०२१ समुद्रगमनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

समुद्रका विस्तारसे वर्णन

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रवौ।
कद्रूश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ॥ १ ॥
अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा।
जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥ २ ॥

मूलम्

ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रवौ।
कद्रूश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ॥ १ ॥
अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा।
जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— तपोधन! तदनन्तर जब रात बीती, प्रातःकाल हुआ और भगवान् सूर्यका उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहनें बड़े जोश और रोषके साथ दासी होनेकी बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्वको निकटसे देखनेके लिये गयीं॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददृशातेऽथ ते तत्र समुद्रं निधिमम्भसाम्।
महान्तमुदकागाधं क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ददृशातेऽथ ते तत्र समुद्रं निधिमम्भसाम्।
महान्तमुदकागाधं क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ दूर जानेपर उन्होंने मार्गमें जलनिधि समुद्रको देखा, जो महान् होनेके साथ ही अगाध जलसे भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े जोरकी गर्जना हो रही थी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिमिङ्गिलझषाकीर्णं मकरैरावृतं तथा ।
सत्त्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तिमिङ्गिलझषाकीर्णं मकरैरावृतं तथा ।
सत्त्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्योंको भी निगल जानेवाले तिमिंगिलों, मत्स्यों तथा मगर आदिसे व्याप्त था। नाना प्रकारकी आकृतिवाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीषणैर्विकृतैरन्यैर्घोरैर्जलचरैस्तथा ।
उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् ॥ ५ ॥

मूलम्

भीषणैर्विकृतैरन्यैर्घोरैर्जलचरैस्तथा ।
उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विकट आकारवाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओंके कारण वह महासागर सदा सबके लिये दुर्धर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राह निवास करते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च।
नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् ॥ ६ ॥

मूलम्

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च।
नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरिताओंका स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नोंकी खान, वरुणदेवका निवासस्थान और नागोंका रमणीय उत्तम गृह है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम् ।
भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् ॥ ७ ॥

मूलम्

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम् ।
भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पातालकी अग्नि—बड़वानलका निवास भी उसीमें है। असुरोंको तो वह जलनिधि समुद्र भाई-बन्धुकी भाँति शरण देनेवाला है तथा दूसरे थलचर जीवोंके लिये अत्यन्त भयदायक है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम् ।
अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् ॥ ८ ॥

मूलम्

शुभं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम् ।
अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमरोंके अमृतकी खान होनेसे वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोई माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जलसे परिपूर्ण तथा अद्भुत है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिःस्वनम् ।
गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् ॥ ९ ॥

मूलम्

घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिःस्वनम् ।
गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह घोर समुद्र जल-जन्तुओंके शब्दोंसे और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियोंके लिये भय-सा उत्पन्न करता था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम् ।
वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः ॥ १० ॥

मूलम्

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम् ।
वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तटपर तीव्रवेगसे बहनेवाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागरको चंचल किये देती थी। वह क्षोभ और उद्वेगसे बहुत ऊँचेतक लहरें उठाता था और सब ओर चंचल तरंगरूपी हाथोंको हिला-हिलाकर नृत्य-सा कर रहा था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्‌वृत्तोर्मिसमाकुलम् ।
पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् ॥ ११ ॥

मूलम्

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्‌वृत्तोर्मिसमाकुलम् ।
पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षयके कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थीं (उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल-तरंगोंसे व्याप्त जान पड़ता था। उसीने पांचजन्य शंखको जन्म दिया था। वह रत्नोंका आकर और परम उत्तम था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा।
वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् ॥ १२ ॥

मूलम्

गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा।
वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमिततेजस्वी भगवान् गोविन्दने वराहरूपसे पृथ्वीको उपलब्ध करते समय उस समुद्रको भीतरसे मथ डाला था और उस मथित जलसे वह समस्त महासागर मलिन-सा जान पड़ता था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा।
अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् ॥ १३ ॥

मूलम्

ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा।
अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रिने समुद्रके भीतरी तलका अन्वेषण करते हुए सौ वर्षोंतक चेष्टा करके भी उसका पता नहीं पाया। वह पातालके नीचेतक व्याप्त है और पातालके नष्ट होनेपर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः।
युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः ॥ १४ ॥

मूलम्

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः।
युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आध्यात्मिक योगनिद्राका सेवन करनेवाले अमित-तेजस्वी कमलनाभ भगवान् विष्णुके लिये वह (युगान्तकालसे लेकर) युगादिकालतक शयनागार बना रहता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम् ।
डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम् ।
डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसीने वज्रपातसे डरे हुए मैनाक पर्वतको अभयदान दिया है तथा जहाँ भयके मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्धसे पीड़ित हुए असुरोंका वह सबसे बड़ा आश्रय है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम् ।
अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् ॥ १६ ॥

मूलम्

वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम् ।
अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़वानलके प्रज्वलित मुखमें वह सदा अपने जलरूपी हविष्यकी आहुति देता रहता है और जगत्‌के लिये कल्याणकारी है। इस प्रकार वह सरिताओंका स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः ।
अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् ।
आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यमानमिवोर्मिभिः ॥ १७ ॥

मूलम्

महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः ।
अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् ।
आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यमानमिवोर्मिभिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपसमें होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागरमें निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जलसे उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरोंकी भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं
गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः ।
विस्तीर्णं ददृशतुरम्बरप्रकाशं
तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् ॥ १८ ॥

मूलम्

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं
गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः ।
विस्तीर्णं ददृशतुरम्बरप्रकाशं
तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार गम्भीर, तिमि और मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओंसे व्याप्त, जलचर जीवोंके शब्दरूप भयंकर नादसे निरन्तर गर्जना करनेवाले, अत्यन्त विस्तृत, आकाशके समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान् जलनिधि समुद्रको कद्रू और विनताने देखा॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