०३२ देवपराजयः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्वात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

गरुडका देवताओंके साथ युद्ध और देवताओंकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् द्विजश्रेष्ठ समुदीर्णे तथाविधे।
गरुडः पक्षिराट् तूर्णं सम्प्राप्तो विबुधान् प्रति ॥ १ ॥
तं दृष्ट्वातिबलं चैव प्राकम्पन्त सुरास्ततः।
परस्परं च प्रत्यघ्नन् सर्वप्रहरणान्युत ॥ २ ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् द्विजश्रेष्ठ समुदीर्णे तथाविधे।
गरुडः पक्षिराट् तूर्णं सम्प्राप्तो विबुधान् प्रति ॥ १ ॥
तं दृष्ट्वातिबलं चैव प्राकम्पन्त सुरास्ततः।
परस्परं च प्रत्यघ्नन् सर्वप्रहरणान्युत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— द्विजश्रेष्ठ! देवताओंका समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हो युद्धके लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरुड तुरंत ही देवताओंके पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान् गरुडको देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। उनके सभी आयुध आपसमें ही आघात-प्रत्याघात करने लगे॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभः ।
भौमनः सुमहावीर्यः सोमस्य परिरक्षिता ॥ ३ ॥

मूलम्

तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभः ।
भौमनः सुमहावीर्यः सोमस्य परिरक्षिता ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ विद्युत् एवं अग्निके समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन (विश्वकर्मा) अमृतकी रक्षा कर रहे थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेन पतगेन्द्रेण पक्षतुण्डनखक्षतः।
मुहूर्तमतुलं युद्धं कृत्वा विनिहतो युधि ॥ ४ ॥

मूलम्

स तेन पतगेन्द्रेण पक्षतुण्डनखक्षतः।
मुहूर्तमतुलं युद्धं कृत्वा विनिहतो युधि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पक्षिराजके साथ दो घड़ीतक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच और नखोंसे घायल हो उस रणांगणमें मृतकतुल्य हो गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजश्चोद्‌धूय सुमहत् पक्षवातेन खेचरः।
कृत्वा लोकान् निरालोकांस्तेन देवानवाकिरत् ॥ ५ ॥

मूलम्

रजश्चोद्‌धूय सुमहत् पक्षवातेन खेचरः।
कृत्वा लोकान् निरालोकांस्तेन देवानवाकिरत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पक्षिराजने अपने पंखोंकी प्रचण्ड वायुसे बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकोंमें अन्धकार फैला दिया और उसी धूलसे देवताओंको ढक दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनावकीर्णा रजसा देवा मोहमुपागमन्।
न चैवं ददृशुश्छन्ना रजसामृतरक्षिणः ॥ ६ ॥

मूलम्

तेनावकीर्णा रजसा देवा मोहमुपागमन्।
न चैवं ददृशुश्छन्ना रजसामृतरक्षिणः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस धूलसे आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृतकी रक्षा करनेवाले देवता भी इसी प्रकार धूलसे ढक जानेके कारण कुछ देख नहीं पाते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संलोडयामास गरुडस्त्रिदिवालयम् ।
पक्षतुण्डप्रहारैस्तु देवान् स विददार ह ॥ ७ ॥

मूलम्

एवं संलोडयामास गरुडस्त्रिदिवालयम् ।
पक्षतुण्डप्रहारैस्तु देवान् स विददार ह ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह गरुडने स्वर्गलोकको व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचोंकी मारसे देवताओंका अंग-अंग विदीर्ण कर डाला॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवः सहस्राक्षस्तूर्णं वायुमचोदयत्।
विक्षिपेमां रजोवृष्टिं तवेदं कर्म मारुत ॥ ८ ॥

मूलम्

ततो देवः सहस्राक्षस्तूर्णं वायुमचोदयत्।
विक्षिपेमां रजोवृष्टिं तवेदं कर्म मारुत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रदेवने तुरंत ही वायुको आज्ञा दी—‘मारुत! तुम इस धूलकी वृष्टिको दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वशका है’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वायुरपोवाह तद् रजस्तरसा बली।
ततो वितिमिरे जाते देवाः शकुनिमार्दयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

अथ वायुरपोवाह तद् रजस्तरसा बली।
ततो वितिमिरे जाते देवाः शकुनिमार्दयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बलवान् वायुदेवने बड़े वेगसे उस धूलको दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पक्षी गरुडको पीडित करने लगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननादोच्चैः स बलवान् महामेघ इवाम्बरे।
वध्यमानः सुरगणैः सर्वभूतानि भीषयन् ॥ १० ॥

