श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जनमेजयका राज्याभिषेक और विवाह
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तथा मन्त्रिणो दृष्ट्वा भोगेन परिवेष्टितम्।
विषण्णवदनाः सर्वे रुरुदुर्भृशदुःखिताः ॥ १ ॥
मूलम्
ते तथा मन्त्रिणो दृष्ट्वा भोगेन परिवेष्टितम्।
विषण्णवदनाः सर्वे रुरुदुर्भृशदुःखिताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकजी! मन्त्रीगण राजा परीक्षित्को तक्षक नागसे जकड़ा हुआ देख अत्यन्त दुःखी हो गये। उनके मुखपर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने लगे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु नादं ततः श्रुत्वा मन्त्रिणस्ते प्रदुद्रुवुः।
अपश्यन्त तथा यान्तमाकाशे नागमद्भुतम् ॥ २ ॥
सीमन्तमिव कुर्वाणं नभसः पद्मवर्चसम्।
तक्षकं पन्नगश्रेष्ठं भृशं शोकपरायणाः ॥ ३ ॥
मूलम्
तं तु नादं ततः श्रुत्वा मन्त्रिणस्ते प्रदुद्रुवुः।
अपश्यन्त तथा यान्तमाकाशे नागमद्भुतम् ॥ २ ॥
सीमन्तमिव कुर्वाणं नभसः पद्मवर्चसम्।
तक्षकं पन्नगश्रेष्ठं भृशं शोकपरायणाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तक्षककी फुंकारभरी गर्जना सुनकर मन्त्रीलोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल कमलकी-सी कान्ति-वाला वह अद्भुत नाग आकाशमें सिन्दूरकी रेखा-सी खींचता हुआ चला जा रहा है। नागोंमें श्रेष्ठ तक्षकको इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोकमें डूब गये॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु ते तद् गृहमग्निनाऽऽवृतं
प्रदीप्यमानं विषजेन भोगिनः ।
भयात् परित्यज्य दिशः प्रपेदिरे
पपात राजाशनिताडितो यथा ॥ ४ ॥
मूलम्
ततस्तु ते तद् गृहमग्निनाऽऽवृतं
प्रदीप्यमानं विषजेन भोगिनः ।
भयात् परित्यज्य दिशः प्रपेदिरे
पपात राजाशनिताडितो यथा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह राजमहल सर्पके विषजनित अग्निसे आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख उन सब मन्त्रियोंने भयसे उस स्थानको छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओंकी शरण ली तथा राजा परीक्षित् वज्रके मारे हुएकी भाँति धरतीपर गिर पड़े॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नृपे तक्षकतेजसा हते
प्रयुज्य सर्वाः परलोकसत्क्रियाः ।
शुचिर्द्विजो राजपुरोहितस्तदा
तथैव ते तस्य नृपस्य मन्त्रिणः ॥ ५ ॥
नृपं शिशुं तस्य सुतं प्रचक्रिरे
समेत्य सर्वे पुरवासिनो जनाः।
नृपं यमाहुस्तममित्रघातिनं
कुरुप्रवीरं जनमेजयं जनाः ॥ ६ ॥
मूलम्
ततो नृपे तक्षकतेजसा हते
प्रयुज्य सर्वाः परलोकसत्क्रियाः ।
शुचिर्द्विजो राजपुरोहितस्तदा
तथैव ते तस्य नृपस्य मन्त्रिणः ॥ ५ ॥
नृपं शिशुं तस्य सुतं प्रचक्रिरे
समेत्य सर्वे पुरवासिनो जनाः।
नृपं यमाहुस्तममित्रघातिनं
कुरुप्रवीरं जनमेजयं जनाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तक्षककी विषाग्निद्वारा राजा परीक्षित्के दग्ध हो जानेपर उनकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराजके मन्त्री तथा समस्त पुरवासी मनुष्योंने मिलकर उन्हींके पुत्रको, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया। कुरुकुलका वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओंका विनाश करनेवाला था। लोग उसे राजा जनमेजय कहते थे॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बाल एवार्यमतिर्नृपोत्तमः
सहैव तैर्मन्त्रिपुरोहितैस्तदा ।
शशास राज्यं कुरुपुङ्गवाग्रजो
