०२७ दास्य-निवारण-चिन्ता

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

रामणीयक द्वीपके मनोरम वनका वर्णन तथा गरुडका दास्यभावसे छूटनेके लिये सर्पोंसे उपाय पूछना

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रहृष्टास्ततो नागा जलधाराप्लुतास्तदा ।
सुपर्णेनोह्यमानास्ते जग्मुस्तं द्वीपमाशु वै ॥ १ ॥

मूलम्

सम्प्रहृष्टास्ततो नागा जलधाराप्लुतास्तदा ।
सुपर्णेनोह्यमानास्ते जग्मुस्तं द्वीपमाशु वै ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— गरुडपर सवार होकर यात्रा करनेवाले वे नाग उस समय जलधारासे नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही रामणीयक द्वीपमें जा पहुँचे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं द्वीपं मकरावासं विहितं विश्वकर्मणा।
तत्र ते लवणं घोरं ददृशुः पूर्वमागताः ॥ २ ॥

मूलम्

तं द्वीपं मकरावासं विहितं विश्वकर्मणा।
तत्र ते लवणं घोरं ददृशुः पूर्वमागताः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वकर्माजीके बनाये हुए उस द्वीपमें, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बार नाग आये थे तो उन्हें वहाँ भयंकर लवणासुरका दर्शन हुआ था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपर्णसहिताः सर्पाः काननं च मनोरमम्।
सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसङ्घनिनादितम् ॥ ३ ॥

मूलम्

सुपर्णसहिताः सर्पाः काननं च मनोरमम्।
सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसङ्घनिनादितम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्प गरुडके साथ उस द्वीपके मनोरम वनमें आये, जो चारों ओरसे समुद्रद्वारा घिरकर उसके जलसे अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी कलरव कर रहे थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम् ।
भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि ॥ ४ ॥

मूलम्

विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम् ।
भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्र फूलों और फलोंसे भरी हुई वनश्रेणियाँ उस दिव्य वनको घेरे हुए थीं। वह वन बहुत-से रमणीय भवनों और कमलयुक्त सरोवरोंसे आवृत था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसन्नसलिलैश्चापि ह्रदैर्दिव्यैर्विभूषितम् ।
दिव्यगन्धवहैः पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम् ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रसन्नसलिलैश्चापि ह्रदैर्दिव्यैर्विभूषितम् ।
दिव्यगन्धवहैः पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वच्छ जलवाले कितने ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्धका भार वहन करनेवाली पावन वायु मानो वहाँ चँवर डुला रही थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पतद्भिरिवाकाशं वृक्षैर्मलयजैरपि ।
शोभितं पुष्पवर्षाणि मुञ्चद्भिर्मारुतोद्धतैः ॥ ६ ॥

मूलम्

उत्पतद्भिरिवाकाशं वृक्षैर्मलयजैरपि ।
शोभितं पुष्पवर्षाणि मुञ्चद्भिर्मारुतोद्धतैः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों। वे वायुके वेगसे विकम्पित हो फूलोंकी वर्षा करते हुए उस प्रदेशकी शोभा बढ़ा रहे थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथान्यैरपि पादपैः ।
किरद्भिरिव तत्रस्थान् नागान् पुष्पाम्बुवृष्टिभिः ॥ ७ ॥

मूलम्

वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथान्यैरपि पादपैः ।
किरद्भिरिव तत्रस्थान् नागान् पुष्पाम्बुवृष्टिभिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हवाके झोंकेसे दूसरे-दूसरे वृक्षोंके भी फूल झड़ रहे थे, मानो वहाँके वृक्षसमूह वहाँ उपस्थित हुए नागोंपर फूलोंकी वर्षा करते हुए उनके लिये अर्घ्य दे रहे हों॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनःसंहर्षजं दिव्यं गन्धर्वाप्ससां प्रियम्।
मत्तभ्रमरसंघुष्टं मनोज्ञाकृतिदर्शनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

