श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वासुकिकी बहिन जरत्कारुका जरत्कारु मुनिके साथ विवाह करनेका निश्चय
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्पाणां तु वचः श्रुत्वा सर्वेषामिति चेति च।
वासुकेश्च वचः श्रुत्वा एलापत्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १ ॥
मूलम्
सर्पाणां तु वचः श्रुत्वा सर्वेषामिति चेति च।
वासुकेश्च वचः श्रुत्वा एलापत्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकजी! समस्त सर्पोंकी भिन्न-भिन्न राय सुनकर और अन्तमें वासुकिके वचनोंका श्रवण कर एलापत्र नामक नागने इस प्रकार कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स यज्ञो न भविता न स राजा तथाविधः।
जनमेजयः पाण्डवेयो यतोऽस्माकं महद् भयम् ॥ २ ॥
मूलम्
न स यज्ञो न भविता न स राजा तथाविधः।
जनमेजयः पाण्डवेयो यतोऽस्माकं महद् भयम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भाइयो! यह सम्भव नहीं कि वह यज्ञ न हो तथा पाण्डववंशी राजा जनमेजय भी, जिससे हमें महान् भय प्राप्त हुआ है, ऐसा नहीं है कि हम उसका कुछ बिगाड़ सकें॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवेनोपहतो राजन् यो भवेदिह पूरुषः।
स दैवमेवाश्रयते नान्यत् तत्र परायणम् ॥ ३ ॥
मूलम्
दैवेनोपहतो राजन् यो भवेदिह पूरुषः।
स दैवमेवाश्रयते नान्यत् तत्र परायणम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इस लोकमें जो पुरुष दैवका मारा हुआ है, उसे दैवकी ही शरण लेनी चाहिये। वहाँ दूसरा कोई आश्रय नहीं काम देता॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं चैवमस्माकं भयं पन्नगसत्तमाः।
दैवमेवाश्रयामोऽत्र शृणुध्वं च वचो मम ॥ ४ ॥
अहं शापे समुत्सृष्टे समश्रौषं वचस्तदा।
मातुरुत्संगमारूढो भयात् पन्नगसत्तमाः ॥ ५ ॥
देवानां पन्नगश्रेष्ठास्तीक्ष्णास्तीक्ष्णा इति प्रभो।
पितामहमुपागम्य दुःखार्तानां महाद्युते ॥ ६ ॥
मूलम्
तदिदं चैवमस्माकं भयं पन्नगसत्तमाः।
दैवमेवाश्रयामोऽत्र शृणुध्वं च वचो मम ॥ ४ ॥
अहं शापे समुत्सृष्टे समश्रौषं वचस्तदा।
मातुरुत्संगमारूढो भयात् पन्नगसत्तमाः ॥ ५ ॥
देवानां पन्नगश्रेष्ठास्तीक्ष्णास्तीक्ष्णा इति प्रभो।
पितामहमुपागम्य दुःखार्तानां महाद्युते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रेष्ठ नागगण! हमारे ऊपर आया हुआ यह भय भी दैवजनित ही है, अतः हमें दैवका ही आश्रय लेना चाहिये। उत्तम सर्पगण! इस विषयमें आपलोग मेरी बात सुनें। जब माताने सर्पोंको यह शाप दिया था, उस समय भयके मारे मैं माताकी गोदमें चढ़ गया था। पन्नगप्रवर महातेजस्वी नागराजगण! तभी दुःखसे आतुर होकर ब्रह्माजीके समीप आये हुए देवताओंकी यह वाणी मेरे कानोंमें पड़ी—‘अहो! स्त्रियाँ बड़ी कठोर होती हैं, बड़ी कठोर होती हैं’॥४—६॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
का हि लब्ध्वा प्रियान् पुत्राञ्छपेदेवं पितामह।
ऋते कद्रूं तीक्ष्णरूपां देवदेव तवाग्रतः ॥ ७ ॥
मूलम्
का हि लब्ध्वा प्रियान् पुत्राञ्छपेदेवं पितामह।
ऋते कद्रूं तीक्ष्णरूपां देवदेव तवाग्रतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले— पितामह! देवदेव! तीखे स्वभाववाली इस क्रूर कद्रूको छोड़कर दूसरी कौन स्त्री होगी जो प्रिय पुत्रोंको पाकर उन्हें इस प्रकार शाप दे सके और वह भी आपके सामने॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति च वचस्तस्यास्त्वयाप्युक्तं पितामह।
