०३९ जरत्कार्वे वासुकिस्वसा

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्माजीकी आज्ञासे वासुकिका जरत्कारु मुनिके साथ अपनी बहिनको ब्याहनेके लिये प्रयत्नशील होना

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एलापत्रवचः श्रुत्वा ते नागा द्विजसत्तम।
सर्वे प्रहृष्टमनसः साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ १ ॥
ततः प्रभृति तां कन्यां वासुकिः पर्यरक्षत।
जरत्कारुं स्वसारं वै परं हर्षमवाप च ॥ २ ॥

मूलम्

एलापत्रवचः श्रुत्वा ते नागा द्विजसत्तम।
सर्वे प्रहृष्टमनसः साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ १ ॥
ततः प्रभृति तां कन्यां वासुकिः पर्यरक्षत।
जरत्कारुं स्वसारं वै परं हर्षमवाप च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— द्विजश्रेष्ठ! एलापत्रकी बात सुनकर नागोंका चित्त प्रसन्न हो गया। वे सब-के-सब एक साथ बोल उठे—‘ठीक है, ठीक है।’ वासुकिको भी इस बातसे बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी दिनसे अपनी बहिन जरत्कारुका बड़े चावसे पालन-पोषण करने लगे॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नातिमहान् कालः समतीत इवाभवत्।
अथ देवासुराः सर्वे ममन्थुर्वरुणालयम् ॥ ३ ॥
तत्र नेत्रमभून्नागो वासुकिर्बलिनां वरः।
समाप्यैव च तत् कर्म पितामहमुपागमन् ॥ ४ ॥
देवा वासुकिना सार्धं पितामहमथाब्रुवन्।
भगवञ्छापभीतोऽयं वासुकिस्तप्यते भृशम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो नातिमहान् कालः समतीत इवाभवत्।
अथ देवासुराः सर्वे ममन्थुर्वरुणालयम् ॥ ३ ॥
तत्र नेत्रमभून्नागो वासुकिर्बलिनां वरः।
समाप्यैव च तत् कर्म पितामहमुपागमन् ॥ ४ ॥
देवा वासुकिना सार्धं पितामहमथाब्रुवन्।
भगवञ्छापभीतोऽयं वासुकिस्तप्यते भृशम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर थोड़ा ही समय व्यतीत होनेपर सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंने समुद्रका मन्थन किया। उसमें बलवानोंमें श्रेष्ठ वासुकि नाग मन्दराचलरूप मथानीमें लपेटनेके लिये रस्सी बने हुए थे। समुद्र-मन्थनका कार्य पूरा करके देवता वासुकि नागके साथ पितामह ब्रह्माजीके पास गये और उनसे बोले—‘भगवन्! ये वासुकि माताके शापसे भयभीत हो बहुत संतप्त होते रहते हैं॥३—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यैतन्मानसं शल्यं समुद्धर्तुं त्वमर्हसि।
जनन्याः शापजं देव ज्ञातीनां हितमिच्छतः ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्यैतन्मानसं शल्यं समुद्धर्तुं त्वमर्हसि।
जनन्याः शापजं देव ज्ञातीनां हितमिच्छतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देव! अपने भाई-बन्धुओंका हित चाहनेवाले इन नागराजके हृदयमें माताका शाप काँटा बनकर चुभा हुआ है और कसक पैदा करता है। आप इनके उस काँटेको निकाल दीजिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हितो ह्ययं सदास्माकं प्रियकारी च नागराट्।
प्रसादं कुरु देवेश शमयास्य मनोज्वरम् ॥ ७ ॥

मूलम्

हितो ह्ययं सदास्माकं प्रियकारी च नागराट्।
प्रसादं कुरु देवेश शमयास्य मनोज्वरम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवेश्वर! नागराज वासुकि हमारे हितैषी हैं और सदा हमलोगोंके प्रिय कार्यमें लगे रहते हैं; अतः आप इनपर कृपा करें और इनके मनमें जो चिन्ताकी आग जल रही है, उसे बुझा दें’॥७॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयैव तद् वितीर्णं वै वचनं मनसामराः।
एलापत्रेण नागेन यदस्याभिहितं पुरा ॥ ८ ॥