मनःसंहर्षजं दिव्यं गन्धर्वाप्ससां प्रियम्।
मत्तभ्रमरसंघुष्टं मनोज्ञाकृतिदर्शनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दिव्य वन हृदयके हर्षको बढ़ानेवाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंद करती थीं। मतवाले भ्रमर वहाँ सब ओर गूँज रहे थे। अपनी मनोहर छटाके द्वारा वह अत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमणीयं शिवं पुण्यं सर्वैर्जनमनोहरैः।
नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रूपुत्रप्रहर्षणम् ॥ ९ ॥

मूलम्

रमणीयं शिवं पुण्यं सर्वैर्जनमनोहरैः।
नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रूपुत्रप्रहर्षणम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वन रमणीय, मंगलकारी और पवित्र होनेके साथ ही लोगोंके मनको मोहनेवाले सभी उत्तम गुणोंसे युक्त था। भाँति भाँतिके पक्षियोंके कलरवोंसे व्याप्त एवं परम सुन्दर होनेके कारण वह कद्रूके पुत्रोंका आनन्द बढ़ा रहा था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् ते वनं समासाद्य विजह्रुः पन्नगास्तदा।
अब्रुवंश्च महावीर्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ॥ १० ॥

मूलम्

तत् ते वनं समासाद्य विजह्रुः पन्नगास्तदा।
अब्रुवंश्च महावीर्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वनमें पहुँचकर वे सर्प उस समय सब ओर विहार करने लगे और महापराक्रमी पक्षिराज गरुडसे इस प्रकार बोले—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विमलोदकम्।
त्वं हि देशान् बहून् रम्यान् व्रजन् पश्यसि खेचर॥११॥

मूलम्

वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विमलोदकम्।
त्वं हि देशान् बहून् रम्यान् व्रजन् पश्यसि खेचर॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘खेचर! तुम आकाशमें उड़ते समय बहुत-से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमें निर्मल जलवाले किसी दूसरे रमणीय द्वीपमें ले चलो’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विचिन्त्याब्रवीत् पक्षी मातरं विनतां तदा।
किं कारणं मया मातः कर्तव्यं सर्पभाषितम् ॥ १२ ॥

मूलम्

स विचिन्त्याब्रवीत् पक्षी मातरं विनतां तदा।
किं कारणं मया मातः कर्तव्यं सर्पभाषितम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुडने कुछ सोचकर अपनी माता विनतासे पूछा—‘माँ! क्या कारण है कि मुझे सर्पोंकी आज्ञाका पालन करना पड़ता है?’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

विनतोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासीभूतास्मि दुर्योगात् सपत्न्याः पतगोत्तम।
पणं वितथमास्थाय सर्पैरुपधिना कृतम् ॥ १३ ॥

मूलम्

दासीभूतास्मि दुर्योगात् सपत्न्याः पतगोत्तम।
पणं वितथमास्थाय सर्पैरुपधिना कृतम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विनता बोली— बेटा पक्षिराज! मैं दुर्भाग्यवश सौतकी दासी हूँ, इन सर्पोंने छल करके मेरी जीती हुई बाजीको पलट दिया था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेचरः।
उवाच वचनं सर्पांस्तेन दुःखेन दुःखितः ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेचरः।
उवाच वचनं सर्पांस्तेन दुःखेन दुःखितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताके यह कारण बतानेपर आकाशचारी गरुडने उस दुःखसे दुःखी होकर सर्पोंसे कहा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमाहृत्य विदित्वा वा किं वा कृत्वेह पौरुषम्।
दास्याद् वो विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहाः ॥ १५ ॥

मूलम्

किमाहृत्य विदित्वा वा किं वा कृत्वेह पौरुषम्।
दास्याद् वो विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जीभ लपलपानेवाले सर्पो! तुमलोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ? किस विद्याका लाभ करा दूँ अथवा यहाँ कौन-सा पुरुषार्थ करके दिखा दूँ; जिससे मुझे तथा मेरी माताको तुम्हारी दासतासे छुटकारा मिल जाय’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तमब्रुवन् सर्पा आहरामृतमोजसा।
ततो दास्याद् विप्रमोक्षो भविता तव खेचर ॥ १६ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तमब्रुवन् सर्पा आहरामृतमोजसा।
ततो दास्याद् विप्रमोक्षो भविता तव खेचर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— गरुडकी बात सुनकर सर्पोंने कहा—‘गरुड! तुम पराक्रम करके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभावसे छुटकारा मिल जायगा’॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७॥