०४७ गर्भोद्भवः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरत्कारु मुनिका नागकन्याके साथ विवाह, नागकन्या जरत्कारुद्वारा पतिसेवा तथा पतिका उसे त्यागकर तपस्याके लिये गमन

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुकिस्त्वब्रवीद् वाक्यं जरत्कारुमृषिं तदा।
सनाम्नी तव कन्येयं स्वसा मे तपसान्विता ॥ १ ॥
भरिष्यामि च ते भार्यां प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम।
रक्षणं च करिष्येऽस्याः सर्वशक्त्या तपोधन।
त्वदर्थं रक्ष्यते चैषा मया मुनिवरोत्तम ॥ २ ॥

मूलम्

वासुकिस्त्वब्रवीद् वाक्यं जरत्कारुमृषिं तदा।
सनाम्नी तव कन्येयं स्वसा मे तपसान्विता ॥ १ ॥
भरिष्यामि च ते भार्यां प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम।
रक्षणं च करिष्येऽस्याः सर्वशक्त्या तपोधन।
त्वदर्थं रक्ष्यते चैषा मया मुनिवरोत्तम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनक! उस समय वासुकिने जरत्कारु मुनिसे कहा—‘द्विजश्रेष्ठ! इस कन्याका वही नाम है, जो आपका है। यह मेरी बहिन है और आपकी ही भाँति तपस्विनी भी है। आप इसे ग्रहण करें। आपकी पत्नीका भरण-पोषण मैं करूँगा। तपोधन! अपनी सारी शक्ति लगाकर मैं इसकी रक्षा करता रहूँगा। मुनिश्रेष्ठ! अबतक आपहीके लिये मैंने इसकी रक्षा की है॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भरिष्येऽहमेतां वै एष मे समयः कृतः।
अप्रियं च न कर्तव्यं कृते चैनां त्यजाम्यहम् ॥ ३ ॥

मूलम्

न भरिष्येऽहमेतां वै एष मे समयः कृतः।
अप्रियं च न कर्तव्यं कृते चैनां त्यजाम्यहम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषिने कहा— नागराज! मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा, मेरी यह शर्त तो तय हो गयी। अब दूसरी शर्त यह है कि तुम्हारी इस बहिनको कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। यदि अप्रिय कार्य कर बैठेगी तो उसी समय मैं इसे त्याग दूँगा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिश्रुते तु नागेन भरिष्ये भगिनीमिति।
जरत्कारुस्तदा वेश्म भुजगस्य जगाम ह ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रतिश्रुते तु नागेन भरिष्ये भगिनीमिति।
जरत्कारुस्तदा वेश्म भुजगस्य जगाम ह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— नागराजने यह शर्त स्वीकार कर ली कि ‘मैं अपनी बहिनका भरण-पोषण करूँगा।’ तब जरत्कारु मुनि वासुकिके भवनमें गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र मन्त्रविदां श्रेष्ठस्तपोवृद्धो महाव्रतः।
जग्राह पाणिं धर्मात्मा विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्र मन्त्रविदां श्रेष्ठस्तपोवृद्धो महाव्रतः।
जग्राह पाणिं धर्मात्मा विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ मन्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तपोवृद्ध महाव्रती धर्मात्मा जरत्कारुने शास्त्रीय विधि और मन्त्रोच्चारणके साथ नागकन्याका पाणिग्रहण किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वासगृहं रम्यं पन्नगेन्द्रस्य सम्मतम्।
जगाम भार्यामादाय स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ६ ॥

मूलम्

ततो वासगृहं रम्यं पन्नगेन्द्रस्य सम्मतम्।
जगाम भार्यामादाय स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महर्षियोंसे प्रशंसित होते हुए वे नागराजके रमणीय भवनमें, जो मनके अनुकूल था, अपनी पत्नीको लेकर गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शयनं तत्र संक्लृप्तं स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्।
तत्र भार्यासहायो वै जरत्कारुरुवास ह ॥ ७ ॥

मूलम्

शयनं तत्र संक्लृप्तं स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्।
तत्र भार्यासहायो वै जरत्कारुरुवास ह ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ बहुमूल्य बिछौनोंसे सजी हुई शय्या बिछी थी। जरत्कारु मुनि अपनी पत्नीके साथ उसी भवनमें रहने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र समयं चक्रे भार्यया सह सत्तमः।
विप्रियं मे न कर्तव्यं न च वाच्यं कदाचन॥८॥