मूलम्

ननादोच्चैः स बलवान् महामेघ इवाम्बरे।
वध्यमानः सुरगणैः सर्वभूतानि भीषयन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके प्रहारको सहते हुए महाबली गरुड आकाशमें छाये हुए महामेघकी भाँति समस्त प्राणियोंको डराते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पपात महावीर्यः पक्षिराट् परवीरहा।
समुत्पत्यान्तरिक्षस्थं देवानामुपरि स्थितम् ॥ ११ ॥
वर्मिणो विबुधाः सर्वे नानाशस्त्रैरवाकिरन्।
पट्टिशैः परिघैः शूलैर्गदाभिश्च सवासवाः ॥ १२ ॥

मूलम्

उत्पपात महावीर्यः पक्षिराट् परवीरहा।
समुत्पत्यान्तरिक्षस्थं देवानामुपरि स्थितम् ॥ ११ ॥
वर्मिणो विबुधाः सर्वे नानाशस्त्रैरवाकिरन्।
पट्टिशैः परिघैः शूलैर्गदाभिश्च सवासवाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाशमें बहुत ऊँचे उड़ गये। उड़कर अन्तरिक्षमें देवताओंके ऊपर (ठीक सिरकी सीधमें) खड़े हो गये। उस समय कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनपर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा प्रहार करने लगे॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुरप्रैर्ज्वलितैश्चापि चक्रैरादित्यरूपिभिः ।
नानाशस्त्रविसर्गैस्तैर्वध्यमानः समन्ततः ॥ १३ ॥

मूलम्

क्षुरप्रैर्ज्वलितैश्चापि चक्रैरादित्यरूपिभिः ।
नानाशस्त्रविसर्गैस्तैर्वध्यमानः समन्ततः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्यके समान उद्भासित होनेवाले चक्र तथा नाना प्रकारके दूसरे-दूसरे शस्त्रोंके प्रहारद्वारा उनपर सब ओरसे मार पड़ रही थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वन् सुतुमुलं युद्धं पक्षिराण्न व्यकम्पत।
निर्दहन्निव चाकाशे वैनतेयः प्रतापवान्।
पक्षाभ्यामुरसा चैव समन्ताद् व्याक्षिपत्‌ सुरान् ॥ १४ ॥

मूलम्

कुर्वन् सुतुमुलं युद्धं पक्षिराण्न व्यकम्पत।
निर्दहन्निव चाकाशे वैनतेयः प्रतापवान्।
पक्षाभ्यामुरसा चैव समन्ताद् व्याक्षिपत्‌ सुरान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो भी पक्षिराज गरुड देवताओंके साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न हुए। परम प्रतापी विनतानन्दन गरुडने, मानो देवताओंको दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार रोषमें भरकर आकाशमें खड़े-खड़े ही पंखों और छातीके धक्केसे उन सबको चारों ओर मार गिराया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते विक्षिप्तास्ततो देवा दुद्रुवुर्गरुडार्दिताः।
नखतुण्डक्षताश्चैव सुस्रुवुः शोणितं बहु ॥ १५ ॥

मूलम्

ते विक्षिप्तास्ततो देवा दुद्रुवुर्गरुडार्दिताः।
नखतुण्डक्षताश्चैव सुस्रुवुः शोणितं बहु ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुडसे पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और चोंचसे क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगोंसे बहुत-सा रक्त बहाने लगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्याः प्राचीं सगन्धर्वा वसवो दक्षिणां दिशम्।
प्रजग्मुः सहिता रुद्राः पतगेन्द्रप्रधर्षिताः ॥ १६ ॥

मूलम्

साध्याः प्राचीं सगन्धर्वा वसवो दक्षिणां दिशम्।
प्रजग्मुः सहिता रुद्राः पतगेन्द्रप्रधर्षिताः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराजसे पराजित हो साध्य और गन्धर्व पूर्व दिशाकी ओर भाग चले। वसुओं तथा रुद्रोंने दक्षिण दिशाकी शरण ली॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशं प्रतीचीमादित्या नासत्यावुत्तरां दिशम्।
मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणा युध्यमाना महौजसः ॥ १७ ॥