यथास्य वीरः प्रपितामहस्तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
स बाल एवार्यमतिर्नृपोत्तमः
सहैव तैर्मन्त्रिपुरोहितैस्तदा ।
शशास राज्यं कुरुपुङ्गवाग्रजो
यथास्य वीरः प्रपितामहस्तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बचपनमें ही नृपश्रेष्ठ जनमेजयकी बुद्धि श्रेष्ठ पुरुषोंके समान थी। अपने वीर प्रपितामह महाराज युधिष्ठिरकी भाँति कुरुश्रेष्ठ वीरोंके अग्रगण्य जनमेजय भी उस समय मन्त्री और पुरोहितोंके साथ धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु राजानममित्रतापनं
समीक्ष्य ते तस्य नृपस्य मन्त्रिणः।
सुवर्णवर्माणमुपेत्य काशिपं
वपुष्टमार्थं वरयाम्प्रचक्रमुः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततस्तु राजानममित्रतापनं
समीक्ष्य ते तस्य नृपस्य मन्त्रिणः।
सुवर्णवर्माणमुपेत्य काशिपं
वपुष्टमार्थं वरयाम्प्रचक्रमुः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजमन्त्रियोंने देखा, राजा जनमेजय शत्रुओंको दबानेमें समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने काशिराज सुवर्णवर्माके पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमाके लिये याचना की॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा प्रददौ वपुष्टमां
कुरुप्रवीराय परीक्ष्य धर्मतः ।
स चापि तां प्राप्य मुदायुतोऽभव-
न्न चान्यनारीषु मनोदधे क्वचित् ॥ ९ ॥
मूलम्
ततः स राजा प्रददौ वपुष्टमां
कुरुप्रवीराय परीक्ष्य धर्मतः ।
स चापि तां प्राप्य मुदायुतोऽभव-
न्न चान्यनारीषु मनोदधे क्वचित् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काशिराजने धर्मकी दृष्टिसे भलीभाँति जाँच-पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमाका विवाह कुरुकुलके श्रेष्ठ वीर जनमेजयके साथ कर दिया। जनमेजयने भी वपुष्टमाको पाकर बड़ी प्रसन्नताका अनुभव किया और दूसरी स्त्रियोंकी ओर कभी अपने मनको नहीं जाने दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरःसु फुल्लेषु वनेषु चैव हि
प्रसन्नचेता विजहार वीर्यवान् ।
तथा स राजन्यवरो विजह्रिवान्
यथोर्वशीं प्राप्य पुरा पुरूरवाः ॥ १० ॥
मूलम्
सरःसु फुल्लेषु वनेषु चैव हि
प्रसन्नचेता विजहार वीर्यवान् ।
तथा स राजन्यवरो विजह्रिवान्
यथोर्वशीं प्राप्य पुरा पुरूरवाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंमें श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजयने प्रसन्न-चित्त होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित उपवनोंमें रानी वपुष्टमाके साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्वकालमें उर्वशीको पाकर महाराज पुरूरवाने किया था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वपुष्टमा चापि वरं पतिव्रता
प्रतीतरूपा समवाप्य भूपतिम् ।
भावेन रामा रमयाम्बभूव सा
विहारकालेष्ववरोधसुन्दरी ॥ ११ ॥
मूलम्
वपुष्टमा चापि वरं पतिव्रता
प्रतीतरूपा समवाप्य भूपतिम् ।
भावेन रामा रमयाम्बभूव सा
विहारकालेष्ववरोधसुन्दरी ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वपुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजाके अन्तःपुरमें सबसे सुन्दरी रमणी थी। राजा जनमेजयको पतिरूपमें प्राप्त करके वह विहारकालमें बड़े अनुरागके साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जनमेजयराज्याभिषेके चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जनमेजयराज्याभिषेकसम्बन्धी चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४४॥