०४२ शाप-वारण-यत्नः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शमीकका अपने पुत्रको समझाना और गौरमुखको राजा परीक्षित्‌के पास भेजना, राजाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

शृङ्ग्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येतत् साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम्।
प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा भवेत्॥१॥

मूलम्

यद्येतत् साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम्।
प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा भवेत्॥१॥

अनुवाद (हिन्दी)

शृंगी बोला— तात! यदि यह साहस है अथवा यदि मेरे द्वारा दुष्कर्म हो गया है तो हो जाय। आपको यह प्रिय लगे या अप्रिय, किंतु मैंने जो बात कह दी है, वह झूठी नहीं हो सकती॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते।
नाहं मृषा ब्रवीम्येवं स्वैरेष्वपि कुतः शपन् ॥ २ ॥

मूलम्

नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते।
नाहं मृषा ब्रवीम्येवं स्वैरेष्वपि कुतः शपन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजी! मैं आपसे सच कहता हूँ, अब यह शाप टल नहीं सकता। मैं हँसी-मजाकमें भी झूठ नहीं बोलता, फिर शाप देते समय कैसे झूठी बात कह सकता हूँ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

शमीक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानाम्युग्रप्रभावं त्वां तात सत्यगिरं तथा।
नानृतं चोक्तपूर्वं ते नैतन्मिथ्या भविष्यति ॥ ३ ॥

मूलम्

जानाम्युग्रप्रभावं त्वां तात सत्यगिरं तथा।
नानृतं चोक्तपूर्वं ते नैतन्मिथ्या भविष्यति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शमीकने कहा— बेटा! मैं जानता हूँ तुम्हारा प्रभाव उग्र है, तुम बड़े सत्यवादी हो, तुमने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है; अतः यह शाप मिथ्या नहीं होगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रा पुत्रो वयःस्थोऽपि सततं वाच्य एव तु।
यथा स्याद् गुणसंयुक्तः प्राप्नुयाच्च महद् यशः ॥ ४ ॥

मूलम्

पित्रा पुत्रो वयःस्थोऽपि सततं वाच्य एव तु।
यथा स्याद् गुणसंयुक्तः प्राप्नुयाच्च महद् यशः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि पिताको उचित है कि वह अपने पुत्रको बड़ी अवस्थाका हो जानेपर भी सदा सत्कर्मोंका उपदेश देता रहे; जिससे वह गुणवान् हो और महान् यश प्राप्त करे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनर्बाल एव त्वं तपसा भावितः सदा।
वर्धते च प्रभवतां कोपोऽतीव महात्मनाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

किं पुनर्बाल एव त्वं तपसा भावितः सदा।
वर्धते च प्रभवतां कोपोऽतीव महात्मनाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तुम्हें उपदेश देनेकी तो बात ही क्या है, तुम तो अभी बालक ही हो। तुमने सदा तपस्याके द्वारा अपनेको दिव्य शक्तिसे सम्पन्न किया है। जो योगजनित ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं, ऐसे प्रभावशाली तेजस्वी पुरुषोंका भी क्रोध अधिक बढ़ जाता है; फिर तुम-जैसे बालकको क्रोध हो, इसमें कहना ही क्या है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभृतां वर।
पुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सोऽहं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभृतां वर।
पुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(किंतु यह क्रोध धर्मका नाशक होता है) इसलिये धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पुत्र! तुम्हारे बचपन और दुःसाहसपूर्ण कार्यको देखकर मैं तुम्हें कुछ कालतक उपदेश देनेकी आवश्यकता समझता हूँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं शमपरो भूत्वा वन्यमाहारमाचरन्।
चर क्रोधमिमं हत्वा नैवं धर्मं प्रहास्यसि ॥ ७ ॥

मूलम्

स त्वं शमपरो भूत्वा वन्यमाहारमाचरन्।
चर क्रोधमिमं हत्वा नैवं धर्मं प्रहास्यसि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें तत्पर होकर जंगली कन्द, मूल, फलका आहार करते हुए इस क्रोधको मिटाकर उत्तम आचरण करो; ऐसा करनेसे तुम्हारे धर्मकी हानि नहीं होगी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधो हि धर्मं हरति यतीनां दुःखसंचितम्।
ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

क्रोधो हि धर्मं हरति यतीनां दुःखसंचितम्।
ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोध प्रयत्नशील साधकोंके अत्यन्त दुःखसे उपार्जित धर्मका नाश कर देता है। फिर धर्महीन मनुष्योंको अभीष्ट गति नहीं मिलती है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारकः।
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् ॥ ९ ॥

