०४५ जरत्कारु-पितृ-संवादः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरत्कारुको अपने पितरोंका दर्शन और उनसे वार्तालाप

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु जरत्कारुर्महातपाः।
चचार पृथिवीं कृत्स्नां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ १ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु जरत्कारुर्महातपाः।
चचार पृथिवीं कृत्स्नां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— इन्हीं दिनोंकी बात है, महातपस्वी जरत्कारु मुनि सम्पूर्ण पृथ्वीपर विचरण कर रहे थे। जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः।
तीर्थेष्वाप्लवनं कृत्वा पुण्येषु विचचार ह ॥ २ ॥

मूलम्

चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः।
तीर्थेष्वाप्लवनं कृत्वा पुण्येषु विचचार ह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महातेजस्वी महर्षिने ऐसे कठोर नियमोंकी दीक्षा ले रखी थी, जिनका पालन करना दूसरे अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये सर्वथा कठिन था। वे पवित्र तीर्थोंमें स्नान करते हुए विचर रहे थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्नहरहर्मुनिः ।
स ददर्श पितॄन् गर्ते लम्बमानानधोमुखान् ॥ ३ ॥
एकतन्त्ववशिष्टं वै वीरणस्तम्बमाश्रितान् ।
तं तन्तुं च शनैराखुमाददानं बिलेशयम् ॥ ४ ॥

मूलम्

वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्नहरहर्मुनिः ।
स ददर्श पितॄन् गर्ते लम्बमानानधोमुखान् ॥ ३ ॥
एकतन्त्ववशिष्टं वै वीरणस्तम्बमाश्रितान् ।
तं तन्तुं च शनैराखुमाददानं बिलेशयम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मुनि वायु पीते और निराहार रहते थे; इसलिये दिन-पर-दिन सूखते चले जाते थे। एक दिन उन्होंने पितरोंको देखा, जो नीचे मुँह किये एक गड्‌ढेमें लटक रहे थे। उन्होंने खश नामक तिनकोंके समूहको पकड़ रखा था, जिसकी जड़में केवल एक तन्तु बच गया था। उस बचे हुए तन्तुको भी वहीं बिलमें रहनेवाला एक चूहा धीरे-धीरे खा रहा था॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निराहारान् कृशान् दीनान् गर्ते स्वत्राणमिच्छतः।
उपसृत्य स तान् दीनान् दीनरूपोऽभ्यभाषत ॥ ५ ॥

मूलम्

निराहारान् कृशान् दीनान् गर्ते स्वत्राणमिच्छतः।
उपसृत्य स तान् दीनान् दीनरूपोऽभ्यभाषत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पितर निराहार, दीन और दुर्बल हो गये थे और चाहते थे कि कोई हमें इस गड्‌ढेमें गिरनेसे बचा ले। जरत्कारु उनकी दयनीय दशा देखकर दयासे द्रवित हो स्वयं भी दीन हो गये और उन दीन-दुःखी पितरोंके समीप जाकर बोले—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के भवन्तोऽवलम्बन्ते वीरणस्तम्बमाश्रिताः ।
दुर्बलं खादितैर्मूलैराखुना बिलवासिना ॥ ६ ॥

मूलम्

के भवन्तोऽवलम्बन्ते वीरणस्तम्बमाश्रिताः ।
दुर्बलं खादितैर्मूलैराखुना बिलवासिना ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोग कौन हैं जो खशके गुच्छेके सहारे लटक रहे हैं? इस खशकी जड़ें यहाँ बिलमें रहनेवाले चूहेने खा डाली हैं, इसलिये यह बहुत कमजोर है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरणस्तम्बके मूलं यदप्येकमिह स्थितम्।
तदप्ययं शनैराखुरादत्ते दशनैः शितैः ॥ ७ ॥

मूलम्

वीरणस्तम्बके मूलं यदप्येकमिह स्थितम्।
तदप्ययं शनैराखुरादत्ते दशनैः शितैः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘खशके इस गुच्छेमें जो मूलका एक तन्तु यहाँ बचा है, उसे भी यह चूहा अपने तीखे दाँतोंसे धीरे-धीरे कुतर रहा है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छेत्स्यतेऽल्पावशिष्टत्वादेतदप्यचिरादिव ।
ततस्तु पतितारोऽत्र गर्ते व्यक्तमधोमुखाः ॥ ८ ॥

