श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा परीक्षित्के धर्ममय आचार तथा उत्तम गुणोंका वर्णन, राजाका शिकारके लिये जाना और उनके द्वारा शमीक मुनिका तिरस्कार
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदपृच्छत् तदा राजा मन्त्रिणो जनमेजयः।
पितुः स्वर्गगतिं तन्मे विस्तरेण पुनर्वद ॥ १ ॥
मूलम्
यदपृच्छत् तदा राजा मन्त्रिणो जनमेजयः।
पितुः स्वर्गगतिं तन्मे विस्तरेण पुनर्वद ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी बोले— सूतनन्दन! राजा जनमेजयने (उत्तंककी बात सुनकर) अपने पिता परीक्षित्के स्वर्गवासके सम्बन्धमें मन्त्रियोंसे जो पूछ-ताछ की थी, उसका आप विस्तारपूर्वक पुनः वर्णन कीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु ब्रह्मन् यथापृच्छन्मन्त्रिणो नृपतिस्तदा।
यथा चाख्यातवन्तस्ते निधनं तत् परीक्षितः ॥ २ ॥
मूलम्
शृणु ब्रह्मन् यथापृच्छन्मन्त्रिणो नृपतिस्तदा।
यथा चाख्यातवन्तस्ते निधनं तत् परीक्षितः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजीने कहा— ब्रह्मन्! सुनिये, उस समय राजाने मन्त्रियोंसे जो कुछ पूछा और उन्होंने परीक्षित्की मृत्युके सम्बन्धमें जैसी बातें बतायीं, वह सब मैं सुना रहा हूँ॥२॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानन्ति स्म भवन्तस्तद् यथा वृत्तं पितुर्मम।
आसीद् यथा स निधनं गतः काले महायशाः ॥ ३ ॥
मूलम्
जानन्ति स्म भवन्तस्तद् यथा वृत्तं पितुर्मम।
आसीद् यथा स निधनं गतः काले महायशाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— आपलोग यह जानते होंगे कि मेरे पिताके जीवनकालमें उनका आचार-व्यवहार कैसा था? और अन्तकाल आनेपर वे महायशस्वी नरेश किस प्रकार मृत्युको प्राप्त हुए थे?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा भवत्सकाशाद्धि पितुर्वृत्तमशेषतः ।
कल्याणं प्रतिपत्स्यामि विपरीतं न जातुचित् ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रुत्वा भवत्सकाशाद्धि पितुर्वृत्तमशेषतः ।
कल्याणं प्रतिपत्स्यामि विपरीतं न जातुचित् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोगोंसे अपने पिताके सम्बन्धमें सारा वृत्तान्त सुनकर ही मुझे शान्ति प्राप्त होगी; अन्यथा मैं कभी शान्त न रह सकूँगा॥४॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रिणोऽथाब्रुवन् वाक्यं पृष्टास्तेन महात्मना।
सर्वे धर्मविदः प्राज्ञा राजानं जनमेजयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
मन्त्रिणोऽथाब्रुवन् वाक्यं पृष्टास्तेन महात्मना।
सर्वे धर्मविदः प्राज्ञा राजानं जनमेजयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— राजाके सब मन्त्री धर्मज्ञ और बुद्धिमान् थे। उन महात्मा राजा जनमेजयके इस प्रकार पूछनेपर वे सभी उनसे यों बोले॥५॥
मूलम् (वचनम्)
मन्त्रिण ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु पार्थिव यद् ब्रूषे पितुस्तव महात्मनः।
चरितं पार्थिवेन्द्रस्य यथा निष्ठां गतश्च सः ॥ ६ ॥
मूलम्
शृणु पार्थिव यद् ब्रूषे पितुस्तव महात्मनः।
