्चिः समीपमवशो गतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके चले जानेपर नागराज तक्षक भयसे मोहित हो मन्त्रशक्तिसे खिंचकर विवशतापूर्वक अग्निकी ज्वालाके समीप आने लगा॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
ऋत्विज ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तते तव राजेन्द्र कर्मैतद् विधिवत् प्रभो।
अस्मै तु द्विजमुख्याय वरं त्वं दातुमर्हसि ॥ १६ ॥
मूलम्
वर्तते तव राजेन्द्र कर्मैतद् विधिवत् प्रभो।
अस्मै तु द्विजमुख्याय वरं त्वं दातुमर्हसि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋत्विजोंने कहा— राजेन्द्र! आपका यह यज्ञकर्म विधिपूर्वक सम्पन्न हो रहा है। अब आप इन विप्रवर आस्तीकको मनोवांछित वर दे सकते हैं॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालाभिरूपस्य तवाप्रमेय
वरं प्रयच्छामि यथानुरूपम् ।
वृणीष्व यत् तेऽभिमतं हृदि स्थितं
तत् ते प्रदास्याम्यपि चेददेयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
बालाभिरूपस्य तवाप्रमेय
वरं प्रयच्छामि यथानुरूपम् ।
वृणीष्व यत् तेऽभिमतं हृदि स्थितं
तत् ते प्रदास्याम्यपि चेददेयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने कहा— ब्राह्मणबालक! तुम अप्रमेय हो—तुम्हारी प्रतिभाकी कोई सीमा नहीं है। मैं तुम-जैसे विद्वान्के लिये वर देना चाहता हूँ। तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट कामना हो, उसे बताओ। वह देनेयोग्य न होगी, तो भी तुम्हें अवश्य दे दूँगा॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
ऋत्विज ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयमायाति तूर्णं स तक्षकस्ते वशं नृप।
श्रूयतेऽस्य महान् नादो नदतो भैरवं रवम् ॥ १८ ॥
मूलम्
अयमायाति तूर्णं स तक्षकस्ते वशं नृप।
श्रूयतेऽस्य महान् नादो नदतो भैरवं रवम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋत्विज बोले— राजन्! यह तक्षक नाग अब शीघ्र ही तुम्हारे वशमें आ रहा है। वह बड़ी भयानक आवाजमें चीत्कार कर रहा है। उसकी भारी चिल्लाहट अब सुनायी देने लगी है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं मुक्तो वज्रभृता स नागो
भ्रष्टो नाकान्मन्त्रविस्रस्तकायः ।
घूर्णन्नाकाशे नष्टसंज्ञोऽभ्युपैति
तीव्रान् निःश्वासान् निःश्वसन् पन्नगेन्द्रः ॥ १९ ॥
मूलम्
नूनं मुक्तो वज्रभृता स नागो
भ्रष्टो नाकान्मन्त्रविस्रस्तकायः ।
घूर्णन्नाकाशे नष्टसंज्ञोऽभ्युपैति
तीव्रान् निःश्वासान् निःश्वसन् पन्नगेन्द्रः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही इन्द्रने उस नागराज तक्षकको त्याग दिया है। उसका विशाल शरीर मन्त्रद्वारा आकृष्ट होकर स्वर्गलोकसे नीचे गिर पड़ा है। वह आकाशमें चक्कर काटता अपनी सुध-बुध खो चुका है और बड़े वेगसे लम्बी साँसें छोड़ता हुआ अग्निकुण्डके समीप आ रहा है॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिष्यमाणे नागेन्द्रे तक्षके जातवेदसि।
इदमन्तरमित्येव तदाऽऽस्तीकोऽभ्यचोदयत् ॥ २० ॥
मूलम्
पतिष्यमाणे नागेन्द्रे तक्षके जातवेदसि।
इदमन्तरमित्येव तदाऽऽस्तीकोऽभ्यचोदयत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनक! नागराज तक्षक अब कुछ ही क्षणोंमें आगकी ज्वालामें गिरनेवाला था। उस समय आस्तीकने यह सोचकर कि ‘यही वर माँगनेका अच्छा अवसर है’ राजाको वर देनेके लिये प्रेरित किया॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
आस्तीक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं ददासि चेन्मह्यं वृणोमि जनमेजय।
सत्रं ते विरमत्वेतन्न पतेयुरिहोरगाः ॥ २१ ॥
