०४० परीक्षित्-पापम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरत्कारुकी तपस्या, राजा परीक्षित्‌का उपाख्यान तथा राजाद्वारा मुनिके कंधेपर मृतक साँप रखनेके कारण दुःखी हुए कृशका शृंगीको उत्तेजित करना

मूलम् (वचनम्)

शौनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरत्कारुरिति ख्यातो यस्त्वया सूतनन्दन।
इच्छामि तदहं श्रोतुं ऋषेस्तस्य महात्मनः ॥ १ ॥
किं कारणं जरत्कारोर्नामैतत् प्रथितं भुवि।
जरत्कारुनिरुक्तिं त्वं यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥

मूलम्

जरत्कारुरिति ख्यातो यस्त्वया सूतनन्दन।
इच्छामि तदहं श्रोतुं ऋषेस्तस्य महात्मनः ॥ १ ॥
किं कारणं जरत्कारोर्नामैतत् प्रथितं भुवि।
जरत्कारुनिरुक्तिं त्वं यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजीने पूछा— सूतनन्दन! आपने जिन जरत्कारु ऋषिका नाम लिया है, उन महात्मा मुनिके सम्बन्धमें मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पृथ्वीपर उनका जरत्कारु नाम क्यों प्रसिद्ध हुआ? जरत्कारु शब्दकी व्युत्पत्ति क्या है? यह आप ठीक-ठीक बतानेकी कृपा करें॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरेति क्षयमाहुर्वै दारुणं कारुसंज्ञितम्।
शरीरं कारु तस्यासीत्तत् स धीमाञ्छनैः शनैः ॥ ३ ॥
क्षपयामास तीव्रेण तपसेत्यत उच्यते।
जरत्कारुरिति ब्रह्मन् वासुकेर्भगिनी तथा ॥ ४ ॥

मूलम्

जरेति क्षयमाहुर्वै दारुणं कारुसंज्ञितम्।
शरीरं कारु तस्यासीत्तत् स धीमाञ्छनैः शनैः ॥ ३ ॥
क्षपयामास तीव्रेण तपसेत्यत उच्यते।
जरत्कारुरिति ब्रह्मन् वासुकेर्भगिनी तथा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजीने कहा— शौनकजी! जरा कहते हैं क्षयको और कारु शब्द दारुणका वाचक है। पहले उनका शरीर कारु अर्थात् खूब हट्टा-कट्टा था। उसे परम बुद्धिमान् महर्षिने धीरे-धीरे तीव्र तपस्याद्वारा क्षीण बना दिया। ब्रह्मन्! इसलिये उनका नाम जरत्कारु पड़ा। वासुकिकी बहिनके भी जरत्कारु नाम पड़नेका यही कारण था॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु धर्मात्मा शौनकः प्राहसत् तदा।
उग्रश्रवासमामन्त्र्य उपपन्नमिति ब्रुवन् ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु धर्मात्मा शौनकः प्राहसत् तदा।
उग्रश्रवासमामन्त्र्य उपपन्नमिति ब्रुवन् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजीके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा शौनक उस समय खिलखिलाकर हँस पड़े और फिर उग्रश्रवाजीको सम्बोधित करके बोले—‘तुम्हारी बात उचित है’॥५॥

मूलम् (वचनम्)

शौनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तं नाम यथापूर्वं सर्वं तच्छ्रुमतवानहम्।
यथा तु जातो ह्यास्तीक एतदिच्छामि वेदितुम्।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सौतिः प्रोवाच शास्त्रतः ॥ ६ ॥

मूलम्

उक्तं नाम यथापूर्वं सर्वं तच्छ्रुमतवानहम्।
यथा तु जातो ह्यास्तीक एतदिच्छामि वेदितुम्।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सौतिः प्रोवाच शास्त्रतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी बोले— सूतपुत्र! आपने पहले जो जरत्कारु नामकी व्युत्पत्ति बतायी है, वह सब मैंने सुन ली। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आस्तीक मुनिका जन्म किस प्रकार हुआ? शौनकजीका यह वचन सुनकर उग्रश्रवाजीने पुराणशास्त्रके अनुसार आस्तीकके जन्मका वृत्तान्त बताया॥६॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदिश्य पन्नगान् सर्वान् वासुकिः सुसमाहितः।
स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति ॥ ७ ॥