मूलम्

छेत्स्यतेऽल्पावशिष्टत्वादेतदप्यचिरादिव ।
ततस्तु पतितारोऽत्र गर्ते व्यक्तमधोमुखाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसका स्वल्प भाग शेष है, वह भी बात-की-बातमें कट जायगा। फिर तो आपलोग नीचे मुँह किये निश्चय ही इस गड्‌ढेमें गिर जायँगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मे दुःखमुत्पन्नं दृष्ट्वा युष्मानधोमुखान्।
कृच्छ्रमापदमापन्नान् प्रियं किं करवाणि वः ॥ ९ ॥
तपसोऽस्य चतुर्थेन तृतीयेनाथवा पुनः।
अर्धेन वापि निस्तर्तुमापदं ब्रूत मा चिरम् ॥ १० ॥

मूलम्

तस्य मे दुःखमुत्पन्नं दृष्ट्वा युष्मानधोमुखान्।
कृच्छ्रमापदमापन्नान् प्रियं किं करवाणि वः ॥ ९ ॥
तपसोऽस्य चतुर्थेन तृतीयेनाथवा पुनः।
अर्धेन वापि निस्तर्तुमापदं ब्रूत मा चिरम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपको इस प्रकार नीचे मुँह किये लटकते देख मेरे मनमें बड़ा दुःख हो रहा है। आपलोग बड़ी कठिन विपत्तिमें पड़े हैं। मैं आपलोगोंका कौन प्रिय कार्य करूँ? आपलोग मेरी इस तपस्याके चौथे, तीसरे अथवा आधे भागके द्वारा भी इस विपत्तिसे बचाये जा सकें तो शीघ्र बतलावें॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवापि समग्रेण तरन्तु तपसा मम।
भवन्तः सर्व एवेह काममेवं विधीयताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अथवापि समग्रेण तरन्तु तपसा मम।
भवन्तः सर्व एवेह काममेवं विधीयताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा मेरी सारी तपस्याके द्वारा भी यदि आप सभी लोग यहाँ इस संकटसे पार हो सकें तो भले ही ऐसा कर लें’॥११॥

मूलम् (वचनम्)

पितर ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धो भवान् ब्रह्मचारी यो नस्त्रातुमिहेच्छसि।
न तु विप्राग्र्य तपसा शक्यते तद् व्यपोहितुम् ॥ १२ ॥

मूलम्

वृद्धो भवान् ब्रह्मचारी यो नस्त्रातुमिहेच्छसि।
न तु विप्राग्र्य तपसा शक्यते तद् व्यपोहितुम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितरोंने कहा— विप्रवर! आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, जो यहाँ हमारी रक्षा करना चाहते हैं; किंतु हमारा संकट तपस्यासे नहीं टाला जा सकता॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति नस्तात तपसः फलं प्रवदतां वर।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन् पताम निरयेऽशुचौ ॥ १३ ॥

मूलम्

अस्ति नस्तात तपसः फलं प्रवदतां वर।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन् पताम निरयेऽशुचौ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! तपस्याका बल तो हमारे पास भी है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! हम तो वंशपरम्पराका विच्छेद होनेके कारण अपवित्र नरकमें गिर रहे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतानं हि परो धर्म एवमाह पितामहः।
लम्बतामिह नस्तात न ज्ञानं प्रतिभाति वै ॥ १४ ॥

मूलम्

संतानं हि परो धर्म एवमाह पितामहः।
लम्बतामिह नस्तात न ज्ञानं प्रतिभाति वै ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीका वचन है कि संतान ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। तात! यहाँ लटकते हुए हमलोगोंकी सुध-बुध प्रायः खो गयी है, हमें कुछ ज्ञात नहीं होता॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन त्वा नाभिजानीमो लोके विख्यातपौरुषम्।
वृद्धो भवान्‌ महाभागो यो नः शोच्यान् सुदुःखितान् ॥ १५ ॥
शोचते चैव कारुण्याच्छृणु ये वै वयं द्विज।
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः ॥ १६ ॥