मूलम्
वरं ददासि चेन्मह्यं वृणोमि जनमेजय।
सत्रं ते विरमत्वेतन्न पतेयुरिहोरगाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आस्तीकने कहा— राजा जनमेजय! यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो तो सुनो, मैं माँगता हूँ कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय और अब इसमें सर्प न गिरने पावें॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तदा तेन ब्रह्मन् पारिक्षितस्तु सः।
नातिहृष्टमनाश्चेदमास्तीकं वाक्यमब्रवीत् ॥ २२ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तदा तेन ब्रह्मन् पारिक्षितस्तु सः।
नातिहृष्टमनाश्चेदमास्तीकं वाक्यमब्रवीत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! आस्तीकके ऐसा कहनेपर वे परीक्षित्-कुमार जनमेजय खिन्नचित्त होकर बोले—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णं रजतं गाश्च यच्चान्यन्मन्यसे विभो।
तत् ते दद्यां वरं विप्र न निवर्तेत् क्रतुर्मम॥२३॥
मूलम्
सुवर्णं रजतं गाश्च यच्चान्यन्मन्यसे विभो।
तत् ते दद्यां वरं विप्र न निवर्तेत् क्रतुर्मम॥२३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवर! आप सोना, चाँदी, गौ तथा अन्य अभीष्ट वस्तुओंको, जिन्हें आप ठीक समझते हों, माँग लें। प्रभो! वह मुँहमाँगा वर मैं आपको दे सकता हूँ, किंतु मेरा यह यज्ञ बंद नहीं होना चाहिये’॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
आस्तीक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णं रजतं गाश्च न त्वां राजन् वृणोम्यहम्।
सत्रं ते विरमत्वेतत् स्वस्ति मातृकुलस्य नः ॥ २४ ॥
मूलम्
सुवर्णं रजतं गाश्च न त्वां राजन् वृणोम्यहम्।
सत्रं ते विरमत्वेतत् स्वस्ति मातृकुलस्य नः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आस्तीकने कहा— राजन्! मैं तुमसे सोना, चाँदी और गौएँ नहीं माँगूँगा, मेरी यही इच्छा है कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय, जिससे मेरी माताके कुलका कल्याण हो॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्तीकेनैवमुक्तस्तु राजा पारिक्षितस्तदा ।
पुनः पुनरुवाचेदमास्तीकं वदतां वरः ॥ २५ ॥
अन्यं वरय भद्रं ते वरं द्विजवरोत्तम।
अयाचत न चाप्यन्यं वरं स भृगुनन्दन ॥ २६ ॥
मूलम्
आस्तीकेनैवमुक्तस्तु राजा पारिक्षितस्तदा ।
पुनः पुनरुवाचेदमास्तीकं वदतां वरः ॥ २५ ॥
अन्यं वरय भद्रं ते वरं द्विजवरोत्तम।
अयाचत न चाप्यन्यं वरं स भृगुनन्दन ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— भृगुनन्दन शौनक! आस्तीकके ऐसा कहनेपर उस समय वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा जनमेजयने उनसे बार-बार अनुरोध किया—‘विप्रशिरोमणे! आपका कल्याण हो, कोई दूसरा वर माँगिये।’ किंतु आस्तीकने दूसरा कोई वर नहीं माँगा॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वेदविदस्तात सदस्याः सर्व एव तम्।
राजानमूचुः सहिता लभतां ब्राह्मणो वरम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततो वेदविदस्तात सदस्याः सर्व एव तम्।
राजानमूचुः सहिता लभतां ब्राह्मणो वरम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सम्पूर्ण वेदवेत्ता सभासदोंने एक साथ संगठित होकर राजासे कहा—‘ब्राह्मणको (स्वीकार किया हुआ) वर मिलना ही चाहिये’॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि आस्तीकवरप्रदानं नाम षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें आस्तीकको वरप्रदान नामक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५६॥