श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गरुडका कश्यपजीसे मिलना, उनकी प्रार्थनासे वालखिल्य ऋषियोंका शाखा छोड़कर तपके लिये प्रस्थान और गरुडका निर्जन पर्वतपर उस शाखाको छोड़ना
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पृष्टमात्रा तु पद्भ्यां सा गरुडेन बलीयसा।
अभज्यत तरोः शाखा भग्नां चैनामधारयत् ॥ १ ॥
मूलम्
स्पृष्टमात्रा तु पद्भ्यां सा गरुडेन बलीयसा।
अभज्यत तरोः शाखा भग्नां चैनामधारयत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकादि महर्षियो! महाबली गरुडके पैरोंका स्पर्श होते ही उस वृक्षकी वह महाशाखा टूट गयी; किंतु उस टूटी हुई शाखाको उन्होंने फिर पकड़ लिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां भङ्क्त्वा स महाशाखां स्मयमानो विलोकयन्।
अथात्र लम्बतोऽपश्यद् वालखिल्यानधोमुखान् ॥ २ ॥
मूलम्
तां भङ्क्त्वा स महाशाखां स्मयमानो विलोकयन्।
अथात्र लम्बतोऽपश्यद् वालखिल्यानधोमुखान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महाशाखाको तोड़कर गरुड मुसकराते हुए उसकी ओर देखने लगे। इतनेहीमें उनकी दृष्टि वालखिल्य नामवाले महर्षियोंपर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखामें लटक रहे थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयो ह्यत्र लम्बन्ते न हन्यामिति तानृषीन्।
तपोरतान् लम्बमानान् ब्रह्मर्षीनभिवीक्ष्य सः ॥ ३ ॥
हन्यादेतान् सम्पतन्ती शाखेत्यथ विचिन्त्य सः।
नखैर्दृढतरं वीरः संगृह्य गजकच्छपौ ॥ ४ ॥
स तद्विनाशसंत्रासादभिपत्य खगाधिपः ।
शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया ॥ ५ ॥
मूलम्
ऋषयो ह्यत्र लम्बन्ते न हन्यामिति तानृषीन्।
तपोरतान् लम्बमानान् ब्रह्मर्षीनभिवीक्ष्य सः ॥ ३ ॥
हन्यादेतान् सम्पतन्ती शाखेत्यथ विचिन्त्य सः।
नखैर्दृढतरं वीरः संगृह्य गजकच्छपौ ॥ ४ ॥
स तद्विनाशसंत्रासादभिपत्य खगाधिपः ।
शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्यामें तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियोंको वटकी शाखामें लटकते देख गरुडने सोचा—‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाय। यह गिरती हुई शाखा इन ऋषियोंका अवश्य वध कर डालेगी।’ यह विचारकर वीरवर पक्षिराज गरुडने हाथी और कछुएको तो अपने पंजोंसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियोंके विनाशके भयसे झपटकर वह शाखा अपनी चोंचमें ले ली। उन मुनियोंकी रक्षाके लिये ही गरुडने ऐसा अद्भुत पराक्रम किया था॥३—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिदैवं तु तत् तस्य कर्म दृष्ट्वा महर्षयः।
विस्मयोत्कम्पहृदया नाम चक्रुर्महाखगे ॥ ६ ॥
मूलम्
अतिदैवं तु तत् तस्य कर्म दृष्ट्वा महर्षयः।
विस्मयोत्कम्पहृदया नाम चक्रुर्महाखगे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुडका ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्यसे चकित हो उठे। उनके हृदयमें कम्प छा गया और उन्होंने उस महान् पक्षीका नाम इस प्रकार रखा (उनके गरुड नामकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की)—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुं भारं समासाद्योड्डीन एष विहंगमः।
गरुडस्तु खगश्रेष्ठस्तस्मात् पन्नगभोजनः ॥ ७ ॥
मूलम्
गुरुं भारं समासाद्योड्डीन एष विहंगमः।
गरुडस्तु खगश्रेष्ठस्तस्मात् पन्नगभोजनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये आकाशमें विचरनेवाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (‘गुरुम् आदाय उड्डीन इति गरुडः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार) ये गरुड कहलायेंगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शनैः पर्यपतत् पक्षैः शैलान् प्रकम्पयन्।
एवं सोऽभ्यपतद् देशान् बहून् सगजकच्छपः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततः शनैः पर्यपतत् पक्षैः शैलान् प्रकम्पयन्।
एवं सोऽभ्यपतद् देशान् बहून् सगजकच्छपः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर गरुड अपने पंखोंकी हवासे बड़े-बड़े पर्वतोंको कम्पित करते हुए धीरे-धीरे उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुएको साथ लिये हुए ही अनेक देशोंमें उड़ते फिरे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दयार्थं वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत।
स गत्वा पर्वतश्रेष्ठं गन्धमादनमञ्जसा ॥ ९ ॥
मूलम्
दयार्थं वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत।
स गत्वा पर्वतश्रेष्ठं गन्धमादनमञ्जसा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालखिल्य ऋषियोंके ऊपर दयाभाव होनेके कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते-उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादनपर जा पहुँचे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम्।
ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहंगमम् ॥ १० ॥
तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम् ।
शैलशृङ्गप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम्।
ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहंगमम् ॥ १० ॥
तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम् ।
शैलशृङ्गप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन्होंने तपस्यामें लगे हुए अपने पिता कश्यपजीको देखा। पिताने भी अपने पुत्रको देखा। पक्षिराजका स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बलसे सम्पन्न तथा मन और वायुके समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वतके शिखरका भान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्डके समान जान पड़ते थे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिन्त्यमनभिध्येयं सर्वभूतभयंकरम् ।
महावीर्यधरं रौद्रं साक्षादग्निमिवोद्यतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अचिन्त्यमनभिध्येयं सर्वभूतभयंकरम् ।
महावीर्यधरं रौद्रं साक्षादग्निमिवोद्यतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यानमें नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान् पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूपमें स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसैः ।
भेत्तारं गिरिशृङ्गाणां समुद्रजलशोषणम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसैः ।
भेत्तारं गिरिशृङ्गाणां समुद्रजलशोषणम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता था। वे पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करने और समुद्रके जलको सोख लेनेकी शक्ति रखते थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकसंलोडनं घोरं कृतान्तसमदर्शनम् ।
तमागतमभिप्रेक्ष्य भगवान् कश्यपस्तदा ।
विदित्वा चास्य संकल्पमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥
मूलम्
लोकसंलोडनं घोरं कृतान्तसमदर्शनम् ।
तमागतमभिप्रेक्ष्य भगवान् कश्यपस्तदा ।
विदित्वा चास्य संकल्पमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे समस्त संसारको भयसे कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे साक्षात् यमराजके समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान् कश्यपने उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
कश्यप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र मा साहसं कार्षीर्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम्।
मा त्वां दहेयुः संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपाः ॥ १५ ॥
मूलम्
पुत्र मा साहसं कार्षीर्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम्।
मा त्वां दहेयुः संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजी बोले— बेटा! कहीं दुःसाहसका काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी दुःखमें पड़ जाओगे। सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर तुम्हें भस्म न कर डालें॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रसादयामास कश्यपः पुत्रकारणात्।
वालखिल्यान् महाभागांस्तपसा हतकल्मषान् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः प्रसादयामास कश्यपः पुत्रकारणात्।
वालखिल्यान् महाभागांस्तपसा हतकल्मषान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— तदनन्तर पुत्रके लिये महर्षि कश्यपने तपस्यासे निष्पाप हुए महाभाग वालखिल्य मुनियोंको इस प्रकार प्रसन्न किया॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
कश्यप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधनाः ।
चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमर्हथ ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधनाः ।
चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमर्हथ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजी बोले— तपोधनो! गरुडका यह उद्योग प्रजाके हितके लिये हो रहा है। ये महान् पराक्रम करना चाहते हैं, आपलोग इन्हें आज्ञा दें॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः।
मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः।
मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— भगवान् कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्य मुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चले गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः ।
शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः ।
शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारण कठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा—॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम्।
वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ॥ २० ॥
मूलम्
भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम्।
वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम्।
अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ॥ २१ ॥
मूलम्
ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम्।
अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फसे ढँकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकता था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः।
जवेनाभ्यपतत् तार्क्ष्यः सशाखागजकच्छपः ॥ २२ ॥
मूलम्
तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः।
जवेनाभ्यपतत् तार्क्ष्यः सशाखागजकच्छपः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान् पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ्।
शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ॥ २३ ॥
मूलम्
न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ्।
शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः।
कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ॥ २४ ॥
मूलम्
स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः।
कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चले आये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः।
अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ॥ २५ ॥
मूलम्
स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः।
अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट्।
मुमोच पुष्पवर्षं च समागलितपादपः ॥ २६ ॥
मूलम्
पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट्।
मुमोच पुष्पवर्षं च समागलितपादपः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर काँप उठा। उसपर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः।
मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ॥ २७ ॥
मूलम्
शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः।
मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान् शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया ।
काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ॥ २८ ॥
मूलम्
शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया ।
काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः।
व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्यांशुप्रतिरञ्जिताः ॥ २९ ॥
मूलम्
ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः।
व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्यांशुप्रतिरञ्जिताः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त हो सूर्यकी किरणोंद्वारा रँगे हुए-से सुशोभित होते थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः।
भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ॥ ३० ॥
मूलम्
ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः।
भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों—हाथी और कछुएको खाया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्क्ष्यः कूर्मकुञ्जरौ।
ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ॥ ३१ ॥
मूलम्
तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्क्ष्यः कूर्मकुञ्जरौ।
ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान् वेगशाली गरुड पर्वतकी उस चोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयशंसिनः ।
इन्द्रस्य वज्रं दयितं प्रजज्वाल भयात् ततः ॥ ३२ ॥
मूलम्
प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयशंसिनः ।
इन्द्रस्य वज्रं दयितं प्रजज्वाल भयात् ततः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवताओंके यहाँ बहुत-से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्रका प्रिय आयुध वज्र भयसे जल उठा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सधूमा न्यपतत् सार्चिर्दिवोल्का नभसश्च्युता।
तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वशः ॥ ३३ ॥
साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणाः।
स्वं स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत् ॥ ३४ ॥
अभूतपूर्वं संग्रामे तदा देवासुरेऽपि च।
ववुर्वाताः सनिर्घाताः पेतुरुल्काः सहस्रशः ॥ ३५ ॥
मूलम्
सधूमा न्यपतत् सार्चिर्दिवोल्का नभसश्च्युता।
तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वशः ॥ ३३ ॥
साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणाः।
स्वं स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत् ॥ ३४ ॥