मूलम्

स तत्र समयं चक्रे भार्यया सह सत्तमः।
विप्रियं मे न कर्तव्यं न च वाच्यं कदाचन॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन साधुशिरोमणिने वहाँ अपनी पत्नीके सामने यह शर्त रखी—‘तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। साथ ही कभी अप्रिय वचन भी नहीं बोलना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजेयं विप्रिये च त्वां कृते वासं च ते गृहे।
एतद् गृहाण वचनं मया यत् समुदीरितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

त्यजेयं विप्रिये च त्वां कृते वासं च ते गृहे।
एतद् गृहाण वचनं मया यत् समुदीरितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमसे अप्रिय कार्य हो जानेपर मैं तुम्हें और तुम्हारे घरमें रहना छोड़ दूँगा। मैंने जो कुछ कहा है, मेरे इस वचनको दृढ़तापूर्वक धारण कर लो’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परमसंविग्ना स्वसा नागपतेस्तदा।
अतिदुःखान्विता वाक्यं तमुवाचैवमस्त्विति ॥ १० ॥

मूलम्

ततः परमसंविग्ना स्वसा नागपतेस्तदा।
अतिदुःखान्विता वाक्यं तमुवाचैवमस्त्विति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर नागराजकी बहिन अत्यन्त उद्विग्न हो गयी और उस समय बहुत दुःखी होकर बोली—‘भगवन्! ऐसा ही होगा’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव सा च भर्तारं दुःखशीलमुपाचरत्।
उपायैः श्वेतकाकीयैः प्रियकामा यशस्विनी ॥ ११ ॥

मूलम्

तथैव सा च भर्तारं दुःखशीलमुपाचरत्।
उपायैः श्वेतकाकीयैः प्रियकामा यशस्विनी ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वह यशस्विनी नागकन्या दुःखद स्वभाववाले पतिकी उसी शर्तके अनुसार सेवा करने लगी। वह श्वेतकाकीय1 उपायोंसे सदा पतिका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर निरन्तर उनकी आराधनामें लगी रहती थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतुकाले ततः स्नाता कदाचिद् वासुकेः स्वसा।
भर्तारं वै यथान्यायमुपतस्थे महामुनिम् ॥ १२ ॥

मूलम्

ऋतुकाले ततः स्नाता कदाचिद् वासुकेः स्वसा।
भर्तारं वै यथान्यायमुपतस्थे महामुनिम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर किसी समय ऋतुकाल आनेपर वासुकिकी बहिन स्नान करके न्यायपूर्वक अपने पति महामुनि जरत्कारुकी सेवामें उपस्थित हुई॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तस्याः समभवद् गर्भो ज्वलनसंनिभः।
अतीवतेजसा युक्तो वैश्वानरसमद्युतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

तत्र तस्याः समभवद् गर्भो ज्वलनसंनिभः।
अतीवतेजसा युक्तो वैश्वानरसमद्युतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उसे गर्भ रह गया, जो प्रज्वलित अग्निके समान अत्यन्त तेजस्वी तथा तपःशक्तिसे सम्पन्न था। उसकी अंगकान्ति अग्निके तुल्य थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्लपक्षे यथा सोमो व्यवर्धत तथैव सः।
ततः कतिपयाहस्य जरत्कारुर्महायशाः ॥ १४ ॥
उत्सङ्गेऽस्याः शिरः कृत्वा सुष्वाप परिखिन्नवत्।
तस्मिंश्च सुप्ते विप्रेन्द्रे सवितास्तमियाद् गिरिम् ॥ १५ ॥

मूलम्

शुक्लपक्षे यथा सोमो व्यवर्धत तथैव सः।
ततः कतिपयाहस्य जरत्कारुर्महायशाः ॥ १४ ॥
उत्सङ्गेऽस्याः शिरः कृत्वा सुष्वाप परिखिन्नवत्।
तस्मिंश्च सुप्ते विप्रेन्द्रे सवितास्तमियाद् गिरिम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार वह गर्भ भी नित्य परिपुष्ट होने लगा। तत्पश्चात् कुछ दिनोंके बाद महातपस्वी जरत्कारु कुछ खिन्न-से होकर अपनी पत्नीकी गोदमें सिर रखकर सो गये। उन विप्रवर जरत्कारुके सोते समय ही सूर्य अस्ताचलको जाने लगे॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अह्नः परिक्षये ब्रह्मंस्ततः साचिन्तयत् तदा।
वासुकेर्भगिनी भीता धर्मलोपान्मनस्विनी ॥ १६ ॥
किं नु मे सुकृतं भूयाद् भर्तुरुत्थापनं न वा।
दुःखशीलो हि धर्मात्मा कथं नास्यापराध्नुयाम् ॥ १७ ॥