मूलम्

शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारकः।
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शम (मनोनिग्रह) ही क्षमाशील साधकोंको सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाला है। जिनमें क्षमा है, उन्हींके लिये यह लोक और परलोक दोनों कल्याणकारक हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माच्चरेथाः सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
क्षमया प्राप्स्यसे लोकान् ब्रह्मणः समनन्तरान् ॥ १० ॥

मूलम्

तस्माच्चरेथाः सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
क्षमया प्राप्स्यसे लोकान् ब्रह्मणः समनन्तरान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम सदा इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए क्षमाशील बनो। क्षमासे ही ब्रह्माजीके निकटवर्ती लोकोंमें जा सकोगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै।
तत् करिष्याम्यहं तात प्रेषयिष्ये नृपाय वै ॥ ११ ॥
मम पुत्रेण शप्तोऽसि बालेन कृशबुद्धिना।
ममेमां धर्षणां त्वत्तः प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा ॥ १२ ॥

मूलम्

मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै।
तत् करिष्याम्यहं तात प्रेषयिष्ये नृपाय वै ॥ ११ ॥
मम पुत्रेण शप्तोऽसि बालेन कृशबुद्धिना।
ममेमां धर्षणां त्वत्तः प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैं तो शान्ति धारण करके अब जो कुछ किया जा सकता है, वह करूँगा। राजाके पास यह संदेश भेज दूँगा कि ‘राजन्! तुम्हारे द्वारा मुझे जो तिरस्कार प्राप्त हुआ है उसे देखकर अमर्षमें भरे हुए मेरे अल्पबुद्धि एवं मूढ़ पुत्रने तुम्हें शाप दे दिया है’॥११-१२॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रतः।
परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपाः ॥ १३ ॥
संदिश्य कुशलप्रश्नं कार्यवृत्तान्तमेव च।
शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं समाहितम् ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रतः।
परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपाः ॥ १३ ॥
संदिश्य कुशलप्रश्नं कार्यवृत्तान्तमेव च।
शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं समाहितम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दयालु एवं महातपस्वी शमीक मुनिने अपने गौरमुख नामवाले एकाग्रचित्त एवं शीलवान् शिष्यको इस प्रकार आदेश दे कुशल-प्रश्न, कार्य एवं वृतान्तका संदेश देकर राजा परीक्षित्‌के पास भेजा॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽभिगम्य ततः शीघ्रं नरेन्द्रं कुरुवर्धनम्।
विवेश भवनं राज्ञः पूर्वं द्वाःस्थैर्निवेदितः ॥ १५ ॥

मूलम्

सोऽभिगम्य ततः शीघ्रं नरेन्द्रं कुरुवर्धनम्।
विवेश भवनं राज्ञः पूर्वं द्वाःस्थैर्निवेदितः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौरमुख वहाँसे शीघ्र कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाले महाराज परीक्षित्‌के पास चला गया। राजधानीमें पहुँचनेपर द्वारपालने पहले महाराजको उसके आनेकी सूचना दी और उनकी आज्ञा मिलनेपर गौरमुखने राजभवनमें प्रवेश किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजितस्तु नरेन्द्रेण द्विजो गौरमुखस्तदा।
आचख्यौ च परिश्रान्तो राज्ञः सर्वमशेषतः ॥ १६ ॥
शमीकवचनं घोरं यथोक्तं मन्त्रिसन्निधौ।

मूलम्

पूजितस्तु नरेन्द्रेण द्विजो गौरमुखस्तदा।
आचख्यौ च परिश्रान्तो राज्ञः सर्वमशेषतः ॥ १६ ॥
शमीकवचनं घोरं यथोक्तं मन्त्रिसन्निधौ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज परीक्षित्‌ने उस समय गौरमुख ब्राह्मणका बड़ा सत्कार किया। जब उसने विश्राम कर लिया, तब शमीकके कहे हुए घोर वचनको मन्त्रियोंके समीप राजाके सामने पूर्णरूपसे कह सुनाया॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

गौरमुख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमीको नाम राजेन्द्र वर्तते विषये तव ॥ १७ ॥
ऋषिः परमधर्मात्मा दान्तः शान्तो महातपाः।
तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्पः प्राणैर्वियोजितः ॥ १८ ॥
अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे मौनान्वितस्य च।
क्षान्तवांस्तव तत् कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे ॥ १९ ॥