चरितं पार्थिवेन्द्रस्य यथा निष्ठां गतश्च सः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्रियोंने कहा— भूपाल! तुम जो कुछ पूछते हो, वह सुनो। तुम्हारे महात्मा पिता राजराजेश्वर परीक्षित्का चरित्र जैसा था और जिस प्रकार वे मृत्युको प्राप्त हुए वह सब हम बता रहे हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मात्मा च महात्मा च प्रजापालः पिता तव।
आसीदिह यथावृत्तः स महात्मा शृणुष्व तत् ॥ ७ ॥
मूलम्
धर्मात्मा च महात्मा च प्रजापालः पिता तव।
आसीदिह यथावृत्तः स महात्मा शृणुष्व तत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आपके पिता बड़े धर्मात्मा, महात्मा और प्रजापालक थे। वे महामना नरेश इस जगत्में जैसे आचार-व्यवहारका पालन करते थे, वह सुनो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्वर्ण्यं स्वधर्मस्थं स कृत्वा पर्यरक्षत।
धर्मतो धर्मविद् राजा धर्मो विग्रहवानिव ॥ ८ ॥
मूलम्
चातुर्वर्ण्यं स्वधर्मस्थं स कृत्वा पर्यरक्षत।
धर्मतो धर्मविद् राजा धर्मो विग्रहवानिव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे चारों वर्णोंको अपने-अपने धर्ममें स्थापित करके उन सबकी धर्मपूर्वक रक्षा करते थे। राजा परीक्षित् केवल धर्मके ज्ञाता ही नहीं थे, वे धर्मके साक्षात् स्वरूप थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ररक्ष पृथिवीं देवीं श्रीमानतुलविक्रमः।
द्वेष्टारस्तस्य नैवासन् स च द्वेष्टि न कंचन ॥ ९ ॥
मूलम्
ररक्ष पृथिवीं देवीं श्रीमानतुलविक्रमः।
द्वेष्टारस्तस्य नैवासन् स च द्वेष्टि न कंचन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पराक्रमकी कहीं तुलना नहीं थी। वे श्रीसम्पन्न होकर इस वसुधादेवीका पालन करते थे। जगत्में उनसे द्वेष रखनेवाले कोई न थे और वे भी किसीसे द्वेष नहीं रखते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समः सर्वेषु भूतेषु प्रजापतिरिवाभवत्।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव स्वकर्मसु ॥ १० ॥
स्थिताः सुमनसो राजंस्तेन राज्ञा स्वधिष्ठिताः।
विधवानाथविकलान् कृपणांश्च बभार सः ॥ ११ ॥
मूलम्
समः सर्वेषु भूतेषु प्रजापतिरिवाभवत्।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव स्वकर्मसु ॥ १० ॥
स्थिताः सुमनसो राजंस्तेन राज्ञा स्वधिष्ठिताः।
विधवानाथविकलान् कृपणांश्च बभार सः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापति ब्रह्माजीके समान वे समस्त प्राणियोंके प्रति समभाव रखते थे। राजन्! महाराज परीक्षित्के शासनमें रहकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोंमें संलग्न और प्रसन्नचित्त रहते थे। वे महाराज विधवाओं, अनाथों, अंगहीनों और दीनोंका भी भरण-पोषण करते थे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदर्शः सर्वभूतानामासीत् सोम इवापरः।
तुष्टपुष्टजनः श्रीमान् सत्यवाग् दृढविक्रमः ॥ १२ ॥
मूलम्
सुदर्शः सर्वभूतानामासीत् सोम इवापरः।
तुष्टपुष्टजनः श्रीमान् सत्यवाग् दृढविक्रमः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे चन्द्रमाकी भाँति उनका दर्शन सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये सुखद एवं सुलभ था। उनके राज्यमें सब लोग हृष्ट-पुष्ट थे। वे लक्ष्मीवान्, सत्यवादी तथा अटल पराक्रमी थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्वेदे तु शिष्योऽभून्नृपः शारद्वतस्य सः।
गोविन्दस्य प्रियश्चासीत् पिता ते जनमेजय ॥ १३ ॥
मूलम्