मूलम्

येन त्वा नाभिजानीमो लोके विख्यातपौरुषम्।
वृद्धो भवान्‌ महाभागो यो नः शोच्यान् सुदुःखितान् ॥ १५ ॥
शोचते चैव कारुण्याच्छृणु ये वै वयं द्विज।
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये लोकमें विख्यात पौरुषवाले आप-जैसे महापुरुषको हम पहचान नहीं पा रहे हैं। आप कोई महान् सौभाग्यशाली महापुरुष हैं, जो अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए हम-जैसे शोचनीय प्राणियोंके लिये करुणावश शोक कर रहे हैं। ब्रह्मन्! हमलोग कौन हैं इसका परिचय देते हैं, सुनिये। हम अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक महर्षि हैं॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकात् पुण्यादिह भ्रष्टाः संतानप्रक्षयान्मुने।
प्रणष्टं नस्तपस्तीव्रं न हि नस्तन्तुरस्ति वै ॥ १७ ॥

मूलम्

लोकात् पुण्यादिह भ्रष्टाः संतानप्रक्षयान्मुने।
प्रणष्टं नस्तपस्तीव्रं न हि नस्तन्तुरस्ति वै ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! वंशपरम्पराका क्षय होनेके कारण हमें पुण्य-लोकसे भ्रष्ट होना पड़ा है। हमारी तीव्र तपस्या नष्ट हो गयी; क्योंकि हमारे कुलमें अब कोई संतति नहीं रह गयी है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति त्वेकोऽद्य नस्तन्तुः सोऽपि नास्ति यथा तथा।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एकं समास्थितः ॥ १८ ॥

मूलम्

अस्ति त्वेकोऽद्य नस्तन्तुः सोऽपि नास्ति यथा तथा।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एकं समास्थितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आजकल हमारी परम्परामें एक ही तन्तु या संतति शेष है, किंतु वह भी नहींके बराबर है। हम अल्पभाग्य हैं, इसीसे वह मन्दभाग्य संतति एकमात्र तपमें लगी हुई है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरत्कारुरिति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः ।
नियतात्मा महात्मा च सुव्रतः सुमहातपाः ॥ १९ ॥

मूलम्

जरत्कारुरिति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः ।
नियतात्मा महात्मा च सुव्रतः सुमहातपाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका नाम है जरत्कारु। वह वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान् होनेके साथ ही मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, महात्मा, उत्तम व्रतका पालक और महान् तपस्वी है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन स्म तपसो लोभात् कृच्छ्रमापादिता वयम्।
न तस्य भार्या पुत्रो वा बान्धवो वास्ति कश्चन॥२०॥

मूलम्

तेन स्म तपसो लोभात् कृच्छ्रमापादिता वयम्।
न तस्य भार्या पुत्रो वा बान्धवो वास्ति कश्चन॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने तपस्याके लोभसे हमें संकटमें डाल दिया है। उसके न पत्नी है, न पुत्र और न कोई भाई-बन्धु ही है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माल्लम्बामहे गर्ते नष्टसंज्ञा ह्यनाथवत्।
स वक्तव्यस्त्वया दृष्टो ह्यस्माकं नाथवत्तया ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्माल्लम्बामहे गर्ते नष्टसंज्ञा ह्यनाथवत्।
स वक्तव्यस्त्वया दृष्टो ह्यस्माकं नाथवत्तया ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे हमलोग अपनी सुध-बुध खोकर अनाथकी तरह इस गड्‌ढेमें लटक रहे हैं। यदि वह आपके देखनेमें आवे तो हम अनाथोंको सनाथ करनेके लिये उससे इस प्रकार कहियेगा—॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितरस्तेऽवलम्बन्ते गर्ते दीना अधोमुखाः।
साधु दारान् कुरुष्वेति प्रजामुत्पादयेति च ॥ २२ ॥