अभूतपूर्वं संग्रामे तदा देवासुरेऽपि च।
ववुर्वाताः सनिर्घाताः पेतुरुल्काः सहस्रशः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशसे दिनमें ही धूएँ और लपटोंके साथ उल्का गिरने लगी। वसु, रुद्र, आदित्य, साध्य, मरुद्गण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखनेमें नहीं आया था। देवासुर-संग्रामके समय भी ऐसी अनहोनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके साथ बड़े जोरकी आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं॥३३—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभ्रमेव चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम्।
देवानामपि यो देवः सोऽप्यवर्षत शोणितम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
निरभ्रमेव चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम्।
देवानामपि यो देवः सोऽप्यवर्षत शोणितम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशमें बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाजमें विकट गर्जना होने लगी। देवताओंके भी देवता पर्जन्य रक्तकी वर्षा करने लगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम्लुर्माल्यानि देवानां नेशुस्तेजांसि चैव हि।
उत्पातमेघा रौद्राश्च ववृषुः शोणितं बहु ॥ ३७ ॥
मूलम्
मम्लुर्माल्यानि देवानां नेशुस्तेजांसि चैव हि।
उत्पातमेघा रौद्राश्च ववृषुः शोणितं बहु ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत-से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रामें रुधिरकी वर्षा करने लगे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन् ।
ततस्त्राससमुद्विग्नः सह देवैः शतक्रतुः।
उत्पातान् दारुणान् पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन् ।
ततस्त्राससमुद्विग्नः सह देवैः शतक्रतुः।
उत्पातान् दारुणान् पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-सी धूलें उड़कर देवताओंके मुकुटोंको मलिन करने लगीं। ये भयंकर उत्पात देखकर देवताओं-सहित इन्द्र भयसे व्याकुल हो गये और बृहस्पतिजीसे इस प्रकार बोले॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं भगवन् घोरा उत्पाताः सहसोत्थिताः।
न च शत्रुं प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत्॥३९॥
मूलम्
किमर्थं भगवन् घोरा उत्पाताः सहसोत्थिताः।
न च शत्रुं प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत्॥३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने पूछा— भगवन्! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शुत्र नहीं देखता, जो युद्धमें हम देवताओंका तिरस्कार कर सके॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवापराधाद् देवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो।
तपसा वालखिल्यानां महर्षीणां महात्मनाम् ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेः पुत्रो विनतायाश्च खेचरः।
हर्तुं सोममभिप्राप्तो बलवान् कामरूपधृक् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तवापराधाद् देवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो।
तपसा वालखिल्यानां महर्षीणां महात्मनाम् ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेः पुत्रो विनतायाश्च खेचरः।
हर्तुं सोममभिप्राप्तो बलवान् कामरूपधृक् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— देवराज इन्द्र! तुम्हारे ही अपराध और प्रमादसे तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियोंके तपके प्रभावसे कश्यप मुनि और विनताके पुत्र पक्षिराज गरुड अमृतका अपहरण करनेके लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान् और इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ हैं॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थो बलिनां श्रेष्ठो हर्तुं सोमं विहंगमः।
सर्वं सम्भावयाम्यस्मिन्नसाध्यमपि साधयेत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
समर्थो बलिनां श्रेष्ठो हर्तुं सोमं विहंगमः।
सर्वं सम्भावयाम्यस्मिन्नसाध्यमपि साधयेत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवानोंमें श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड अमृत हर ले जानेमें समर्थ हैं। मैं उनमें सब प्रकारकी शक्तियोंके होनेकी सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते हैं॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतद् वचनं शक्रः प्रोवाचामृतरक्षिणः।
महावीर्यबलः पक्षी हर्तुं सोममिहोद्यतः ॥ ४३ ॥
मूलम्
श्रुत्वैतद् वचनं शक्रः प्रोवाचामृतरक्षिणः।
महावीर्यबलः पक्षी हर्तुं सोममिहोद्यतः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— बृहस्पतिजीकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृतकी रक्षा करनेवाले देवताओंसे बोले—‘रक्षको! महान् पराक्रमी और बलवान् पक्षी गरुड यहाँसे अमृत हर ले जानेको उद्यत हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युष्मान् सम्बोधयाम्येष यथा न स हरेद् बलात्।