मूलम्

संदिश्य पन्नगान् सर्वान् वासुकिः सुसमाहितः।
स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी बोले— नागराज वासुकिने एकाग्रचित्त हो खूब सोच-समझकर सब सर्पोंको यह संदेश दे दिया—‘मुझे अपनी बहिनका विवाह जरत्कारु मुनिके साथ करना है’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कालस्य महतः स मुनिः संशितव्रतः।
तपस्यभिरतो धीमान् स दारान् नाभ्यकाङ्क्षत ॥ ८ ॥

मूलम्

अथ कालस्य महतः स मुनिः संशितव्रतः।
तपस्यभिरतो धीमान् स दारान् नाभ्यकाङ्क्षत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दीर्घकाल बीत जानेपर भी कठोर व्रतका पालन करनेवाले परम बुद्धिमान् जरत्कारु मुनि केवल तपमें ही लगे रहे। उन्होंने स्त्रीसंग्रहकी इच्छा नहीं की॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तूर्ध्वरेतास्तपसि प्रसक्तः
स्वाध्यायवान् वीतभयः कृतात्मा ।
चचार सर्वां पृथिवीं महात्मा
न चापि दारान् मनसाध्यकाङ्क्षत ॥ ९ ॥

मूलम्

स तूर्ध्वरेतास्तपसि प्रसक्तः
स्वाध्यायवान् वीतभयः कृतात्मा ।
चचार सर्वां पृथिवीं महात्मा
न चापि दारान् मनसाध्यकाङ्क्षत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे। तपस्यामें संलग्न रहते थे। नित्य नियमपूर्वक वेदोंका स्वाध्याय करते थे। उन्हें कहींसे कोई भय नहीं था। वे मन और इन्द्रियोंको सदा काबूमें रखते थे। महात्मा जरत्कारु सारी पृथ्वीपर घूम आये; किंतु उन्होंने मनसे कभी स्त्रीकी अभिलाषा नहीं की॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपरस्मिन् सम्प्राप्ते काले कस्मिंश्चिदेव तु।
परिक्षिन्नाम राजासीद् ब्रह्मन् कौरववंशजः ॥ १० ॥

मूलम्

ततोऽपरस्मिन् सम्प्राप्ते काले कस्मिंश्चिदेव तु।
परिक्षिन्नाम राजासीद् ब्रह्मन् कौरववंशजः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! तदनन्तर किसी दूसरे समयमें इस पृथ्वीपर कौरववंशी राजा परीक्षित् राज्य करने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि ।
बभूव मृगयाशीलः पुरास्य प्रपितामहः ॥ ११ ॥

मूलम्

यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि ।
बभूव मृगयाशीलः पुरास्य प्रपितामहः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें समस्त धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ उनके प्रपितामह महाबाहु पाण्डु जिस प्रकार पूर्वकालमें शिकार खेलनेके शौकीन हुए थे, उसी प्रकार राजा परीक्षित् भी थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगान् विध्यन् वराहांश्च तरक्षून् महिषांस्तथा।
अन्यांश्च विविधान् वन्यांश्चचार पृथिवीपतिः ॥ १२ ॥

मूलम्

मृगान् विध्यन् वराहांश्च तरक्षून् महिषांस्तथा।
अन्यांश्च विविधान् वन्यांश्चचार पृथिवीपतिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज परीक्षित् वराह, तरक्षु (व्याघ्रविशेष), महिष तथा दूसरे-दूसरे नाना प्रकारके वनके हिंसक पशुओंका शिकार खेलते हुए वनमें घूमते रहते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचिन्मृगं विद्‌ध्वा बाणेनानतपर्वणा।
पृष्ठतो धनुरादाय ससार गहने वने ॥ १३ ॥

मूलम्

स कदाचिन्मृगं विद्‌ध्वा बाणेनानतपर्वणा।
पृष्ठतो धनुरादाय ससार गहने वने ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन उन्होंने गहन वनमें धनुष लेकर झुकी हुई गाँठवाले बाणसे एक हिंसक पशुको बींध डाला और भागनेपर बहुत दूरतक उसका पीछा किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव भगवान् रुद्रो विद्‌ध्वा यज्ञमृगं दिवि।
अन्वगच्छद् धनुष्पाणिः पर्यन्वेष्टुमितस्ततः ॥ १४ ॥