मूलम्

पितरस्तेऽवलम्बन्ते गर्ते दीना अधोमुखाः।
साधु दारान् कुरुष्वेति प्रजामुत्पादयेति च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जरत्कारो! तुम्हारे पितर अत्यन्त दीन हो नीचे मुँह करके गड्ढेमें लटक रहे हैं। तुम उत्तम रीतिसे पत्नीके साथ विवाह कर लो और उसके द्वारा संतान उत्पन्न करो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलतन्तुर्हि नः शिष्टस्त्वमेवैकस्तपोधन ।
यस्त्वं पश्यसि नो ब्रह्मन् वीरणस्तम्बमाश्रितान् ॥ २३ ॥
एषोऽस्माकं कुलस्तम्ब आस्ते स्वकुलवर्धनः।
यानि पश्यसि वै ब्रह्मन् मूलानीहास्य वीरुधः ॥ २४ ॥
एते नस्तन्तवस्तात कालेन परिभक्षिताः।
यत्त्वेतत् पश्यसि ब्रह्मन् मूलमस्यार्धभक्षितम् ॥ २५ ॥
यत्र लम्बामहे गर्ते सोऽप्येकस्तप आस्थितः।
यमाखुं पश्यसि ब्रह्मन् काल एष महाबलः ॥ २६ ॥

मूलम्

कुलतन्तुर्हि नः शिष्टस्त्वमेवैकस्तपोधन ।
यस्त्वं पश्यसि नो ब्रह्मन् वीरणस्तम्बमाश्रितान् ॥ २३ ॥
एषोऽस्माकं कुलस्तम्ब आस्ते स्वकुलवर्धनः।
यानि पश्यसि वै ब्रह्मन् मूलानीहास्य वीरुधः ॥ २४ ॥
एते नस्तन्तवस्तात कालेन परिभक्षिताः।
यत्त्वेतत् पश्यसि ब्रह्मन् मूलमस्यार्धभक्षितम् ॥ २५ ॥
यत्र लम्बामहे गर्ते सोऽप्येकस्तप आस्थितः।
यमाखुं पश्यसि ब्रह्मन् काल एष महाबलः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तपोधन! तुम्हीं अपने पूर्वजोंके कुलमें एकमात्र तन्तु बच रहे हो। ब्रह्मन्! आप जो हमें खशके गुच्छेका सहारा लेकर लटकते देख रहे हैं, यह खशका गुच्छा नहीं है, हमारे कुलका आश्रय है, जो अपने कुलको बढ़ानेवाला है। विप्रवर! इस खशकी जो कटी हुई जड़ें यहाँ आपकी दृष्टिमें आ रही हैं, ये ही हमारे वंशके वे तन्तु (संतान) हैं, जिन्हें कालरूपी चूहेने खा लिया है। ब्राह्मण! आप जो इस खशकी यह अधकटी जड़ देखते हैं, जिसके सहारे हम गड्‌ढेमें लटक रहे हैं, यह वही एकमात्र संतान जरत्कारु है, जो तपस्यामें लगा है और ब्राह्मण देवता! जिसे आप चूहेके रूपमें देख रहे हैं, यह महाबली काल है॥२३—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं तपोरतं मन्दं शनैः क्षपयते तुदन्।
जरत्कारुं तपोलब्धं मन्दात्मानमचेतसम् ॥ २७ ॥

मूलम्

स तं तपोरतं मन्दं शनैः क्षपयते तुदन्।
जरत्कारुं तपोलब्धं मन्दात्मानमचेतसम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह उस तपस्वी एवं मूढ़ जरत्कारुको, जो तपको ही लाभ माननेवाला, मन्दात्मा (अदूरदर्शी) और अचेत (जड) हो रहा है, धीरे-धीरे पीड़ा देते हुए दाँतोंसे काट रहा है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि नस्तत् तपस्तस्य तारयिष्यति सत्तम।
छिन्नमूलान् परिभ्रष्टान् कालोपहतचेतसः ॥ २८ ॥
अधःप्रविष्टान् पश्यास्मान्‌ यथा दुष्कृतिनस्तथा।
अस्मासु पतितेष्वत्र सह सर्वैः सबान्धवैः ॥ २९ ॥
छिन्नः कालेन सोऽप्यत्र गन्ता वै नरकं ततः।
तपो वाप्यथवा यज्ञो यच्चान्यत् पावनं महत् ॥ ३० ॥
तत् सर्वमपरं तात न संतत्या समं मतम्।
स तात दृष्ट्वा ब्रूयास्तं जरत्कारुं तपोधन ॥ ३१ ॥
यथा दृष्टमिदं चात्र त्वयाख्येयमशेषतः।
यथा दारान् प्रकुर्यात् स पुत्रानुत्पादयेद् यथा ॥ ३२ ॥
तथा ब्रह्मंस्त्वया वाच्यः सोऽस्माकं नाथवत्तया।
बान्धवानां हितस्येह यथा चात्मकुलं तथा ॥ ३३ ॥
कस्त्वं बन्धुमिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ।
श्रोतुमिच्छाम सर्वेषां को भवानिह तिष्ठति ॥ ३४ ॥

