श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्रके द्वारा वालखिल्योंका अपमान और उनकी तपस्याके प्रभावसे अरुण एवं गरुडकी उत्पत्ति
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोऽपराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च सूतज।
तपसा वालखिल्यानां सम्भूतो गरुडः कथम् ॥ १ ॥
मूलम्
कोऽपराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च सूतज।
तपसा वालखिल्यानां सम्भूतो गरुडः कथम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने पूछा— सूतनन्दन! इन्द्रका क्या अपराध और कौन-सा प्रमाद था? वालखिल्य मुनियोंकी तपस्याके प्रभावसे गरुडकी उत्पत्ति कैसे हुई थी?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्यपस्य द्विजातेश्च कथं वै पक्षिराट् सुतः।
अधृष्यः सर्वभूतानामवध्यश्चाभवत् कथम् ॥ २ ॥
मूलम्
कश्यपस्य द्विजातेश्च कथं वै पक्षिराट् सुतः।
अधृष्यः सर्वभूतानामवध्यश्चाभवत् कथम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजी तो ब्राह्मण हैं, उनका पुत्र पक्षिराज कैसे हुआ? साथ ही वह समस्त प्राणियोंके लिये दुर्धर्ष एवं अवध्य कैसे हो गया?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं च कामचारी स कामवीर्यश्च खेचरः।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
कथं च कामचारी स कामवीर्यश्च खेचरः।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पक्षीमें इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम करनेकी शक्ति कैसे आ गयी? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि पुराणमें कहीं इसका वर्णन हो तो सुनाइये॥३॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयोऽयं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
शृणु मे वदतः सर्वमेतत् संक्षेपतो द्विज ॥ ४ ॥
मूलम्
विषयोऽयं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
शृणु मे वदतः सर्वमेतत् संक्षेपतो द्विज ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजीने कहा— ब्रह्मन्! आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, वह पुराणका ही विषय है। मैं संक्षेपमें ये सब बातें बता रहा हूँ, सुनिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजतः पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापतेः।
साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्च ददुः किल ॥ ५ ॥
मूलम्
यजतः पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापतेः।
साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्च ददुः किल ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, प्रजापति कश्यपजी पुत्रकी कामनासे यज्ञ कर रहे थे, उसमें ऋषियों, देवताओं तथा गन्धर्वोंने भी उन्हें बड़ी सहायता दी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेध्मानयने शक्रो नियुक्तः कश्यपेन ह।
मुनयो वालखिल्याश्च ये चान्ये देवतागणाः ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्रेध्मानयने शक्रो नियुक्तः कश्यपेन ह।
मुनयो वालखिल्याश्च ये चान्ये देवतागणाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यज्ञमें कश्यपजीने इन्द्रको समिधा लानेके कामपर नियुक्त किया था। वालखिल्य मुनियों तथा अन्य देवगणोंको भी यही कार्य सौंपा गया था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रस्तु वीर्यसदृशमिध्यभारं गिरिप्रभम् ।
समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छ्रादिव प्रभुः ॥ ७ ॥
मूलम्
शक्रस्तु वीर्यसदृशमिध्यभारं गिरिप्रभम् ।
समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छ्रादिव प्रभुः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र शक्तिशाली थे। उन्होंने अपने बलके अनुसार लकड़ीका एक पहाड़-जैसा बोझ उठा लिया और उसे बिना कष्टके ही वे ले आये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापश्यदृषीन् ह्रस्वानङ्गुष्ठोदरवर्ष्मणः ।
पलाशवर्तिकामेकां वहतः संहतान् पथि ॥ ८ ॥
मूलम्
अथापश्यदृषीन् ह्रस्वानङ्गुष्ठोदरवर्ष्मणः ।
पलाशवर्तिकामेकां वहतः संहतान् पथि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने मार्गमें बहुत-से ऐसे ऋषियोंको देखा जो कदमें बहुत ही छोटे थे। उनका सारा शरीर अँगूठेके मध्यभागके बराबर था। वे सब मिलकर पलाशकी एक बाती (छोटी-सी टहनी) लिये आ रहे थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलीनान् स्वेष्विवाङ्गेषु निराहारांस्तपोधनान् ।