एतदिच्छामि विज्ञातुं कारणं यन्न वारिता ॥ ८ ॥
मूलम्
तथेति च वचस्तस्यास्त्वयाप्युक्तं पितामह।
एतदिच्छामि विज्ञातुं कारणं यन्न वारिता ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! आपने भी ‘तथास्तु’ कहकर कद्रूकी बातका अनुमोदन ही किया है; उसे शाप देनेसे रोका नहीं है। इसका क्या कारण है, हम यह जानना चाहते हैं॥८॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहवः पन्नगास्तीक्ष्णा घोररूपा विषोल्बणाः।
प्रजानां हितकामोऽहं न च वारितवांस्तदा ॥ ९ ॥
मूलम्
बहवः पन्नगास्तीक्ष्णा घोररूपा विषोल्बणाः।
प्रजानां हितकामोऽहं न च वारितवांस्तदा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— इन दिनों भयानक रूप और प्रचण्ड विषवाले क्रूर सर्प बहुत हो गये हैं (जो प्रजाको कष्ट दे रहे हैं)। मैंने प्रजाजनोंके हितकी इच्छासे ही उस समय कद्रूको मना नहीं किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये दन्दशूकाः क्षुद्राश्च पापाचारा विषोल्बणाः।
तेषां विनाशो भविता न तु ये धर्मचारिणः ॥ १० ॥
मूलम्
ये दन्दशूकाः क्षुद्राश्च पापाचारा विषोल्बणाः।
तेषां विनाशो भविता न तु ये धर्मचारिणः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हीं सर्पोंका विनाश होगा जो प्रायः लोगोंको डँसते रहते हैं, क्षुद्र स्वभावके हैं और पापाचारी तथा प्रचण्ड विषवाले हैं। किंतु जो धर्मात्मा हैं, उनका नाश नहीं होगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्निमित्तं च भविता मोक्षस्तेषां महाभयात्।
पन्नगानां निबोधध्वं तस्मिन् काले समागते ॥ ११ ॥
मूलम्
यन्निमित्तं च भविता मोक्षस्तेषां महाभयात्।
पन्नगानां निबोधध्वं तस्मिन् काले समागते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह समय आनेपर सर्पोंका उस महान् भयसे जिस निमित्तसे छुटकारा होगा, उसे बतलाता हूँ, तुम सब लोग सुनो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यायावरकुले धीमान् भविष्यति महानृषिः।
जरत्कारुरिति ख्यातस्तपस्वी नियतेन्द्रियः ॥ १२ ॥
मूलम्
यायावरकुले धीमान् भविष्यति महानृषिः।
जरत्कारुरिति ख्यातस्तपस्वी नियतेन्द्रियः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यायावरकुलमें जरत्कारु नामसे विख्यात एक बुद्धिमान् महर्षि होंगे। वे तपस्यामें तत्पर रहकर अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखेंगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पुत्रो जरत्कारोर्भविष्यति तपोधनः।
आस्तीको नाम यज्ञं स प्रतिषेत्स्यति तं तदा।
तत्र मोक्ष्यन्ति भुजगा ये भविष्यन्ति धार्मिकाः ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्य पुत्रो जरत्कारोर्भविष्यति तपोधनः।
आस्तीको नाम यज्ञं स प्रतिषेत्स्यति तं तदा।
तत्र मोक्ष्यन्ति भुजगा ये भविष्यन्ति धार्मिकाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींके आस्तीक नामका एक महातपस्वी पुत्र उत्पन्न होगा जो उस यज्ञको बंद करा देगा। अतः जो सर्प धार्मिक होंगे, वे उसमें जलनेसे बच जायँगे॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुनिप्रवरो ब्रह्मञ्जरत्कारुर्महातपाः ।