मूलम्

दिशं प्रतीचीमादित्या नासत्यावुत्तरां दिशम्।
मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणा युध्यमाना महौजसः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदित्यगण पश्चिम दिशाकी ओर भागे तथा अश्विनीकुमारोंने उत्तर दिशाका आश्रय लिया। ये महा-पराक्रमी योद्धा बार-बार पीछेकी ओर देखते हुए भाग रहे थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वक्रन्देन वीरेण रेणुकेन च पक्षिराट्।
क्रथनेन च शूरेण तपनेन च खेचरः ॥ १८ ॥
उलूकश्वसनाभ्यां च निमेषेण च पक्षिराट्।
प्ररुजेन च संग्रामं चकार पुलिनेन च ॥ १९ ॥

मूलम्

अश्वक्रन्देन वीरेण रेणुकेन च पक्षिराट्।
क्रथनेन च शूरेण तपनेन च खेचरः ॥ १८ ॥
उलूकश्वसनाभ्यां च निमेषेण च पक्षिराट्।
प्ररुजेन च संग्रामं चकार पुलिनेन च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरुडने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर क्रथन, तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररुज तथा पुलिन—इन नौ यक्षोंके साथ युद्ध किया॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् पक्षनखतुण्डाग्रैरभिनद् विनतासुतः ।
युगान्तकाले संक्रुद्धः पिनाकीव परंतपः ॥ २० ॥

मूलम्

तान् पक्षनखतुण्डाग्रैरभिनद् विनतासुतः ।
युगान्तकाले संक्रुद्धः पिनाकीव परंतपः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले विनताकुमारने प्रलय-कालमें कुपित हुए पिनाकधारी रुद्रकी भाँति क्रोधमें भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंचके अग्रभागसे विदीर्ण कर डाला॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाबला महोत्साहास्तेन ते बहुधा क्षताः।
रेजुरभ्रघनप्रख्या रुधिरौघप्रवर्षिणः ॥ २१ ॥

मूलम्

महाबला महोत्साहास्तेन ते बहुधा क्षताः।
रेजुरभ्रघनप्रख्या रुधिरौघप्रवर्षिणः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी यक्ष बड़े बलवान् और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्धमें गरुडद्वारा बार-बार क्षत-विक्षत होकर वे सूनकी धारा बहाते हुए बादलोंकी भाँति शोभा पा रहे थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्‌ कृत्वा पतगश्रेष्ठः सर्वानुत्क्रान्तजीवितान्।
अतिक्रान्तोऽमृतस्यार्थे सर्वतोऽग्निमपश्यत ॥ २२ ॥

मूलम्

तान्‌ कृत्वा पतगश्रेष्ठः सर्वानुत्क्रान्तजीवितान्।
अतिक्रान्तोऽमृतस्यार्थे सर्वतोऽग्निमपश्यत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठानेके लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों ओर उन्होंने आग जलती देखी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवृण्वानं महाज्वालमर्चिर्भिः सर्वतोऽम्बरम् ।
दहन्तमिव तीक्ष्णांशुं चण्डवायुसमीरितम् ॥ २३ ॥

मूलम्

आवृण्वानं महाज्वालमर्चिर्भिः सर्वतोऽम्बरम् ।
दहन्तमिव तीक्ष्णांशुं चण्डवायुसमीरितम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह आग अपनी लपटोंसे वहाँके समस्त आकाशको आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थीं। वह सूर्यमण्डलकी भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायुसे प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नवत्या नवतीर्मुखानां
कृत्वा महात्मा गरुडस्तरस्वी ।
नदीः समापीय मुखैस्ततस्तैः
सुशीघ्रमागम्य पुनर्जवेन ॥ २४ ॥
ज्वलन्तमग्निं तममित्रतापनः
समास्तरत्पत्ररथो नदीभिः ।
ततः प्रचक्रे वपुरन्यदल्पं
प्रवेष्टुकामोऽग्निमभिप्रशाम्य ॥ २५ ॥

मूलम्

ततो नवत्या नवतीर्मुखानां
कृत्वा महात्मा गरुडस्तरस्वी ।
नदीः समापीय मुखैस्ततस्तैः
सुशीघ्रमागम्य पुनर्जवेन ॥ २४ ॥
ज्वलन्तमग्निं तममित्रतापनः
समास्तरत्पत्ररथो नदीभिः ।
ततः प्रचक्रे वपुरन्यदल्पं
प्रवेष्टुकामोऽग्निमभिप्रशाम्य ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वेगशाली महात्मा गरुडने अपने शरीरमें आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा नदियोंका जल पी लिया और पुनः बड़े वेगसे शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आगपर वह सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओंको ताप देनेवाले पक्षवाहन गरुडने नदियोंके जलसे उस आगको बुझाकर अमृतके पास पहुँचनेकी इच्छासे एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया॥२४-२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२॥