धनुर्वेदे तु शिष्योऽभून्नृपः शारद्वतस्य सः।
गोविन्दस्य प्रियश्चासीत् पिता ते जनमेजय ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् धनुर्वेदमें कृपाचार्यके शिष्य थे। जनमेजय! तुम्हारे पिता भगवान् श्रीकृष्णके भी प्रिय थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकस्य चैव सर्वस्य प्रिय आसीन्महायशाः।
परिक्षीणेषु कुरुषु सोत्तरायामजीजनत् ॥ १४ ॥
परीक्षिदभवत् तेन सौभद्रस्यात्मजो बली।
राजधर्मार्थकुशलो युक्तः सर्वगुणैर्वृतः ॥ १५ ॥
मूलम्
लोकस्य चैव सर्वस्य प्रिय आसीन्महायशाः।
परिक्षीणेषु कुरुषु सोत्तरायामजीजनत् ॥ १४ ॥
परीक्षिदभवत् तेन सौभद्रस्यात्मजो बली।
राजधर्मार्थकुशलो युक्तः सर्वगुणैर्वृतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महायशस्वी महाराज सम्पूर्ण जगत्के प्रेमपात्र थे। जब कुरुकुल परिक्षीण (सर्वथा नष्ट) हो चला था, उस समय उत्तराके गर्भसे उनका जन्म हुआ। इसलिये वे महाबली अभिमन्युकुमार परीक्षित् नामसे विख्यात हुए। राजधर्म और अर्थनीतिमें वे अत्यन्त निपुण थे। समस्त सद्गुणोंने स्वयं उनका वरण किया था। वे सदा उनसे संयुक्त रहते थे॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितेन्द्रियश्चात्मवांश्च मेधावी धर्मसेविता ।
षड्वर्गजिन्महाबुद्धिर्नीतिशास्त्रविदुत्तमः ॥ १६ ॥
मूलम्
जितेन्द्रियश्चात्मवांश्च मेधावी धर्मसेविता ।
षड्वर्गजिन्महाबुद्धिर्नीतिशास्त्रविदुत्तमः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको जीतकर मनको अपने वशमें कर रखा था। वे मेधावी तथा धर्मका सेवन करनेवाले थे। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य—इन छहों शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली थी। उनकी बुद्धि विशाल थी। वे नीतिके विद्वानोंमें सर्वश्रेष्ठ थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजा इमास्तव पिता षष्टिवर्षाण्यपालयत्।
ततो दिष्टान्तमापन्नः सर्वेषां दुःखमावहन् ॥ १७ ॥
ततस्त्वं पुरुषश्रेष्ठ धर्मेण प्रतिपेदिवान्।
इदं वर्षसहस्राणि राज्यं कुरुकुलागतम्।
बाल एवाभिषिक्तस्त्वं सर्वभूतानुपालकः ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रजा इमास्तव पिता षष्टिवर्षाण्यपालयत्।
ततो दिष्टान्तमापन्नः सर्वेषां दुःखमावहन् ॥ १७ ॥
ततस्त्वं पुरुषश्रेष्ठ धर्मेण प्रतिपेदिवान्।
इदं वर्षसहस्राणि राज्यं कुरुकुलागतम्।
बाल एवाभिषिक्तस्त्वं सर्वभूतानुपालकः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे पिताने साठ वर्षकी आयुतक इन समस्त प्रजाजनोंका पालन किया था। तदनन्तर हम सबको दुःख देकर उन्होंने विदेह-कैवल्य प्राप्त किया। पुरुषश्रेष्ठ! पिताके देहावसानके बाद तुमने धर्मपूर्वक इस राज्यको ग्रहण किया है, जो सहस्रों वर्षोंसे कुरुकुलके अधीन चला आ रहा है। बाल्यावस्थामें ही तुम्हारा राज्याभिषेक हुआ था। तबसे तुम्हीं इस राज्यके समस्त प्राणियोंका पालन करते हो॥१७-१८॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मिन् कुले जातु बभूव राजा
यो न प्रजानां प्रियकृत् प्रियश्च।
विशेषतः प्रेक्ष्य पितामहानां
वृत्तं महद्वृत्तपरायणानाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
नास्मिन् कुले जातु बभूव राजा
यो न प्रजानां प्रियकृत् प्रियश्च।