मूलम्

अह्नः परिक्षये ब्रह्मंस्ततः साचिन्तयत् तदा।
वासुकेर्भगिनी भीता धर्मलोपान्मनस्विनी ॥ १६ ॥
किं नु मे सुकृतं भूयाद् भर्तुरुत्थापनं न वा।
दुःखशीलो हि धर्मात्मा कथं नास्यापराध्नुयाम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! दिन समाप्त होने ही वाला था। अतः वासुकिकी मनस्विनी बहिन जरत्कारु अपने पतिके धर्मलोपसे भयभीत हो उस समय इस प्रकार सोचने लगी—‘इस समय पतिको जगाना मेरे लिये अच्छा (धर्मानुकूल) होगा या नहीं? मेरे धर्मात्मा पतिका स्वभाव बड़ा दुःखद है। मैं कैसा बर्ताव करूँ, जिससे उनकी दृष्टिमें अपराधिनी न बनूँ॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोपो वा धर्मशीलस्य धर्मलोपोऽथवा पुनः।
धर्मलोपो गरीयान् वै स्यादित्यत्राकरोन्मतिम् ॥ १८ ॥
उत्थापयिष्ये यद्येनं ध्रुवं कोपं करिष्यति।
धर्मलोपो भवेदस्य संध्यातिक्रमणे ध्रुवम् ॥ १९ ॥

मूलम्

कोपो वा धर्मशीलस्य धर्मलोपोऽथवा पुनः।
धर्मलोपो गरीयान् वै स्यादित्यत्राकरोन्मतिम् ॥ १८ ॥
उत्थापयिष्ये यद्येनं ध्रुवं कोपं करिष्यति।
धर्मलोपो भवेदस्य संध्यातिक्रमणे ध्रुवम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि इन्हें जगाऊँगी तो निश्चय ही इन्हें मुझपर क्रोध होगा और यदि सोते-सोते संध्योपासनका समय बीत गया तो अवश्य इनके धर्मका लोप हो जायगा, ऐसी दशामें धर्मात्मा पतिका कोप स्वीकार करूँ या उनके धर्मका लोप? इन दोनोंमें धर्मका लोप ही भारी जान पड़ता है।’ अतः जिससे उनके धर्मका लोप न हो, वही कार्य करनेका उसने निश्चय किया॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति निश्चित्य मनसा जरत्कारुर्भुजङ्गमा।
तमृषिं दीप्ततपसं शयानमनलोपमम् ॥ २० ॥
उवाचेदं वचः श्लक्ष्णं ततो मधुरभाषिणी।
उत्तिष्ठ त्वं महाभाग सूर्योऽस्तमुपगच्छति ॥ २१ ॥

मूलम्

इति निश्चित्य मनसा जरत्कारुर्भुजङ्गमा।
तमृषिं दीप्ततपसं शयानमनलोपमम् ॥ २० ॥
उवाचेदं वचः श्लक्ष्णं ततो मधुरभाषिणी।
उत्तिष्ठ त्वं महाभाग सूर्योऽस्तमुपगच्छति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके मीठे वचन बोलनेवाली नागकन्या जरत्कारुने वहाँ सोते हुए अग्निके समान तेजस्वी एवं तीव्र तपस्वी महर्षिसे मधुरवाणीमें यों कहा—‘महाभाग! उठिये, सूर्यदेव अस्ताचलको जा रहे हैं॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संध्यामुपास्स्व भगवन्नपः स्पृष्ट्वा यतव्रतः।
प्रादुष्कृताग्निहोत्रोऽयं मुहूर्तो रम्यदारुणः ॥ २२ ॥
संध्या प्रवर्तते चेयं पश्चिमायां दिशि प्रभो।