मूलम्

शमीको नाम राजेन्द्र वर्तते विषये तव ॥ १७ ॥
ऋषिः परमधर्मात्मा दान्तः शान्तो महातपाः।
तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्पः प्राणैर्वियोजितः ॥ १८ ॥
अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे मौनान्वितस्य च।
क्षान्तवांस्तव तत् कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौरमुख बोला— महाराज! आपके राज्यमें शमीक नामवाले एक परम धर्मात्मा महर्षि रहते हैं। वे जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले और महान् तपस्वी हैं। नरव्याघ्र! आपने मौन व्रत धारण करनेवाले उन महात्माके कंधेपर धनुषकी नोकसे उठाकर एक मरा हुआ साँप रख दिया था। महर्षिने तो उसके लिये आपको क्षमा कर दिया था, किंतु उनके पुत्रको वह सहन नहीं हुआ॥१७—१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन शप्तोऽसि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै।
तक्षकः सप्तरात्रेण मृत्युस्तव भविष्यति ॥ २० ॥

मूलम्

तेन शप्तोऽसि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै।
तक्षकः सप्तरात्रेण मृत्युस्तव भविष्यति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उस ऋषिकुमारने आज अपने पिताके अनजानमें ही आपके लिये यह शाप दिया है कि ‘आजसे सात रातके बाद ही तक्षक नाग आपकी मृत्युका कारण हो जायगा’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुनः पुनरथाब्रवीत्।
तदन्यथा न शक्यं च कर्तुं केनचिदप्युत ॥ २१ ॥

मूलम्

तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुनः पुनरथाब्रवीत्।
तदन्यथा न शक्यं च कर्तुं केनचिदप्युत ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस दशामें आप अपनी रक्षाकी व्यवस्था करें। यह मुनिने बार-बार कहा है। उस शापको कोई भी टाल नहीं सकता॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शक्नोति तं यन्तुं पुत्रं कोपसमन्वितम्।
ततोऽहं प्रेषितस्तेन तव राजन् हितार्थिना ॥ २२ ॥

मूलम्

न हि शक्नोति तं यन्तुं पुत्रं कोपसमन्वितम्।
ततोऽहं प्रेषितस्तेन तव राजन् हितार्थिना ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं महर्षि भी क्रोधमें भरे हुए अपने पुत्रको शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन्! आपके हितकी इच्छासे उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दनः।
पर्यतप्यत तत् पापं कृत्वा राजा महातपाः ॥ २३ ॥

मूलम्

इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दनः।
पर्यतप्यत तत् पापं कृत्वा राजा महातपाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— यह घोर वचन सुनकर कुरुनन्दन राजा परीक्षित् मुनिका अपराध करनेके कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं च मौनव्रतं श्रुत्वा वने मुनिवरं तदा।
भूय एवाभवद् राजा शोकसंतप्तमानसः ॥ २४ ॥

मूलम्

तं च मौनव्रतं श्रुत्वा वने मुनिवरं तदा।
भूय एवाभवद् राजा शोकसंतप्तमानसः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वनमें मौन-व्रतका पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा परीक्षित्‌का मन और भी शोक एवं संतापमें डूब गया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य च।
पर्यतप्यत भूयोऽपि कृत्वा तत् किल्बिषं मुनेः ॥ २५ ॥

मूलम्

अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य च।
पर्यतप्यत भूयोऽपि कृत्वा तत् किल्बिषं मुनेः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शमीक मुनिकी दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस अपराधका विचार करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोऽन्वतप्यत।
अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत् ॥ २६ ॥

मूलम्

न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोऽन्वतप्यत।
अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवतुल्य राजा परीक्षित्‌को अपनी मृत्युका शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा कि मुनिके प्रति किये हुए अपने उस बर्तावको याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा।
भूयः प्रसादं भगवान् करोत्विह ममेति वै ॥ २७ ॥

मूलम्

ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा।
भूयः प्रसादं भगवान् करोत्विह ममेति वै ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजाने यह संदेश देकर उस समय गौरमुखको विदा किया कि ‘भगवान् शमीक मुनि यहाँ पधारकर पुनः मुझपर कृपा करें’॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंश्च गतमात्रेऽथ राजा गौरमुखे तदा।
मन्त्रिभिर्मन्त्रयामास सह संविग्नमानसः ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्मिंश्च गतमात्रेऽथ राजा गौरमुखे तदा।
मन्त्रिभिर्मन्त्रयामास सह संविग्नमानसः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौरमुखके चले जानेपर राजाने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियोंके साथ गुप्त मन्त्रणा की॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिश्चैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित्।
प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम् ॥ २९ ॥

मूलम्

सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिश्चैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित्।
प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्र-तत्त्वके ज्ञाता महाराजने मन्त्रियोंसे सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। वह भवन सब ओरसे सुरक्षित था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्चौषधानि च।
ब्राह्मणान् मन्त्रसिद्धांश्च सर्वतो वै न्ययोजयत् ॥ ३० ॥