विशेषतः प्रेक्ष्य पितामहानां
वृत्तं महद्वृत्तपरायणानाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— मन्त्रियो! हमारे इस कुलमें कभी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ, जो प्रजाका प्रिय करनेवाला तथा सब लोगोंका प्रेमपात्र न रहा हो। विशेषतः महापुरुषोंके आचारमें प्रवृत्त रहनेवाले हमारे प्रपितामह पाण्डवोंके सदाचारको देखकर प्रायः सभी धर्मपरायण ही होंगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं निधनमापन्नः पिता मम तथाविधः।
आचक्षध्वं यथावन्मे श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २० ॥
मूलम्
कथं निधनमापन्नः पिता मम तथाविधः।
आचक्षध्वं यथावन्मे श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे वैसे धर्मात्मा पिताकी मृत्यु किस प्रकार हुई? आपलोग मुझसे इसका यथावत् वर्णन करें। मैं इस विषयमें सब बातें ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संचोदिता राज्ञा मन्त्रिणस्ते नराधिपम्।
ऊचुः सर्वे यथावृत्तं राज्ञः प्रियहितैषिणः ॥ २१ ॥
मूलम्
एवं संचोदिता राज्ञा मन्त्रिणस्ते नराधिपम्।
ऊचुः सर्वे यथावृत्तं राज्ञः प्रियहितैषिणः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनक! राजा जनमेजयके इस प्रकार पूछनेपर उन मन्त्रियोंने महाराजसे सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बताया; क्योंकि वे सभी राजाका प्रिय चाहनेवाले और हितैषी थे॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
मन्त्रिण ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा पृथिवीपालः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
बभूव मृगयाशीलस्तव राजन् पिता सदा ॥ २२ ॥
यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि ।
अस्मास्वासज्य सर्वाणि राजकार्याण्यशेषतः ॥ २३ ॥
स कदाचिद् वनगतो मृगं विव्याध पत्रिणा।
विद्ध्वा चान्वसरत् तूर्णं तं मृगं गहने वने ॥ २४ ॥
मूलम्
स राजा पृथिवीपालः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
बभूव मृगयाशीलस्तव राजन् पिता सदा ॥ २२ ॥
यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि ।
अस्मास्वासज्य सर्वाणि राजकार्याण्यशेषतः ॥ २३ ॥
स कदाचिद् वनगतो मृगं विव्याध पत्रिणा।
विद्ध्वा चान्वसरत् तूर्णं तं मृगं गहने वने ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्री बोले— राजन्! समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ तुम्हारे पिता भूपाल परीक्षित्का सदा महाबाहु पाण्डुकी भाँति हिंसक पशुओंको मारनेका स्वभाव था और युद्धमें वे उन्हींकी भाँति सम्पूर्ण धनुर्धर वीरोंमें श्रेष्ठ सिद्ध होते थे। एक दिनकी बात है, वे सम्पूर्ण राजकार्यका भार हमलोगोंपर रखकर वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। वहाँ उन्होंने पंखयुक्त बाणसे एक हिंसक पशुको बींध डाला। बींधकर तुरंत ही गहन वनमें उसका पीछा किया॥२२—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पदातिर्बद्धनिस्त्रिंशस्ततायुधकलापवान् ।
न चाससाद गहने मृगं नष्टं पिता तव ॥ २५ ॥
मूलम्
पदातिर्बद्धनिस्त्रिंशस्ततायुधकलापवान् ।