मूलम्

संध्यामुपास्स्व भगवन्नपः स्पृष्ट्वा यतव्रतः।
प्रादुष्कृताग्निहोत्रोऽयं मुहूर्तो रम्यदारुणः ॥ २२ ॥
संध्या प्रवर्तते चेयं पश्चिमायां दिशि प्रभो।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! आप संयमपूर्वक आचमन करके संध्योपासन कीजिये। अब अग्निहोत्रकी बेला हो रही है। यह मुहूर्त धर्मका साधन होनेके कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ता है। इसमें भूत आदि प्राणी विचरते हैं, अतः भयंकर भी है। प्रभो! पश्चिम दिशामें संध्या प्रकट हो रही है—उधरका आकाश लाल हो रहा है’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स भगवान् जरत्कारुर्महातपाः ॥ २३ ॥
भार्यं प्रस्फुरमाणौष्ठ इदं वचनमब्रवीत्।
अवमानः प्रयुक्तोऽयं त्वया मम भुजङ्गमे ॥ २४ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स भगवान् जरत्कारुर्महातपाः ॥ २३ ॥
भार्यं प्रस्फुरमाणौष्ठ इदं वचनमब्रवीत्।
अवमानः प्रयुक्तोऽयं त्वया मम भुजङ्गमे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागकन्याके ऐसा कहनेपर महातपस्वी भगवान् जरत्कारु जाग उठे। उस समय क्रोधके मारे उनके होठ काँपने लगे। वे इस प्रकार बोले—‘नागकन्ये! तूने मेरा यह अपमान किया है॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीपे ते न वत्स्यामि गमिष्यामि यथागतम्।
शक्तिरस्ति न वामोरु मयि सुप्ते विभावसोः ॥ २५ ॥
अस्तं गन्तुं यथाकालमिति मे हृदि वर्तते।
न चाप्यवमतस्येह वासो रोचेत कस्यचित् ॥ २६ ॥
किं पुनर्धर्मशीलस्य मम वा मद्विधस्य वा।

मूलम्

समीपे ते न वत्स्यामि गमिष्यामि यथागतम्।
शक्तिरस्ति न वामोरु मयि सुप्ते विभावसोः ॥ २५ ॥
अस्तं गन्तुं यथाकालमिति मे हृदि वर्तते।
न चाप्यवमतस्येह वासो रोचेत कस्यचित् ॥ २६ ॥
किं पुनर्धर्मशीलस्य मम वा मद्विधस्य वा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये अब मैं तेरे पास नहीं रहूँगा। जैसे आया हूँ, वैसे ही चला जाऊँगा। वामोरु! सूर्यमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं सोता रहूँ और वे अस्त हो जायँ। यह मेरे हृदयमें निश्चय है। जिसका कहीं अपमान हो जाय ऐसे किसी भी पुरुषको वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता। फिर मेरी अथवा मेरे-जैसे दूसरे धर्मशील पुरुषकी तो बात ही क्या है’॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता जरत्कारुर्भर्त्रा हृदयकम्पनम् ॥ २७ ॥
अब्रवीद् भगिनी तत्र वासुकेः संनिवेशने।
नावमानात् कृतवती तवाहं विप्र बोधनम् ॥ २८ ॥
धर्मलोपो न ते विप्र स्यादित्येतन्मया कृतम्।
उवाच भार्यामित्युक्तो जरत्कारुर्महातपाः ॥ २९ ॥
ऋषिः कोपसमाविष्टस्त्यक्तुकामो भुजङ्गमाम् ।
न मे वागनृतं प्राह गमिष्येऽहं भुजङ्गमे ॥ ३० ॥

मूलम्

एवमुक्ता जरत्कारुर्भर्त्रा हृदयकम्पनम् ॥ २७ ॥
अब्रवीद् भगिनी तत्र वासुकेः संनिवेशने।
नावमानात् कृतवती तवाहं विप्र बोधनम् ॥ २८ ॥
धर्मलोपो न ते विप्र स्यादित्येतन्मया कृतम्।
उवाच भार्यामित्युक्तो जरत्कारुर्महातपाः ॥ २९ ॥
ऋषिः कोपसमाविष्टस्त्यक्तुकामो भुजङ्गमाम् ।
न मे वागनृतं प्राह गमिष्येऽहं भुजङ्गमे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पतिने इस प्रकार हृदयमें कँपकँपी पैदा करनेवाली बात कही, तब उस घरमें स्थित वासुकिकी बहिन इस प्रकार बोली—‘विप्रवर! मैंने अपमान करनेके लिये आपको नहीं जगाया था। आपके धर्मका लोप न हो जाय, यही ध्यानमें रखकर मैंने ऐसा किया है।’ यह सुनकर क्रोधमें भरे हुए महातपस्वी ऋषि जरत्कारुने अपनी पत्नी नागकन्याको त्याग देनेकी इच्छा रखकर उससे कहा—‘नागकन्ये! मैंने कभी झूठी बात मुँहसे नहीं निकाली है, अतः अवश्य जाऊँगा’॥२७—३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समयो ह्येष मे पूर्वं त्वया सह मिथः कृतः।
सुखमस्म्युषितो भद्रे ब्रूयास्त्वं भ्रातरं शुभे ॥ ३१ ॥
इतो मयि गते भीरु गतः स भगवानिति।
त्वं चापि मयि निष्क्रान्ते न शोकं कर्तुमर्हसि ॥ ३२ ॥

