श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आस्तीकके द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज्, सदस्यगण और अग्निदेवकी स्तुति-प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
आस्तीक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमस्य यज्ञो वरुणस्य यज्ञः
प्रजापतेर्यज्ञ आसीत् प्रयागे ।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ १ ॥
मूलम्
सोमस्य यज्ञो वरुणस्य यज्ञः
प्रजापतेर्यज्ञ आसीत् प्रयागे ।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आस्तीकने कहा— भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ जनमेजय! चन्द्रमाका जैसा यज्ञ हुआ था, वरुणने जैसा यज्ञ किया था और प्रयागमें प्रजापति ब्रह्माजीका यज्ञ जिस प्रकार समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न हुआ था, उसी प्रकार तुम्हारा यह यज्ञ भी उत्तम गुणोंसे युक्त है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रस्य यज्ञः शतसंख्य उक्त-
स्तथा पूरोस्तुल्यसंख्यं शतं वै।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ २ ॥
मूलम्
शक्रस्य यज्ञः शतसंख्य उक्त-
स्तथा पूरोस्तुल्यसंख्यं शतं वै।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलशिरोमणि परीक्षित्कुमार! इन्द्रके यज्ञोंकी संख्या सौ बतायी गयी है, राजा पूरुके यज्ञोंकी संख्या भी उनके समान ही सौ है। उन सबके यज्ञोंके तुल्य ही तुम्हारा यह यज्ञ शोभा पा रहा है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमस्य यज्ञो हरिमेधसश्च
यथा यज्ञो रन्तिदेवस्य राज्ञः।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ३ ॥
मूलम्
यमस्य यज्ञो हरिमेधसश्च
यथा यज्ञो रन्तिदेवस्य राज्ञः।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! यमराजका यज्ञ, हरिमेधाका यज्ञ तथा राजा रन्तिदेवका यज्ञ जिस प्रकार श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न था, वैसे ही तुम्हारा यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गयस्य यज्ञः शशबिन्दोश्च राज्ञो
यज्ञस्तथा वैश्रवणस्य राज्ञः ।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ४ ॥
मूलम्
गयस्य यज्ञः शशबिन्दोश्च राज्ञो
यज्ञस्तथा वैश्रवणस्य राज्ञः ।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशियोंमें अग्रगण्य जनमेजय! महाराज गयका यज्ञ, राजा शशबिन्दुका यज्ञ तथा राजाधिराज कुबेरका यज्ञ जिस प्रकार उत्तम विधि-विधानसे सम्पन्न हुआ था, वैसा ही तुम्हारा यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृगस्य यज्ञस्त्वजमीढस्य चासीद्
यथा यज्ञो दाशरथेश्च राज्ञः।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ५ ॥
मूलम्
नृगस्य यज्ञस्त्वजमीढस्य चासीद्
यथा यज्ञो दाशरथेश्च राज्ञः।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्कुमार! राजा नृग, राजा अजमीढ़ और महाराज दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजीने जिस प्रकार यज्ञ किया था, वैसा ही तुम्हारा यह यज्ञ भी है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञः श्रुतो दिवि देवस्य सूनो-
र्युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः ।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ६ ॥
मूलम्
यज्ञः श्रुतो दिवि देवस्य सूनो-
र्युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः ।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ जनमेजय! अजमीढ़वंशी धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरके यज्ञकी ख्याति स्वर्गके श्रेष्ठ देवताओंने भी सुन रखी थी, वैसा ही तुम्हारा भी यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्य यज्ञः सत्यवत्याः सुतस्य
स्वयं च कर्म प्रचकार यत्र।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ७ ॥