अतुलं हि बलं तस्य बृहस्पतिरुवाच ह ॥ ४४ ॥
मूलम्
युष्मान् सम्बोधयाम्येष यथा न स हरेद् बलात्।
अतुलं हि बलं तस्य बृहस्पतिरुवाच ह ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृतको न ले जा सकें। बृहस्पतिजीने कहा है कि उनके बलकी कहीं तुलना नहीं है’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा विबुधा वाक्यं विस्मिता यत्नमास्थिताः।
परिवार्यामृतं तस्थुर्वज्री चेन्द्रः प्रतापवान् ॥ ४५ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा विबुधा वाक्यं विस्मिता यत्नमास्थिताः।
परिवार्यामृतं तस्थुर्वज्री चेन्द्रः प्रतापवान् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रकी यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्यमें पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृतको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथमें वज्र लेकर वहाँ डट गये॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारयन्तो विचित्राणि काञ्चनानि मनस्विनः।
कवचानि महार्हाणि वैदूर्यविकृतानि च ॥ ४६ ॥
मूलम्
धारयन्तो विचित्राणि काञ्चनानि मनस्विनः।
कवचानि महार्हाणि वैदूर्यविकृतानि च ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चर्माण्यपि च गात्रेषु भानुमन्ति दृढानि च।
विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकशः ॥ ४७ ॥
शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सुरोत्तमाः ।
सविस्फुलिङ्गज्वालानि सधूमानि च सर्वशः ॥ ४८ ॥
चक्राणि परिघांश्चैव त्रिशूलानि परश्वधान्।
शक्तीश्च विविधास्तीक्ष्णाः करवालांश्च निर्मलान्।
स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः ॥ ४९ ॥
मूलम्
चर्माण्यपि च गात्रेषु भानुमन्ति दृढानि च।
विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकशः ॥ ४७ ॥
शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सुरोत्तमाः ।
सविस्फुलिङ्गज्वालानि सधूमानि च सर्वशः ॥ ४८ ॥
चक्राणि परिघांश्चैव त्रिशूलानि परश्वधान्।
शक्तीश्च विविधास्तीक्ष्णाः करवालांश्च निर्मलान्।
स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने अंगोंमें यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़ेके बने हुए हाथके मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधोंकी धार बहुत तीखी थी। वे श्रेष्ठ देवता सब प्रकारके आयुध लेकर युद्धके लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिनसे सब ओर आगकी चिनगारियाँ और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं। उनके सिवा परिघ, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँतिकी तीखी शक्तियाँ चमकीले खड्ग और भयंकर दिखायी देनेवाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीरके अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रोंको लेकर देवता डट गये॥४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः शस्त्रैर्भानुमद्भिस्ते दिव्याभरणभूषिताः ।
भानुमन्तः सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषाः ॥ ५० ॥
मूलम्
तैः शस्त्रैर्भानुमद्भिस्ते दिव्याभरणभूषिताः ।
भानुमन्तः सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषाः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिव्य आभूषणोंसे विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रोंके साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुपमबलवीर्यतेजसो
धृतमनसः परिरक्षणेऽमृतस्य ।
असुरपुरविदारणाः सुरा
ज्वलनसमिद्धवपुःप्रकाशिनः ॥ ५१ ॥
मूलम्
अनुपमबलवीर्यतेजसो
धृतमनसः परिरक्षणेऽमृतस्य ।
असुरपुरविदारणाः सुरा
ज्वलनसमिद्धवपुःप्रकाशिनः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरोंके नगरोंका विनाश करनेमें समर्थ एवं अग्निके समान देदीप्यमान शरीरसे प्रकाशित होनेवाले थे; उन्होंने अमृतकी रक्षाके लिये अपने मनमें दृढ निश्चय कर लिया था॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति समरवरं सुराः स्थितास्ते
परिघसहस्रशतैः समाकुलम् ।
विगलितमिव चाम्बरान्तरं
तपनमरीचिविकाशितं बभासे ॥ ५२ ॥
मूलम्
इति समरवरं सुराः स्थितास्ते
परिघसहस्रशतैः समाकुलम् ।
विगलितमिव चाम्बरान्तरं
तपनमरीचिविकाशितं बभासे ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समरके लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिघ आदि आयुधोंसे व्याप्त होकर सूर्यकी किरणोंद्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाशके समान सुशोभित हो रहा था॥५२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०॥