मूलम्

समयो ह्येष मे पूर्वं त्वया सह मिथः कृतः।
सुखमस्म्युषितो भद्रे ब्रूयास्त्वं भ्रातरं शुभे ॥ ३१ ॥
इतो मयि गते भीरु गतः स भगवानिति।
त्वं चापि मयि निष्क्रान्ते न शोकं कर्तुमर्हसि ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने तुम्हारे साथ आपसमें पहले ही ऐसी शर्त कर ली थी। भद्रे! मैं यहाँ बड़े सुखसे रहा हूँ। यहाँसे मेरे चले जानेके बाद अपने भाईसे कहना—‘भगवान् जरत्कारु चले गये।’ शुभे! भीरु! मेरे निकल जानेपर तुम्हें भी शोक नहीं करना चाहिये’॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्ता सानवद्याङ्गी प्रत्युवाच मुनिं तदा।
जरत्कारुं जरत्कारुश्चिन्ताशोकपरायणा ॥ ३३ ॥
बाष्पगद्‌गदया वाचा मुखेन परिशुष्यता।
कृताञ्जलिर्वरारोहा पर्यश्रुनयना ततः ॥ ३४ ॥
धैर्यमालम्ब्य वामोरुर्हृदयेन प्रवेपता ।
न मामर्हसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम् ॥ ३५ ॥
धर्मे स्थितां स्थितो धर्मे सदा प्रियहिते रताम्।
प्रदाने कारणं यच्च मम तुभ्यं द्विजोत्तम ॥ ३६ ॥
तदलब्धवतीं मन्दां किं मां वक्ष्यति वासुकिः।
मातृशापाभिभूतानां ज्ञातीनां मम सत्तम ॥ ३७ ॥
अपत्यमीप्सितं त्वत्तस्तच्च तावन्न दृश्यते।
त्वत्तो ह्यपत्यलाभेन ज्ञातीनां मे शिवं भवेत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

इत्युक्ता सानवद्याङ्गी प्रत्युवाच मुनिं तदा।
जरत्कारुं जरत्कारुश्चिन्ताशोकपरायणा ॥ ३३ ॥
बाष्पगद्‌गदया वाचा मुखेन परिशुष्यता।
कृताञ्जलिर्वरारोहा पर्यश्रुनयना ततः ॥ ३४ ॥
धैर्यमालम्ब्य वामोरुर्हृदयेन प्रवेपता ।
न मामर्हसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम् ॥ ३५ ॥
धर्मे स्थितां स्थितो धर्मे सदा प्रियहिते रताम्।
प्रदाने कारणं यच्च मम तुभ्यं द्विजोत्तम ॥ ३६ ॥
तदलब्धवतीं मन्दां किं मां वक्ष्यति वासुकिः।
मातृशापाभिभूतानां ज्ञातीनां मम सत्तम ॥ ३७ ॥
अपत्यमीप्सितं त्वत्तस्तच्च तावन्न दृश्यते।
त्वत्तो ह्यपत्यलाभेन ज्ञातीनां मे शिवं भवेत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर अनिन्द्य सुन्दरी जरत्कारु भाईके कार्यकी चिन्ता और पतिके वियोगजनित शोकमें डूब गयी। उसका मुँह सूख गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये और हृदय काँपने लगा। फिर किसी प्रकार धैर्य धारण करके सुन्दर जाँघों और मनोहर शरीरवाली वह नागकन्या हाथ जोड़ गद्‌गद वाणीमें जरत्कारु मुनिसे बोली—‘धर्मज्ञ! आप सदा धर्ममें स्थित रहनेवाले हैं। मैं भी पत्नी-धर्ममें स्थित तथा आप प्रियतमके हितमें लगी रहनेवाली हूँ। आपको मुझ निरपराध अबलाका त्याग नहीं करना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ! मेरे भाईने जिस उद्‌देश्यको लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था, मैं मन्दभागिनी अबतक उसे पा न सकी। नागराज वासुकि मुझसे क्या कहेंगे? साधुशिरोमणे! मेरे कुटुम्बीजन माताके शापसे दबे हुए हैं। उन्हें मेरे द्वारा आपसे एक संतानकी प्राप्ति अभीष्ट थी, किंतु उसका भी अबतक दर्शन नहीं हुआ। आपसे पुत्रकी प्राप्ति हो जाय तो उसके द्वारा मेरे जाति-भाइयोंका कल्याण हो सकता है॥३३—३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रयोगो भवेन्नायं मम मोघस्त्वया द्विज।
ज्ञातीनां हितमिच्छन्ती भगवंस्त्वां प्रसादये ॥ ३९ ॥