मूलम्
कृष्णस्य यज्ञः सत्यवत्याः सुतस्य
स्वयं च कर्म प्रचकार यत्र।
तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य
पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरताग्रगण्य जनमेजय! सत्यवतीनन्दन व्यासजीका यज्ञ जिसमें उन्होंने स्वयं सब कार्य सम्पन्न किया था, जैसा हो पाया था, वैसा ही तुम्हारा यह यज्ञ भी है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे च ते सूर्यसमानवर्चसः
समासते वृत्रहणः क्रतुं यथा।
नैषां ज्ञातुं विद्यते ज्ञानमद्य
दत्तं येभ्यो न प्रणश्येत् कदाचित् ॥ ८ ॥
मूलम्
इमे च ते सूर्यसमानवर्चसः
समासते वृत्रहणः क्रतुं यथा।
नैषां ज्ञातुं विद्यते ज्ञानमद्य
दत्तं येभ्यो न प्रणश्येत् कदाचित् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे ये ऋत्विज सूर्यके समान तेजस्वी हैं और इन्द्रके यज्ञकी भाँति तुम्हारे इस यज्ञका भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं। कोई भी ऐसी जानने योग्य वस्तु नहीं है, जिसका इन्हें ज्ञान न हो। इन्हें दिया हुआ दान कभी नष्ट नहीं हो सकता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋत्विक् समो नास्ति लोकेषु चैव
द्वैपायनेनेति विनिश्चितं मे ।
एतस्य शिष्याः क्षितिमाचरन्ति
सर्वर्त्विजः कर्मसु स्वेषु दक्षाः ॥ ९ ॥
मूलम्
ऋत्विक् समो नास्ति लोकेषु चैव
द्वैपायनेनेति विनिश्चितं मे ।
एतस्य शिष्याः क्षितिमाचरन्ति
सर्वर्त्विजः कर्मसु स्वेषु दक्षाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वैपायन व्यासजीके समान पारलौकिक साधनोंमें कुशल दूसरा कोई ऋत्विज नहीं है, यह मेरा निश्चित मत है। इनके शिष्य ही अपने-अपने कर्मोंमें निपुण होता, उद्गाता आदि सभी प्रकारके ऋत्विज हैं, जो यज्ञ करानेके लिये सम्पूर्ण भूमण्डलमें विचरते रहते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभावसुश्चित्रभानुर्महात्मा
हिरण्यरेता हुतभुक् कृष्णवर्त्मा ।
प्रदक्षिणावर्तशिखः प्रदीप्तो
हव्यं तवेदं हुतभुग् वष्टि देवः ॥ १० ॥
मूलम्
विभावसुश्चित्रभानुर्महात्मा
हिरण्यरेता हुतभुक् कृष्णवर्त्मा ।
प्रदक्षिणावर्तशिखः प्रदीप्तो
हव्यं तवेदं हुतभुग् वष्टि देवः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विभावसु, चित्रभानु, महात्मा, हिरण्यरेता, हविष्यभोजी तथा कृष्णवर्त्मा कहलाते हैं, वे अग्निदेव तुम्हारे इस यज्ञमें दक्षिणावर्त शिखाओंसे प्रज्वलित हो दी हुई आहुतिको भोग लगाते हुए तुम्हारे इस हविष्यकी सदा इच्छा रखते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेह त्वदन्यो विद्यते जीवलोके
समो नृपः पालयिता प्रजानाम्।
धृत्या च ते प्रीतमनाः सदाहं
त्वं वा वरुणो धर्मराजो यमो वा ॥ ११ ॥
मूलम्
नेह त्वदन्यो विद्यते जीवलोके
समो नृपः पालयिता प्रजानाम्।
धृत्या च ते प्रीतमनाः सदाहं
त्वं वा वरुणो धर्मराजो यमो वा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मृत्युलोकमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा राजा नहीं है, जो तुम्हारी भाँति प्रजाका पालन कर सके। तुम्हारे धैर्यसे मेरा मन सदा प्रसन्न रहता है। तुम साक्षात् वरुण, धर्मराज एवं यमके समान प्रभावशाली हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रः साक्षाद् वज्रपाणिर्यथेह
त्राता लोकेऽस्मिंस्त्वं तथेह प्रजानाम्।
मतस्त्वं नः पुरुषेन्द्रेह लोके
न च त्वदन्यो भूपतिरस्ति जज्ञे ॥ १२ ॥
मूलम्
शक्रः साक्षाद् वज्रपाणिर्यथेह
त्राता लोकेऽस्मिंस्त्वं तथेह प्रजानाम्।
मतस्त्वं नः पुरुषेन्द्रेह लोके
न च त्वदन्यो भूपतिरस्ति जज्ञे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषोमें श्रेष्ठ जनमेजय! जैसे साक्षात् वज्रपाणि इन्द्र सम्पूर्ण प्रजाकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम भी इस लोकमें हम प्रजावर्गके पालक माने गये हो। संसारमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई भूपाल तुम-जैसा प्रजापालक नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खट्वाङ्गनाभागदिलीपकल्प