क्लिश्यमानान् मन्दबलान् गोष्पदे सम्प्लुतोदके ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रलीनान् स्वेष्विवाङ्गेषु निराहारांस्तपोधनान् ।
क्लिश्यमानान् मन्दबलान् गोष्पदे सम्प्लुतोदके ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने आहार छोड़ रखा था। तपस्या ही उनका धन था। वे अपने अंगोंमें ही समाये हुए-से जान पड़ते थे। पानीसे भरे हुए गोखुरके लाँघनेमें भी उन्हें बड़ा क्लेश होता था। उनमें शारीरिक बल बहुत कम था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् सर्वान् विस्मयाविष्टो वीर्योन्मत्तः पुरन्दरः।
अवहस्याभ्यगाच्छीघ्रं लङ्घयित्वावमन्य च ॥ १० ॥
मूलम्
तान् सर्वान् विस्मयाविष्टो वीर्योन्मत्तः पुरन्दरः।
अवहस्याभ्यगाच्छीघ्रं लङ्घयित्वावमन्य च ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने बलके घमंडमें मतवाले इन्द्रने आश्चर्य-चकित होकर उन सबको देखा और उनकी हँसी उड़ाते हुए वे अपमानपूर्वक उन्हें लाँघकर शीघ्रताके साथ आगे बढ़ गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽथ रोषसमाविष्टाः सुभृशं जातमन्यवः।
आरेभिरे महत् कर्म तदा शक्रभयंकरम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तेऽथ रोषसमाविष्टाः सुभृशं जातमन्यवः।
आरेभिरे महत् कर्म तदा शक्रभयंकरम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके इस व्यवहारसे वालखिल्य मुनियोंको बड़ा रोष हुआ। उनके हृदयमें भारी क्रोधका उदय हो गया। अतः उन्होंने उस समय एक ऐसे महान् कर्मका आरम्भ किया, जिसका परिणाम इन्द्रके लिये भयंकर था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुहुवुस्ते सुतपसो विधिवज्जातवेदसम् ।
मन्त्रैरुच्चावचैर्विप्रा येन कामेन तच्छृणु ॥ १२ ॥
मूलम्
जुहुवुस्ते सुतपसो विधिवज्जातवेदसम् ।
मन्त्रैरुच्चावचैर्विप्रा येन कामेन तच्छृणु ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणो! वे उत्तम तपस्वी वालखिल्य मनमें जो कामना रखकर छोटे-बड़े मन्त्रोंद्वारा विधिपूर्वक अग्निमें आहुति देते थे, वह बताता हूँ, सुनिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामवीर्यः कामगमो देवराजभयप्रदः ।
इन्द्रोऽन्यः सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रताः ॥ १३ ॥
मूलम्
कामवीर्यः कामगमो देवराजभयप्रदः ।
इन्द्रोऽन्यः सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रताः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संयमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महर्षि यह संकल्प करते थे कि—‘सम्पूर्ण देवताओंके लिये कोई दूसरा ही इन्द्र उत्पन्न हो, जो वर्तमान देवराजके लिये भयदायक, इच्छानुसार पराक्रम करने-वाला और अपनी रुचिके अनुसार चलनेकी शक्ति रखनेवाला हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राच्छतगुणः शौर्ये वीर्ये चैव मनोजवः।
तपसो नः फलेनाद्य दारुणः सम्भवत्विति ॥ १४ ॥
मूलम्
इन्द्राच्छतगुणः शौर्ये वीर्ये चैव मनोजवः।
तपसो नः फलेनाद्य दारुणः सम्भवत्विति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शौर्य और वीर्यमें इन्द्रसे वह सौगुना बढ़कर हो। उसका वेग मनके समान तीव्र हो। हमारी तपस्याके फलसे अब ऐसा ही वीर प्रकट हो जो इन्द्रके लिये भयंकर हो’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् बुद्ध्वा भृशसंतप्तो देवराजः शतक्रतुः।
जगाम शरणं तत्र कश्यपं संशितव्रतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
तद् बुद्ध्वा भृशसंतप्तो देवराजः शतक्रतुः।
जगाम शरणं तत्र कश्यपं संशितव्रतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका यह संकल्प सुनकर सौ यज्ञोंका अनुष्ठान पूर्ण करनेवाले देवराज इन्द्रको बड़ा संताप हुआ और वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले कश्यपजीकी शरणमें गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा देवराजस्य कश्यपोऽथ प्रजापतिः।
वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत ॥ १६ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा देवराजस्य कश्यपोऽथ प्रजापतिः।
वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रके मुखसे उनका संकल्प सुनकर प्रजापति कश्यप वालखिल्योंके पास गये और उनसे उस कर्मकी सिद्धिके सम्बन्धमें प्रश्न किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति तं चापि प्रत्यूचुः सत्यवादिनः।
तान् कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्वं प्रजापतिः ॥ १७ ॥
मूलम्
एवमस्त्विति तं चापि प्रत्यूचुः सत्यवादिनः।