मूलम्

सम्प्रयोगो भवेन्नायं मम मोघस्त्वया द्विज।
ज्ञातीनां हितमिच्छन्ती भगवंस्त्वां प्रसादये ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! आपसे जो मेरा सम्बन्ध हुआ, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। भगवन्! अपने बान्धवजनोंका हित चाहती हुई मैं आपसे प्रसन्न होनेकी प्रार्थना करती हूँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इममव्यक्तरूपं मे गर्भमाधाय सत्तम।
कथं त्यक्त्वा महात्मा सन् गन्तुमिच्छस्यनागसम् ॥ ४० ॥

मूलम्

इममव्यक्तरूपं मे गर्भमाधाय सत्तम।
कथं त्यक्त्वा महात्मा सन् गन्तुमिच्छस्यनागसम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग! आपने जो गर्भ स्थापित किया है, उसका स्वरूप या लक्षण अभी प्रकट नहीं हुआ। महात्मा होकर ऐसी दशामें आप मुझ निरपराध पत्नीको त्यागकर कैसे जाना चाहते हैं?’॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु स मुनिर्भार्यां वचनमब्रवीत्।
यद् युक्तमनुरूपं च जरत्कारुं तपोधनः ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु स मुनिर्भार्यां वचनमब्रवीत्।
यद् युक्तमनुरूपं च जरत्कारुं तपोधनः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर उन तपोधन महर्षिने अपनी पत्नी जरत्कारुसे उचित तथा अवसरके अनुरूप बात कही—॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्ययं सुभगे गर्भस्तव वैश्वानरोपमः।
ऋषिः परमधर्मात्मा वेदवेदाङ्गपारगः ॥ ४२ ॥

मूलम्

अस्त्ययं सुभगे गर्भस्तव वैश्वानरोपमः।
ऋषिः परमधर्मात्मा वेदवेदाङ्गपारगः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुभगे! ‘अयं अस्ति’ —तुम्हारे उदरमें गर्भ है। तुम्हारा यह गर्भस्थ बालक अग्निके समान तेजस्वी, परम धर्मात्मा मुनि तथा वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान् होगा’॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स धर्मात्मा जरत्कारुर्महानृषिः।
उग्राय तपसे भूयो जगाम कृतनिश्चयः ॥ ४३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स धर्मात्मा जरत्कारुर्महानृषिः।
उग्राय तपसे भूयो जगाम कृतनिश्चयः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर धर्मात्मा महामुनि जरत्कारु, जिन्होंने जानेका दृढ़ निश्चय कर लिया था, फिर कठोर तपस्याके लिये वनमें चले गये॥४३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुनिर्गमे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारुका तपस्याके लिये निष्क्रमणविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥


  1. श्वेतकाकका अर्थ यह है—श्वा, एत और काक; जिसका क्रमशः अर्थ है—कुत्ता, हरिण और कौआ (श्वा+एतमें पररूप हुआ है)। तात्पर्य यह है कि यह कुतियाकी भाँति सदा जागती और कम सोती थी, हरिणीके समान भयसे चकित रहती और कौएकी भाँति उनके इंगित (इशारे) समझनेके लिये सावधान रहती थी। ↩︎