मूलम्

मयैव तद् वितीर्णं वै वचनं मनसामराः।
एलापत्रेण नागेन यदस्याभिहितं पुरा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— ‘देवताओ! एलापत्र नागने वासुकिके समक्ष पहले जो बात कही थी, वह मैंने ही मानसिक संकल्पद्वारा उसे दी थी (मेरी ही प्रेरणासे एलापत्रने वे बातें वासुकि आदि नागोंके सम्मुख कही थीं)॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् करोत्वेष नागेन्द्रः प्राप्तकालं वचः स्वयम्।
विनशिष्यन्ति ये पापा न तु ये धर्मचारिणः ॥ ९ ॥

मूलम्

तत् करोत्वेष नागेन्द्रः प्राप्तकालं वचः स्वयम्।
विनशिष्यन्ति ये पापा न तु ये धर्मचारिणः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये नागराज समय आनेपर स्वयं तदनुसार ही कार्य करें। जनमेजयके यज्ञमें पापी सर्प ही नष्ट होंगे, किंतु जो धर्मात्मा हैं वे नहीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पन्नः स जरत्कारुस्तपस्युग्रे रतो द्विजः।
तस्यैष भगिनीं काले जरत्कारुं प्रयच्छतु ॥ १० ॥

मूलम्

उत्पन्नः स जरत्कारुस्तपस्युग्रे रतो द्विजः।
तस्यैष भगिनीं काले जरत्कारुं प्रयच्छतु ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब जरत्कारु ब्राह्मण उत्पन्न होकर उग्र तपस्यामें लगे हैं। अवसर देखकर ये वासुकि अपनी बहिन जरत्कारुको उन महर्षिकी सेवामें समर्पित कर दें॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एलापत्रेण यत् प्रोक्तं वचनं भुजगेन ह।
पन्नगानां हितं देवास्तत् तथा न तदन्यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

एलापत्रेण यत् प्रोक्तं वचनं भुजगेन ह।
पन्नगानां हितं देवास्तत् तथा न तदन्यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओ! एलापत्र नागने जो बात कही है, वही सर्पोंके लिये हितकर है। वही बात होनेवाली है। उससे विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता॥११॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा तु नागेन्द्रः पितामहवचस्तदा।
संदिश्य पन्नगान् सर्वान् वासुकिः शापमोहितः ॥ १२ ॥
स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति।
सर्पान् बहूञ्जरत्कारौ नित्ययुक्तान् समादधत् ॥ १३ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा तु नागेन्द्रः पितामहवचस्तदा।
संदिश्य पन्नगान् सर्वान् वासुकिः शापमोहितः ॥ १२ ॥
स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति।
सर्पान् बहूञ्जरत्कारौ नित्ययुक्तान् समादधत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— ब्रह्माजीकी बात सुनकर शापसे मोहित हुए नागराज वासुकिने सब सर्पोंको यह संदेश दे दिया कि मुझे अपनी बहिनका विवाह जरत्कारु मुनिके साथ करना है। फिर उन्होंने जरत्कारु मुनिकी खोजके लिये नित्य आज्ञामें रहनेवाले बहुत-से सर्पोंको नियुक्त कर दिया॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरत्कारुर्यदा भार्यामिच्छेद् वरयितुं प्रभुः।
शीघ्रमेत्य तदाख्येयं तन्नः श्रेयो भविष्यति ॥ १४ ॥

मूलम्

जरत्कारुर्यदा भार्यामिच्छेद् वरयितुं प्रभुः।
शीघ्रमेत्य तदाख्येयं तन्नः श्रेयो भविष्यति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यह कहा—‘सामर्थ्यशाली जरत्कारु मुनि जब पत्नीका वरण करना चाहें, उस समय शीघ्र आकर यह बात मुझे सूचित करनी चाहिये। उसीसे हमलोगोंका कल्याण होगा’॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कार्वन्वेषणे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु मुनिका अन्वेषणविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३९॥