मूलम्

न हि नस्तत् तपस्तस्य तारयिष्यति सत्तम।
छिन्नमूलान् परिभ्रष्टान् कालोपहतचेतसः ॥ २८ ॥
अधःप्रविष्टान् पश्यास्मान्‌ यथा दुष्कृतिनस्तथा।
अस्मासु पतितेष्वत्र सह सर्वैः सबान्धवैः ॥ २९ ॥
छिन्नः कालेन सोऽप्यत्र गन्ता वै नरकं ततः।
तपो वाप्यथवा यज्ञो यच्चान्यत् पावनं महत् ॥ ३० ॥
तत् सर्वमपरं तात न संतत्या समं मतम्।
स तात दृष्ट्वा ब्रूयास्तं जरत्कारुं तपोधन ॥ ३१ ॥
यथा दृष्टमिदं चात्र त्वयाख्येयमशेषतः।
यथा दारान् प्रकुर्यात् स पुत्रानुत्पादयेद् यथा ॥ ३२ ॥
तथा ब्रह्मंस्त्वया वाच्यः सोऽस्माकं नाथवत्तया।
बान्धवानां हितस्येह यथा चात्मकुलं तथा ॥ ३३ ॥
कस्त्वं बन्धुमिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ।
श्रोतुमिच्छाम सर्वेषां को भवानिह तिष्ठति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साधुशिरोमणे! उस जरत्कारुकी तपस्या हमें इस संकटसे नहीं उबारेगी। देखिये, हमारी जड़ें कट गयी हैं, कालने हमारी चेतनाशक्ति नष्ट कर दी है और हम अपने स्थानसे भ्रष्ट होकर नीचे इस गड्‌ढेमें गिर रहे हैं। जैसे पापियोंकी दुर्गति होती है, वैसे ही हमारी होती है। हम समस्त बन्धु-बान्धवोंके साथ जब इस गड्‌ढेमें गिर जायँगे, तब वह जरत्कारु भी कालका ग्रास बनकर अवश्य इसी नरकमें आ गिरेगा। तात! तपस्या, यज्ञ अथवा अन्य जो महान् एवं पवित्र साधन हैं, वे सब संतानके समान नहीं हैं। तात! आप तपस्याके धनी जान पड़ते हैं। आपको तपस्वी जरत्कारु मिल जाय तो उससे हमारा संदेश कहियेगा और आपने यहाँ जो कुछ देखा है, वह सब उसे बता दीजियेगा! ब्रह्मन्! हमें सनाथ बनानेकी दृष्टिसे आप जरत्कारुके साथ इस प्रकार वार्तालाप कीजियेगा, जिससे वह पत्नी-संग्रह करे और उसके द्वारा पुत्रोंको जन्म दे। तात! जरत्कारुके बान्धव जो हमलोग हैं, हमारे लिये अपने कुलकी भाँति अपने भाई-बन्धुके समान आप सोच कर रहे हैं। अतः साधुशिरोमणे! बताइये, आप कौन हैं? हम सब लोगोंमेंसे आप किसके क्या लगते हैं, जो यहाँ खड़े हुए हैं? हम आपका परिचय सुनना चाहते हैं’॥२८—३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुपितृदर्शने पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारुके पितृदर्शनविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४५॥