श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सर्पसत्रका आरम्भ और उसमें सर्पोंका विनाश
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कर्म प्रववृते सर्पसत्रविधानतः।
पर्यक्रामंश्च विधिवत् स्वे स्वे कर्मणि याजकाः ॥ १ ॥
मूलम्
ततः कर्म प्रववृते सर्पसत्रविधानतः।
पर्यक्रामंश्च विधिवत् स्वे स्वे कर्मणि याजकाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनक! तदनन्तर सर्पयज्ञकी विधिसे कार्य प्रारम्भ हुआ। सब याजक विधिपूर्वक अपने-अपने कर्ममें संलग्न हो गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रावृत्य कृष्णवासांसि धूमसंरक्तलोचनाः ।
जुहुवुर्मन्त्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम् ॥ २ ॥
मूलम्
प्रावृत्य कृष्णवासांसि धूमसंरक्तलोचनाः ।
जुहुवुर्मन्त्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबकी आँखें धूएँसे लाल हो रही थीं। वे सभी ऋत्विज् काले वस्त्र पहनकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक प्रज्वलित अग्निमें होम करने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणां मनांसि च।
सर्पानाजुहुवुस्तत्र सर्वानग्निमुखे तदा ॥ ३ ॥
मूलम्
कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणां मनांसि च।
सर्पानाजुहुवुस्तत्र सर्वानग्निमुखे तदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे समस्त सर्पोंके हृदयमें कँपकँपी पैदा करते हुए उनके नाम ले-लेकर उन सबका वहाँ आगके मुखमें होम करने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्पाः समापेतुः प्रदीप्ते हव्यवाहने।
विचेष्टमानाः कृपणमाह्वयन्तः परस्परम् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः सर्पाः समापेतुः प्रदीप्ते हव्यवाहने।
विचेष्टमानाः कृपणमाह्वयन्तः परस्परम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सर्पगण तड़फड़ाते और दीनस्वरमें एक-दूसरेको पुकारते हुए प्रज्वलित अग्निमें टपाटप गिरने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्फुरन्तः श्वसन्तश्च वेष्टयन्तः परस्परम्।
पुच्छैः शिरोभिश्च भृशं चित्रभानुं प्रपेदिरे ॥ ५ ॥
मूलम्
विस्फुरन्तः श्वसन्तश्च वेष्टयन्तः परस्परम्।
पुच्छैः शिरोभिश्च भृशं चित्रभानुं प्रपेदिरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उछलते, लम्बी साँसें लेते, पूँछ और फनोंसे एक-दूसरेको लपेटते हुए धधकती आगके भीतर अधिकाधिक संख्यामें गिरने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेताः कृष्णाश्च नीलाश्च स्थविराः शिशवस्तथा।
नदन्तो विविधान् नादान् पेतुर्दीप्ते विभावसौ ॥ ६ ॥
मूलम्
श्वेताः कृष्णाश्च नीलाश्च स्थविराः शिशवस्तथा।
नदन्तो विविधान् नादान् पेतुर्दीप्ते विभावसौ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सफेद, काले, नीले, बूढ़े और बच्चे सभी प्रकारके सर्प विविध प्रकारसे चीत्कार करते हुए जलती आगमें विवश होकर गिर रहे थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशयोजनमात्रा हि गोकर्णस्य प्रमाणतः।
पतन्त्यजस्रं वेगेन वह्नावग्निमतां वर ॥ ७ ॥
मूलम्
क्रोशयोजनमात्रा हि गोकर्णस्य प्रमाणतः।
पतन्त्यजस्रं वेगेन वह्नावग्निमतां वर ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई एक कोस लम्बे थे, तो कोई चार कोस और किन्हीं-किन्हींकी लम्बाई तो केवल गायके कानके बराबर थी। अग्निहोत्रियोंमें श्रेष्ठ शौनक! वे छोटे-बड़े सभी सर्प बड़े वेगसे आगकी ज्वालामें निरन्तर आहुति बन रहे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शतसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
अवशानि विनष्टानि पन्नगानां तु तत्र वै ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं शतसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
अवशानि विनष्टानि पन्नगानां तु तत्र वै ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार लाखों, करोड़ों तथा अरबों सर्प वहाँ विवश होकर नष्ट हो गये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुरगा इव तत्रान्ये हस्तिहस्ता इवापरे।
मत्ता इव च मातङ्गा महाकाया महाबलाः ॥ ९ ॥
मूलम्
तुरगा इव तत्रान्ये हस्तिहस्ता इवापरे।
मत्ता इव च मातङ्गा महाकाया महाबलाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ सर्पोंकी आकृति घोड़ोंके समान थी और कुछकी हाथीकी सूँड़के सदृश। कितने ही विशाल-काय महाबली नाग मतवाले गजराजोंको मात कर रहे थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चावचाश्च बहवो नानावर्णा विषोल्बणाः।
घोराश्च परिघप्रख्या दन्दशूका महाबलाः।
प्रपेतुरग्नावुरगा मातृवाग्दण्डपीडिताः ॥ १० ॥
मूलम्
उच्चावचाश्च बहवो नानावर्णा विषोल्बणाः।
घोराश्च परिघप्रख्या दन्दशूका महाबलाः।
प्रपेतुरग्नावुरगा मातृवाग्दण्डपीडिताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भयंकर विषवाले छोटे-बड़े अनेक रंगके बहु-संख्यक सर्प, जो देखनेमें भयानक, परिघके समान मोटे, अकारण ही डँस लेनेवाले और अत्यन्त शक्तिशाली थे, अपनी माताके शापसे पीड़ित होकर स्वयं ही आगमें पड़ रहे थे॥१०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रोपक्रमे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पसत्रोपक्रमविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