तान् कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्वं प्रजापतिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवादी महर्षि वालखिल्योंने ‘हाँ ऐसी ही बात है’ कहकर अपने कर्मकी सिद्धिका प्रतिपादन किया। तब प्रजापति कश्यपने उन्हें सान्त्वनापूर्वक समझाते हुए कहा—॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद् ब्रह्मणः कृतः।
इन्द्रार्थे च भवन्तोऽपि यत्नवन्तस्तपोधनाः ॥ १८ ॥
मूलम्
अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद् ब्रह्मणः कृतः।
इन्द्रार्थे च भवन्तोऽपि यत्नवन्तस्तपोधनाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तपोधनो! ब्रह्माजीकी आज्ञासे ये पुरन्दर तीनों लोकोंके इन्द्र बनाये गये हैं और आपलोग भी दूसरे इन्द्रकी उत्पत्तिके लिये प्रयत्नशील हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमाः।
भवतां हि न मिथ्यायं संकल्पो वै चिकीर्षितः ॥ १९ ॥
मूलम्
न मिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमाः।
भवतां हि न मिथ्यायं संकल्पो वै चिकीर्षितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संत-महात्माओ! आप ब्रह्माजीका वचन मिथ्या न करें। साथ ही मैं यह भी चाहता हूँ कि आपके द्वारा किया हुआ यह अभीष्ट संकल्प भी मिथ्या न हो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्वेष पतत्त्रीणामिन्द्रोऽतिबलसत्त्ववान् ।
प्रसादः क्रियतामस्य देवराजस्य याचतः ॥ २० ॥
मूलम्
भवत्वेष पतत्त्रीणामिन्द्रोऽतिबलसत्त्ववान् ।
प्रसादः क्रियतामस्य देवराजस्य याचतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः अत्यन्त बल और सत्त्वगुणसे सम्पन्न जो यह भावी पुत्र है, यह पक्षियोंका इन्द्र हो। देवराज इन्द्र आपके पास याचक बनकर आये हैं, आप इनपर अनुग्रह करें’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ताः कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधनाः ।
प्रत्यूचुरभिसम्पूज्य मुनिश्रेष्ठं प्रजापतिम् ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्ताः कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधनाः ।
प्रत्यूचुरभिसम्पूज्य मुनिश्रेष्ठं प्रजापतिम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि कश्यपके ऐसा कहनेपर तपस्याके धनी वालखिल्य मुनि उन मुनिश्रेष्ठ प्रजापतिका सत्कार करके बोले॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
वालखिल्या ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रार्थोऽयं समारम्भः सर्वेषां नः प्रजापते।
अपत्यार्थं समारम्भो भवतश्चायमीप्सितः ॥ २२ ॥
तदिदं सफलं कर्म त्वयैव प्रतिगृह्यताम्।
तथा चैवं विधत्स्वात्र यथा श्रेयोऽनुपश्यसि ॥ २३ ॥
मूलम्
इन्द्रार्थोऽयं समारम्भः सर्वेषां नः प्रजापते।
अपत्यार्थं समारम्भो भवतश्चायमीप्सितः ॥ २२ ॥
तदिदं सफलं कर्म त्वयैव प्रतिगृह्यताम्।
तथा चैवं विधत्स्वात्र यथा श्रेयोऽनुपश्यसि ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालखिल्योंने कहा— प्रजापते! हम सब लोगोंका यह अनुष्ठान इन्द्रके लिये हुआ था और आपका यह यज्ञसमारोह संतानके लिये अभीष्ट था। अतः इस फलसहित कर्मको आप ही स्वीकार करें और जिसमें सबकी भलाई दिखायी दे, वैसा ही करें॥२२-२३॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा।
विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी ॥ २४ ॥
तपस्तप्त्वा व्रतपरा स्नाता पुंसवने शुचिः।
उपचक्राम भर्तारं तामुवाचाथ कश्यपः ॥ २५ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा।
विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी ॥ २४ ॥
तपस्तप्त्वा व्रतपरा स्नाता पुंसवने शुचिः।
उपचक्राम भर्तारं तामुवाचाथ कश्यपः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— इसी समय शुभलक्षणा दक्षकन्या कल्याणमयी विनता देवी, जो उत्तम यशसे सुशोभित थी, पुत्रकी कामनासे तपस्यापूर्वक ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करने लगी। ऋतुकाल आनेपर जब वह स्नान करके शुद्ध हुई, तब अपने स्वामीकी सेवामें गयी। उस समय कश्यपजीने उससे कहा—॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरम्भः सफलो देवि भविता यस्त्वयेप्सितः।
जनयिष्यसि पुत्रौ द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरौ ॥ २६ ॥
मूलम्
आरम्भः सफलो देवि भविता यस्त्वयेप्सितः।
जनयिष्यसि पुत्रौ द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरौ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! तुम्हारा यह अभीष्ट समारम्भ अवश्य सफल होगा। तुम ऐसे दो पुत्रोंको जन्म दोगी, जो बड़े वीर और तीनों लोकोंपर शासन करनेकी शक्ति रखनेवाले होंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पजौ तथा।