मूलम्

यथैव भगवान् रुद्रो विद्‌ध्वा यज्ञमृगं दिवि।
अन्वगच्छद् धनुष्पाणिः पर्यन्वेष्टुमितस्ततः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भगवान् रुद्र आकाशमें मृगशिरा नक्षत्रको बींध-कर उसे खोजनेके लिये धनुष हाथमें लिये इधर-उधर घूमते फिरे, उसी प्रकार परीक्षित् भी घूम रहे थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तेन मृगो विद्धो जीवन् गच्छति वै वने।
पूर्वरूपं तु तत्तूर्णं सोऽगात् स्वर्गगतिं प्रति ॥ १५ ॥
परिक्षितो नरेन्द्रस्य विद्धो यन्नष्टवान् मृगः।
दूरं चापहृतस्तेन मृगेण स महीपतिः ॥ १६ ॥

मूलम्

न हि तेन मृगो विद्धो जीवन् गच्छति वै वने।
पूर्वरूपं तु तत्तूर्णं सोऽगात् स्वर्गगतिं प्रति ॥ १५ ॥
परिक्षितो नरेन्द्रस्य विद्धो यन्नष्टवान् मृगः।
दूरं चापहृतस्तेन मृगेण स महीपतिः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके द्वारा घायल किया हुआ मृग कभी वनमें जीवित बचकर नहीं जाता था; परंतु आज जो महाराज परीक्षित्‌का घायल किया हुआ मृग तत्काल अदृश्य हो गया था, वह वास्तवमें उनके स्वर्गवासका मूर्तिमान् कारण था। उस मृगके साथ राजा परीक्षित् बहुत दूरतक खिंचे चले गये॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिश्रान्तः पिपासार्त आससाद मुनिं वने।
गवां प्रचारेष्वासीनं वत्सानां मुखनिःसृतम् ॥ १७ ॥
भूयिष्ठमुपयुञ्जानं फेनमापिबतां पयः ।
तमभिद्रुत्य वेगेन स राजा संशितव्रतम् ॥ १८ ॥
अपृच्छद् धनुरुद्यम्य तं मुनिं क्षुच्छ्रमान्वितः।
भो भो ब्रह्मन्नहं राजा परीक्षिदभिमन्युजः ॥ १९ ॥
मया विद्धो मृगो नष्टः कच्चित् तं दृष्टवानसि।
स मुनिस्तं तु नोवाच किंचिन्मौनव्रते स्थितः ॥ २० ॥

मूलम्

परिश्रान्तः पिपासार्त आससाद मुनिं वने।
गवां प्रचारेष्वासीनं वत्सानां मुखनिःसृतम् ॥ १७ ॥
भूयिष्ठमुपयुञ्जानं फेनमापिबतां पयः ।
तमभिद्रुत्य वेगेन स राजा संशितव्रतम् ॥ १८ ॥
अपृच्छद् धनुरुद्यम्य तं मुनिं क्षुच्छ्रमान्वितः।
भो भो ब्रह्मन्नहं राजा परीक्षिदभिमन्युजः ॥ १९ ॥
मया विद्धो मृगो नष्टः कच्चित् तं दृष्टवानसि।
स मुनिस्तं तु नोवाच किंचिन्मौनव्रते स्थितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें बड़ी थकावट आ गयी। वे प्याससे व्याकुल हो उठे और इसी दशामें वनमें शमीक मुनिके पास आये। वे मुनि गौओंके रहनेके स्थानमें आसनपर बैठे थे और गौओंका दूध पीते समय बछड़ोंके मुखसे जो बहुत-सा फेन निकलता, उसीको खा-पीकर तपस्या करते थे। राजा परीक्षित्‌ने कठोर व्रतका पालन करनेवाले उन महर्षिके पास बड़े वेगसे आकर पूछा। पूछते समय वे भूख और थकावटसे बहुत आतुर हो रहे थे और धनुषको उन्होंने ऊपर उठा रखा था। वे बोले—‘ब्रह्मन्! मैं अभिमन्युका पुत्र राजा परीक्षित् हूँ। मेरे बाणोंसे विद्ध होकर एक मृग कहीं भाग निकला है। क्या आपने उसे देखा है?’ मुनि मौन-व्रतका पालन कर रहे थे, अतः उन्होंने राजाको कुछ भी उत्तर नहीं दिया॥१७—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य स्कन्धे मृतं सर्पं क्रुद्धो राजा समासजत्।
समुत्क्षिप्य धनुष्कोट्या स चैनं समुपैक्षत ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्य स्कन्धे मृतं सर्पं क्रुद्धो राजा समासजत्।
समुत्क्षिप्य धनुष्कोट्या स चैनं समुपैक्षत ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाने कुपित हो धनुषकी नोकसे एक मरे हुए साँपको उठाकर उनके कंधेपर रख दिया, तो भी मुनिने उनकी उपेक्षा कर दी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स किंचिदुवाचैनं शुभं वा यदि वाशुभम्।
स राजा क्रोधमुत्सृज्य व्यथितस्तं तथागतम्।
दृष्ट्वा जगाम नगरमृषिस्त्वासीत् तथैव सः ॥ २२ ॥