कस्यां पुत्रं महात्मानं जनयिष्यति वीर्यवान् ॥ १४ ॥
मूलम्
स मुनिप्रवरो ब्रह्मञ्जरत्कारुर्महातपाः ।
कस्यां पुत्रं महात्मानं जनयिष्यति वीर्यवान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने पूछा— ब्रह्मन्! वे मुनिशिरोमणि महातपस्वी शक्तिशाली जरत्कारु किसके गर्भसे अपने उस महात्मा पुत्रको उत्पन्न करेंगे?॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनामायां सनामा स कन्यायां द्विजसत्तमः।
अपत्यं वीर्यसम्पन्नं वीर्यवाञ्जनयिष्यति ॥ १५ ॥
मूलम्
सनामायां सनामा स कन्यायां द्विजसत्तमः।
अपत्यं वीर्यसम्पन्नं वीर्यवाञ्जनयिष्यति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— वे शक्तिशाली द्विजश्रेष्ठ जिस ‘जरत्कारु’ नामसे प्रसिद्ध होंगे, उसी नामवाली कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त करके उसके गर्भसे एक शक्तिसम्पन्न पुत्र उत्पन्न करेंगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुकेः सर्पराजस्य जरत्कारुः स्वसा किल।
स तस्यां भविता पुत्रः शापान्नागांश्च मोक्ष्यति ॥ १६ ॥
मूलम्
वासुकेः सर्पराजस्य जरत्कारुः स्वसा किल।
स तस्यां भविता पुत्रः शापान्नागांश्च मोक्ष्यति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पराज वासुकिकी बहिनका नाम जरत्कारु है। उसीके गर्भसे वह पुत्र उत्पन्न होगा, जो नागोंको शापसे छुड़ायेगा॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
एलापत्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति तं देवाः पितामहमथाब्रुवन्।
उक्त्वैवं वचनं देवान् विरिञ्चिस्त्रिदिवं ययौ ॥ १७ ॥
मूलम्
एवमस्त्विति तं देवाः पितामहमथाब्रुवन्।
उक्त्वैवं वचनं देवान् विरिञ्चिस्त्रिदिवं ययौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एलापत्र कहते हैं— यह सुनकर देवता ब्रह्माजीसे कहने लगे—‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। देवताओंसे ये सब बातें बताकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें चले गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमेवं प्रपश्यामि वासुके भगिनीं तव।
जरत्कारुरिति ख्यातां तां तस्मै प्रतिपादय ॥ १८ ॥
भैक्षवद् भिक्षमाणाय नागानां भयशान्तये।
ऋषये सुव्रतायैनामेष मोक्षः श्रुतो मया ॥ १९ ॥
मूलम्
सोऽहमेवं प्रपश्यामि वासुके भगिनीं तव।
जरत्कारुरिति ख्यातां तां तस्मै प्रतिपादय ॥ १८ ॥
भैक्षवद् भिक्षमाणाय नागानां भयशान्तये।
ऋषये सुव्रतायैनामेष मोक्षः श्रुतो मया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः नागराज वासुके! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप नागोंका भय दूर करनेके लिये कन्याकी भिक्षा माँगनेवाले, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि जरत्कारुको अपनी जरत्कारु नामवाली यह बहिन ही भिक्षारूपमें अर्पित कर दें। उस शापसे छूटनेका यही उपाय मैंने सुना है॥१८-१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एलापत्रवाक्ये अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें एलापत्र-वाक्यसम्बन्धी अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