मूलम्

रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्चौषधानि च।
ब्राह्मणान् मन्त्रसिद्धांश्च सर्वतो वै न्ययोजयत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने वहाँ रक्षाके लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकारकी ओषधियाँ जुटा लीं और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणोंको सब ओर नियुक्त कर दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः।
मन्त्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात् परिरक्षितः ॥ ३१ ॥

मूलम्

राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः।
मन्त्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात् परिरक्षितः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओरसे सुरक्षित हो मन्त्रियोंके साथ सम्पूर्ण राज-कार्यकी व्यवस्था करने लगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैनं कश्चिदारूढं लभते राजसत्तमम्।
वातोऽपि निश्चरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते ॥ ३२ ॥

मूलम्

न चैनं कश्चिदारूढं लभते राजसत्तमम्।
वातोऽपि निश्चरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महलमें बैठे हुए महाराजसे कोई भी मिलने नहीं पाता था। वायुको भी वहाँसे निकल जानेपर पुनः प्रवेशके समय रोका जाता था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्ते च दिवसे तस्मिन् सप्तमे द्विजसत्तमः।
काश्यपोऽभ्यागमद् विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

प्राप्ते च दिवसे तस्मिन् सप्तमे द्विजसत्तमः।
काश्यपोऽभ्यागमद् विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सातवाँ दिन आनेपर मन्त्रशास्त्रके ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ काश्यप राजाकी चिकित्सा करनेके लिये आ रहे थे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं हि तेन तदभूद् यथा तं राजसत्तमम्।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

श्रुतं हि तेन तदभूद् यथा तं राजसत्तमम्।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने सुन रखा था कि ‘भूपशिरोमणि परीक्षित्‌को आज नागोंमें श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्येऽहमपज्वरम्।
तत्र मेऽर्थश्च धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्येऽहमपज्वरम्।
तत्र मेऽर्थश्च धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः उन्होंने सोचा कि नागराजके डँसे हुए महाराजका विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करनेसे वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजाको जिलानेसे धर्म भी होगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि।
गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोऽतिगः ॥ ३६ ॥
तमब्रवीत् पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुङ्गवम्।
क्व भवांस्त्वरितो याति किं च कार्यं चिकीर्षति ॥ ३७ ॥

मूलम्

तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि।
गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोऽतिगः ॥ ३६ ॥
तमब्रवीत् पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुङ्गवम्।
क्व भवांस्त्वरितो याति किं च कार्यं चिकीर्षति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें नागराज तक्षकने काश्यपको देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुरकी ओर बढ़े जा रहे थे। तब नागराजने बूढ़े ब्राह्मणका वेश बनाकर मुनिवर काश्यपसे पूछा—‘आप कहाँ बड़ी उतावलीके साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?’॥३६-३७॥

मूलम् (वचनम्)

काश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिन्दमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति ॥ ३८ ॥

मूलम्

नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिन्दमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काश्यपने कहा— कुरुकुलमें उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित्‌को आज नागराज तक्षक अपनी विषाग्निसे दग्ध कर देगा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा।
पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम् ।
गच्छामि त्वरितं सौम्य सद्यः कर्तुमपज्वरम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा।
पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम् ।
गच्छामि त्वरितं सौम्य सद्यः कर्तुमपज्वरम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे राजा पाण्डवोंकी वंशपरम्पराको सुरक्षित रखने-वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य! अग्निके समान तेजस्वी नागराजके डँस लेनेपर उन्हें तत्काल विषरहित करके जीवित कर देनेके लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

तक्षक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं स तक्षको ब्रह्मंस्तं धक्ष्यामि महीपतिम्।
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ॥ ४० ॥

मूलम्

अहं स तक्षको ब्रह्मंस्तं धक्ष्यामि महीपतिम्।
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तक्षक बोला— ब्रह्मन्! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजाको भस्म कर डालूँगा। आप लौट जाइये। मैं जिसे डँस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

काश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम्।
करिष्यामीति मे बुद्धिर्विद्याबलसमन्विता ॥ ४१ ॥

मूलम्

अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम्।
करिष्यामीति मे बुद्धिर्विद्याबलसमन्विता ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काश्यपने कहा— मैं तुम्हारे डँसे हुए राजाको वहाँ जाकर विषसे रहित कर दूँगा। यह विद्याबलसे सम्पन्न मेरी बुद्धिका निश्चय है॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि काश्यपागमने द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें काश्यपागमनविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४२॥