मूलम्

न स किंचिदुवाचैनं शुभं वा यदि वाशुभम्।
स राजा क्रोधमुत्सृज्य व्यथितस्तं तथागतम्।
दृष्ट्वा जगाम नगरमृषिस्त्वासीत् तथैव सः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने राजासे भला या बुरा कुछ भी नहीं कहा। उन्हें इस अवस्थामें देख राजा परीक्षित्‌ने क्रोध त्याग दिया और मन-ही-मन व्यथित हो पश्चात्ताप करते हुए वे अपनी राजधानीको चले गये। वे महर्षि ज्यों-कें-त्यों बैठे रहे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तं राजशार्दूलं क्षमाशीलो महामुनिः।
स्वधर्मनिरतं भूपं समाक्षिप्तोऽप्यधर्षयत् ॥ २३ ॥

मूलम्

न हि तं राजशार्दूलं क्षमाशीलो महामुनिः।
स्वधर्मनिरतं भूपं समाक्षिप्तोऽप्यधर्षयत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंमें श्रेष्ठ भूपाल परीक्षित् अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहते थे, अतः उस समय उनके द्वारा तिरस्कृत होनेपर भी क्षमाशील महामुनिने उन्हें अपमानित नहीं किया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तं राजशार्दूलस्तथा धर्मपरायणम्।
जानाति भरतश्रेष्ठस्तत एनमधर्षयत् ॥ २४ ॥

मूलम्

न हि तं राजशार्दूलस्तथा धर्मपरायणम्।
जानाति भरतश्रेष्ठस्तत एनमधर्षयत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणि नृपश्रेष्ठ परीक्षित् उन धर्मपरायण मुनिको यथार्थरूपमें नहीं जानते थे; इसीलिये उन्होंने महर्षिका अपमान किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरुणस्तस्य पुत्रोऽभूत् तिग्मतेजा महातपाः।
शृङ्गी नाम महाक्रोधो दुष्प्रसादो महाव्रतः ॥ २५ ॥

मूलम्

तरुणस्तस्य पुत्रोऽभूत् तिग्मतेजा महातपाः।
शृङ्गी नाम महाक्रोधो दुष्प्रसादो महाव्रतः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके शृंगी नामक एक पुत्र था, जिसकी अभी तरुणावस्था थी। वह महान् तपस्वी, दुःसह तेजसे सम्पन्न और महान् व्रतधारी था। उसमें क्रोधकी मात्रा बहुत अधिक थी; अतः उसे प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स देवं परमासीनं सर्वभूतहिते रतम्।
ब्रह्माणमुपतस्थे वै काले काले सुसंयतः ॥ २६ ॥