न चाससाद गहने मृगं नष्टं पिता तव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे तलवार बाँधे पैदल ही चल रहे थे। उनके पास बाणोंसे भरा हुआ विशाल तूणीर था। वह घायल पशु उस घने वनमें कहीं छिप गया। तुम्हारे पिता बहुत खोजनेपर भी उसे पा न सके॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिश्रान्तो वयःस्थश्च षष्टिवर्षो जरान्वितः।
क्षुधितः स महारण्ये ददर्श मुनिसत्तमम् ॥ २६ ॥
स तं पप्रच्छ राजेन्द्रो मुनिं मौनव्रते स्थितम्।
न च किंचिदुवाचैनं पृष्टोऽपि स मुनिस्तदा ॥ २७ ॥
मूलम्
परिश्रान्तो वयःस्थश्च षष्टिवर्षो जरान्वितः।
क्षुधितः स महारण्ये ददर्श मुनिसत्तमम् ॥ २६ ॥
स तं पप्रच्छ राजेन्द्रो मुनिं मौनव्रते स्थितम्।
न च किंचिदुवाचैनं पृष्टोऽपि स मुनिस्तदा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रौढ़ अवस्था, साठ वर्षकी आयु और बुढ़ापेका संयोग इन सबके कारण वे बहुत थक गये थे। उस विशाल वनमें उन्हें भूख सताने लगी। इसी दशामें महाराजने वहाँ मुनिश्रेष्ठ शमीकको देखा। राजेन्द्र परीक्षित्ने उनसे मृगका पता पूछा; किंतु वे मुनि उस समय मौनव्रतके पालनमें संलग्न थे। उनके पूछनेपर भी महर्षि शमीक उस समय कुछ न बोले॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा क्षुच्छ्रमार्तस्तं मुनिं स्थाणुवत् स्थितम्।
मौनव्रतधरं शान्तं सद्यो मन्युवशं गतः ॥ २८ ॥
मूलम्
ततो राजा क्षुच्छ्रमार्तस्तं मुनिं स्थाणुवत् स्थितम्।
मौनव्रतधरं शान्तं सद्यो मन्युवशं गतः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे काठकी भाँति चुपचाप, निश्चेष्ट एवं अविचल भावसे स्थित थे। यह देख भूख-प्यास और थकावटसे व्याकुल हुए राजा परीक्षित्को उन मौनव्रतधारी शान्त महर्षिपर तत्काल क्रोध आ गया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बुबोध च तं राजा मौनव्रतधरं मुनिम्।
स तं क्रोधसमाविष्टो धर्षयामास ते पिता ॥ २९ ॥
मूलम्
न बुबोध च तं राजा मौनव्रतधरं मुनिम्।
स तं क्रोधसमाविष्टो धर्षयामास ते पिता ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको यह पता नहीं था कि महर्षि मौनव्रतधारी हैं; अतः क्रोधमें भरे हुए आपके पिताने उनका तिरस्कार कर दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतं सर्पं धनुष्कोट्या समुत्क्षिप्य धरातलात्।
तस्य शुद्धात्मनः प्रादात् स्कन्धे भरतसत्तम ॥ ३० ॥
मूलम्
मृतं सर्पं धनुष्कोट्या समुत्क्षिप्य धरातलात्।
तस्य शुद्धात्मनः प्रादात् स्कन्धे भरतसत्तम ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उन्होंने धनुषकी नोकसे पृथ्वीपर पड़े हुए एक मृत सर्पको उठाकर उन शुद्धात्मा महर्षिके कंधेपर डाल दिया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चोवाच स मेधावी तमथो साध्वसाधु वा।
तस्थौ तथैव चाक्रुद्धः सर्पं स्कन्धेन धारयन् ॥ ३१ ॥
मूलम्
न चोवाच स मेधावी तमथो साध्वसाधु वा।
तस्थौ तथैव चाक्रुद्धः सर्पं स्कन्धेन धारयन् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु उन मेधावी मुनिने इसके लिये उन्हें भला या बुरा कुछ नहीं कहा। वे क्रोधरहित हो कंधेपर मरा सर्प लिये हुए पूर्ववत् शान्त-भावसे बैठे रहे॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि पारीक्षितीये एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें परीक्षित्-चरित्रविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