ययातिमान्धातृसमप्रभाव ।
आदित्यतेजःप्रतिमानतेजा
भीष्मो यथा राजसि सुव्रतस्त्वम् ॥ १३ ॥
मूलम्
खट्वाङ्गनाभागदिलीपकल्प
ययातिमान्धातृसमप्रभाव ।
आदित्यतेजःप्रतिमानतेजा
भीष्मो यथा राजसि सुव्रतस्त्वम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम खट्वांग, नाभाग और दिलीपके समान प्रतापी हो। तुम्हारा प्रभाव राजा ययाति और मान्धाताके समान है। तुम अपने तेजसे भगवान् सूर्यके प्रचण्ड तेजकी समानता कर रहे हो। जैसे भीष्मपितामहने उत्तम ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया था, उसी प्रकार तुम भी इस यज्ञमें परम उत्तम व्रतका पालन करते हुए शोभा पा रहे हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाल्मीकिवत् ते निभृतं स्ववीर्यं
वसिष्ठवत् ते नियतश्च कोपः।
प्रभुत्वमिन्द्रत्वसमं मतं मे
द्युतिश्च नारायणवद् विभाति ॥ १४ ॥
मूलम्
वाल्मीकिवत् ते निभृतं स्ववीर्यं
वसिष्ठवत् ते नियतश्च कोपः।
प्रभुत्वमिन्द्रत्वसमं मतं मे
द्युतिश्च नारायणवद् विभाति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि वाल्मीकिकी भाँति तुम्हारा अद्भुत पराक्रम तुममें ही छिपा हुआ है। महर्षि वसिष्ठजीके समान तुमने अपने क्रोधको काबूमें कर रखा है। मेरी ऐसी मान्यता है कि तुम्हारा प्रभुत्व इन्द्रके ऐश्वर्यके तुल्य है और तुम्हारी अंगकान्ति भगवान् नारायणके समान सुशोभित होती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमो यथा धर्मविनिश्चयज्ञः
कृष्णो यथा सर्वगुणोपपन्नः ।
श्रियां निवासोऽसि यथा वसूनां
निधानभूतोऽसि तथा क्रतूनाम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यमो यथा धर्मविनिश्चयज्ञः
कृष्णो यथा सर्वगुणोपपन्नः ।
श्रियां निवासोऽसि यथा वसूनां
निधानभूतोऽसि तथा क्रतूनाम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम यमराजकी भाँति धर्मके निश्चित सिद्धान्तको जाननेवाले हो। भगवान् श्रीकृष्णकी भाँति सर्वगुणसम्पन्न हो। वसुगणोंके पास जो सम्पत्तियाँ हैं, वैसी ही सम्पदाओंके तुम निवासस्थान हो तथा यज्ञोंकी तो तुम साक्षात् निधि ही हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दम्भोद्भवेनासि समो बलेन
रामो यथा शास्त्रविदस्त्रविच्च ।
और्वत्रिताभ्यामसि तुल्यतेजा
दुष्प्रेक्षणीयोऽसि भगीरथेन ॥ १६ ॥
मूलम्
दम्भोद्भवेनासि समो बलेन
रामो यथा शास्त्रविदस्त्रविच्च ।
और्वत्रिताभ्यामसि तुल्यतेजा
दुष्प्रेक्षणीयोऽसि भगीरथेन ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम बलमें दम्भोद्भवके समान और अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानमें परशुरामके सदृश हो। तुम्हारा तेज और्व और त्रित नामक महर्षियोंके तुल्य है। राजा भगीरथकी भाँति तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुताः सर्व एव प्रसन्ना
राजा सदस्या ऋत्विजो हव्यवाहः।
तेषां दृष्ट्वा भावितानीङ्गितानि
प्रोवाच राजा जनमेजयोऽथ ॥ १७ ॥
मूलम्
एवं स्तुताः सर्व एव प्रसन्ना
राजा सदस्या ऋत्विजो हव्यवाहः।
तेषां दृष्ट्वा भावितानीङ्गितानि
प्रोवाच राजा जनमेजयोऽथ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— आस्तीकके इस प्रकार स्तुति करनेपर यजमान राजा जनमेजय, सदस्य, ऋत्विज् और अग्निदेव सभी बड़े प्रसन्न हुए। इन सबके मनोभावों तथा बाह्य चेष्टाओंको लक्ष्य करके राजा जनमेजय इस प्रकार बोले॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रे आस्तीककृतराजस्तवे पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय ॥ ५५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें आस्तीकद्वारा सर्पसत्रमें राजा जनमेजयकी स्तुतिविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