मूलम्

स देवं परमासीनं सर्वभूतहिते रतम्।
ब्रह्माणमुपतस्थे वै काले काले सुसंयतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह समय-समयपर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले, उत्तम आसनपर विराजमान आचार्यदेवकी सेवामें उपस्थित हुआ करता था॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेन समनुज्ञातो ब्रह्मणा गृहमेयिवान्।
सख्योक्तः क्रीडमानेन स तत्र हसता किल ॥ २७ ॥
संरम्भात् कोपनोऽतीव विषकल्पो मुनेः सुतः।
उद्दिश्य पितरं तस्य यच्छ्रुत्वा रोषमाहरत्।
ऋषिपुत्रेण धर्मार्थे कृशेन द्विजसत्तम ॥ २८ ॥

मूलम्

स तेन समनुज्ञातो ब्रह्मणा गृहमेयिवान्।
सख्योक्तः क्रीडमानेन स तत्र हसता किल ॥ २७ ॥
संरम्भात् कोपनोऽतीव विषकल्पो मुनेः सुतः।
उद्दिश्य पितरं तस्य यच्छ्रुत्वा रोषमाहरत्।
ऋषिपुत्रेण धर्मार्थे कृशेन द्विजसत्तम ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शृंगी उस दिन आचार्यकी आज्ञा लेकर घरको लौट रहा था। रास्तेमें उसका मित्र ऋषिकुमार कृश, जो धर्मके लिये कष्ट उठानेके कारण सदा ही कृश (दुर्बल) रहा करता था, खेलता मिला। उसने हँसते-हँसते शृंगी ऋषिको उसके पिताके सम्बन्धमें ऐसी बात बतायी, जिसे सुनते ही वह रोषमें भर गया। द्विजश्रेष्ठ! मुनिकुमार शृंगी क्रोधके आवेशमें आनेपर अत्यन्त तीक्ष्ण (कठोर) एवं विषके समान विनाशकारी हो जाता था॥२७-२८॥

मूलम् (वचनम्)

कृश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजस्विनस्तव पिता तथैव च तपस्विनः।
शवं स्कन्धेन वहति मा शृंगिन् गर्वितो भव ॥ २९ ॥

मूलम्

तेजस्विनस्तव पिता तथैव च तपस्विनः।
शवं स्कन्धेन वहति मा शृंगिन् गर्वितो भव ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृशने कहा— शृंगिन्! तुम बड़े तपस्वी और तेजस्वी बनते हो, किंतु तुम्हारे पिता अपने कंधेपर मुर्दा सर्प ढो रहे हैं। अब कभी अपनी तपस्यापर गर्व न करना॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याहरत्स्वृषिपुत्रेषु मा स्म किंचिद् वचो वद।
अस्मद्विधेषु सिद्धेषु ब्रह्मवित्सु तपस्विषु ॥ ३० ॥

मूलम्

व्याहरत्स्वृषिपुत्रेषु मा स्म किंचिद् वचो वद।
अस्मद्विधेषु सिद्धेषु ब्रह्मवित्सु तपस्विषु ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम-जैसे सिद्ध, ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी ऋषिपुत्र जब कभी बातें करते हों, उस समय तुम वहाँ कुछ न बोलना॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व ते पुरुषमानित्वं क्व ते वाचस्तथाविधाः।
दर्पजाः पितरं द्रष्टा यस्त्वं शवधरं तथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

क्व ते पुरुषमानित्वं क्व ते वाचस्तथाविधाः।
दर्पजाः पितरं द्रष्टा यस्त्वं शवधरं तथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहाँ है तुम्हारा पौरुषका अभिमान, कहाँ गयीं तुम्हारी वे दर्पभरी बातें? जब तुम अपने पिताको मुर्दा ढोते चुपचाप देख रहे हो!॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रा च तव तत् कर्म नानुरूपमिवात्मनः।
कृतं मुनिजनश्रेष्ठ येनाहं भृशदुःखितः ॥ ३२ ॥

मूलम्

पित्रा च तव तत् कर्म नानुरूपमिवात्मनः।
कृतं मुनिजनश्रेष्ठ येनाहं भृशदुःखितः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिजनशिरोमणे! तुम्हारे पिताके द्वारा कोई अनुचित कर्म नहीं बना था; इसलिये जैसे मेरे ही पिताका अपमान हुआ हो उस प्रकार तुम्हारे पिताके तिरस्कारसे मैं अत्यन्त दुःखी हो रहा हूँ॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि परिक्षिदुपाख्याने चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें परीक्षित्-उपाख्यानविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४०॥