भविष्यतो महाभागौ पुत्रौ त्रैलोक्यपूजितौ ॥ २७ ॥
मूलम्
तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पजौ तथा।
भविष्यतो महाभागौ पुत्रौ त्रैलोक्यपूजितौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वालखिल्योंकी तपस्या तथा मेरे संकल्पसे तुम्हें दो परम सौभाग्यशाली पुत्र प्राप्त होंगे, जिनकी तीनों लोकोंमें पूजा होगी’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच चैनां भगवान् कश्यपः पुनरेव ह।
धार्यतामप्रमादेन गर्भोऽयं सुमहोदयः ॥ २८ ॥
मूलम्
उवाच चैनां भगवान् कश्यपः पुनरेव ह।
धार्यतामप्रमादेन गर्भोऽयं सुमहोदयः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहकर भगवान् कश्यपने पुनः विनतासे कहा—‘देवि! यह गर्भ महान् अभ्युदयकारी होगा, अतः इसे सावधानीसे धारण करो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतौ सर्वपतत्त्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यतः ।
लोकसम्भावितौ वीरौ कामरूपौ विहंगमौ ॥ २९ ॥
मूलम्
एतौ सर्वपतत्त्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यतः ।
लोकसम्भावितौ वीरौ कामरूपौ विहंगमौ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे ये दोनों पुत्र सम्पूर्ण पक्षियोंके इन्द्रपदका उपभोग करेंगे। स्वरूपसे पक्षी होते हुए भी इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ और लोक-सम्भावित वीर होंगे’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतक्रतुमथोवाच प्रीयमाणः प्रजापतिः ।
त्वत्सहायौ महावीर्यौ भ्रातरौ ते भविष्यतः ॥ ३० ॥
नैताभ्यां भविता दोषः सकाशात् ते पुरन्दर।
व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्रो भविष्यसि ॥ ३१ ॥
मूलम्
शतक्रतुमथोवाच प्रीयमाणः प्रजापतिः ।
त्वत्सहायौ महावीर्यौ भ्रातरौ ते भविष्यतः ॥ ३० ॥
नैताभ्यां भविता दोषः सकाशात् ते पुरन्दर।
व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्रो भविष्यसि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विनतासे ऐसा कहकर प्रसन्न हुए प्रजापतिने शतक्रतु इन्द्रसे कहा—‘पुरन्दर! ये दोनों महापराक्रमी भ्राता तुम्हारे सहायक होंगे। तुम्हें इनसे कोई हानि नहीं होगी। इन्द्र! तुम्हारा संताप दूर हो जाना चाहिये। देवताओंके इन्द्र तुम्हीं बने रहोगे॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाप्येवं त्वया भूयः क्षेप्तव्या ब्रह्मवादिनः।
न चावमान्या दर्पात् ते वाग्वज्रा भृशकोपनाः ॥ ३२ ॥
मूलम्
न चाप्येवं त्वया भूयः क्षेप्तव्या ब्रह्मवादिनः।
न चावमान्या दर्पात् ते वाग्वज्रा भृशकोपनाः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक बात ध्यान रखना—आजसे फिर कभी तुम घमंडमें आकर ब्रह्मवादी महात्माओंका उपहास और अपमान न करना; क्योंकि उनके पास वाणीरूप अमोघ वज्र है तथा वे तीक्ष्ण कोपवाले होते हैं’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशङ्कस्त्रिविष्टपम् ।
विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तथा ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशङ्कस्त्रिविष्टपम् ।
विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तथा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजीके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र निःशंक होकर स्वर्गलोकमें चले गये। अपना मनोरथ सिद्ध होनेसे विनता भी बहुत प्रसन्न हुई॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनयामास पुत्रौ द्वावरुणं गरुडं तथा।
विकलाङ्गोऽरुणस्तत्र भास्करस्य पुरःसरः ॥ ३४ ॥
मूलम्
जनयामास पुत्रौ द्वावरुणं गरुडं तथा।
विकलाङ्गोऽरुणस्तत्र भास्करस्य पुरःसरः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने दो पुत्र उत्पन्न किये—अरुण और गरुड। जिनके अंग कुछ अधूरे रह गये थे, वे अरुण कहलाते हैं, वे ही सूर्यदेवके सारथि बनकर उनके आगे-आगे चलते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतत्त्रीणां च गरुडमिन्द्रत्वेनाभ्यषिञ्चत ।
तस्यैतत् कर्म सुमहच्छ्रूयतां भृगुनन्दन ॥ ३५ ॥
मूलम्
पतत्त्रीणां च गरुडमिन्द्रत्वेनाभ्यषिञ्चत ।
तस्यैतत् कर्म सुमहच्छ्रूयतां भृगुनन्दन ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुनन्दन! दूसरे पुत्र गरुडका पक्षियोंके इन्द्र-पदपर अभिषेक किया गया। अब तुम गरुडका यह महान् पराक्रम सुनो॥३५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